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इन्द्रिय- संयम  [हिन्दी कहानी]
Shikshaprad Kahani - प्रेरक कथा (Spiritual Story)

मथुराकी सर्वश्रेष्ठ नर्तकी, सौन्दर्यकी मूर्ति वासवदत्ताकी दृष्टि अपने वातायनसे राजपथपर पड़ी और जैसे वहीं रुक गयी। पीत-चीवर ओढ़े, भिक्षापात्र लिये एक मुण्डितमस्तक युवा भिक्षु नगरमें आ रहा था। नगरके प्रतिष्ठित धनी-मानी लोग एवं राजपुरुषतक जिसकी चाटुकारी किया करते थे, जिसके राजभवन जैसे प्रासादकी देहलीपर चक्कर काटते रहते थे, वह नर्तकी भिक्षुको देखते ही उन्मत्तप्राय हो गयी। इतना सौन्दर्य! ऐसा अद्भुत तेज! इतना सौम्य मुख! - नर्तकी दो क्षण तो ठिठकी देखती रह गयी और फिर जितनी शीघ्रता उससे हो सकी, उतनी शीघ्रतासे दौड़ती हुई सीढ़ियाँ उतरकर अपने द्वारपर आयी।

'भन्ते!' नर्तकीने भिक्षुको पुकारा ।

'भद्रे!' भिक्षु आकर मस्तक झुकाये उसके सम्मुख खड़ा हो गया और उसने अपना भिक्षापात्र आगे बढ़ा दिया।'आप ऊपर पधारें!' नर्तकीका मुख लज्जासे लाल हो उठा था; किंतु वह अपनी बात कह गयी - 'यह मेरा भवन, मेरी सब सम्पत्ति और स्वयं मैं अब आपकी हूँ। मुझे आप स्वीकार करें।'

'मैं फिर तुम्हारे पास आऊँगा ।' भिक्षुने मस्तक ऊपर बड़ी बेधक दृष्टिसे नर्तकीकी ओर देखा और पता नहीं क्या सोच लिया उसने ।

'कब ?' नर्तकीने हर्षोत्फुल्ल होकर पूछा ।

'समय आनेपर !' भिक्षु यह कहते हुए आगे बढ़ गया था। वह जबतक दीख पड़ा, नर्तकी द्वारपर खड़ी उसीकी ओर देखती रही।

मथुरा नगरके द्वारसे बाहर यमुनाजीके मार्गमें एक स्त्री भूमिपर पड़ी थी। उसके वस्त्र अत्यन्त मैले और फटे हुए थे। उस स्त्रीके सारे शरीरमें घाव हो रहे थे । पीव और रक्तसे भरे उन घावोंसे दुर्गन्ध आ रही थी।उधरसे निकलते समय लोग अपना मुख दूसरी ओर कर लेते थे और नाक दबा लेते थे। यह नारी थी नर्तकी वासवदत्ता ! उसके दुराचारने उसे इस भयंकर रोगसे ग्रस्त कर दिया था । सम्पत्ति नष्ट हो गयी थी। अब वह निराश्रित मार्गपर पड़ी थी।

सहसा एक भिक्षु उधरसे निकला और वह उस दुर्दशाग्रस्त नारीके समीप खड़ा हो गया। उसने पुकारा - 'वासवदत्ता ! मैं आ गया हूँ । ' 'कौन ?' उस नारीने बड़े कष्टसे भिक्षुकी ओरदेखनेका प्रयत्न किया।

'भिक्षु उपगुप्त !' भिक्षु बैठ गया वहीं मार्गमें और उसने उस नारीके घाव धोने प्रारम्भ कर दिये।

'तुम अब आये ? अब मेरे पास क्या धरा है। मेरा

यौवन, सौन्दर्य, धन आदि सभी कुछ तो नष्ट हो गया।' नर्तकीके नेत्रोंसे अश्रुधार चल पड़ी।

'मेरे आनेका समय तो अभी हुआ है।' भिक्षुने उसे धर्मका शान्तिदायी उपदेश देना प्रारम्भ किया। ये भिक्षुश्रेष्ठ ही देवप्रिय सम्राट् अशोकके गुरु हुए।



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indriya- sanyama

mathuraakee sarvashreshth nartakee, saundaryakee moorti vaasavadattaakee drishti apane vaataayanase raajapathapar pada़ee aur jaise vaheen ruk gayee. peeta-cheevar odha़e, bhikshaapaatr liye ek munditamastak yuva bhikshu nagaramen a raha thaa. nagarake pratishthit dhanee-maanee log evan raajapurushatak jisakee chaatukaaree kiya karate the, jisake raajabhavan jaise praasaadakee dehaleepar chakkar kaatate rahate the, vah nartakee bhikshuko dekhate hee unmattapraay ho gayee. itana saundarya! aisa adbhut teja! itana saumy mukha! - nartakee do kshan to thithakee dekhatee rah gayee aur phir jitanee sheeghrata usase ho sakee, utanee sheeghrataase dauda़tee huee seedha़iyaan utarakar apane dvaarapar aayee.

'bhante!' nartakeene bhikshuko pukaara .

'bhadre!' bhikshu aakar mastak jhukaaye usake sammukh khada़a ho gaya aur usane apana bhikshaapaatr aage badha़a diyaa.'aap oopar padhaaren!' nartakeeka mukh lajjaase laal ho utha thaa; kintu vah apanee baat kah gayee - 'yah mera bhavan, meree sab sampatti aur svayan main ab aapakee hoon. mujhe aap sveekaar karen.'

'main phir tumhaare paas aaoonga .' bhikshune mastak oopar bada़ee bedhak drishtise nartakeekee or dekha aur pata naheen kya soch liya usane .

'kab ?' nartakeene harshotphull hokar poochha .

'samay aanepar !' bhikshu yah kahate hue aage badha़ gaya thaa. vah jabatak deekh pada़a, nartakee dvaarapar khada़ee useekee or dekhatee rahee.

mathura nagarake dvaarase baahar yamunaajeeke maargamen ek stree bhoomipar pada़ee thee. usake vastr atyant maile aur phate hue the. us streeke saare shareeramen ghaav ho rahe the . peev aur raktase bhare un ghaavonse durgandh a rahee thee.udharase nikalate samay log apana mukh doosaree or kar lete the aur naak daba lete the. yah naaree thee nartakee vaasavadatta ! usake duraachaarane use is bhayankar rogase grast kar diya tha . sampatti nasht ho gayee thee. ab vah niraashrit maargapar pada़ee thee.

sahasa ek bhikshu udharase nikala aur vah us durdashaagrast naareeke sameep khada़a ho gayaa. usane pukaara - 'vaasavadatta ! main a gaya hoon . ' 'kaun ?' us naareene bada़e kashtase bhikshukee oradekhaneka prayatn kiyaa.

'bhikshu upagupt !' bhikshu baith gaya vaheen maargamen aur usane us naareeke ghaav dhone praarambh kar diye.

'tum ab aaye ? ab mere paas kya dhara hai. meraa

yauvan, saundary, dhan aadi sabhee kuchh to nasht ho gayaa.' nartakeeke netronse ashrudhaar chal pada़ee.

'mere aaneka samay to abhee hua hai.' bhikshune use dharmaka shaantidaayee upadesh dena praarambh kiyaa. ye bhikshushreshth hee devapriy samraat ashokake guru hue.

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