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सच्चा दान  [बोध कथा]
Wisdom Story - Shikshaprad Kahani (छोटी सी कहानी)

सच्चा दान

युधिष्ठिरका महान् अश्वमेध यज्ञ जब पूरा हुआ, उसी समय एक बड़ी उत्तम किंतु महान् आश्चर्यमें डालनेवाली घटना घटित हुई, उस यज्ञमें श्रेष्ठ ब्राह्मणों, जातिवालों, सम्बन्धियों, बन्धु-बान्धवों, अन्धों तथा दीन दरिद्रोंके तृप्त हो जानेपर युधिष्ठिरके महान् दानका चारों ओर शोर हो गया। उनके ऊपर फूलोंकी वर्षा होने लगी। उसी समय वहाँ एक नेवला आया। उसकी आँखें नीली थीं और उसके शरीरके एक तरफका भाग सोनेका था। उसने आते ही एक बार वज्रके समान भयंकर आवाज देकर समस्त मृगों और पक्षियोंको भयभीत कर दिया और फिर मनुष्यकी भाषामें कहा- 'राजाओ! तुम्हारा यह यज्ञ कुरुक्षेत्रनिवासी एक उञ्छवृत्तिधारी उदार ब्राह्मणके सेरभर सत्तू-दान करनेके बराबर भी नहीं हुआ है ।'
नेवलेकी बात सुनकर समस्त ब्राह्मणोंको बड़ा आश्चर्य हुआ और वे उसे चारों ओरसे घेरकर पूछने लगे- 'नकुल ! इस यज्ञमें तो साधु पुरुषोंका ही समागम हुआ है, तुम कहाँसे आ गये? तुम किस आधारपर हमारे इस यज्ञको निन्दा करते हो? हमने नाना प्रकारकी यज्ञ-सामग्री एकत्रित करके शास्त्रीय विधिको अवहेलना न करते हुए इस यज्ञको पूर्ण किया है। शास्त्र और न्यायके अनुसार प्रत्येक कर्तव्य-कर्मका पालन किया गया है। पूजनीय पुरुषोंकी विधिवत् पूजा की गयी है, अग्निमें मन्त्र पढ़कर आहुति दी गयी है और देनेयोग्य वस्तुओंका ईर्ष्यारहित होकर दान किया गया है। इसी प्रकार पवित्र हविष्यके द्वारा देवताओंको और रक्षाका भार लेकर शरणागतोंको प्रसन्न किया गया है। यह सब होनेपर भी तुमने क्या देखा या सुना है, जिससे इस यज्ञपर आक्षेप करते हो? इन ब्राह्मणोंके निकट तुम सच सच बताओ, क्योंकि तुम्हारी बातें विश्वासके योग्य जान पड़ती हैं।'
ब्राह्मणोंके इस प्रकार पूछनेपर नेवलेने हँसकर कहा- 'विप्रवृन्द ! मैंने आपलोगोंसे मिथ्या अथवा घमण्डमें आकर कोई बात नहीं कही है। मैंने जो कहा है कि 'आपलोगों का यह यज्ञ उच्छवृत्तिवाले ब्राह्मणके द्वारा किये हुए सेरभर सत्तू -दानके बराबर भी नहीं है' इसका कारण अवश्य आप लोगोंको बतानेयोग्य है। अब मैं जो कुछ कहता हूँ, उसे आपलोग शान्तचित्त होकर सुनें।
कुछ दिनों पहलेकी बात है, धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र में जहाँ बहुत से धर्मज्ञ महात्मा रहा करते हैं, कोई ब्राह्मण ड़ा रहते थे। वे उच्छवृत्तिसे ही अपना जीवन निर्वाह करते थे। कबूतर के समान अन्नका दाना चुनकर लाते और उसी कुटुम्बका पालन करते थे। वे अपनी पुत्र और पुत्रवधूके साथ रहकर तपस्या लग्न थे। ब्राह्मणदेवता शुद्ध आचार-विचारये रहनेवाले, धर्मात्मा और जितेन्द्रिय थे। ये प्रतिदिन दिनके भाग स्त्री पुत्र आदिके साथ भोजन किया करते थे। यदि किसी दिन उस समय भोजन न मिला तो दूसरे दिन फिर उसी बेला अन्न ग्रहण करते थे। एक बार वहाँ बड़ा भयंकर अकाल पड़ा। उस समय ब्राह्मणके पास अन्नका संग्रह हो या नहीं और खेतोंका अन भी सूख गया था, अत: उनके पास द्रव्यका बिलकुल अभाव हो गया। प्रतिदिन दिनका उठा भाग आकर बीत जाता किंतु उन्हें समयपर भोजन नहीं मिलता था। बेचारे सब-के-सब भूखे हो रह जाते थे। एक दिन ज्येष्ठ शुक्लपक्ष दोपहरीके समय वे तपस्वी ब्राह्मण भूख और गर्मीका कष्ट सहते हुए अन्नकी खोज निकले। घूमते-घूमते भूख और परिवमसे व्याकुल हो उठे तो भी उन्हें अन्नका एक दाना भी नसीब नहीं हुआ और दिनोंकी भाँति उस दिन भी उन्होंने अपने कुटुम्बके साथ उपवास करके ही दिन काटा। धीरे-धीरे उनको प्राण-शक्ति क्षीण होने लगी। इसी बीचमें एक दिन दिनके छठे भागमें उन्हें सेरभर जो मिल गया। उस ब्राह्मण परिवारके सब लोग तपस्वी थे। उन्होंने जीका सत्तू तैयार कर लिया और नैत्यिक नियम एवं जपका अनुष्ठान करके अग्निमें विधिपूर्वक आहुति देनेके पश्चात् वे थोड़ा-थोड़ा म बाँटकर भोजनके लिये बैठे। इतनेहीमें कोई अतिथि ब्राह्मण वहाँ आ पहुँचा। अतिथिका दर्शन करके उन सबका हृदय हर्षसे खिल उठा। उसे प्रणाम करके उन्होंने कुशल- समाचार पूजा सुधारे कष्ट पाते हुए अतिथि ब्राह्मणको अपने ब्रह्मचर्य और गोत्रका परिचय देकर वे कुटीमें ले गये। वहाँ उच्छवृत्तिवाले ब्राह्मणने कहा 'भगवन्! आपके लिये यह अर्घ्य, पाद्य और आसन मौजूद है तथा न्यायपूर्वक उपार्जित किये हुए ये परम पवित्र सन् आपकी सेवामें उपस्थित हैं। मैंन प्रसन्नतापूर्वक इन्हें आपको अर्पण किया है, आप स्वीकार करें।"
उनके इस प्रकार कहनेपर अतिथिने एक भाग सत्तू लेकर खा लिया, किंतु उतनेसे उसकी भूख शान्त न हुई। ब्राह्मणने देखा कि अतिथिदेवता अब भी भूख ही रह गये हैं तो वे यह सोचते हुए कि 'इनको किस प्रकार सन्तुष्ट किया जाय ?' उनके लिये आहारकी चिन्ता करने लगे। तब ब्राह्मणकी पत्नीने कहा 'नाथ! आप अतिथिको मेरा भाग दे दीजिये, उसे खाकर पूर्ण तृप्त होनेके बाद इनकी जहाँ इच्छा होगी. चले जायेंगे।' अपनी पतिव्रता पत्नीकी यह बात सुनकर ब्राह्मणने अपनी भार्यासे कहा- 'कल्याणी! अपनी स्त्रीकी रक्षा और पालन-पोषण करना कीट, पतंग और पशुओंका भी कर्तव्य है। पुरुष होकर भी जो स्त्रीके द्वारा अपना पालन-पोषण और संरक्षण करता है, वह मनुष्य दयाका पात्र है। वह उज्ज्वल कीर्तिसे भ्रष्ट हो जाता है और उसे उत्तम लोकोंकी प्राप्ति नहीं होती। धर्म, काम और अर्थसम्बन्धी कार्य, सेवा-शुश्रूषा, वंश परम्पराकी रक्षा, पितृ कार्य और स्वधर्मका अनुष्ठान ये सब स्त्रीके ही अधीन है।' जो पुरुष स्त्रीकी रक्ष करनेमें असमर्थ है, वह संसारमें महान् अपयशका भागी होता है और परलोकमें जानेपर उसे नरकमें गिरना पड़ता है।'
पतिके ऐसा कहनेपर ब्राह्मणी बोली- 'प्राणनाथ ! हम दोनोंके धर्म और अर्थ एक ही हैं, अतः आप मुझपर प्रसन्न हों और मेरे हिस्सेका यह पावभर सत्तू लेकर अतिथिको दे दें। स्त्रियोंका सत्य, धर्म, रति, अपने गुणोंसे मिला हुआ स्वर्ग तथा उनकी सारी अभिलाषा पतिके ही अधीन है। इसलिये मेरे हिस्सेका सत्तू अतिथिदेवताको अर्पण कीजिये। आप भी तो जरा-जीर्ण वृद्ध, क्षुधातुर, अत्यन्त दुर्बल, उपवाससे थके हुए और क्षीणकाय हो रहे हैं, फिर आप जिस तरह भूखका क्लेश सहन करते हैं, उसी प्रकार मैं भी सह लूँगी।'
पत्नीके ऐसा कहनेपर ब्राह्मणने सत्तू लेकर अतिथिसे कहा- 'द्विजवर ! यह सत्तू भी ग्रहण कीजिये।' अतिथि वह सत्तू भी लेकर खा गया; किंतु उसे सन्तोष न हुआ। यह देखकर उच्छवृत्तिवाले ब्राह्मणको बड़ी चिन्ता हुई। तब उनके पुत्रने कहा- 'पिताजी! मेरा सत्तू लेकर आप ब्राह्मणको दे डालिये। मैं इसीमें पुण्य समझता हूँ, इसलिये ऐसा कर रहा हूँ।'
पिताने कहा- बेटा! तुम हजार वर्षके जाओ तो भी मेरे लिये बालक ही हो। पिता पुत्रको जन्म देकर ही उससे अपनेको कृतकृत्य समझता है। मैं जानता हूँ, बच्चोंकी भूख प्रबल होती है; मैं तो बूढ़ा हूँ, भूखे रहकर भी प्राण धारण कर सकता हूँ। जीर्ण अवस्था हो जानेके कारण मुझे भूखसे अधिक कष्ट नहीं होता। इसके सिवा, मैं दीर्घकालतक तपस्या कर चुका हूँ, अतः अब मुझे मरनेका भय नहीं है। तुम अभी बालक हो, इसलिये बेटा! तुम्हीं यह सत्तू खाकर अपने प्राणोंकी रक्षा करो।
पुत्र बोला- पिताजी! मैं आपका पुत्र हूँ। पुरुषका त्राण करनेके कारण ही संतानको 'पुत्र' कहा गया है। इसके सिवा पुत्र पिताका अपना ही आत्मा माना गया है, अतः आप अपने आत्मभूत पुत्रके द्वारा अपने व्रतको रक्षा कीजिये।
पिताने कहा- बेटा! तुम रूप, सदाचार और इन्द्रियसंयममें मेरे ही समान हो। तुम्हारे इन गुणोंकी मैंने अनेकों बार परीक्षा कर ली है। अब मैं तुम्हारा सत्तू लेकर अतिथिको देता हूँ।
यह कहकर ब्राह्मणने प्रसन्नतापूर्वक वह सत्तू ले लिया और हँसते-हँसते अतिथिको परोस दिया। उसे खा लेनेपर भी अतिथिदेवताका पेट न भरा। यह देखकर उञ्छवृत्तिधारी धर्मात्मा ब्राह्मण बड़े संकोचमें पड़ गये। उनकी पुत्रवधू भी बड़ी सुशीला थी। वह अपने श्वशुरकी स्थितिको समझ गयी और उनका प्रिय करनेके लिये सत्तू लेकर उनके पास जा बड़ी प्रसन्नताके साथ बोली 'पिताजी! आप मेरे हिस्सेका यह सत्तू लेकर अतिथि 'देवताको दे दीजिये।'
श्वशुरने कहा-बेटी! तुम पतिव्रता हो और सदा ऐसे ही शरीर सूख रहा है। तुम्हारी कान्ति फीकी पड़ गयी है। उत्तम व्रत और आचारका पालन करते-करते तुम अत्यन्त दुर्बल हो गयी हो। भूखके कष्टसे तुम्हारा चित्त व्याकुल है, तुम्हें ऐसी अवस्थामें देखकर भी तुम्हारे हिस्सेका सत्तू कैसे ले लूँ? तुम भूखसे व्याकुल | हुई बालिका एवं अबला हो, उपवासके कारण बहुत थक गयी हो और सेवा-शुश्रूषाके द्वारा बन्धु-बान्धवोंको सुख पहुँचाती हो, इसलिये तुम्हारी तो मुझे सदा ही रक्षा करनी चाहिये।
पुत्रवधू बोली- भगवन्। आप मेरे गुरुके भी गुरु और देवताके भी देवता हैं, मेरा यह शरीर प्राण और धर्म सब कुछ बड़ोंकी सेवाके लिये ही है। आपकी प्रसन्नतासे ही मुझे उत्तम लोकोंकी प्राप्ति हो सकती है. अतः आप मुझे अपनी दृढ भक्त रक्षणीय अथवा कृपापात्र समझकर अतिथिको देनेके लिये मेरा यह सतू स्वीकार कीजिये।
श्वशुरने कहा- बेटी! तुम पतिव्रता हो और सदा ऐसे ही उत्तम शील एवं सदाचारका पालन करनेमें तुम्हारी शोभा है। तुम धर्म तथा व्रतके आचरणमें संलग्न होकर हमेशा गुरुजनोंकी सेवापर दृष्टि रखती हो, इसलिये तुम्हें पुण्यसे वंचित न होने दूंगा और श्रेष्ठ धर्मात्माओं में तुम्हारी गिनती करके तुम्हारा दिया हुआ सत्तू अवश्य स्वीकार करूँगा।
यह कहकर ब्राह्मणने उसके हिस्सेका भी सत्तू लेकर अतिथिको दे दिया। उञ्छवृत्तिधारी महात्मा ब्राह्मणका यह अद्भुत त्याग देखकर अतिथि बहुत प्रसन्न हुआ। वास्तवमें पुरुषशरीर धारण करके साक्षात् धर्म ही अतिथिके रूपमें उपस्थित हुए थे. उन्होंने ब्राह्मणसे कहा- 'विप्रवर तुमने अपनी शक्तिके अनुसार धर्मपर दृष्टि रखते हुए न्यायोपार्जित अन्नका शुद्ध हृदयसे दान किया है. इससे मैं तुम्हारे ऊपर बहुत प्रसन्न हूँ। अहो ! स्वर्गमें रहनेवाले देवता भी तुम्हारे दानकी घोषणा करते रहते हैं। यह देखो, आकाशसे फूलोंकी वर्षा हो रही है। देवता, ऋषि, गन्धर्व और देवदूत भी तुम्हारे दानसे विस्मित होकर आकाशमें खड़े-खड़े तुम्हारी स्तुति करते । ब्रह्मलोकमें विचरनेवाले ब्रह्मर्षि विमानपर बैठकर तुम्हारे दर्शनकी प्रतीक्षा कर रहे हैं। अब तुम दिव्यलोकको जाओ। पितृलोकमें तुम्हारे जितने पितर थे, उन सबको तुमने तार दिया तथा अनेकों युगोंतक भविष्य में होनेवाली जो संतानें हैं, वे भी तुम्हारे ब्रह्मचर्य, दान, तपस्या और शुद्ध धर्मके अनुष्ठानसे तर जायँगी। तुमने बड़ी श्रद्धाके साथ तप किया है, उसके प्रभावसे और दानसे सब देवता तुम्हारे ऊपर प्रसन्न हुए हैं। संकटके समय भी तुमने शुद्ध हृदयसे यह सारा-का सारा सत्तू दान किया है। भूख मनुष्यकी बुद्धिको चौपट कर देती है. उसके धार्मिक विचारोंका लोप हो जाता है, किंतु ऐसे समय में भी जिसकी दानमें रुचि होती है. उसके धर्मका ह्रास नहीं होता। तुमने स्त्री और पुत्रके स्नेहकी उपेक्षा करके धर्मको ही श्रेष्ठ माना है और उसके सामने भूख-प्यासको भी कुछ नहीं गिना है। मनुष्यके लिये सबसे पहले न्यायपूर्वक धनकी प्राप्तिका उपाय जानना ही सूक्ष्म विषय है। उस धनको सत्पात्रकी सेवामें अर्पण करना उससे भी श्रेष्ठ है। साधारण समयमें दान देनेकी अपेक्षा उत्तम समयपर दान देना और भी अच्छा है, किंतु श्रद्धाका महत्त्व कालसे भी बढ़कर है। श्रद्धापूर्वक दान देनेवाले मनुष्योंमें यदि एक हजार देनेकी शक्ति हो तो वह सौका दान करे, सौ देनेकी शक्तिवाला दसका दान करे तथा जिसके पास कुछ न हो, वह यदि अपनी शक्तिके अनुसार थोड़ा-सा जल ही दान कर दे तो इन सबका फल बराबर ही माना गया है। न्यायपूर्वक एकत्रित किये हुए धनका द करनेसे जो लाभ होता है, वह बहुत-सी दक्षिणावाले अनेकों राजसूय-यज्ञोंका अनुष्ठान करनेसे भी नहीं होता। तुमने सेरभर सत्तूका दान करके अक्षय ब्रह्मलोकपर विजय पायी है, बहुत-से अश्वमेध यज्ञ भी तुम्हारे इस दानके फलकी समानता नहीं कर सकते। अतः द्विजश्रेष्ठ ! तुम रजोगुणसे रहित ब्रह्मधामको सुखपूर्वक पधारो। तुम सब लोगोंके लिये दिव्य विमान उपस्थित है। इसपर सवार हो जाओ। मेरी ओर दृष्टि डालो, मैं साक्षात् धर्म हूँ। तुमने अपने शरीरका उद्धार कर दिया। संसारमें तुम्हारा यश सदा ही कायम रहेगा।'
नेवलेने कहा- धर्मके ऐसा कहनेपर वे ब्राह्मणदेवता अपनी स्त्री, पुत्र और पुत्रवधूके साथ विमानमें बैठकर ब्रह्मलोकको चले गये। उनके जानेके बाद मैं अपने बिलमेंसे बाहर निकला और जहाँ अतिथिने भोजन किया था. उस स्थान पर लोटने लगा। उस समय सत्तूकी गन्ध सुँघने, वहाँ गिरे हुए जलकी कीचसे सम्पर्क होने, दिव्य पुष्पोंको रौंदने और उन महात्मा ब्राह्मणके दान करते समय गिरे हुए अन्नके कणोंमें मुँह लगानेसे तथा ब्राह्मणकी तपस्याके प्रभावसे मेरा मस्तक और आधा शरीर सोनेका हो गया। उनके तपका यह महान् प्रभाव आपलोग अपनी आँखों देख लीजिये। ब्राह्मणो! जब मेरा आधा शरीर सोनेका हो गया तो मैं इस फिक्रमें पड़ा कि 'बाकी शरीर भी किसी उपायसे ऐसा ही हो सकता है ?" इसी उद्देश्यसे मैं बारम्बार अनेकों तपोवनों और यज्ञस्थानोंमें प्रसन्नतापूर्वक भ्रमण करता रहता हूँ। महाराज युधिष्ठिरके इस यज्ञका भारी शोर सुनकर मैं बड़ी आशा लगाये यहाँ आया था; किंतु मेरा शरीर सोनेका न हो सका। इसीसे मैंने हँसकर कहा था कि 'यह यज्ञ ब्राह्मणके दिये हुए सेरभर सत्तूके बराबर भी नहीं हुआ है।' क्योंकि उस समय सेरभर सत्तूमेंसे गिरे हुए कुछ कणोंके प्रभावसे मेरा आधा शरीर सुवर्णमय हो गया था, परंतु यह महान् यज्ञ भी मुझे वैसा न बना सका, अतः उसके साथ इसकी कोई तुलना नहीं है। [महाभारत]



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sachcha daana

sachcha daana

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putravadhoo bolee- bhagavan. aap mere guruke bhee guru aur devataake bhee devata hain, mera yah shareer praan aur dharm sab kuchh bada़onkee sevaake liye hee hai. aapakee prasannataase hee mujhe uttam lokonkee praapti ho sakatee hai. atah aap mujhe apanee dridh bhakt rakshaneey athava kripaapaatr samajhakar atithiko deneke liye mera yah satoo sveekaar keejiye.
shvashurane kahaa- betee! tum pativrata ho aur sada aise hee uttam sheel evan sadaachaaraka paalan karanemen tumhaaree shobha hai. tum dharm tatha vratake aacharanamen sanlagn hokar hamesha gurujanonkee sevaapar drishti rakhatee ho, isaliye tumhen punyase vanchit n hone doonga aur shreshth dharmaatmaaon men tumhaaree ginatee karake tumhaara diya hua sattoo avashy sveekaar karoongaa.
yah kahakar braahmanane usake hisseka bhee sattoo lekar atithiko de diyaa. unchhavrittidhaaree mahaatma braahmanaka yah adbhut tyaag dekhakar atithi bahut prasann huaa. vaastavamen purushashareer dhaaran karake saakshaat dharm hee atithike roopamen upasthit hue the. unhonne braahmanase kahaa- 'vipravar tumane apanee shaktike anusaar dharmapar drishti rakhate hue nyaayopaarjit annaka shuddh hridayase daan kiya hai. isase main tumhaare oopar bahut prasann hoon. aho ! svargamen rahanevaale devata bhee tumhaare daanakee ghoshana karate rahate hain. yah dekho, aakaashase phoolonkee varsha ho rahee hai. devata, rishi, gandharv aur devadoot bhee tumhaare daanase vismit hokar aakaashamen khada़e-khada़e tumhaaree stuti karate . brahmalokamen vicharanevaale brahmarshi vimaanapar baithakar tumhaare darshanakee prateeksha kar rahe hain. ab tum divyalokako jaao. pitrilokamen tumhaare jitane pitar the, un sabako tumane taar diya tatha anekon yugontak bhavishy men honevaalee jo santaanen hain, ve bhee tumhaare brahmachary, daan, tapasya aur shuddh dharmake anushthaanase tar jaayangee. tumane bada़ee shraddhaake saath tap kiya hai, usake prabhaavase aur daanase sab devata tumhaare oopar prasann hue hain. sankatake samay bhee tumane shuddh hridayase yah saaraa-ka saara sattoo daan kiya hai. bhookh manushyakee buddhiko chaupat kar detee hai. usake dhaarmik vichaaronka lop ho jaata hai, kintu aise samay men bhee jisakee daanamen ruchi hotee hai. usake dharmaka hraas naheen hotaa. tumane stree aur putrake snehakee upeksha karake dharmako hee shreshth maana hai aur usake saamane bhookha-pyaasako bhee kuchh naheen gina hai. manushyake liye sabase pahale nyaayapoorvak dhanakee praaptika upaay jaanana hee sookshm vishay hai. us dhanako satpaatrakee sevaamen arpan karana usase bhee shreshth hai. saadhaaran samayamen daan denekee apeksha uttam samayapar daan dena aur bhee achchha hai, kintu shraddhaaka mahattv kaalase bhee badha़kar hai. shraddhaapoorvak daan denevaale manushyonmen yadi ek hajaar denekee shakti ho to vah sauka daan kare, sau denekee shaktivaala dasaka daan kare tatha jisake paas kuchh n ho, vah yadi apanee shaktike anusaar thoda़aa-sa jal hee daan kar de to in sabaka phal baraabar hee maana gaya hai. nyaayapoorvak ekatrit kiye hue dhanaka d karanese jo laabh hota hai, vah bahuta-see dakshinaavaale anekon raajasooya-yajnonka anushthaan karanese bhee naheen hotaa. tumane serabhar sattooka daan karake akshay brahmalokapar vijay paayee hai, bahuta-se ashvamedh yajn bhee tumhaare is daanake phalakee samaanata naheen kar sakate. atah dvijashreshth ! tum rajogunase rahit brahmadhaamako sukhapoorvak padhaaro. tum sab logonke liye divy vimaan upasthit hai. isapar savaar ho jaao. meree or drishti daalo, main saakshaat dharm hoon. tumane apane shareeraka uddhaar kar diyaa. sansaaramen tumhaara yash sada hee kaayam rahegaa.'
nevalene kahaa- dharmake aisa kahanepar ve braahmanadevata apanee stree, putr aur putravadhooke saath vimaanamen baithakar brahmalokako chale gaye. unake jaaneke baad main apane bilamense baahar nikala aur jahaan atithine bhojan kiya thaa. us sthaan par lotane lagaa. us samay sattookee gandh sunghane, vahaan gire hue jalakee keechase sampark hone, divy pushponko raundane aur un mahaatma braahmanake daan karate samay gire hue annake kanonmen munh lagaanese tatha braahmanakee tapasyaake prabhaavase mera mastak aur aadha shareer soneka ho gayaa. unake tapaka yah mahaan prabhaav aapalog apanee aankhon dekh leejiye. braahmano! jab mera aadha shareer soneka ho gaya to main is phikramen pada़a ki 'baakee shareer bhee kisee upaayase aisa hee ho sakata hai ?" isee uddeshyase main baarambaar anekon tapovanon aur yajnasthaanonmen prasannataapoorvak bhraman karata rahata hoon. mahaaraaj yudhishthirake is yajnaka bhaaree shor sunakar main bada़ee aasha lagaaye yahaan aaya thaa; kintu mera shareer soneka n ho sakaa. iseese mainne hansakar kaha tha ki 'yah yajn braahmanake diye hue serabhar sattooke baraabar bhee naheen hua hai.' kyonki us samay serabhar sattoomense gire hue kuchh kanonke prabhaavase mera aadha shareer suvarnamay ho gaya tha, parantu yah mahaan yajn bhee mujhe vaisa n bana saka, atah usake saath isakee koee tulana naheen hai. [mahaabhaarata]

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श्याम बुलाये राधा नहीं आये,
आजा मेरी प्यारी राधे बागो में झूला
हरी नाम नहीं तो जीना क्या
अमृत है हरी नाम जगत में,
सुबह सवेरे  लेकर तेरा नाम प्रभु,
करते है हम शुरु आज का काम प्रभु,
तू राधे राधे गा ,
तोहे मिल जाएं सांवरियामिल जाएं
राधे राधे बोल, श्याम भागे चले आयंगे।
एक बार आ गए तो कबू नहीं जायेंगे ॥
फाग खेलन बरसाने आये हैं, नटवर नंद
फाग खेलन बरसाने आये हैं, नटवर नंद
जिनको जिनको सेठ बनाया वो क्या
उनसे तो प्यार है हमसे तकरार है ।
कान्हा की दीवानी बन जाउंगी,
दीवानी बन जाउंगी मस्तानी बन जाउंगी,
ज़रा छलके ज़रा छलके वृदावन देखो
ज़रा हटके ज़रा हटके ज़माने से देखो
यशोमती मैया से बोले नंदलाला,
राधा क्यूँ गोरी, मैं क्यूँ काला
बाँस की बाँसुरिया पे घणो इतरावे,
कोई सोना की जो होती, हीरा मोत्यां की जो
तेरे दर पे आके ज़िन्दगी मेरी
यह तो तेरी नज़र का कमाल है,
तेरे दर की भीख से है,
मेरा आज तक गुज़ारा
दुनिया से मैं हारा तो आया तेरे द्वार,
यहाँ से गर जो हरा कहाँ जाऊँगा सरकार
मुझे रास आ गया है, तेरे दर पे सर झुकाना
तुझे मिल गया पुजारी, मुझे मिल गया
मेरी विनती यही है राधा रानी, कृपा
मुझे तेरा ही सहारा महारानी, चरणों से
हम प्रेम दीवानी हैं, वो प्रेम दीवाना।
ऐ उधो हमे ज्ञान की पोथी ना सुनाना॥
एक दिन वो भोले भंडारी बन कर के ब्रिज की
पारवती भी मना कर ना माने त्रिपुरारी,
बृज के नंदलाला राधा के सांवरिया,
सभी दुःख दूर हुए, जब तेरा नाम लिया।
Ye Saare Khel Tumhare Hai Jag
Kahta Khel Naseebo Ka
हम हाथ उठाकर कह देंगे हम हो गये राधा
राधा राधा राधा राधा
दिल लूटके ले गया नी सहेलियो मेरा
मैं तक्दी रह गयी नी सहेलियो लगदा बड़ा
दिल की हर धड़कन से तेरा नाम निकलता है
तेरे दर्शन को मोहन तेरा दास तरसता है
इतना तो करना स्वामी जब प्राण तन से
गोविन्द नाम लेकर, फिर प्राण तन से
ज़िंदगी मे हज़ारो का मेला जुड़ा
हंस जब जब उड़ा तब अकेला उड़ा
श्री राधा हमारी गोरी गोरी, के नवल
यो तो कालो नहीं है मतवारो, जगत उज्य
मेरी चुनरी में पड़ गयो दाग री कैसो चटक
श्याम मेरी चुनरी में पड़ गयो दाग री
कैसे जीऊं मैं राधा रानी तेरे बिना
मेरा मन ही न लगे श्यामा तेरे बिना
कारे से लाल बनाए गयी रे,
गोरी बरसाने वारी
अरे बदलो ले लूँगी दारी के,
होरी का तोहे बड़ा चाव...

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घर मे पधारौ गजानंद जी मेरे घर में
रिध्धी सिध्धी लेके आओ गणराजा,
मेरे शीश के दानी होना कभी मुझसे दूर,
हारे के सहारे होना कभी मुझसे दूर...
किसने सजाया मुरली वाले को,
बनड़ा बनाया मुरली वाले को,
ऊंचेया पहाड़ा च जयकारे लगदे,
सानु तेरे मन्दर प्यारे लगदे,
भोले जी तनक सो काम हमारो,
मानु एहसान तुम्हारो,