जिस गृहस्थमें सत्य, धर्म, धृति और त्याग नामक चार धर्म होते हैं, वही मरकर इस लोकसे परलोकको प्राप्त होकर सोच नहीं करता।
विपत्ति तुम्हारे विश्वासकी कसौटी है, इसमें न घबराओगे तो तुम्हें भगवान्की कृपा प्राप्त होगी।
हे जीव यदि तू भगवान्के इच्छानुसार चलना चाहता है तो उसकी शरणके सिवा और कोई उपाय नहीं है। जो मनुष्य अपने इच्छानुसार अपनेको चलाना चाहता है, वह स्वयं अपनेको धोखा देता है।
हमारे तापको हरनेवाला और कौन है? हम अपना सवाल किससे लगावें ? कौन हमारी पीठपर प्यारसे हाथ फेरेगा।
जो सबसे छोटा और सबका सेवक होनेका प्रयत्न नहीं करता, वह बहुत कालतक शान्तिपूर्वक नहीं रह सकता।
कायेन, वाचा, मनसा अपने पास जो द्रव्य हो उसके द्वारा वैरी भी आर्त होकर आवे तो उसे विमुख न जाने देना; वृक्ष जैसे फूल, फल, छाया, मूल, पत्र सब कुछ जो कोई पथिक आ जाय उसके सामने हाजिर करनेमें नहीं चूकता, वैसे ही प्रसंगानुसार श्रान्त पथिक कोई आ जाय तो अपने धन धान्यादिके द्वारा उसके काम आना। इसका नाम है दान।
चार अवस्थाओंमें आदमी बिगड़ता है। इसलिये इनमें सावधान रहना चाहिये - जवानी, धन, अधिकार और अविवेक।
जिसका मनरूप चुंबकयन्त्र भगवान्के चरण-कमलोंकी ओर रहता है, उसके डूब जाने या राह भूलनेका डर नहीं।
जिस मनुष्यको अधिकार और मालिकी प्यारी होती है, वह भगवान्को नहीं पा सकता।
काजलकी कोठरीमें कितना भी बचकर रहो, कुछ-न कुछ कसौंस लगेगी ही। इसी प्रकार युवक-युवती परस्पर बहुत सावधानी के साथ तो भी कुछ-न-कुछ काम जागेगा ही।
भगवन्! मुझसे आप कुछ बोलते नहीं। क्यों इतना दुःखी कर रहे हैं। प्राण कण्ठमें आ गये हैं। मैं आपके वचनकी। बाट जोह रहा हूँ। मैं भगवान्का कहाता हूँ और भगवान्से ही भेंट नहीं। इसकी मुझे बड़ी लज्जा आती है।
मनको सदैव शान्त रखो चाहे तुम्हारे चारों ओर कितने ही विषाद हों और कितने ही क्लेशके कारण मौजूद हों।
नित्य जागकर इस मनको सँभालना पड़ता है। मदोन्मत्त हाथी जैसे अंकुशके बिना नहीं सँभलता, वैसे ही यह चंचल मन अखण्ड सावधान रहे बिना ठिकाने नहीं रहता।
सत्य और दयायुक्त धर्म तथा तपोयुक्त विद्या भी भगवान्की भक्तिसे रहित मनुष्यके मनको सम्पूर्णरूपसे पवित्र नहीं कर सकते।
भगवान् भक्तके उपकार मानते हैं, भक्तके ऋणी हो जाते हैं।
सूर्यके उदय और अस्तके साथ मनुष्योंकी जिन्दगी रोज घटती जाती है। समय भागा जाता है, पर कारोबारमें मशगूल रहनेके कारण वह भागता हुआ नहीं दीखता। लोगोंको पैदा होते, विपत्तिग्रस्त होते और मरते देखकर भी मनमें भय नहीं होता। इससे मालूम होता है कि मोहमयी प्रमादरूप मदिरा (शराब) के नशेमें संसार मतवाला हो रहा है।
गंगा सागरसे मिलने जाती है; परंतु जाती हुई जगत्का पाप-ताप निवारण करती है। उसी प्रकार आत्मस्वरूपको प्राप्त जो संत हैं वे अपने सहज कर्मोंसे संसारमें बँधे बन्दियोंको छुड़ाते हैं।
संसारमें ईश्वर ही केवल सत्य है और सभी असत्य है।
संसार दुःखका सागर है और श्रीराम सुखके सागर; अतः संसारके निकम्मे कामोंको छोड़कर सुखसागरकी और जाना चाहिये।
सच्चा गुरु वही है जो भगवान्की प्राप्ति करवा दे। शिष्यको चाहिये कि वह गुरुकी आज्ञाका पालन करे, केवल गुरु कहनेमात्रसे काम नहीं चलता।
श्रीकृष्ण-कृष्ण रटिये और वृन्दावनमें बसिये, इसीमें परम कल्याण है।
संसारी ! तुम संसारका सब काम करो; किन्तु मन हर घड़ी संसारसे विमुख रखो।
जो मनुष्य स्वर्गादि सुखोंके लिये ईश्वरकी पूजा करता है, वह तो अपनी ही पूजा करता है और जो ईश्वरके लिये ईश्वरकी सेवा करता है, वह भी ईश्वरको नहीं जानता; क्योंकि ईश्वरको न तो तुम्हारे द्वारा सेवा करानेकी जरूरत है, न चाह ही है। जो ईश्वरको प्रेमके लिये पूजता है, जिससे पूजे बिना रहा नहीं जाता, वही यथार्थ पूजता है।
वास्तविक आनन्द उसीको मिलता है जिसका अन्तःकरण शुद्ध और पवित्र है।
श्रीरामके शरणागत हो जाओ, यही भवसागरकी नौका है, संसारसे तरनेका और कोई उपाय नहीं है।
जप करो, तप करो, अनुष्ठान करो, यज्ञ- योग करो, संतोंने जो-जो मार्ग चलाये हैं, उन सबको चलाओ।
किसी दूसरेका काम करना स्वीकार कर लो तो उसे वैसे ही उत्साह और लगनसे करो जैसे अपना करते हो।
जिस संगसे भगवत्प्रेम उदय होता है वही संग संग है, बाकी तो नरकनिवास है।
एकमात्र श्रीवासुदेवके सिवा इस जगत्में स्थावर जंगम कोई भी पदार्थ नित्य नहीं है। वही वासुदेव सभी प्राणियोंके अन्तरात्मा हैं।
सारी रात बिना नींदके प्रभुका स्मरण करनेवाला और दूसरे यात्रियोंके उठनेके पहले ही मंजिल तय कर लेनेवाला मनुष्य ही सच्चा प्रभु-भक्त और सत्पुरुष है।
अपनेको पापी कहूँ तो आपके चरणोंका स्मरण करता हूँ। मेरा पाप क्या आपके चरणोंसे भी अधिक बलवान् है।
भक्तिमार्गपर चलनेवालेके सहायक स्वयं श्रीभगवान् होते हैं।
प्रेममें जो तड़पन, व्यथा, विकलता और रुदन आदि होते हैं, वे सभी रति-प्रगाढ़ प्रीतिके अनुभाव हैं। प्रेमके आँसू वरदान हैं और शोकके आँसू अभिशाप।
पापकी मैं गठरी हूँ। दण्ड दो मुझे हे नारायण ! और मेरा मान-अभिमान उतारो। प्रभो! मैं न तेरा हुआ न संसारका । दोनोंसे गया। केवल चोर बना रहा।
यदि मैं दुनियाकी सारी चीजोंको समझ लूँ; परंतु दान तथा दयाके भाव, जो मनुष्यको परमात्माकी दृष्टिमें ऊँचा बनाते हैं, न रखूँ तो मेरा सारा ज्ञान धूलके समान है।
साधनकी राहमें कई बार गिरना-उठना होता है, परंतु प्रयत्न करनेपर फिर साधन ठीक हो जाता है।
किसीको दुःख न देना तथा कोई तुम्हारे विरुद्ध बर्ताव करे, तब भी उसका बदला लेनेकी इच्छा न करके इस बातको गुप्त रखना यही सहनशीलता है।
पापका फल जो करनेवालेको होता है, वही प्राय: उनको प्रकट करनेवालेको होता है, इसलिये दूसरेके पापको प्रकट न करो।
हरिका सुयश सुनकर जिन नेत्रोंमें प्रेमके आँसू छलक न आवें उनमें तो मुट्ठीभर धूल डाल देनी चाहिये।
संसारके लोग मेरी जितनी चाहे निन्दा करें, मैं इसका कुछ विचार नहीं करता। जिसके मुख है जो इच्छा हो सो कहे। मैं तो हरिरसमें मतवाला होकर कभी धरती पर लोटता हूँ, कभी नाचता हूँ और कभी सो जाता हूँ।
व्यर्थकी चेष्टाओंमें न उलझो, परंतु ऐसी चीजें पढ़ो जो तुम्हारे मस्तिष्कको उत्तेजित करनेकी अपेक्षा तुम्हारे अन्तस्में आत्मक्षोभकी सृष्टि करें।
हीरेसे हीरा काटा जाता है। वैसे ही मनसे मन पकड़ा जाता है; पर यह भी तब होता है जब पूर्ण श्रीहरिकृपा होती है।
पापी मनुष्य तभीतक सुख भोगता है, जबतक कि उसका पाप पक नहीं जाता। पापके परिपक्व होते ही उसको दुःखोंका शिकार बनना पड़ता है।
मनसे ही मनको मारना, हरिभजनमें लगाकर उन्मन करना, हरिस्वरूपमें मिलाकर मनको मनकी तरह रहने ही न देना यही तो मनोजय है।
पानी ऊपर नहीं ठहरता, वह नीचे ही रहता है, जो नीचा (नम्र) होता है वही भरपेट पानी पी सकता है, ऊँचा तो प्यासा ही मरता है।
जैसा भूखा अन्नके लिये और प्यासा जलके लिये जलता रहता है, उससे भी अधिक ताप तुम्हारे हृदयमें भगवान्के लिये होना चाहिये।
तपसे सब प्रकारके संताप नष्ट होते हैं, तपसे सभी दुःख, भय, शोक और मनका क्षोभ आदि विकार दूर होते हैं, तपस्वी भक्त ही यथार्थमें भगवन्नामका अधिकारी है।
वह कुल परम पावन है, वह जननी धन्य है और वह वसुन्धरा भाग्यशालिनी है जहाँपर भगवद्भक्त महापुरुष उत्पन्न हुआ हो।
सुख देखिये तो राई-बराबर है और दुःख पर्वतके बराबर।
स्त्रीके वशमें होना सर्वनाशका बीज बोना है।
तो भी प्रलोभनके आरम्भमें हमें अधिक सावधान रहना चाहिये, क्योंकि यदि शत्रुको हम अपने हृदयके मन्दिरमें न आने दें, किन्तु इसके पूर्व प्रवेशद्वारपर ही उसे रोक दें तब हम उसे बहुत सहजहीमें जीत सकते हैं।
कीर्तनसे संसारका दुःख दूर होता है। कीर्तन संसारके चारों ओर आनन्दकी प्राचीर खड़ी कर देता है और सारा संसार महासुखसे भर जाता है। कीर्तनसे विश्व धवलित होता और वैकुण्ठ पृथ्वीपर आता है।
कृपालु संत भोजके वृक्षके समान दूसरोंके हितके लिये भारी विपत्ति सहते हैं, किन्तु दुष्टलोग सनकी भाँति दूसरोंको बाँधते हैं और उन्हें बाँधनेके लिये अपनी खालतक खिंचवाकर विपत्ति सहकर मर जाते हैं। दुष्ट बिना किसी स्वार्थके भी साँप और चूहेके समान अकारण ही दूसरोंका अपकार करते हैं।
मनुष्यके जीवनमें जितने दिन बाकी हैं, यदि वह उनका ही सदुपयोग करे तो भगवान् उसकी पहलेकी सारी भूलों और पापोंको धोकर उसे क्षमा कर देंगे और अपना लेंगे।
जिसने कभी दुःख नहीं उठाया, वह सबसे बड़ा दुःखिया है और जिसने कभी पीर नहीं सही, उसपर दैव बेपीर ही है।
भगवन्नामके सम्मुख भारी-से-भारी पाप ठहर नहीं सकते। भगवन्नाममें पापोंको क्षय करनेकी इतनी भारी शक्ति है कि चाहे कोई कितना भी घोर पापी-से-पापी क्यों न हो, उतने पाप वह कर ही नहीं सकता जितने पापोंको मेटनेकी शक्ति हरिनाममें है।
भगवान् अपने भक्तको कभी अज्ञानी नहीं रहने देते।
कमलपर भौंरे जो पैर रखते हैं, बड़े हलके रहते हैं; इस भयसे कि कहीं केसर कुचल न जाय । उसी प्रकार सर्वत्र परमाणुवत् जीव भरे हुए हैं, यह जानकर संत-महात्मा दयावृत्तिसे धरतीपर बहुत ही हल्के पैर रखता है। वह समस्त प्राणियोंके नीचे अपना जी बिछाता है।
बाहरी एकान्त वास्तविक एकान्त नहीं। मनमें चिन्ता और शोकका प्रवेश न हो वही सच्चा एकान्त है। ऐसा एकान्तवास करनेवाला ही सच्चा संगरहित है।
पंचतत्त्वोंकी देह बनी और फिर कर्मोंके गुणोंसे बँधकर जन्म-मृत्युका चक्कर काट रही है। कालानलके कुण्डमें यह मक्खनकी आहुति है। मक्खीका पंख हिलते-न-हिलते इसका काम तमाम हो जाता है। इस देहकी तो यह दशा है।