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निर्णयमें विलम्ब उचित नहीं  [हिन्दी कथा]
हिन्दी कथा - Spiritual Story (Moral Story)

निर्णयमें विलम्ब उचित नहीं

(ब्रह्मलीन स्वामी श्रीअखण्डानन्द सरस्वतीजी महाराज )

वाराणसी मण्डलके अन्तर्गत पश्चिमवाहिनी गंगाके तटपर एक छोटा-सा ग्राम है, नाम है उसका सराय । वहाँ एक ठाकुर जगरामसिंह रहते थे। विद्यालय में अध्यापक थे। मोकलपुरके बाबाके भक्त होनेके कारण उनसे विशेष परिचय हो गया था। एक प्रकारसे उनको बाबाने जीवनदान ही दिया था।
एक दिनकी बात है, मैं और जगरामसिंह, दोनों गंगाके तटपर सत्संगकी चर्चा करते हुए चल रहे थे। कई मल्लाहोंने मिलकर एक मछली पकड़ी। उसे चार पाँच आदमी मिलकर उठा सकते थे। उसके टुकड़े टुकड़े करनेके लिये कुल्हाड़ीकी आवश्यकता पड़ी। जगरामसिंहने कहा- 'पण्डितजी ! मैं इस मछलीको छुड़वा दूँ!' चलते रहे फिर बोले-'किंतु यह तो इन मछुओंकी जीविका है। मैं क्यों रोकूँ ?' चलते रहे, फिर कहने लगे, किंतु यह तो मेरी जमींदारीमें है, मैं रोक सकता हूँ।' चलते रहे और अंतमें इस निर्णयपर पहुँचे कि मछली अभी जीवित है, इसे गंगाजीमें छोड़ देना चाहिये। वे लौटकर जब मछुएके पास पहुँचे, तबतक वे मछलीको कुल्हाड़ीसे काटकर दो टुकड़े कर चुके थे। उनसे निर्णय करनेमें इतना विलम्ब हो गया कि उसका कोई फल नहीं निकला।
राजा नृगने दो ब्राह्मणोंके विवादका निर्णय करनेमें विलम्ब किया था, तो उन्हें गिरगिट होना पड़ा था यह बात मुझे याद आ गयी। ऐसे निर्णयमें विलम्ब करना उचित नहीं होता, जहाँ किसी प्राणीके जीवन-मृत्युको बात हो



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raaja nrigane do braahmanonke vivaadaka nirnay karanemen vilamb kiya tha, to unhen giragit hona pada़a tha yah baat mujhe yaad a gayee. aise nirnayamen vilamb karana uchit naheen hota, jahaan kisee praaneeke jeevana-mrityuko baat ho

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