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जाहि निकारो गेह ते क्यों न भेद कहि देइ  [Spiritual Story]
छोटी सी कहानी - Hindi Story (Shikshaprad Kahani)

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'जाहि निकारो गेह ते क्यों न भेद कहि देइ'

कुम्भकर्णसहित अनेक राक्षस सेनापतियोंका वध हो जानेपर इन्द्रजित् मेघनादने युद्धभूमिमें मायामयी सीताका वध कर दिया। इससे सारा रामदल शोक सन्तप्त हो उठा और स्वयं श्रीराम भी मूच्छित हो गये यह देखकर विभीषणने उनसे कहा- 'महाबाहो ! राक्षस इन्द्रजित् वानरोंको मोहमें डालकर चला गया है। जिसका उसने वध किया था, वे मायामयी जानकी थीं ऐसा निश्चित समझिये ।
वह इस समय निकुम्भिला-मन्दिरमें जाकर होम करेगा और जब होम करके लौटेगा, उस समय उस रावणकुमारको संग्राममें परास्त करना इन्द्रसहित सम्पूर्ण देवताओंके लिये भी कठिन होगा। निश्चय ही उसने हमलोगोंको मोहमें डालनेके लिये ही मायाका प्रयोग किया है। उसने सोचा होगा-यदि वानरोंका पराक्रम चलता रहा तो मेरे इस कार्यमें विघ्न पड़ेगा, इसीलिये उसने ऐसा किया है। अतः जबतक उसका होमकर्म समाप्त नहीं होता, उसके पहले ही हमलोग सेनासहित निकुम्भिला-मन्दिरमें चले चलें। नरश्रेष्ठ! झूठे ही प्राप्त इस संतापको त्याग दीजिये। प्रभो! आपको शोक संतप्त होते देख सारी सेना दुःखमें पड़ी हुई है। आप तो धैर्यमें सबसे बढ़े-चढ़े हैं; अतः स्वस्थचित्त होकर यहीं रहिये और सेनाको लेकर जाते हुए हमलोगों के साथ लक्ष्मणजीको भेज दीजिये। ये नरश्रेष्ठ लक्ष्मण अपने पैने बाणोंसे मारकर रावणकुमारको वह होमकर्म त्याग देनेके लिये विवश कर देंगे। इससे वह मारा जा सकेगा। नरेश्वर! शत्रुका विनाश करनेमें अब यह कालक्षेप करना उचित नहीं है। इसलिये आप शत्रुवधके लिये लक्ष्मणको भेजिये । वह राक्षसशिरोमणि इन्द्रजित् जब अपना अनुष्ठान पूरा कर लेगा, तब समरांगणमें देवता और असुर भी उसे देख नहीं सकेंगे। अपना कर्म पूरा करके जब वह युद्धकी इच्छासे रणभूमिमें खड़ा होगा, उस समय देवताओंको भी अपने जीवनकी रक्षाके विषयमें महान् सन्देह होने लगेगा।
उस वीरने तपस्या करके ब्रह्माजीके वरदानसे ब्रह्मशिर नामक अस्त्र और मनचाही गतिसे चलनेवाले घोड़े प्राप्त किये हैं। निश्चय ही इस समय सेनाके साथ वह निकुम्भिलाक्षेत्रमें गया है। वहाँसे अपना हवन-कर्म समाप्त करके यदि वह उठेगा तो हम सब लोगोंको उसके हाथसे मरा ही समझि
महाबाहो ! सम्पूर्ण लोकोंके स्वामी ब्रह्माजीने उसे वरदान देते हुए कहा था- 'इन्द्रशत्रो! निकुम्भिलाक्षेत्रके पास पहुँचने तथा हवन-सम्बन्धी कार्य पूर्ण करनेके पहले ही जो शत्रु तुझ शस्त्रधारीको मारनेके लिये आक्रमण करेगा, उसीके हाथसे तुम्हारा वध होगा।' राजन् ! इस प्रकार बुद्धिमान् इन्द्रजित्की मृत्युका विधान किया गया है।
इसलिये श्रीराम ! आप इन्द्रजित्का वध करनेके लिये महाबली लक्ष्मणको आज्ञा दीजिये। उसके मारे जानेपर रावणको अपने सुहृदोंसहित मरा ही समझिये।'
विभीषणके वचन सुनकर श्रीरामचन्द्रजी शोकका परित्याग करके बोले-'सत्यपराक्रमी विभीषण! उस भयंकर राक्षसकी मायाको मैं जानता हूँ। वह ब्रह्मास्त्रका ज्ञाता, बुद्धिमान्, बहुत बड़ा मायावी और महान् बलवान् है। वरुणसहित सम्पूर्ण देवताओंको भी वह युद्धमें अचेत कर सकता है। महायशस्वी वीर! जब इन्द्रजित् रथसहित आकाशमें विचरने लगता है, उस समय बादलोंमें छिपे हुए सूर्यकी भाँति उसकी गतिका कुछ पता ही नहीं चलता।' विभीषणसे ऐसा कहकर भगवान् श्रीरामने अपने शत्रु दुरात्मा इन्द्रजित्की मायाशक्तिको जानकर यशस्वी वीर लक्ष्मणसे यह बात कही 'लक्ष्मण ! वानरराज सुग्रीवकी जो भी सेना है, वह सब साथ ले हनुमान् आदि यूथपतियों, ऋक्षराज जाम्बवान् तथा अन्य सैनिकोंसे घिरे रहकर तुम मायाबलसे सम्पन्न राक्षसराजकुमार इन्द्रजित्का वध करो। ये महामना राक्षसराज विभीषण उसकी मायाओंसे अच्छी तरह परिचित हैं, अतः अपने मन्त्रियोंके साथ ये भी तुम्हारे पीछे-पीछे जायेंगे।'
श्रीरघुनाथजीकी यह बात सुनकर विभीषणसहित महापराक्रमी लक्ष्मणने अपना श्रेष्ठ धनुष हाथमें लिया । वे युद्धकी सब सामग्री लेकर तैयार हो गये। उन्होंने कवच धारण किया, तलवार बाँध ली और उत्तम वाण तथा बायें हाथमें धनुष ले लिया। तत्पश्चात् श्रीरामचन्द्रजीके चरण छूकर हर्षसे भरे हुए सुमित्राकुमारने कहा- 'आर्य! आज मेरे धनुषसे छूटे हुए बाण रावणकुमारको विदीर्ण करके उसी तरह लंकामें गिरेंगे, जैसे हंस कमलोंसे भरे हुए सरोवरमें उतरते हैं।
इस विशाल धनुषसे छूटे हुए मेरे बाण आज ही उस भयंकर राक्षसके शरीरको विदीर्ण करके उसे कालके गालमें डाल देंगे।' इन्द्रजित्के वधकी अभिलाषा रखनेवाले तेजस्वी लक्ष्मण अपने भाईके सामने ऐसी बात कहकर तुरंत वहाँसे चल दिये। उस समय प्रतापी राजकुमार लक्ष्मणके साथ विभीषण, वीर अंगद तथा पवनकुमार हनुमान् भी थे।
उस समय रावणके छोटे भाई विभीषणने लक्ष्मणसे ऐसी बात कही, जो उनके अभीष्ट अर्थको सिद्ध करनेवाली तथा शत्रुओंके लिये अहितकर थी। वे बोले- लक्ष्मण यह सामने जो की काली घटाके समान राक्षसोंकी सेना दिखायी देती है, उसके साथ शिलारूपी आयुष धारण करनेवाले वानरवोर शीघ्र ही युद्ध छेड़ दें और आप भी इस विशाल वाहिनी के व्यूहका भेदन करनेका प्रयत्न करें। इसका मोर्चा टूटनेपर राक्षसराजका पुत्र इन्द्रजित् भी हमें यहाँ दिखायी देगा।
अतः आप इस हवन कर्मकी समाप्तिके पहले ही वज्रतुल्य बाणोंकी वर्षा करते हुए शत्रुओंपर शीघ्र धावा कीजिये। वीर! वह दुरात्मा रावणकुमार बड़ा ही मायावी, अधर्मी, क्रूर कर्म करनेवाला और सम्पूर्ण लोकोंके लिये भयंकर है; अतः इसका वध कीजिये।' ऐसा कहकर हर्षसे भरे हुए विभीषण धनुर्धर सुमित्राकुमारको साथ लेकर बड़े वेगसे आगे बढ़े। थोड़ी दूर जानेपर विभीषणने एक महान् वनमें प्रवेश करके लक्ष्मणको इन्द्रजितके कर्मानुष्ठानका स्थान दिखाया।
वहाँ एक बरगदका वृक्ष था, जो श्याम मेघके समान सघन और देखनेमें भयंकर था। रावणके तेजस्वी भ्राता विभीषणने लक्ष्मणको वहाँकी सब वस्तुएँ दिखाकर कहा- 'सुमित्रानन्दन ! यह बलवान् रावणकुमार प्रतिदिन यहीं आकर पहले भूतोंको बलि देता है, उसके बाद युद्धमें प्रवृत्त होता है। इसीसे संग्रामभूमिमें यह राक्षस सम्पूर्ण भूतोंके लिये अदृश्य हो जाता है और उत्तम बाणोंसे शत्रुओंको मारता तथा बाँध लेता है। अतः जबतक यह इस बरगदके नीचे आये, उसके पहले ही आप अपने तेजस्वी बाणद्वारा इस बलवान् रावणकुमारको रथ, घोड़े और सारथिसहित नष्ट कर दीजिये।'
तब 'बहुत अच्छा' कहकर मित्रोंका आनन्द बढ़ानेवाले महातेजस्वी सुमित्राकुमार अपने विचित्र धनुषकी टंकार करते हुए वहाँ खड़े हो गये। इतनेमें ही बलवान् रावणकुमार इन्द्रजित् अग्निके समान तेजस्वी रथपर बैठा हुआ कवच, खड्ग और ध्वजाके साथ दिखायी पड़ा।
तब महातेजस्वी लक्ष्मणने पराजित न होनेवाले पुलस्त्यकुलनन्दन इन्द्रजित्से कहा- 'राक्षसकुमार! मैं तुम्हें युद्धके लिये ललकारता हूँ। तुम अच्छी तरह सँभलकर मेरे साथ युद्ध करो'। लक्ष्मणके ऐसा कहनेपर महातेजस्वी और मनस्वी रावणकुमारने वहाँ विभीषणको उपस्थित देख कठोर शब्दोंमें कहा- 'राक्षस! यहीं तुम्हारा जन्म हुआ और यहीं बढ़कर तुम इतने बड़े हुए। तुम मेरे पिताके सगे भाई और मेरे चाचा हो । फिर तुम अपने पुत्रसे- मुझसे क्यों द्रोह करते हो ?
दुर्मते! तुममें न तो कुटुम्बीजनोंके प्रति अपनापनका भाव है, न आत्मीयजनोंके प्रति स्नेह है और न अपनी जातिका अभिमान ही है। तुममें कर्तव्य-अकर्तव्यकी मर्यादा, भ्रातृप्रेम और धर्म कुछ भी नहीं है। तुम राक्षस-धर्मको कलंकित करनेवाले हो ।
'दुर्बुद्धे! तुमने स्वजनोंका परित्याग करके दूसरोंकी गुलामी स्वीकार की है। अत: तुम सत्पुरुषोंद्वारा निन्दनीय और शोकके योग्य हो। नीच निशाचर! तुम अपनी शिथिल बुद्धिके द्वारा इस महान् अन्तरको नहीं समझ पा रहे हो कि कहाँ तो स्वजनोंके साथ रहकर स्वच्छन्दताका आनन्द लेना और कहाँ दूसरोंकी गुलामी करके जीना है। दूसरे लोग कितने ही गुणवान् क्यों न हों और स्वजन गुणहीन ही क्यों न हो? वह गुणहीन स्वजन भी दूसरोंकी अपेक्षा श्रेष्ठ ही है; क्योंकि दूसरा दूसरा ही होता है, वह कभी अपना नहीं हो सकता । जो अपने पक्षको छोड़कर दूसरे पक्षके लोगोंका सेवन करता है, वह अपने पक्षके नष्ट हो जानेपर फिर उन्हींके द्वारा मार डाला जाता है।
रावणके छोटे भाई निशाचर! तुमने लक्ष्मणको इस स्थानतक ले आकर मेरा वध करानेके लिये प्रयत्न करके यह जैसी निर्दयता दिखायी है, ऐसा पुरुषार्थ तुम्हारे जैसा स्वजन ही कर सकता है तुम्हारे सिवा दूसरे किसी स्वजनके लिये ऐसा करना सम्भव नहीं है।'
अपने भतीजेके ऐसा कहनेपर विभीषणने उत्तर दिया- 'राक्षस! तू आज ऐसी शेखी क्यों बघारता है ? जान पड़ता है तुझे मेरे स्वभावका पता ही नहीं है।
अधम ! राक्षसराजकुमार ! बड़ोंके बड़प्पनका खयाल करके तू इस कठोरताका परित्याग कर दे। यद्यपि मेरा जन्म क्रूरकर्मा राक्षसोंके कुलमें ही हुआ है, तथापि मेरा शील स्वभाव राक्षसोंका-सा नहीं है। सत्पुरुषोंका जो प्रधान गुण सत्त्व है, मैंने उसीका आश्रय ले रखा है।
क्रूरतापूर्ण कर्ममें मेरा मन नहीं लगता। अधर्ममें मेरी रुचि नहीं होती। यदि अपने भाईका शील स्वभाव अपनेसे न मिलता हो तो भी बड़ा भाई छोटे भाईको कैसे घरसे निकाल सकता है ? परंतु मुझे घरसे निकाल दिया गया, फिर मैं दूसरे सत्पुरुषका आश्रय क्यों न लूँ?
जिसका शील-स्वभाव धर्मसे भ्रष्ट हो गया हो, जिसने पाप करनेका दृढ़ निश्चय कर लिया हो, ऐसे पुरुषका त्याग करके प्रत्येक प्राणी उसी प्रकार सुखी होता है - जैसे हाथपर बैठे हुए जहरीले सर्पको त्याग देनेसे मनुष्य निर्भय हो जाता है ।
जो दूसरोंका धन लूटता हो और परायी स्त्रीपर हाथ लगाता हो, उस दुरात्माको जलते हुए घरकी भाँति त्याग देनेयोग्य बताया गया है। पराये धनका अपहरण, परस्त्रीके साथ संसर्ग और अपने हितैषी सुहृदोंपर अधिक शंका- अविश्वास-ये तीन दोष विनाशकारी बताये गये हैं। महर्षियोंका भयंकर वध, सम्पूर्ण देवताओंके साथ विरोध, अभिमान, रोष, वैर और धर्मके प्रतिकूल चलना ये दोष मेरे भाईमें मौजूद हैं, जो उसके प्राण और ऐश्वर्य दोनोंका नाश करनेवाले हैं। जैसे बादल पर्वतोंको आच्छादित कर देते हैं, उसी प्रकार इन दोषोंने मेरे भाईके सारे गुणोंको ढक दिया है। इन्हीं दोषोंके कारण मैंने अपने भाई एवं तेरे पिताका त्याग किया है। अब न तो यह लंकापुरी रहेगी, न तू रहेगा और न तेरे पिता ही रह जायँगे। राक्षस! तू अत्यन्त अभिमानी, उद्दण्ड और मूर्ख है, कालके पाशमें बँधा हुआ है; इसलिये तेरी जो-जो इच्छा हो, मुझे कह ले। नीच राक्षस! तूने मुझसे जो कठोर बात कही है, उसीका यह फल है कि आज तुझपर यहाँ घोर संकट आया है। अब तू बरगदके नीचेतक नहीं जा सकता। ककुत्स्थकुलभूषण लक्ष्मणका तिरस्कार करके तू जीवित नहीं रह सकता; अतः इन नरदेव लक्ष्मणके साथ रणभूमिमें युद्ध कर। यहाँ मारा जाकर तू यमलोक में पहुँचेगा और देवताओंका कार्य करेगा, उन्हें संतुष्ट करेगा।
अब तू अपना बढ़ा हुआ सारा बल दिखा, समस्त आयुधों और सायकोंका व्यय कर ले; परंतु लक्ष्मणके बाणोंका निशाना बनकर आज तू सेनासहित जीवित नहीं लौट सकेगा।'
विभीषणकी यह बात सुनकर रावणकुमार इन्द्रजित् क्रोधसे मूच्छित-सा हो उठा। वह रोषपूर्वक कठोर बातें कहने लगा और उछलकर सामने आ गया और बोला- 'लक्ष्मण ! उस दिन रात्रियुद्धमें मैंने वज्र और अशनिके समान तेजस्वी बाणोंद्वारा जो पहले तुम दोनों भाइयोंको रणभूमिमें सुला दिया था और तुमलोग अपने अग्रगामी सैनिकोंसहित मूच्छित होकर पड़े थे, मैं समझता हूँ, उसका इस समय तुम्हें स्मरण नहीं हो रहा है। विषधर सर्पके समान रोषसे भरे हुए मुझ इन्द्रजित् के साथ जो तुम युद्ध करनेके लिये उपस्थित हो गये, उससे स्पष्ट जान पड़ता है कि यमलोकमें जानेके लिये उद्यत हो'
राक्षसराजके बेटेकी वह गर्जना सुनकर रघुकुलनन्दन लक्ष्मण कुपित हो उठे। उनके मुखपर भयका कोई चिह्न नहीं था। वे उस रावणकुमारसे बोले-'निशाचर! तुमने केवल वाणीद्वारा अपने शत्रुवध आदि कार्योंकी पूर्तिके लिये घोषणा कर दी; परंतु उन कार्योंको पूरा करना तुम्हारे लिये बहुत ही कठिन है। जो क्रियाद्वारा कर्तव्यकर्मोके पार पहुँचता है अर्थात् जो कहता नहीं, काम पूरा करके दिखा देता है, वही पुरुष बुद्धिमान् है।'
यह कहकर लक्ष्मणने एक उत्तम वाणको ऐन्द्रास्त्रसे संयोजितकर इन्द्रजित्पर चला दिया, जिसने उसके मुकुटकुण्डलमण्डित मस्तकको धड़से पृथक् कर दिया।
इस प्रकार विभीषणके द्वारा भेद बता दिये जानेके कारण इन्द्रजित्की मृत्यु हुई। अतः अपने कुटुम्बियों को कभी भी अपमानित नहीं करना चाहिये।
[ वाल्मीकीय रामायण



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jaahi nikaaro geh te kyon n bhed kahi dei

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'jaahi nikaaro geh te kyon n bhed kahi dei'

kumbhakarnasahit anek raakshas senaapatiyonka vadh ho jaanepar indrajit meghanaadane yuddhabhoomimen maayaamayee seetaaka vadh kar diyaa. isase saara raamadal shok santapt ho utha aur svayan shreeraam bhee moochchhit ho gaye yah dekhakar vibheeshanane unase kahaa- 'mahaabaaho ! raakshas indrajit vaanaronko mohamen daalakar chala gaya hai. jisaka usane vadh kiya tha, ve maayaamayee jaanakee theen aisa nishchit samajhiye .
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durmate! tumamen n to kutumbeejanonke prati apanaapanaka bhaav hai, n aatmeeyajanonke prati sneh hai aur n apanee jaatika abhimaan hee hai. tumamen kartavya-akartavyakee maryaada, bhraatriprem aur dharm kuchh bhee naheen hai. tum raakshasa-dharmako kalankit karanevaale ho .
'durbuddhe! tumane svajanonka parityaag karake doosaronkee gulaamee sveekaar kee hai. ata: tum satpurushondvaara nindaneey aur shokake yogy ho. neech nishaachara! tum apanee shithil buddhike dvaara is mahaan antarako naheen samajh pa rahe ho ki kahaan to svajanonke saath rahakar svachchhandataaka aanand lena aur kahaan doosaronkee gulaamee karake jeena hai. doosare log kitane hee gunavaan kyon n hon aur svajan gunaheen hee kyon n ho? vah gunaheen svajan bhee doosaronkee apeksha shreshth hee hai; kyonki doosara doosara hee hota hai, vah kabhee apana naheen ho sakata . jo apane pakshako chhoda़kar doosare pakshake logonka sevan karata hai, vah apane pakshake nasht ho jaanepar phir unheenke dvaara maar daala jaata hai.
raavanake chhote bhaaee nishaachara! tumane lakshmanako is sthaanatak le aakar mera vadh karaaneke liye prayatn karake yah jaisee nirdayata dikhaayee hai, aisa purushaarth tumhaare jaisa svajan hee kar sakata hai tumhaare siva doosare kisee svajanake liye aisa karana sambhav naheen hai.'
apane bhateejeke aisa kahanepar vibheeshanane uttar diyaa- 'raakshasa! too aaj aisee shekhee kyon baghaarata hai ? jaan pada़ta hai tujhe mere svabhaavaka pata hee naheen hai.
adham ! raakshasaraajakumaar ! bada़onke bada़ppanaka khayaal karake too is kathorataaka parityaag kar de. yadyapi mera janm kroorakarma raakshasonke kulamen hee hua hai, tathaapi mera sheel svabhaav raakshasonkaa-sa naheen hai. satpurushonka jo pradhaan gun sattv hai, mainne useeka aashray le rakha hai.
kroorataapoorn karmamen mera man naheen lagataa. adharmamen meree ruchi naheen hotee. yadi apane bhaaeeka sheel svabhaav apanese n milata ho to bhee bada़a bhaaee chhote bhaaeeko kaise gharase nikaal sakata hai ? parantu mujhe gharase nikaal diya gaya, phir main doosare satpurushaka aashray kyon n loon?
jisaka sheela-svabhaav dharmase bhrasht ho gaya ho, jisane paap karaneka dridha़ nishchay kar liya ho, aise purushaka tyaag karake pratyek praanee usee prakaar sukhee hota hai - jaise haathapar baithe hue jahareele sarpako tyaag denese manushy nirbhay ho jaata hai .
jo doosaronka dhan lootata ho aur paraayee streepar haath lagaata ho, us duraatmaako jalate hue gharakee bhaanti tyaag deneyogy bataaya gaya hai. paraaye dhanaka apaharan, parastreeke saath sansarg aur apane hitaishee suhridonpar adhik shankaa- avishvaasa-ye teen dosh vinaashakaaree bataaye gaye hain. maharshiyonka bhayankar vadh, sampoorn devataaonke saath virodh, abhimaan, rosh, vair aur dharmake pratikool chalana ye dosh mere bhaaeemen maujood hain, jo usake praan aur aishvary dononka naash karanevaale hain. jaise baadal parvatonko aachchhaadit kar dete hain, usee prakaar in doshonne mere bhaaeeke saare gunonko dhak diya hai. inheen doshonke kaaran mainne apane bhaaee evan tere pitaaka tyaag kiya hai. ab n to yah lankaapuree rahegee, n too rahega aur n tere pita hee rah jaayange. raakshasa! too atyant abhimaanee, uddand aur moorkh hai, kaalake paashamen bandha hua hai; isaliye teree jo-jo ichchha ho, mujhe kah le. neech raakshasa! toone mujhase jo kathor baat kahee hai, useeka yah phal hai ki aaj tujhapar yahaan ghor sankat aaya hai. ab too baragadake neechetak naheen ja sakataa. kakutsthakulabhooshan lakshmanaka tiraskaar karake too jeevit naheen rah sakataa; atah in naradev lakshmanake saath ranabhoomimen yuddh kara. yahaan maara jaakar too yamalok men pahunchega aur devataaonka kaary karega, unhen santusht karegaa.
ab too apana baढ़a hua saara bal dikha, samast aayudhon aur saayakonka vyay kar le; parantu lakshmanake baanonka nishaana banakar aaj too senaasahit jeevit naheen laut sakegaa.'
vibheeshanakee yah baat sunakar raavanakumaar indrajit krodhase moochchhita-sa ho uthaa. vah roshapoorvak kathor baaten kahane laga aur uchhalakar saamane a gaya aur bolaa- 'lakshman ! us din raatriyuddhamen mainne vajr aur ashanike samaan tejasvee baanondvaara jo pahale tum donon bhaaiyonko ranabhoomimen sula diya tha aur tumalog apane agragaamee sainikonsahit moochchhit hokar pada़e the, main samajhata hoon, usaka is samay tumhen smaran naheen ho raha hai. vishadhar sarpake samaan roshase bhare hue mujh indrajit ke saath jo tum yuddh karaneke liye upasthit ho gaye, usase spasht jaan pada़ta hai ki yamalokamen jaaneke liye udyat ho'
raakshasaraajake betekee vah garjana sunakar raghukulanandan lakshman kupit ho uthe. unake mukhapar bhayaka koee chihn naheen thaa. ve us raavanakumaarase bole-'nishaachara! tumane keval vaaneedvaara apane shatruvadh aadi kaaryonkee poortike liye ghoshana kar dee; parantu un kaaryonko poora karana tumhaare liye bahut hee kathin hai. jo kriyaadvaara kartavyakarmoke paar pahunchata hai arthaat jo kahata naheen, kaam poora karake dikha deta hai, vahee purush buddhimaan hai.'
yah kahakar lakshmanane ek uttam vaanako aindraastrase sanyojitakar indrajitpar chala diya, jisane usake mukutakundalamandit mastakako dhada़se prithak kar diyaa.
is prakaar vibheeshanake dvaara bhed bata diye jaaneke kaaran indrajitkee mrityu huee. atah apane kutumbiyon ko kabhee bhee apamaanit naheen karana chaahiye.
[ vaalmeekeey raamaayana

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दुनिया का बन कर देख लिया, श्यामा का बन
राधा नाम में कितनी शक्ति है, इस राह पर
राधा नाम की लगाई फुलवारी, के पत्ता
के पत्ता पत्ता श्याम बोलता, के पत्ता
राधे तु कितनी प्यारी है ॥
तेरे संग में बांके बिहारी कृष्ण
मैं मिलन की प्यासी धारा
तुम रस के सागर रसिया हो
मेरा यार यशुदा कुंवर हो चूका है
वो दिल हो चूका है जिगर हो चूका है
बोल कान्हा बोल गलत काम कैसे हो गया,
बिना शादी के तू राधे श्याम कैसे हो गया
श्यामा तेरे चरणों की गर धूल जो मिल
सच कहता हूँ मेरी तकदीर बदल जाए॥
मेरी चुनरी में पड़ गयो दाग री कैसो चटक
श्याम मेरी चुनरी में पड़ गयो दाग री
साँवरिया ऐसी तान सुना,
ऐसी तान सुना मेरे मोहन, मैं नाचू तू गा ।
इक तारा वाजदा जी हर दम गोविन्द गोविन्द
जग ताने देंदा ए, तै मैनु कोई फरक नहीं
सुबह सवेरे  लेकर तेरा नाम प्रभु,
करते है हम शुरु आज का काम प्रभु,
तेरी मंद मंद मुस्कनिया पे ,बलिहार
तेरी मंद मंद मुस्कनिया पे ,बलिहार
अच्युतम केशवं राम नारायणं,
कृष्ण दमोधराम वासुदेवं हरिं,
रसिया को नार बनावो री रसिया को
रसिया को नार बनावो री रसिया को
तुम रूठे रहो मोहन,
हम तुमको मन लेंगे
सांवरे से मिलने का, सत्संग ही बहाना है,
चलो सत्संग में चलें, हमें हरी गुण गाना
कोई कहे गोविंदा कोई गोपाला,
मैं तो कहूँ सांवरिया बांसुरी वाला ।
राधे राधे बोल, श्याम भागे चले आयंगे।
एक बार आ गए तो कबू नहीं जायेंगे ॥
एक कोर कृपा की करदो स्वामिनी श्री
दासी की झोली भर दो लाडली श्री राधे॥
मेरे बांके बिहारी बड़े प्यारे लगते
कही नज़र न लगे इनको हमारी
राधा कट दी है गलिआं दे मोड़ आज मेरे
श्याम ने आना घनश्याम ने आना
मेरा आपकी कृपा से,
सब काम हो रहा है
वास देदो किशोरी जी बरसाना,
छोडो छोडो जी छोडो जी तरसाना ।
ज़िंदगी मे हज़ारो का मेला जुड़ा
हंस जब जब उड़ा तब अकेला उड़ा
सब के संकट दूर करेगी, यह बरसाने वाली,
बजाओ राधा नाम की ताली ।
दुनिया से मैं हारा तो आया तेरे द्वार,
यहाँ से गर जो हरा कहाँ जाऊँगा सरकार
श्याम बुलाये राधा नहीं आये,
आजा मेरी प्यारी राधे बागो में झूला
सज धज कर जिस दिन मौत की शहजादी आएगी,
ना सोना काम आएगा, ना चांदी आएगी।
कोई कहे गोविंदा, कोई गोपाला।
मैं तो कहुँ सांवरिया बाँसुरिया वाला॥
बांके बिहारी की देख छटा,
मेरो मन है गयो लटा पटा।

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बड़े तन मन से करे राम जी की शरण रहे,
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कहा जा छुपा है मेरे मुरली वाला,
पीले फूलों की बगिया सुहानी,
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अब ख़ज़ाना तू प्यार का लुटा दे...
जब जब लिया सहारा तेरा बिगड़े बने मेरे
सुख दुख में मेरे जीवन साथी बन गए