अहन्ताके त्यागसे ही जीवन्मुक्ति
एक राजा था, वह अत्यन्त विचारशील था। एक बार वह विचार करते-करते व्याकुल हो उठा, उसे वैराग्य हो आया और राजा शोकाकुल मुद्रामें अन्त: पुर जा पहुँचा। वहाँ सदाके रिवाजके अनुसार रानी और उसकी दासियाँ सेवामें उपस्थित हुईं। राजाने कहा- 'हे रानी ! जब यह शरीर ही कालके मुँहमें पड़ा है, तब फिर तुमसे क्या प्रयोजन है ? दास-दासियोंसे क्या प्रयोजन है ? भोग-विलासका क्या अर्थ है? मेरी दशा तो आज उस मेढक-सी लगती है।
यह सुनकर रानी जरा घबरायी और उसने पूछा 'आप होशमें तो हैं न? मेढककी बात क्या कर रहे हैं ?" राजाने कहा - ' इस समय तो मैं पूरे होशमें हूँ, परंतु ऐसा कितनी देरतक रह सकूँगा, यह कह नहीं सकता। हमारे वृद्ध मन्त्रीने मुझे एक श्लोक सिखलाया था, वह याद आ गया। इसीसे मैंने मेढककी बात कही है। वह श्लोक सुनो
यथा व्यालगलस्थोऽपि भेको दंशानपेक्षते ।
तथा कालाहिग्रस्तोऽपि लोको भोगानशाश्वतान् ॥
मेढकका आधा शरीर सर्पके मुँहमें होता है, ऐसी स्थितिमें भी मेढक अपना मुँह खोलकर जन्तु पकड़नेकी कोशिश करता है। इसी प्रकार मनुष्य भी कालसर्पके मुँह हो पड़ा है-काल कब आकर निगल जायगा. इसको कुछ खबर न होनेपर भी मनुष्य इन्द्रियोंके नश्वर भोगोंके पीछे जीवन बरबाद करता है। है रानी मेरी भी ऐसी ही स्थिति है।
इतना कहते-कहते राजा बेहोश हो गया। थोड़ी देरके बाद होशमें आनेपर उसने बाहर दरबारमें जाकर मुख्यमन्त्रीको बुलवा भेजा। मन्त्रीके आनेपर राजाने उससे कहा- 'हे मन्त्रिवर! आप तो मेरे पिताकी जगह हैं, इसलिये आपसे मैं अपने हृदयकी बात कहता हूँ।' 'हे पितृतुल्य गुरुजन! मुझको सचमुच वैराग्य हो गया है। इसलिये अब संन्यासी होकर जंगलमें चले जानेकी मेरी उत्कट इच्छा हो गयी है। अबतक तो नासमझके समान मैंने पशु-जीवन बिताया, परंतु अब ईश्वर-भजन करके मुक्ति साथ लेनी है।'
मन्त्रीने कहा- राजन्। आपका विचार बहुत उत्तम है और मनुष्यका जन्म तो भजन करके प्रभुप्राप्ति कर लेनेके लिये ही मिलता है। जो मनुष्य ऐसा न करके केवल विषय सेवनमें ही जीवन बिताता है, उसका मनुष्य जन्म व्यर्थ हो गया समझो।
मनुष्य शरीर प्राप्त होना उन्नतिके शिखरपर पहुँच जाना माना जाता है। पर वहाँ पहुँचनेपर भी जो मनुष्य ईश्वर प्राप्ति नहीं कर लेता, वह फिर नीचे गिरता है। यानी उसको दूसरा निकृष्ट शरीर धारण करना पड़ता है। ऐसे मनुष्योंको शास्त्र आत्महत्यारा कहते हैं। हे राजन्। यों तो आपकी बात बहुत उत्तम है। परंतु समझ-बूझकर किया हुआ व्याग ही टिक सकता है। आवेशमें आकर किया हुआ त्याग टिकता नहीं बल्कि दुःखरूप बनता है। इसलिये आप क्या करनेके लिये संन्यासी बनते हैं, यह समझ लेनेके बाद ही यदि त्यागके मार्गपर चलेंगे, तो बहुत अच्छा होगा।
आपको समझना चाहिये कि आप किसलिये संन्यासी हो रहे हैं और किस वस्तुका त्याग कर रहे हैं। यदि राज्यसे संन्यास लेना है और उसका त्याग करना है, तब तो यह होनेयोग्य बात नहीं है; क्योंकि यह राज्य कोई आपका नहीं है। आपके जन्मसे पहले भी यह राज्य तो था ही और आपके पिता इसके अभिमानी थे। उनसे पहले भी यह राज्य था और उसका अभिमानी भी कोई दूसरा रहा होगा। इसी प्रकार आप भी यह जगत् छोड़कर चले जायँगे, उसके बाद भी यह राज्य तो रहेगा ही और आपके राजकुमार इसके अभिमानी बनेंगे। यदि राज्य आपका होता तो आपके साथ आया होता और फिर आपके साथ चला भी जाता । परंतु ऐसा होता नहीं दीखता ।
हे राजन्! जो वस्तु दुःखदायक होती है, उसका त्याग करना तो मनुष्यके लिये उचित ही है, पर जिससे दुःख नहीं होता हो, उसका त्याग कोई नहीं करता। यदि राज्यमें कोई दुःख देनेवाली शक्ति होती, तो राज्यके अभिमानी सब पुरुषोंको उससे दुःख होता। अपने परिवारको तथा सेवक-वर्गको तो राज्य सुखरूप लगता है। इस प्रकार सुख-दुःख तो मनकी मानी वस्तु है, पदार्थ कोई सुख-दुःख नहीं दे सकते। आपने राज्यमें दुःखकी कल्पना कर ली है, इसलिये आपको वह दुःखरूप लगता है। अन्य लोगोंने उसमें सुखकी कल्पना की है, इसलिये उनको राज्य सुखरूप लगता है।
यदि कहो कि मैं महलसे अलग होता हूँ, तो यह भी ठीक नहीं। महलसे तो आप स्वभावसे ही अलग हैं। आप सदैव कहते हैं 'मेरा महल' - और 'मैं महल हूँ'- ऐसा आप कभी नहीं कहते हैं। इसलिये महलसे आप भिन्न हैं। फिर महल भी कुछ आपका है नहीं, जो आप इसका त्याग कर सकें। महलमें आप अकेले ही नहीं रहते। आपका परिवार, बन्धु बान्धव आदि भी रहते हैं। इसी प्रकार अनेकों चूहे, पशु, पक्षी और कीड़े-मकोड़े भी रहते हैं। यदि महलसे दुःख होता, तो सब प्राणियोंको इससे दुःख होना चाहिये; परंतु ऐसा दीखता नहीं, आप उसमें दुःखकी कल्पना करते हैं, इसलिये आज आपको वह दुःखरूप दीख पड़ता है। पहले जब ऐसी कल्पना नहीं थी, तब महल दुःखरूप नहीं दीखता था। इस प्रकार सुख-दुःख तो मनकी कल्पना है।
यदि कहो कि मैं इस स्त्री-पुत्रादि परिवारसे अलग होता हूँ, तो यह भी ठीक नहीं है। अपने स्त्री-पुत्रादि तथा स्वजनोंसे आप अलग ही हैं, एकरूप नहीं हैं। यह परिवारका मेला तो धर्मशालामें इकट्ठे हुए यात्रियोंके समान क्षणिक है। शाम होते ही मुसाफिर इकट्ठे हो जाते हैं और सबेरा होते ही वे अपने-अपने मार्गसे चले जाते हैं। इसी प्रकार एक शरीरके छूट जानेपर उसके सम्बन्धियोंके साथ सम्बन्ध छूट जाता है। जैसे नींद टूट जानेपर स्वप्नका मेला बिखर जाता है और दूसरा स्वप्न आनेपर फिर नया मेला लग जाता है। इसी प्रकार शरीर-शरीरसे नया सम्बन्ध होता जाता है और पुराना टूटता जाता है।
यह सुनकर राजा विचारमें पड़ गया। कुछ देर चुप रहकर फिर बोला- 'हे मन्त्रिवर! तब तो एक ही रास्ता बचा। मेरे लिये चिता तैयार कराओ, जिससे शरीरको जलाकर शरीरके कर्तव्योंसे निष्कर्तव्य हो जाऊँ । शान्तिके लिये दूसरी कोई बात नहीं सूझती।'
तब मन्त्रीने कहा- 'राजन्! शरीरको जलानेसे यदि शान्ति मिलती होती, तो शरीर तो सबका जलता है; परंतु शान्ति किसीको नहीं मिलती। आपके अनेकों जन्म हो गये, शरीर तो हजारों बार जलाया गया होगा। परंतु दुःख दूर नहीं हुआ, यह तो आँखोंसे दीखता है। तब फिर इस वर्तमान शरीरको जलानेसे दुःख कैसे दूर होगा, यह विचारणीय है। सर्पकी केंचुलीको मारने या उसको जलानेसे सर्प नहीं मरता तथा केंचुलीको नष्ट करना कोई जरूरी भी नहीं होता; क्योंकि विष तो सर्पमें रहता है, उसकी केंचुलीमें नहीं होता। इसी प्रकार अपना यह शरीर तो अहंकाररूप सर्पकी केंचुलीके समान है। देहके नाशसे अहंकारका नाश नहीं होता।
दुःख देनेवाला तो अहंकार है । उसका यदि त्याग करें तो आप सच्चे त्यागी कहला सकते हैं। 'मैं राजा हूँ और इसलिये यह सब मेरा है'- यही अहंकारका स्वरूप है। अब इस अहंकारको छोड़ दीजिये और फिर विचार कीजिये कि आप कौन हैं ? आपका कौन है ? तथा आप किसके हैं ?"
राजा कहने लगा-'मैं और मेरा' कहनेवाले अहंकारको ही जला दिया, तब फिर कौन कहेगा कि मैं अमुक हूँ, या अमुक मेरा है अथवा मैं अमुकका हूँ ? जबतक अहंकार है, तभीतक 'मेरे और तेरे ' का भ्रम है।'
तब मन्त्रीने कहा -लाख बातकी एक बात यह समझ लीजिये। देखिये, जबतक शरीर है, तबतक तो उसके रहनेके लिये कोई न कोई आश्रय चाहिये ही। फिर वह चाहे महल हो या गुरुका मठ अथवा आश्रम या जंगलमें घासकी झोपड़ी हो। यदि अहंकार नहीं है, तो आश्रयके रूपमें तीनों ही समान हैं और यदि अहंकार है, तो प्रत्येकमें अभिमान उपस्थित हुए बिना न रहेगा। महलमें रहनेसे 'मैं राजा हूँ' यह अभिमान होगा और आश्रम या पर्णकुटीमें रहनेसे 'मैं महान् त्यागी हूँ' यह अभिमान हुए बिना न रहेगा। इसलिये सुख-दुःखका कारण या उनके ग्रहण त्यागकी इच्छा करनेवाला अहंकार ही है। जबतक शरीर है, तबतक शौच-स्नानादि शरीरके धर्मोका पालन किये बिना नहीं चलता। इसकी व्यवस्था भी सब जगह एक-सी ही करनी पड़ेगी और ऐसा करनेमें भी यदि अहंकार होगा, तो सुख-दुःखके प्रसंग आये बिना नहीं रहेंगे। यदि अहंकार नहीं है, तो सब स्थितियोंमें एक-समान आनन्द है। इसलिये हे राजन्! मेरी सलाह तो यह है 'जबतक शरीर है, तबतक यथाप्राप्तमें सन्तुष्ट रहें और राग-द्वेषरहित होकर सब व्यवहार यथायोग्य करें।' यों करनेसे आपको सुख-दुःख न होगा; क्योंकि सुख-दुःखको उत्पन्न करनेवाले तो राग और द्वेष हैं और वे अहंकारके कारण उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार अहंकारके त्यागसे सर्वस्वका त्याग हो जाता है और बिना माँगे मुक्ति मिल जाती है।
जिस प्रकार राजा जनकने देहाभिमान त्यागकर रागद्वेषरहित होकर राज्यपालन किया और जीवन्मुक्त यानी जीवित रहते ही विदेह कहलाये। उसी प्रकार आप भी यदि अहन्ताका त्याग करके राज्य करेंगे, तो आपको भी किसी प्रकारका बन्धन नहीं होगा। [ ब्रह्मलीन सन्त स्वामी श्रीचिदानन्दजी सरस्वती, सिहोरवाले ]
ahantaake tyaagase hee jeevanmukti
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raaja kahane lagaa-'main aur meraa' kahanevaale ahankaarako hee jala diya, tab phir kaun kahega ki main amuk hoon, ya amuk mera hai athava main amukaka hoon ? jabatak ahankaar hai, tabheetak 'mere aur tere ' ka bhram hai.'
tab mantreene kaha -laakh baatakee ek baat yah samajh leejiye. dekhiye, jabatak shareer hai, tabatak to usake rahaneke liye koee n koee aashray chaahiye hee. phir vah chaahe mahal ho ya guruka math athava aashram ya jangalamen ghaasakee jhopada़ee ho. yadi ahankaar naheen hai, to aashrayake roopamen teenon hee samaan hain aur yadi ahankaar hai, to pratyekamen abhimaan upasthit hue bina n rahegaa. mahalamen rahanese 'main raaja hoon' yah abhimaan hoga aur aashram ya parnakuteemen rahanese 'main mahaan tyaagee hoon' yah abhimaan hue bina n rahegaa. isaliye sukha-duhkhaka kaaran ya unake grahan tyaagakee ichchha karanevaala ahankaar hee hai. jabatak shareer hai, tabatak shaucha-snaanaadi shareerake dharmoka paalan kiye bina naheen chalataa. isakee vyavastha bhee sab jagah eka-see hee karanee pada़egee aur aisa karanemen bhee yadi ahankaar hoga, to sukha-duhkhake prasang aaye bina naheen rahenge. yadi ahankaar naheen hai, to sab sthitiyonmen eka-samaan aanand hai. isaliye he raajan! meree salaah to yah hai 'jabatak shareer hai, tabatak yathaapraaptamen santusht rahen aur raaga-dvesharahit hokar sab vyavahaar yathaayogy karen.' yon karanese aapako sukha-duhkh n hogaa; kyonki sukha-duhkhako utpann karanevaale to raag aur dvesh hain aur ve ahankaarake kaaran utpann hote hain. is prakaar ahankaarake tyaagase sarvasvaka tyaag ho jaata hai aur bina maange mukti mil jaatee hai.
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