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चारुचर्या की बोधवचनावली  [आध्यात्मिक कथा]
शिक्षदायक कहानी - आध्यात्मिक कथा (Moral Story)

'चारुचर्या' की बोधवचनावली

महाकवि क्षेमेन्द्रविरचित 'चारुचर्या' सदाचार, शिष्टाचार तथा चरित्र-निर्माणका बोध प्रदान करनेवाला एक लघु ग्रन्थ है। आयाममें लघु होनेपर भी यहाँका बोध बड़ा ही मार्मिक तथा जीवनमें काम लेनेयोग्य है। जैसा कि इस ग्रन्थके नामसे ही स्पष्ट है कि जीवनचर्या कैसे सुन्दर बने, कैसे उत्तम चरित्रका निर्माण हो, इस सम्बन्धमें आचार्य क्षेमेन्द्रने एक सौ श्लोकोंमें सुन्दर शिक्षा प्रदान की है, श्लोकके पूर्वार्धमें शिक्षा किंवा उपदेश है और उत्तरार्धमें पुराणादिके कथानकोंका दृष्टान्त दिया है, यहाँ उनमेंसे कुछ बोधपरक वचनोंको दिया जा रहा है-
ब्राह्मे मुहूर्ते पुरुषस्त्यजेन्निद्रामतन्द्रितः ।
प्रातः प्रबुद्धं कमलमाश्रयेच्छ्रीर्गुणाश्रया ॥
मनुष्यको ब्राह्ममुहूर्त अर्थात् उषाकालमें आलस्य छोड़कर उठ जाना चाहिये। गुणोंका आश्रय लेनेवाली श्री वैसे ही उठे हुए व्यक्तिमें अवस्थित हो जाती है, जैसे लक्ष्मी प्रातःकाल खिले हुए कमलपर जा विराजती है।
श्राद्धं श्रद्धान्वितं कुर्याच्छास्त्रोक्तेनैव वर्त्मना। भुवि पिण्डं ददौ विद्वान् भीष्मः पाणौ न शन्तनोः ॥
श्रद्धापूर्वक शास्त्रोंमें निर्दिष्ट विधिके अनुसार ही श्राद्ध करना चाहिये। शास्त्रमें श्रद्धा करनेके कारण ही विद्वान् भीष्मने अपने पिता शन्तनुके हाथोंमें पिण्ड न देकर शास्त्रोक्त पद्धतिके अनुरूप कुशोंसे समन्वित भूमिपर ही पिण्डको रख दिया।
नोत्तरस्यां प्रतीच्यां वा कुर्वीत शयने शिरः ।
शय्याविपर्ययाद् गर्भो दितेः शक्रेण पातितः ॥
उत्तर और पश्चिमकी ओर सिरहाना करके नहीं सोना चाहिये। शय्याके उलट-फेरके कारण अर्थात् पैरोंकी ओर सिर रखकर सोनेके कारण ही दितिके गर्भका इन्द्रने विनाश कर दिया था।
अर्थिभुक्तावशिष्टं यत् तदश्नीयान्महाशयः ।
श्वेतोऽर्थिरहितं भुक्त्वा निजमांसाशनोऽभवत् ॥
भोजनादिकी अभिलाषा करनेवाले याचकों तथा पोष्य वर्गको सन्तृप्त करके ही सत्पुरुषको भोजन करना चाहिये; क्योंकि बिना दान किये, स्वयंको ही भोजनादिसे तृप्त करनेवाले राजा श्वेतको परलोकमें जीवन-निर्वाहार्थ अपने ही शरीरको खाना पड़ा।
न संचरणशीलः स्यान्निशि निःशंकमानसः ।
माण्डव्यःशूललीनोऽभूदचौरश्चौरशंकया ॥
यदि कोई विषम परिस्थिति न हो तो रात्रिके समय स्वच्छन्दतापूर्वक जहाँ-तहाँ घूमना नहीं चाहिये; क्योंकि रात्रिमें स्वेच्छासे भ्रमण करते हुए महर्षि माण्डव्यको चोर समझकर शूलीपर चढ़ा दिया गया था।
न त्यजेद् धर्ममर्यादामपि क्लेशदशां श्रितः ।
हरिश्चन्द्रो हि धर्मार्थी सेहे चण्डालदासताम् ॥
विपत्तिका अवसर आनेपर भी मनुष्यको धर्मकी मर्यादा नहीं छोड़नी चाहिये। धर्मकी रक्षाके लिये ही राजर्षि हरिश्चन्द्रने चाण्डालका सेवकतक बनना स्वीकार कर लिया था।
कुर्वीत संगतं सद्भिर्नासद्भिर्गुणवर्जितैः ।
प्राप राघवसंगत्या प्राज्यं राज्यं विभीषणः ॥
सदा सत्पुरुषोंकी ही संगति करनी चाहिये, गुणोंसे शून्य तथा अनुचित आचरणवालोंकी संगति नहीं करनी चाहिये। श्रीरामकी संगतिसे ही विभीषणको विशाल राज्य प्राप्त हुआ।
मातरं पितरं भक्त्या तोषयेन्न प्रकोपयेत् ।
मातृशापेन नागानां सर्पसत्रेऽभवत् क्षयः ॥
माता-पिताको अपने भक्तिभावसे सन्तुष्ट रखना चाहिये, उन्हें कभी व्यथित नहीं करना चाहिये। माताके शापके कारण ही जनमेजयके सर्प यज्ञमें नागोंका विनाश हो गया था।
जराग्रहणतुष्टेन निजयौवनदः सुतः।
कृतः कनीयान् प्रणतश्चक्रवर्ती ययातिना ॥
पिताको अपना यौवन देकर उनका बुढ़ापा स्वयं ले लेनेवाले अपने सबसे छोटे एवं विनयशील पुत्र पुरुको महाराज ययातिने सन्तुष्ट होकर चक्रवर्ती सम्राट् बनाया।
परप्राणपरित्राणपरः कारुण्यवान् भवेत् ।
मांसं कपोतरक्षायै स्वं श्येनाय ददौ शिविः ॥
दूसरोंकी प्राणरक्षाके लिये सर्वदा तत्पर तथा करुण चित्तवाला होना चाहिये। राजा शिबिने कपोतकी रक्षाके लिये श्येन पक्षीको अपना शरीर ही दे डाला था ।
स्त्रीजितो न भवेद् धीमान्गाढरागवशीकृतः
पुत्रशोकाद् दशरथो जीवंजायाजितोऽत्यजत॥
बुद्धिमान् मनुष्यको प्रबल आसक्तिके कारण स्त्रीके वशीभूत न होना चाहिये। पत्नी कैकेयीकी आसक्तिके कारण ही राजा दशरथको पुत्र-शोकसे प्राण छोड़ने पड़े।
न बन्धुसम्बन्धिजनं दूषयेनापि वर्जयेत् ।
दक्षयज्ञक्षयायाभूत् त्रिनेत्रस्य विमानना ॥
अपने बन्धु-बान्धवों तथा अन्य सम्बन्धियोंका न तो तिरस्कार करना चाहिये और न ही परित्याग। अपने जामाता भगवान् शंकरका अपमान करनेके कारण ही दक्षप्रजापति (का और उन) के यज्ञका विध्वंस हो गया।
न नित्यकलहाक्रान्ते सक्तिं कुर्वीत कैतवे ।
अन्यथाकृद्विपन्नोऽभूद्धर्मराजो युधिष्ठिरः ॥
नित्य नूतन विवादोंसे परिपूर्ण द्यूतक्रीडा (जुआ) में मनुष्यको आसक्ति नहीं करनी चाहिये; क्योंकि जूएकी बुराइयोंपर ध्यान न देनेके कारण ही धर्मराज युधिष्ठिर सब कुछ हार बैठे थे।
स्थिरताशां न बध्नीयाद् भुवि भावेषु भाविषु ।
रामो रघुः शिबिः पाण्डुः क्व गतास्ते नराधिपाः ।
इस मृत्युलोकमें वर्तमानके और भविष्यके प्राणि पदार्थोंसे स्थिरताकी आशा नहीं रखनी चाहिये। राम, रघु, शिबि, पाण्डु आदि चक्रवर्ती नरेश न जाने कहाँ चले गये।
कुर्यात्तीर्थाम्बुभिः पूतमात्मानं सततोज्ज्वलम् ।
लोमशादिष्टतीर्थेभ्यः प्रापुः पार्थाः कृतार्थताम् ॥
तीर्थोंमें अवगाहन करके सर्वदा अपनेको पवित्र और तेजस्वी बनाना चाहिये। महर्षि लोमशके द्वारा बताये गये दिव्य तीर्थोंमें स्नान करनेसे ही पाण्डव कृतकृत्य हो गये ।
आपत्कालोपयुक्तासु कलासु स्यात् कृतश्रमः ।
नृत्तवृत्तिर्विराटस्य किरीटी भवनेऽभवत् ॥
मुसीबतके समय काम आनेवाले विभिन्न कला कौशलोंको सीखनेका मनुष्यको विशेष प्रयत्न करना चाहिये; क्योंकि [ अज्ञातवासकालमें] राजा विराटके भवनमें अर्जुनकी नृत्यकला जीविकाहेतु काममें आयी थी।
अरागभोगसुभगः स्यात् प्रसक्तविरक्तधीः ।
राज्ये जनकराजोऽभून्निर्लेपोऽम्भसि पद्मवत् ॥
मनुष्यको चाहिये कि वह अपनी बुद्धिको [ नये नये] विषय-भोगोंमें आसक्त न बनाये और प्रसंगवश उपस्थित हुए विषयोंसे भी बुद्धिको हटाता ही रहे। महाराज जनक राजकाज करते हुए भी उससे इस प्रकार निर्लिप्त रहते थे, जैसे जलमें कमलका पत्ता ।
पद्मवन्न नयेत् कोषं धूर्तभ्रमरभोज्यताम् ।
सुरैः क्रमेण नीतार्थः श्रीहीनोऽभूत् पुराम्बुधिः ॥
जैसे खिले हुए कमलके परागको भरे हरण कर लेते हैं, वैसे ही अपनी धन-सम्पत्तिको धूतक लूटनेके लिये खुला नहीं रखना चाहिये; क्योंकि देवताओं और असुरोंके द्वारा क्रमशः सारे रत्नोंका हरण कर लिये। जानेपर प्राचीनकालमें [रत्नोंका खजाना वह] समुद्र भी। धनहीन हो गया था।
श्रियः कुर्यात् पलायिन्या बन्धाय गुणसंग्रहम् ।
दैत्यांस्त्यक्त्वा श्रिता देवा निर्गुणान् सगुणाः श्रिया ॥
निरन्तर चंचल रहनेवाली लक्ष्मीको बाँध रखनेके लिये गुणों (रस्सियों) को एकत्र कर लेना चाहिये; क्योंकि गुणहीन दैत्योंका त्याग करके लक्ष्मीने गुणवान् देवताओंका वरण किया था।
रूपार्थकुलविद्यादिहीनं नोपहसेन्नरम् ।
सन्तमापन्नन्दी रावणं वानराननः ॥
मनुष्यको चाहिये कि वह कभी भी सौन्दर्य, धन, कुलीनता अथवा विद्या आदिस शून्य व्यक्तिका मजाक न उड़ाये; क्योंकि वानरके-से कुरूप मुँहवाले शिवपार्षद नन्दीका उपहास करनेके कारण रावणको दारुण शापकी प्राप्ति हुई।
बन्धूनां वारयेद् वैरं नैकपक्षाश्रयो भवेत्।
कुरुपाण्डवसङ्ग्रामे युयुधे न हलायुधः ॥
मनुष्यको अपने बन्धु-बान्धवोंके आपसी झगड़ों में पड़कर किसी एक पक्षका समर्थन नहीं करना चाहिये, अपितु परिजनोंके झगड़ेको समाप्त करनेका ही उपाय करना चाहिये; इसी कारण कौरव-पाण्डवोंके बीच हुए युद्धमें [आदिसे अन्ततक] बलरामजी निष्पक्ष ही रहे। और कलहके शमनका प्रयत्न भी करते रहे।



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chaarucharya kee bodhavachanaavalee

'chaarucharyaa' kee bodhavachanaavalee

mahaakavi kshemendravirachit 'chaarucharyaa' sadaachaar, shishtaachaar tatha charitra-nirmaanaka bodh pradaan karanevaala ek laghu granth hai. aayaamamen laghu honepar bhee yahaanka bodh bada़a hee maarmik tatha jeevanamen kaam leneyogy hai. jaisa ki is granthake naamase hee spasht hai ki jeevanacharya kaise sundar bane, kaise uttam charitraka nirmaan ho, is sambandhamen aachaary kshemendrane ek sau shlokonmen sundar shiksha pradaan kee hai, shlokake poorvaardhamen shiksha kinva upadesh hai aur uttaraardhamen puraanaadike kathaanakonka drishtaant diya hai, yahaan unamense kuchh bodhaparak vachanonko diya ja raha hai-
braahme muhoorte purushastyajennidraamatandritah .
praatah prabuddhan kamalamaashrayechchhreergunaashraya ..
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praap raaghavasangatya praajyan raajyan vibheeshanah ..
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santamaapannandee raavanan vaanaraananah ..
manushyako chaahiye ki vah kabhee bhee saundary, dhan, kuleenata athava vidya aadis shoony vyaktika majaak n uda़aaye; kyonki vaanarake-se kuroop munhavaale shivapaarshad nandeeka upahaas karaneke kaaran raavanako daarun shaapakee praapti huee.
bandhoonaan vaarayed vairan naikapakshaashrayo bhavet.
kurupaandavasangraame yuyudhe n halaayudhah ..
manushyako apane bandhu-baandhavonke aapasee jhagada़on men pada़kar kisee ek pakshaka samarthan naheen karana chaahiye, apitu parijanonke jhagada़eko samaapt karaneka hee upaay karana chaahiye; isee kaaran kaurava-paandavonke beech hue yuddhamen [aadise antataka] balaraamajee nishpaksh hee rahe. aur kalahake shamanaka prayatn bhee karate rahe.

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