अनमोल वचन - सत्संग के मोती (Pearls of wisdom) [सत्संग Quotes]



भगवान्‌की भक्ति सर्वोपरि है भगवान्‌की भक्तिसे जो काम हो सकता है, वह घोर-से-घोर तपस्याओंसे भी नहीं हो सकता।


जो मिल जाय उसीसे संतोष मानना और यह याद रखना- परायी आशासे भली निराशा।


अपने दिलको मार, अभिमानको मार, इसमें तेरी बड़ाई है। बड़े-बड़े खूँखार जानवरोंको मारनेमें वह वीरता नहीं है।


जिन्होंने काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर इन छः शत्रुओंको जीत लिया है, वे पुरुष ईश्वरकी ऐसी भक्ति करते हैं जिसके द्वारा भगवान्में परम प्रेम उत्पन्न हो जाता है।


क्यों? क्या कारण है कुछ संत इतने पूर्ण और चिन्तनशील थे? क्योंकि उन लोगोंने अपनी इच्छाओंके समूल नाश करनेका प्रयत्न किया, अतएव वे अपने हृदयको पूर्णतः परमात्मामें लगा सके और पवित्र विश्रामके लिए अवकाश पा सके।


ईश्वरकी उपासनामें मनुष्य ज्यों-ज्यों डूबता जाता है, त्यों-त्यों प्रभुदर्शनके लिये उसकी आतुरता बढ़ती जाती है। यदि एक पलके लिये भी उस प्रभुका साक्षात्कार हो जाता है तो वह उस स्थितिकी अधिकाधिक इच्छामें लीन हो जाता है।


मन तीन प्रकारके होते हैं- (1) पहाड़-जैसा अडिग जिसको कोई नहीं हिला सकता, (2) पेड़-जैसा जो बाहरके संयोगरूपी हिलोरोंसे हिला करता है और (3) तिनके जैसा जिसको बाह्य संयोगरूपी हवा कहीं-का-कहीं फेंक देती है।


दूसरेको सुखी देखकर प्रसन्न होना, दुःखी देखकर उसकी सहायता करना, पर दुःखी देखकर कभी प्रसन्न तो होना ही नहीं।


कोई भी मनुष्य कितना ही पूर्ण और पवित्र क्यों न हो उसे कभी-कभी प्रलोभन घेर ही लेते हैं; परन्तु उसे सदा सावधान होकर प्रलोभनसे बचना चाहिये।


भक्त ज्यों ही प्रभुका सर्वभावसे आश्रय लेता है, त्यों ही परमेश्वर उसकी रक्षा, योगक्षेमका सारा भार अपने हाथोंमें ले लेते हैं।


प्रेममें उन्मत्त हुआ भक्त कभी तो हँसता है, कभी रोता है, कभी गाता है और कभी संसारकी लोक-लाज छोड़कर दिगम्बरवेशमें ताण्डवनृत्य करने लगता है। उसका चलना विचित्र है वह विलक्षण भावसे हँसता है, उसकी हर चेष्टामें उन्माद है। उसकी भाषा संसारी भाषासे भिन्न है। यह संसारके विधिनिषेधोंका गुलाम नहीं।


वह वीर नहीं है जिसने शरीरको चकनाचूर कर डाला, बलिहारी है उस वीरकी जो मनको जीतकर खड़ा है।


जैसे अग्नि जाने या बिना जाने लकड़ीको जला देती है, वैसे ही जाने या बिना जाने लिया हुआ भगवान् हरिका नाम मनुष्यके पापको भस्म कर देता है।


दान, पश्चात्ताप, संतोष, संयम, दीनता, सत्य और दया - ये सात वैकुण्ठके दरवाजे हैं।


मनुष्यको परमात्मामें इतना अधिक बस जाना चाहिये कि वह मनुष्यकी सहानुभूतिकी कोई अपेक्षा ही न करे।


संसारासक्त लोगोंसे दूर रहो। सुख देनेवालेकी प्रशंसा या खुशामद मत करो और दुःख देनेवालेका भी तिरस्कार न करो।


जो मनुष्य यह चाहता है कि प्रभु सदा मेरे साथ रहें उसे सत्यका ही सेवन करना चाहिये। भगवान् कहते हैं कि मैं केवल सत्यप्रिय लोगोंके ही साथ रहता हूँ।


नाम - स्मरणसे ही हरिको प्राप्त करो। हरिके प्राप्त होनेपर भी नाम-स्मरण ही करो। बीज और फल दोनों एक हरिनाम ही हैं।


ईश्वरके अनन्त नाम हैं, अनन्त रूप हैं, अनन्त भाव हैं। उसे किसी नामसे किसी रूपसे और किसी भावसे कोई पुकारे वह सबकी पुकार सुन सकता है; वह सबकी मन:कामना पूरी कर सकता है।


मनुष्यको ऐसा कोई भी दोषयुक्त कार्य कभी छिपकर भी नहीं करना चाहिये, जिससे भगवान्‌की दृष्टिमें वह दोषी सिद्ध हो।


धनके ध्यानसे जो सुख मिलता है, वह क्षणस्थायी और झूठा है। इसलिये धन-ध्यान छोड़कर आशुतोष भगवान् शिवके चरणोंका ध्यान करना अच्छा, जिससे सभी मनोरथ पूरे होते हैं और अन्तमें जन्म-मरणके झगड़ेसे छुटकारा मिलकर परम पद-मोक्ष मिल जाता है।


चेहरेपर झुरियां पड़ गयीं, सिरके बाल पककर सफेद हो गये, सारे अंग ढीले हो चले पर तृष्णा तो तरुण होती जाती है।


‘उस'के अस्तित्वका ज्ञान होते ही मैंने अपने अस्तित्वकी ओर देखा, तो वहाँ भी मुझे उसीका अस्तित्व दिखायी दिया।


दानादि सत्कर्मोंको करते समय होनेवाली अपनी प्रशंसाकी ओर कान भी न दो। वह प्रशंसा तुम्हारी नहीं; उस ईश्वरकी महिमा है।


बालककी नाईं रोना ही साधकका एकमात्र बल है।


जबतक मनुष्य लौकिक जीवनमें रहता है, तबतक वह अलौकिक सुख-सम्पत्तिका मजा नहीं पा सकता।


मान-बड़ाई अथवा प्रतिष्ठाकी इच्छा करना मृत्युकी इच्छा करनेके समान है। अच्छे-अच्छे पुरुष भी इसमें फँसकर साधनसे च्युत हो जाते हैं। प्राण चाहे छूट जायँ, परंतु प्राणप्रियतम परम प्रेमास्पद प्रभुकी स्मृति एक क्षणके लिये भी हृदयसे न हटे।


जिसके मनमें ईश्वरका प्रेम उत्पन्न हो गया, उसे संसारका कोई सुख अच्छा नहीं लगता।


भगवान् भावुकोंके हाथपर दिखायी देते हैं, पर जो अपनेको बुद्धिमान् मानते हैं, वह मर जाते हैं तो भी भगवान्‌का पता नहीं पाते।


जगत्की तमाम चीजोंके रचनेवाले भगवान्‌को प्राप्त करना किसी भी चीजको प्राप्त करनेकी अपेक्षा सहज है तो भी तुम उससे दुनियावी चीज ही चाहते हो, यह कैसी बात है।


दूसरे किसीमें भी ममता न रहकर एक भगवान्‌में जो अनन्य ममता होती है, उसीको प्रेम कहते हैं। इसी प्रेमको भीष्म, प्रह्लाद, उद्धव और नारद आदिने भक्ति बतलाया है।


जिसका मन वशमें है, वही जगद्गुरु है। जैसे कच्ची छतमें जल भरता है, वैसे ही अज्ञानीके मनमें कामनाएँ जमा होती हैं।


अपने प्यारेके श्रवण, मनन, कीर्तन आदिमें जो बाधाएँ हैं, उन्हें दूर करना सच्चे प्रभु-प्रेमका चिह्न है।


ईश्वरका स्मरण मेरी जिंदगीकी खुराक, उसकी प्रशंसा मेरी जिंदगीका पेय और उसकी लज्जा मेरी जिंदगीके कपड़े हैं।


न जीनेकी इच्छा रखो न मरनेकी, वरं हर बात के लिये ऐसे तैयार रहो जैसे नौकर मालिकके हुक्मके लिये।


मायाको पहचान लेनेपर वह तुरंत भाग जाती है।


माया-मोहको छोड़कर श्रीरामका भजन करना चाहिये। (ऐसे भजनरूपी) पारसका स्पर्श किये बिना (मनुष्य-शरीररूपी) लोहा दिन-दिन छीज रहा है।


दुःख पानेपर भी सामनेवालेको कड़वे वचन नहीं कहने चाहिये। ऐसे किसी काममें बुद्धि नहीं लगानी चाहिये जिससे दूसरेका द्रोह होता हो, ऐसी वाणी नहीं बोलनी चाहिये जिससे लोगोंको उद्वेग हो।


सच्चा साधक कांचन-कामिनीके कारण धर्मसे च्युत नहीं होता, परुष वचन सुनकर क्रोध नहीं करता, अपमानसे अस्वस्थ नहीं होता, लोभसे सत्यका त्याग नहीं करता, दुःखम उसका धैर्य और उद्यम कम नहीं होता। वह सदा साधनपरायण, सदा स्वस्थ और सदा भगवान्में चित्त लगाये रहता है।


अच्छे कर्मोंमें लगे रहो। कोरे मनके लड्डुओंमें लीन मत रहो।


यदि तुम सरलताको वाहन और सत्यको शस्त्र बनाकर चलो तो निश्चय समझना कि भगवान् भी तुम्हारी इच्छा करेंगे।


कलियुगमें नाम-स्मरण और हरि-कीर्तनसे जीवमात्रका उद्धार होता है।


ज्ञानरूप अग्निके द्वारा सब कर्मोंका नाश हो जानेके कारण मनुष्य बिना किसी प्रतिबन्धके मुक्त हो जाता है।


यह सोचो कि तुम्हारी विसात ही क्या है, भगवान्‌की दयाके बिना अपने पुरुषार्थसे तुम क्या कर सकते हो ? जो कुछ होता है, उन्हींकी शक्तिसे। तुम तो बिलकुल नाचीज हो। बार-बार ऐसा विचार करनेसे अभिमान चला जाता है।


बच्चे अनेक प्रकारकी बोलियोंसे माताको पुकारते हैं, पर उन बोलियोंका याथातथ्य ज्ञान माताको ही होता है।


मनुष्य मनुष्यकी आँखोंमें धूल झोंक सकता है, पर परमात्माकी आँखमें धूल नहीं झोंकी जा सकती।


जैसे सत्पुरुष बड़े-बूढ़ोंका अभिवादन करके सुखी होते हैं, वैसे ही मूर्खलोग सत्पुरुषोंकी निन्दा करके प्रसन्न होते हैं।


मनुष्य ! तेरी जिंदगी ढाई मिनटकी है। इस ढाई मिनटकी जिंदगीको बर्बाद न कर। इसे खतम होते देर न लगेगी। इसलिये यदि तू सबका आसरा छोड़, जगदीशकी ही चाकरी करेगा तो तेरा निश्चय ही भला होगा।


संसारमें रहनेसे सुख-दुःख रहेगा ही ईश्वरकी बात अलग है और उसके चरण-कमलमें मन लगाना और है। दुःखके हाथसे छुटकारा पानेका और कोई उपाय है नहीं।


ईश्वरकी कृपाके बिना मनुष्यके प्रयत्नसे कुछ भी नहीं मिल सकता।


जगत्की प्रभुता कैसी है, जैसे सपनेमें मिला हुआ पराया खजाना। जागनेपर जैसे उस खजानेका कुछ भी नहीं रहता, वैसे ही जगत्की प्रभुता भी वास्तवमें कुछ भी नहीं है।


सदा प्रभुसे डरकर चलना और भूलकर भी किसीका अहित न चाहना, न करना।


मनुष्य जब किसी उत्तम कार्यमें लग जाता है, तब उसके नीची श्रेणीके कार्य दूसरे लोग आप ही सँभाल लेते हैं। इसी प्रकार ज्यों-ज्यों अपने ध्येयकी ओर आगे बढ़ता है, त्यों ही-त्यों उसके सांसारिक और शरीरिक कार्य कुदरतके नियमसे उलटे अच्छी तरह होने लगते हैं।


भगवान् विष्णुका आश्रय ही संसारासक्त मनवाले लोगोंके लिये संसारचक्रका नाश करनेवाला है। इसीको बुद्धिमान् लोग ब्रह्मनिर्वाण सुख कहते हैं, अतएव तुमलोग अपने-अपने हृदयमें स्थित भगवान्का भजन करो।


जो सब भूतोंमें आत्माको देखता है और आत्मामें सब भूतोंको, वह किसीसे घृणा नहीं करता। जब मनुष्य यह जानता है, कि समस्त भूत आत्मा ही हैं और सबमें एकत्व देखता है फिर मोह और शोक कहाँ है।


सच्चे संतका धर्म बाहरी आचार और पण्डिताई दिखाने में नहीं है। उनका धर्म है पवित्र चरित्र होकर ईश्वरका अनुसरण करना, जो बाहरी दिखावे और ज्ञानकी बातें रट लेनेसे नहीं मिल जाता।


जो त्यागी होकर अपनी जिह्वाको वशमें नहीं कर सकता, घर छोड़नेपर भी जिसे भिक्षाका संकोच है, वह तो इन्द्रियोंका गुलाम है। परमार्थका पथ उससे बहुत दूर है।


भगवन् ! मैं तो आपका बच्चा हूँ न ? बच्चेसे क्या जोर आजमाना ? देखो, दीनानाथ! अपने विरदकी लाज रखो।


जिस किसीने साधु पुरुषोंका सहवास किया है, वही ईश्वरको पा सका है।


इस संसारमें प्राणियोंके जन्मकी इतनी ही सफलता है कि वे अपने प्राण धन, बुद्धि और वाणीके द्वारा निरन्तर ईश्वरबुद्धिसे दूसरोंका कल्याण करते रहें।