पूज्य सदैव सम्माननीय
वेद-शास्त्रादि विभिन्न ग्रन्थोंमें पूज्योंका आदर करने तथा उनका कभी अपमान न करनेके अनेक वचन और कितने ही उदाहरण मिलते हैं। इसीलिये नीति वचनमें कहा गया है
अन्नपदाः पूयान् नैकापमानयेत्।
इक्ष्वाकूणां नाशाग्नेस्तेजो वृशावमानतः ॥
अर्थात् कोई कितने ही ऊँचे पदपर पहुँच जाय, भूल करके भी पूज्योंका अपमान न करे, क्योंकि इक्ष्वाकु वंशीय वृष्ण यरुण राजाने अपने पुरोहित वृशऋषिका अपमान किया तो उनके राज्यमें अग्निका तेज ही नष्ट हो गया। यह अद्भुत वैदिक कथा इस प्रकार है
सप्तसिन्धवके प्रतापशाली सम्राटोंमें इक्ष्वाकुवंशीय महाराज वृष्ण त्र्यरुण अत्यन्त प्रतापी और उच्च कोटिके विद्वान् राजा हुए हैं। सत्यनिष्ठा, प्रजावत्सलता, उदारता आदि सभी प्रशंसनीय सद्गुण मानो उन जैसे सत्पात्रमें बसनेके लिये अहमहमिकासे लालायित रहते। समन्वयके उस सेतुको पाकर संसारमें प्रायः दीखनेवाला लक्ष्मी सरस्वतीका विरोध भी मानो सदाके लिये मिट गया।
महाराजकी तरह उनके पुरोहित वृशऋषि उच्च कोटिके अद्वितीय विद्वान्, मन्त्रद्रष्टा, आभिचारिकादि कर्मोंमें अतिनिष्णात ब्रह्मवेत्ता थे। साथ ही वे अत्यन्त शूर-वीर भी थे।
प्राचीन भारतीय राजनीतिमें पुरोहित राजाकी मन्त्रि परिषद्का प्रमुख घटक माना जाता था। जहाँ राजाकी क्षात्र-शक्ति प्रजामें आधिभौतिक सुख-सुविधा और शान्तिके सुस्थापनार्थ समस्त लौकिक साधनोंका संयोजन और बाधक तत्त्वोंका विघटन करती थी, वहीं पुरोहितकी ब्राह्मशक्ति आध्यात्मिक एवं आधिदैविक सुख - शान्तिके साधन जुटाने और आधिदैविक बाधाओंको मिटा देनेके काम आती। इस तरह 'इदं ब्राह्यमिदं क्षात्रम्' दोनों प्रकारसे पोषित महाराज त्रैवृष्णकी प्रजा सर्वविध सुख सुविधाओंसे परिपूर्ण रहा करती। वृशऋषि-जैसे सर्वसमर्थ पुरोहितके मणिकांचन योगसे त्रैवृष्णके राज्यशकटके दोनों चक्र सुपुष्ट, सुदृढ़ बन गये थे। फलतः प्रजावर्गमें सुख-शान्तिका साम्राज्य छाया हुआ था।
एक बार महाराजने सोचा कि दिग्विजय यात्रा को जाय। इसमें उनका एकमात्र अभिप्राय यही था कि सभी शासक एक राष्ट्रिय भावमें आबद्ध हो कार्य करें। वे किसी राजाको जीत करके उसकी सम्पत्तिसे अपना कोष भरना नहीं चाहते थे। प्रत्युत उनका यही लक्ष्य था कि इस अभियानमें विजित सम्पत्ति उसी विजित राजाको लौटाकर उसे आदर्श शासनपद्धतिका पाठ पढ़ाया जाय और उसपर चलनेके लिये प्रेरित किया जाय। इस प्रसंग में जो सर्वथा दुष्ट, अभिमानी, प्रजापीडक शासक मिलें, उनका कण्टकशोधन भी एक आनुषंगिक लक्ष्य मान लिया गया।
तुरंत पुरोहित वृशऋषिको बुलाकर उन्होंने सादर प्रार्थना की कि 'प्रभो! मैं दिग्विजय यात्रा करना चाहता हूँ। इसमें स्वयं आपको मेरा सारथ्य स्वीकार करना होगा।'
ऋषिने कहा- 'जैसी महाराजकी इच्छा ! क्या आप बता सकते हैं कि मैंने अपने यजमानको कभी किसी इच्छाका सम्मान नहीं किया ?'
महाराजने कहा- 'ऋषे, इस कृपाके लिये मैं अनुगृहीत हैं।'
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आज महाराज ऐक्ष्वाक त्रैवृष्ण त्र्यरुणकी विजय यात्राका सुमुहूर्त है। इसके लिये कई दिनोंसे तैयारियाँ चली आ रही हैं। चतुरंगवाहिनी पूरे साज-सामान के साथ सज्ज है। सुन्दर भव्य रथ अनेकानेक अलंकरणोंसे सजाया गया है। महाराज त्र्यरुणने प्राचीन वीरोंका बाना पहन लिया है-सिरपर शिप्रा (लौहनिर्मित शिरस्त्राण) और शरीरमें द्रापि (कवच ) ! वाम हस्तमें धनुष तो दक्षिण हस्तमें कुन्त (भाला) एवं बाणखचित तूणीर पीठपर लटक रहा है तथा पैरोंमें पड़े हैं वाराहचर्मनिर्मित पादत्राण (जूते)। पुरोहित वृशऋषि भी, जो कभी वल्कल वसनोंमें विराजते, आज कवच-शिरस्त्राणसे सुशोभित हो घोड़ोंकी रास पकड़े रथके अग्रभागपर विराजते दीख पड़े। विशों (प्रजा) के आश्चर्यका ठिकाना न रहा; फिर देर क्या थी? रणदुन्दुभि बज उठी और सवारी निकल पड़ी विजयके लिये।
महाराज त्र्यरुणकी सवारी जिधर जाती, उधर ही विजयश्री हाथमें जयमाला लिये अगवानी करने लगती। एक नहीं, दो नहीं - दसियों, शतियों, पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण सभी दिशाओंके जनपदोंके सामन्त और पुरोंके राजा बहुमूल्य भेंटोंके साथ हृदयके भावसुमन महाराजके चरणोंपर चढ़ाते, स्वागतके लिये पलक पाँवड़े बिछाते, तो कुछ ऐसे भी मिलते, जो अपने-अपने सुरक्षित बलसे महाराज त्र्यरुणकी सेनाके साथ दो-दो हाथ करनेको तैयार रहते। महाराज जहाँ प्रजापीडक, मदमत्त शासकोंका गर्व चूर करके उन्हें सन्मार्गका पथिक बनाते, वहीं पुत्रकी तरह प्रजाके पालक शासकोंका अभिनन्दन करते और उन्हें सन्मार्गनिष्ठ बने रहनेके लिये प्रोत्साहित करते
महाराज त्र्यरुणकी यह विजय यात्रा किसीके लिये उत्पीडक नहीं हुई। उन्होंने प्रत्येक सत्पथ पथिकका आप्यायन ही किया। यही कारण है कि इस विजय यात्रासे सर्वत्र उत्साहकी अपूर्व बाढ़ सी आ गयी। यात्रा जहाँ प्रस्थान करतो, वहीं जनसाधारण नागरिक एवं जनपदवासी सहस्रोंकी संख्यामें उसकी शोभा देखने जुट जाते।
कुछ ही दिनोंमें सर्वत्र विजय वैजयन्ती फहराते हुए महाराज त्र्यरुण बड़े उल्लासके साथ अपनी राजधानीको ओर लौट रहे थे। राज्यकी सारी जनता उनके दर्शनार्थ उमड़ पड़ी। व्यवस्थापकोंके लिये जनतापर नियन्त्रण पाना कठिन हो रहा था। सर्वत्र उत्साह और उल्लासका वातावरण छाया था कि अकस्मात् रंगमें भंग हो गया। लाख ध्यान देने और बचानेपर भी शोभायात्राके दर्शनार्थ उतावला एक अबोध ब्राह्मण-बालक रथ-चक्रके बीचमें आ गया और सारा मजा किरकिरा हो गया। सर्वत्र 'अब्रह्मण्यम् अब्रह्मण्यम्' की ध्वनि गूँज उठी।
राजकीय रथसे कुचलकर एक ब्राह्मण-बालककी हत्या हो जाय, जिसपर आरूढ हों सम्राट् और जिसे हाँकनेवाले हों साम्राज्यके पुरोहित! अब अपराधी किसे माना जाय? प्रजाके लिये यह बहुत बड़ा यक्षप्रश्न उपस्थित हो गया। वादी थे उनके सम्राट् त्रैवृष्ण और प्रतिवादी थे ब्रह्मवर्चस्वी पुरोहित ऋषि वृश।
उपस्थित जनसमुदाय ही न्यायकर्ता बना। उस अभियोगके प्रमुख नायकके समक्ष दोनोंने अपने-अपने तर्क रखे। महाराजनेकहा-'पुरोहित रथके चालक उन्हें इसकी सावधानी रखनी चाहिये थी। ब्राह्मण बालककी हत्याका दोष उनपर ही है।'
पुरोहितने कहा-'वास्तव रथके स्वामी रथी तो महाराज हैं और मैं तो हूँ सारथि वे हो मुख्य है और और मैं गौण अवश्य ही रथकी बागडोर मेरे हाथमें रही. पर फलके भागी तो महाराज ही हैं। जब सैनिकोंके युद्ध जीतनेपर भी विजयफल, विजयका सेहरा राजाके ही सिरपर रखा जाता है, तो रथी होनेके कारण ब्राह्मण बालककी हत्याका दोष भी उनपर ही मढ़ा जाना चाहिये।'
निर्णायकों की समझमें कुछ नहीं आ रहा था। पुरोहितका कहना न्यायसंगत तो लगता, पर महाराजका मोह और प्रभाव उन्हें न्यायसे विचलित करने लगता। अन्ततः वही हुआ। निर्णायक सत्ताके प्रभावमें आ गये और उन्होंने महाराजको निर्दोष और पुरोहितको दोषी घोषित कर दिया।
पुरोहित राष्ट्रिय हितकी दृष्टिसे मौन रह गये। उन्होंने प्रतिवादमें एक भी शब्द नहीं कहा।
सभी उपस्थित जन स्तब्ध थे। इसी बीच पुरोहितने वार्ष सामका मंजुल गान गाया। फलस्वरूप अकस्मात् मृत ब्राह्मण-बालक जी उठा। सभी यह देख आश्चर्यचकित रह गये, पर पुरोहित यह कहते हुए वहाँसे चले गये कि
'ऐसे राज्यमें रहना किसी मनस्वी पुरुषके लिये उचित नहीं।' सबने रोकनेका बहुत प्रयत्न किया, परंतु ऋषिने किसीकी एक न सुनी।
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ब्राह्मण-बालकके जी जानेसे लोगोंके आनन्दका ठिकाना न रहा, पर पुरोहितको ही अपराधी घोषित करना और उनका राज्यसे चले जाना सबको खटकने लगा। कारण, यह समस्त राज्यके लिये खतरेसे खाली नहीं था; क्योंकि पुरोहितको 'राष्ट्रगोपः' माना गया है. वे अपने तपोबल और मन्त्रशक्तिसे सारे राष्ट्रकी सब प्रकारसे रक्षा किया करते हैं। वे पाँच ज्वालाओंसे युक्त वैश्वानर कहे गये हैं। उनकी वाणी स्थित प्रथम ज्वाला स्वागत एवं सम्मानपूर्ण वचनोंसे शान्त की जाती है। पाद्यके लिये जल लानेसे पादस्थित ज्वाला शान्त होती है। शरीरको नाना अलंकरणोंसे अलंकृत कर देनेपर त्वक् स्थित ज्वालाका शमन होता है, नितान्त तर्पणसे हृदयस्थित ज्वाला और पूर्ण स्वातन्त्र्य देनेसे उनकी उपस्थकी ज्वाला शान्त होती है। अतः राजाका कर्तव्य है कि वह पुरोहित-रूप वैश्वानरकी इन पाँचों ज्वालाओंको उन-उन वस्तुओंके संयोजनसे शान्त रखे। अन्यथा वह आग राष्ट्रको भस्म कर डालती है।
यहाँ तो पुरोहित वृशऋषिके अपमान और उनके क्रुद्ध हो चले जानेसे राष्ट्रको उनकी ज्वालाओंने नहीं जलाया। कारण, वे स्वभावतः बड़े दयालु थे; पर उनके चले जानेके साथ पूरे राज्यसे ही अग्निदेव चले गये।
सायंकाल होते-होते राजभवनके बाहर प्रजाजनोंका समुद्र उमड़ पड़ा और एक ही आक्रोश मचा- 'हमें आग दो सारे परिवार दिनभरसे भूखे हैं। आग सुलगाते सुलगाते पूरा दिन बीत गया, पर उसमें तेज ही नहीं आता। चूल्हा जलता ही नहीं, रसोई पके तो कैसे ? हमारे बाल-बच्चे भूखसे छटपटा रहे हैं।'
महाराज त्रैवृष्ण बरामदे में आ गये। अपनी प्रजाकी यह दशा देख उन्हें भी अत्यन्त दुःख हुआ। उन्हें यह समझते देर न लगी कि यह पूज्य पुरोहितके अपमानका दुष्परिणाम है। उन्होंने प्रजाजनोंसे थोड़ा धैर्य रखनेको कहा और अपने प्रमुख अधिकारियोंको आदेश दिया कि 'जहाँ-कहीं पुरोहितजी मिलें, उन्हें बड़े आदर और नम्रताके साथ मेरे पास शीघ्र से शीघ्र लाया जाय।'
सम्राट्का कठोरतम आदेश! उसके पालनमें देर - कहाँ? चारों ओर चर भेजे गये और अन्ततः पुरोहितको ढूँढ़ ही निकाला गया। वे निकटवर्ती दूसरे किसी सामन्तके राज्यमें एक उद्यानमें बैठे हुए थे।
राजकीय अधिकारी पुरोहितको ले आये तो महाराज उनके चरणोंपर गिर पड़े और कहने लगे-'महाराज ! क्षमा करें और किसी तरह प्रजाको उबारें। आपके चले जानेसे अग्निदेव भी क्रुद्ध हो राज्यभरसे लुप्त हो गये।'
ब्राह्मण- हृदय किसीकी पीड़ा देखते ही पिघल जाता है। प्रजाकी यह दुरवस्था देख ऋषि विचारमें पड़े कि आखिर हुआ क्या? उन्होंने कुछ काल ध्यान किया और महाराजसे कहा कि 'अन्तःपुरमें चलें।'
महाराज आश्चर्यमें पड़े कि ऋषि क्या कर रहे हैं! फिर भी चुपचाप वे उनके साथ अन्तःपुरमें पधारे। ऋषिने एक खाटके नीचे छिपा रखा एक शिशु महाराजको दिखाया। महाराज कुछ समझ न पाये।
ऋषिने कहा- 'महाराज, आपकी पत्नियोंमें एक मायाविनी बन गयी है। मेरे रहते उसे अपना उत्पात मचानेका अवसर नहीं मिल पाता था परंतु मेरे यहाँ से जाते ही उसने चट से राज्यभरके अग्निसे सारा तेज उठाकर यहाँ शिशुरूपमें छिपा दिया है। यही कारण है। कि पूरे राज्यके अग्निसे तेज जाता रहा।'
महाराज स्तब्ध रह गये। वे पुरोहितकी ओर देख करुणाभरी आँखोंसे इस संकटसे उबारनेकी विनम्र प्रार्थन करने लगे।
वृशऋषि शिशुरूपधारी अग्नि-तेजको सम्बुद्ध आर्षवाणीमें स्तुति करने लगे करके
'अग्नि-नारायण! आप बृहत् ज्योतिके साथ प्रदीप्त होते हैं और अपनी महिमासे समस्त सांसारिक वस्तुओंको प्रकाशित करते हैं। प्रभो, आप असुरोंद्वारा फैलायी हुई मायाको दग्धकर प्रजाजनोंको उसके कष्टोंसे बचाते हैं। राक्षसोंके विनाशार्थ शृंगों-सी ऊपर उठनेवाली अपनी
ज्वालाएँ तीक्ष्ण करते हैं।' "
जातवेदा ! आप अनेक ज्वालाओंसे युक्त हो निरन्तर बढ़ते हुए अपने उपासकोंकी कामनाएँ पूरी करते हैं और उन्हें निष्कण्टक धन-लाभ कराते हैं। स्वयं अन्य देवगण आपकी स्तुति करते हैं। भगवन् वैश्वानर ! हविको सिद्ध आप मानवमात्रका कल्याण करें। प्रभो, आपके तेजके अभावमें आज सारी प्रजा विपन्न हो बिलख रही है। दयामय, दया करें।'
ज्यों ही पुरोहित वृशऋषिकी स्तुति पूर्ण हुई, त्यों ही वह शिशु अदृश्य पिशाचिनीके बाहुपाशसे छूट सबके सामने अग्निरूपमें प्रकट हो गया। पुनः जैसे ही पिशाचिनी उसे पकड़ने चली, वैसे ही ऋषिके मन्त्र-प्रभावसे भस्म हो उसकी राखका ढेर वहाँ लग गया। इस प्रकार अग्निशिशुके मुक्त होनेके साथ घर-घरकी अग्नि प्रज्वलित हो उठी। प्रजावर्गके आनन्दका ठिकाना न रहा।
महाराजने अपने ब्रह्मवर्चस्वी पुरोहितवृ
शऋषिको साष्टांग नमस्कार किया और क्षमा माँगने लगे- 'प्रभो, अपने सम्राट्पदके गर्वमें आकर मैंने अन्यायपूर्वक आपका घोर अपमान किया; फिर भी आपने कुछ नहीं कहा, चुपचाप ब्राह्मण-बालकके जीवनदानका मुझपर अनुग्रह करते हुए चले गये। परंतु मैंने जो पाप किया, उसका फल मेरी प्रजाको बुरी तरह भुगतना पड़ा, इसका मुझे भारी खेद है। धन्य है आपकी क्षमाशीलता और प्रजावत्सलता, जो आज आपने मुझे और मेरी प्रजाको पुनः उबारकर कृतार्थ किया।'
पुरोहितने राजाको यह कहकर उठाया और गले लगाया कि 'महाराज, इसमें मैंने क्या विशेष किया ? आपके राज्यका पुरोहित होनेके नाते प्रजाका कष्ट निवारण मेरा कर्तव्य हो है।'
महाराजके नेत्रोंसे दो अश्रु ऋषिके चरणोंपर लुढ़क पड़े। ऋग्वेदमें इस कथाका इस प्रकार संकेत किया गया है
वि ज्योतिषा बृहता भात्यग्निराविर्विश्वानि कृणुते महित्वा । प्रादेवीर्मायाः सहते दुरेवाः शिशीते शृङ्गे रक्षसे विनिक्षे ।।
अर्थात् वृशऋषि त्रिष्टुप् छन्दसे अग्निकी स्तुति करते हुए कहते हैं-'हे अग्निदेव, आप अत्यन्त महत् तेजसे विद्योतित होते हैं और अपनी इसी महिमासे सारे विश्वको प्रकाशित करते हैं। प्रदीप्त ज्वालाओंसे दुस्सह आसुरी (अदेवी) मायाको नष्ट कर देते हैं। आप राक्षसोंके विनाशार्थ अपनी श्रृंगसदृश ज्वालाओंको तीक्ष्ण करते हैं।'
ऋग्वेदके अतिरिक्त बृहद्देवता ( 5।14 - 23), शाट्यायन ब्राह्मण एवं ताण्ड्य महाब्राह्मण (13 । 3 । 12) में भी इस कथाका निदर्शन हुआ है।
poojy sadaiv sammaananeeya
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turant purohit vrisharishiko bulaakar unhonne saadar praarthana kee ki 'prabho! main digvijay yaatra karana chaahata hoon. isamen svayan aapako mera saarathy sveekaar karana hogaa.'
rishine kahaa- 'jaisee mahaaraajakee ichchha ! kya aap bata sakate hain ki mainne apane yajamaanako kabhee kisee ichchhaaka sammaan naheen kiya ?'
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braahmana- hriday kiseekee peeda़a dekhate hee pighal jaata hai. prajaakee yah duravastha dekh rishi vichaaramen pada़e ki aakhir hua kyaa? unhonne kuchh kaal dhyaan kiya aur mahaaraajase kaha ki 'antahpuramen chalen.'
mahaaraaj aashcharyamen pada़e ki rishi kya kar rahe hain! phir bhee chupachaap ve unake saath antahpuramen padhaare. rishine ek khaatake neeche chhipa rakha ek shishu mahaaraajako dikhaayaa. mahaaraaj kuchh samajh n paaye.
rishine kahaa- 'mahaaraaj, aapakee patniyonmen ek maayaavinee ban gayee hai. mere rahate use apana utpaat machaaneka avasar naheen mil paata tha parantu mere yahaan se jaate hee usane chat se raajyabharake agnise saara tej uthaakar yahaan shishuroopamen chhipa diya hai. yahee kaaran hai. ki poore raajyake agnise tej jaata rahaa.'
mahaaraaj stabdh rah gaye. ve purohitakee or dekh karunaabharee aankhonse is sankatase ubaaranekee vinamr praarthan karane lage.
vrisharishi shishuroopadhaaree agni-tejako sambuddh aarshavaaneemen stuti karane lage karake
'agni-naaraayana! aap brihat jyotike saath pradeept hote hain aur apanee mahimaase samast saansaarik vastuonko prakaashit karate hain. prabho, aap asurondvaara phailaayee huee maayaako dagdhakar prajaajanonko usake kashtonse bachaate hain. raakshasonke vinaashaarth shringon-see oopar uthanevaalee apanee
jvaalaaen teekshn karate hain.' "
jaataveda ! aap anek jvaalaaonse yukt ho nirantar badha़te hue apane upaasakonkee kaamanaaen pooree karate hain aur unhen nishkantak dhana-laabh karaate hain. svayan any devagan aapakee stuti karate hain. bhagavan vaishvaanar ! haviko siddh aap maanavamaatraka kalyaan karen. prabho, aapake tejake abhaavamen aaj saaree praja vipann ho bilakh rahee hai. dayaamay, daya karen.'
jyon hee purohit vrisharishikee stuti poorn huee, tyon hee vah shishu adrishy pishaachineeke baahupaashase chhoot sabake saamane agniroopamen prakat ho gayaa. punah jaise hee pishaachinee use pakada़ne chalee, vaise hee rishike mantra-prabhaavase bhasm ho usakee raakhaka dher vahaan lag gayaa. is prakaar agnishishuke mukt honeke saath ghara-gharakee agni prajvalit ho uthee. prajaavargake aanandaka thikaana n rahaa.
mahaaraajane apane brahmavarchasvee purohitavri
sharishiko saashtaang namaskaar kiya aur kshama maangane lage- 'prabho, apane samraatpadake garvamen aakar mainne anyaayapoorvak aapaka ghor apamaan kiyaa; phir bhee aapane kuchh naheen kaha, chupachaap braahmana-baalakake jeevanadaanaka mujhapar anugrah karate hue chale gaye. parantu mainne jo paap kiya, usaka phal meree prajaako buree tarah bhugatana pada़a, isaka mujhe bhaaree khed hai. dhany hai aapakee kshamaasheelata aur prajaavatsalata, jo aaj aapane mujhe aur meree prajaako punah ubaarakar kritaarth kiyaa.'
purohitane raajaako yah kahakar uthaaya aur gale lagaaya ki 'mahaaraaj, isamen mainne kya vishesh kiya ? aapake raajyaka purohit honeke naate prajaaka kasht nivaaran mera kartavy ho hai.'
mahaaraajake netronse do ashru rishike charanonpar luढ़k pada़e. rigvedamen is kathaaka is prakaar sanket kiya gaya hai
vi jyotisha brihata bhaatyagniraavirvishvaani krinute mahitva . praadeveermaayaah sahate durevaah shisheete shringe rakshase vinikshe ..
arthaat vrisharishi trishtup chhandase agnikee stuti karate hue kahate hain-'he agnidev, aap atyant mahat tejase vidyotit hote hain aur apanee isee mahimaase saare vishvako prakaashit karate hain. pradeept jvaalaaonse dussah aasuree (adevee) maayaako nasht kar dete hain. aap raakshasonke vinaashaarth apanee shrringasadrish jvaalaaonko teekshn karate hain.'
rigvedake atirikt brihaddevata ( 5.14 - 23), shaatyaayan braahman evan taandy mahaabraahman (13 . 3 . 12) men bhee is kathaaka nidarshan hua hai.