बहुत से लोगोंकी ऐसी धारणा है कि जब भगवान्की कृपा होती है, तब धन ऐश्वर्य, स्त्री- पुत्र, मान - कीर्ति और शरीरसम्बन्धी अनेकानेक भोगोंकी प्राप्ति होती है। जिन लोगोंके पास भोगोंका बाहुल्य है - बस, केवल उन्हीं पर भगवान्की कृपा है या भगवत्कृपा उनपर है, जिनकी विपत्तिको भगवान् टाल देते हैं। भगवत्कृपाका इस प्रकार क्षुद्र अर्थ करनेवाले लोग बड़े ही दयाके पात्र हैं, ऐसे लोगोंको भगवत्कृपाका यथार्थ अनुभव नहीं है।
वास्तवमें सम्पत्ति या विपत्तिसे भगवान्की कृपाका पता नहीं लग सकता, भगवत्कृपा नित्य है, अपार है और संसारके समस्त प्राणियोंपर उस कृपा-सुधाकी अनवरत वर्षा हो रही है। जो लोग उसका यथार्थ अनुभव न कर केवल विषयोंकी प्राप्तिको ही भगवत्कृपा समझते हैं, वे ही लोग विषयोंके नाश या अभावमें भगवान्पर पक्षपात, अन्याय और कृपालु न होनेका कलंक मँढ़ा करते हैं। सच्ची बात तो यह है कि भगवान्का कोई भी विधान कृपासे शून्य नहीं होता, कृपा करना तो उसका साधारण स्वभाव है। पापी प्राणीके दण्ड विधानमें भी वह अपनी कृपाका समावेश कर देता है। यह दूसरा प्रश्न है कि उसकी कृपाका स्वरूप कैसा होता है ? इसमें कोई सन्देह नहीं कि कृपाका भीतरी स्वरूप तो सदा ही सरस, मनोहर और मधुर होता है; परंतु बाहरसे वह कभी 'सुन्दरं सुन्दराणाम्' (सुन्दर-से-सुन्दर) स्वरूपमें दर्शन देती है तो कभी 'भीषणं भीषणानाम्' (भयानक-से भयानक) रूपमें प्रकट होती है। किसी समय उसका रूप 'मृदूनि कुसुमादपि' (पुष्पसे भी अधिक कोमल होता है) तो किसी समय 'वज्रादपि कठोराणि' (वज्रसे भी अधिक कठोर होता है।) जिन विवेकी और कल्याणकामी पुरुषोंने विषयोंकी प्राप्तिके लिये भगवान्को साधन नहीं बना रखा है, जो सच्चे त्यागी और प्रेमी हैं, वे तो इन दोनों रूपोंमें उस 'अनूपरूप' की अनोखी अनुकम्पाका दर्शनकर कृतार्थ होते हैं। परंतु जो अल्पबुद्धि प्राणीकेवल आपात रमणीय विषयोंको ही एकमात्र सुखका साधन मानते हैं, वे अपरिणामदर्शी और अविवेकी मनुष्य भगवत्कृपाके मनोहर रूपको देखकर तो अत्यन्त आह्लादित होते हैं और उस भीषण रूपको देखकर भयसे काँप उठते हैं।
किसी अबोध बालकके एक जहरीला फोड़ा हो गया, असहनीय वेदना है, बालककी माताने डॉक्टरको बुलाया, डॉक्टरने चीरा लगवानेका परामर्श देते हुए कहा कि यदि बहुत शीघ्र शल्यक्रिया (ऑपरेशन) नहीं की जायगी, तो फोड़ेका विष समस्त शरीरमें फैल जायगा और ऐसा होनेसे बालकके मर जानेकी सम्भावना है। माताने बालकका हित समझकर चीरा लगवाना स्वीकार किया, डॉक्टर साहब चीरा देने लगे। उस समय उस अपरिणामदर्शी अबोध बालकने शल्यक्रियाकी क्षणिक वेदनासे व्यथित होकर बड़े जोर-जोरसे रोना आरम्भ कर दिया और चीरा दिलानेवाली माताको प्रत्यक्ष शत्रु समझकर बुरी- भली कहने लगा।
जदपि प्रथम दुख पावइ रोवइ बाल अधीर । व्याधि नास हित जननी गनति न सो सिसु पीर ॥
माताने बालकके रोने और बकनेकी कोई परवा नहीं की, उसे और भी जोरसे पकड़ लिया, शल्यक्रिया हो गयी, चीरा लगाते ही अन्दरका सारा विष बाहर निकल पड़ा, बालककी समस्त पीड़ा मिट गयी और वह सुखपूर्वक सो गया।
बालक अज्ञानसे चीरा लगवानेमें रोता है औरसमझदार लोग जान-बूझकर चीरा लगवाते हैं। बस,इसी दृष्टान्तके अनुसार
तिमि रघुपति निज दास कर हरहिं मान हित लागि। तुलसिदास ऐसे प्रभुहि कस न भजतु भ्रम त्यागि ॥
भगवान् भी अपने प्यारे भक्तके समस्त आन्तरिक दोषोंको निकालकर बाहर फेंक देनेके लिये समय समयपर शल्यक्रिया (ऑपरेशन) किया करते हैं, उस समय सांसारिक संकटोंका पार नहीं रहता, परंतु इस सारीरुद्र-लीलामें कारण होती है केवल एक 'भक्तकी आत्यन्तिक हित-कामना!' जिस प्रकार दयामयी जननी अपने प्यारे बच्चे के अंगका सड़ा हुआ अंश कटवाकर फेंक देती है, उसी प्रकार भगवान् भी अपने प्यारे बच्चोंकी हितकामनासे उनके अन्दरके विषय-विषको निकालकर फेंक दिया करते हैं। ऐसी अवस्थामै परिणाम दर्शी विश्वासी भक्तोंको तो आनन्द होता है और विषयासक्त अज्ञानी मनुष्य रोया-चिल्लाया करते हैं।
जिस समय भगवान् वामनदेवने अनुग्रहपूर्वक विराट् स्वरूप धारणकर भक्त बलिको बाँध लिया और इन बन्धनको बलिने भगवान्का परम अनुग्रह माना, उस समय बलिके पितामह परम भक्त प्रह्लादजी वहाँ आये। भगवत्कृपाका मर्म जाननेवाले प्रह्लादजीने आते ही भगवान्से कहा कि-
'हे भगवन्! आपने ही इसको यह समृद्धिसम्पन्न इन्द्रपद दिया था और इस समय आपने ही इसको हर लिया, मेरी समझसे आपने इसे राज्यलक्ष्मीसे भ्रष्ट करके इसपर बड़ा अनुग्रह किया। लक्ष्मीको पाकर मनुष्य अपनेको भूल जाता है। जिस लक्ष्मीसे विद्वान् और संयमी पुरुष भी मोहित हो जाते हैं, उस लक्ष्मीके रहते हुए कौन पुरुष आत्मतत्त्वको यथार्थरूपसे जान सकता है ? अतएव आपने हमपर बड़ी दया की। यह है भक्तके विश्वासकी वाणी, यह है अशुभमें भी शुभका दर्शन और यह है भक्तोंका भगवान्पर दृढ़ भरोसा !
भगवान्ने भी प्रह्लादके इस कथनका समर्थन करते हुए कहा कि 'मैं जिसपर कृपा करता हूँ, उसका धन वैभव पहले हर लेता हूँ; क्योंकि मनुष्य धन-सम्पत्ति और ऐश्वर्यके मदसे मतवाला होकर जीवोंका और मेरा निरादर करता है।'
जिस धन-सम्पतिसे इतना अनर्थ होता है, केवल उसीकी प्राप्तिमें परमात्माकी कृपा मानना कितनी बड़ी भूल है! परंतु उपर्युक्त भगवान् के वचनोंसे कोई यह समझकर न काँप उठे कि भगवान् तो अपने भक्तोंके धन ऐश्वर्यका नाश ही किया करते हैं। यह बात नहीं है! विभीषणको लंकाका अटल राज्य, ध्रुवको अचलसम्पत्ति और दरिद्र सुदामाको अतुल ऐश्वर्य भगवान्ने ही तो दिया था। जैसी अवस्था होती है, वैसी ही व्यवस्थाकी जाती है!
एक सद्वैध रोगीके रोगका निदानकर उसे वही औषध देता है, जो उसके रोगका नाश करनेवाली होती है, वह इस बातको नहीं देखता कि दवा कड़वी है या मीठी रोगीके मनके अनुकूल है या प्रतिकूल, रोगीको इच्छाकी वह कोई परवा नहीं करता। रोगी कुपथ्य चाहता है तो वैद्य उसे डाँट देता है, उसके बकने झकनेकी ओर कोई खयाल नहीं करता और उसके मनके सर्वथा विपरीत उसके लिये कड़वे क्वाथकी व्यवस्था करता है, वह दूसरे दवा बेचनेवालोंकी भाँति मूल्य प्राप्त होते ही मुँहमाँगी दवा नहीं दे देता, उसे चिन्ता रहती है रोगीके हिताहितकी। उसका उद्देश्य होता है केवल 'रोगका समूल नाश कर देना।' इसी प्रकार भगवान् भी अपने भक्तोंमेंसे जिसके जैसा रोग देखते हैं, उसके लिये वैसी ही औषधको व्यवस्था करते हैं। अन्यान्य देवताओंकी भाँति मुँहमाँगा वरदान नहीं दे देते। उसकी इच्छा क्या है, इसका कोई खयाल नहीं करते, बल्कि कोई-कोई समय तो उसके मनके सर्वथा विपरीत कर देते हैं। एक बार भक्तराज नारदने मायासे मोहित होकर विवाह करना चाहा, भगवान्से प्रार्थना भी की, परंतु भगवान् जानते थे कि इससे इसका अहित होगा, यह भव-रोगीके लिये कुपथ्य है, इसलिये विवाह नहीं होने दिया। नारदको क्रोध आ गया, उन्होंने झुंझलाकर भगवान्को बहुत बुरा-भला कहा, शाप दे दिया। भगवान्ने भक्तके शापको सहर्ष ग्रहण किया, परंतु उसे कर्तव्यच्युत नहीं होने दिया।
रोगमुक्त होकर मनुष्य जब बलको प्राप्त कर लेता है, तब उसे सभी कुछ खाने-पीनेका अधिकार मिल जाता है, इसी प्रकार भवरोगसे मुक्त होकर भगवत्-प्राप्ति कर लेनेपर उसको जब भगवान्के सर्वस्वका स्वामित्व प्राप्त हो जाता है, तब फिर उसे किस बातकी कमी रहती है और कौन-सी बातमें बाधा रहती है। मनुष्य भूलकर सांसारिक धन ऐश्वर्यके लिये लालायित रहता है। यदिचेष्टा करके वह उस अतुल ऐश्वर्यशाली परमात्माको जिसके एक अंशमें यह सारे ऐश्वयोंसे भरा हुआ संसार महान् समुद्रमें एक बालूके कणके समान स्थित है प्राप्त कर ले तो फिर उसे समस्त पदार्थ आप से आप प्राप्त हो जायँ।
राजा बलिने भगवत्कृपाके विकट स्वरूपसे न घबड़ाकर उसका सादर स्वागत किया। बलिका समस्त धन-ऐश्वर्य हरण कर लिया गया। अग्नि परीक्षा हुई, परंतु उस परीक्षामें उत्तीर्ण होनेके बाद भक्त बलिको उस रमणीय और समृद्धिसम्पन्न सुतललोकका राज्य दिया गया कि जिसकी देवता भी अभिलाषा करते हैं, जहाँपर भगवत्कृपासे कभी आधि-व्याधि, भ्रान्ति, तन्द्रा, पराभव और किसी प्रकारका भी भौतिक उपद्रव नहीं होता। इतना ऐश्वर्य देकर ही भगवान् चुप नहीं हो गये, उन्होंने बलिको सावर्णि मन्वन्तरमें इन्द्र होनेके लिये वर दिया और प्रह्लादसे बोले कि 'वत्स प्रह्लाद तुम अपने पौत्रसहित सुतललोक में जाकर जातिके लोगोंको सुख पहुँचाते हुए आनन्दसे रहो, वहाँ तुम मुझको सदा गदा हाथमें लिये हुए बलिके द्वारपर सब समय देखोगे।' यों बलिके द्वारपर द्वारपाल होना स्वीकार किया और अन्तमें उसको अपना परमधाम प्रदान किया, क्या यह परम अनुग्रह नहीं है? भगवान्ने हिरण्याक्ष हिरण्यकशिपु, रावण कुम्भकर्ण और शिशुपाल- दन्तवक्त्रका क्रमश: चार बार अवतार धारण करके वध किया। किसलिये ? उनपर प्रेम था, उनपर कृपा करनी थी। इसलिये! ऋषिके शापसे भ्रष्ट अपने द्वारपाल जय-विजयको शापसे मुक्त करनेके लिये। मृत्युसे अधिक भयानक बात और क्या हो सकती है। परंतु भगवान्के द्वारा होनेवाली मृत्युमें भी उनकी कृपा भरी हुई होती है। दुष्टोंका नाश करनेवाली मृत्युमें भी उनकी कृपा भरी हुई होती है। दुष्टोंका नाश भगवान् क्यों करते हैं? उनके उद्धारके लिये उनको पापोंसे मुक्तकर अपने सुख-शान्तिमय परमधाममें पहुँचाने के लिये, भक्तगण दिव्य-दृष्टिसे इसको देख पाते हैं। यह कोई नियम नहीं है कि भगवान्के भक्ऊपर कोईसांसारिक कष्ट न आवे या उसे सांसारिक सुख सर्वथा ही न प्राप्त हो। समय-समयपर दोनोंकी ही कर्मानुसार प्राप्ति होती है। परंतु दोनोंमें ही भगवत्कृपाका विलक्षण समावेश रहता है। इस कृपाका यथार्थ दर्शन उन्हीं भाग्यवानोंको होता है, जो सुख-दुःखमें समचित्त होते हैं और जो परमात्मासे कुछ भी सांसारिक वस्तु चाहकर उसकी अपार महिमा और अपनी भक्तिमें दोष नहीं आने देते। भक्त अपनी भक्ति और प्रेमिक अपने प्रेमसे क्या चाहते हैं ? वही भक्ति और प्रेम ! वास्तवमें ऐसे भक्तोंके हृदयमें भगवत्प्रेमके प्रति ऐसा प्रबल आकर्षण होता है कि वे उसको पानेके लिये किसी भी विपत्तिको विपत्ति नहीं समझते!
जो कभी संसारकी ओर ताकता है और कभी परमात्माकी ओर, वह पूरा प्रेमी नहीं है। उसको अभी भगवत्-प्रेमकी प्रबल उत्कण्ठा नहीं हुई । संसार रहे या जाय, घर उजड़े या बसे, किसी बातकी भी परवा नहीं, परंतु प्रेममें कोई बाधा न आवे। यही सच्ची लगन है।
माता यदि छोटे शिशुको मारती है तो भी वह उसीकी गोदमें घुसता है और यदि वह पुचकारती है, तब भी वह उसीके पास रहता है, माताकी गोदको छोड़कर शिशुको और कहीं चैन नहीं पड़ता। इसी प्रकार भक्तको भी अपने भगवान्को छोड़कर और कहीं विश्राम नहीं मिलता। वह मारे, चाहे प्यार करे। भक्त एक क्षण भी उसके बिना रहना नहीं चाहता। सम्भव है कि भक्तपर विपत्तियोंके बादल चारों ओरसे मँडराने लगें - यह भी सम्भव है कि उसका समस्त जीवन केवल सांसारिक विपत्तियोंमें ही बीते, और एक क्षणभरके लिये भी विपत्तिका अभाव न हो तथापि उसका मन उस प्रेमानन्दमें इतना मग्न रहता है कि उसको भूलकर भी भगवत्कृपाके सम्बन्धमें कभी किंचित् भी सन्देह नहीं होता !
चातकपर यदि उसका प्रियतम मेघ पत्थरोंकी वर्षा करे, तो क्या वह मेघसे प्रेम करना छोड़ देता है ? क्या उसके प्रेममें कुछ भी अन्तर पड़ता है? गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं-
उपल बरधि गरजत तरजि डारत कुलिस कठोर।
चितव कि चातक मेघ तजि कबहुँ दूसरी ओर ॥
भयानक वज्रपातसे उसके प्राण भले ही चले जायें, परंतु प्रेमी चातक दूसरी तरफ नहीं ताकता। इसी प्रकार भक्त भी नित्य निश्चिन्त होकर रहता है 'उसे न तो दुःखोंसे उद्वेग होता है और न उसको सुखोंकी स्पृहा रहती है।' भगवान् कहते हैं
यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न कांक्षति । शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान् यः स मे प्रियः
(गीता १२।१७) 'जो न कभी हर्षित होता है, न द्वेष करता है, न शोक करता है और न किसी प्रकारकी आकांक्षा करता है, जो शुभाशुभ दोनोंका त्यागी है, वह भक्तिमान् (पुरुष) मुझको प्रिय है।'
इस प्रकार भक्त, जैसे सम्पत्तिमें उसीकी मूर्ति देखकर सन्देहशून्य रहता है, वैसे ही विपत्तिमें भी उसीकी मनमोहिनी मधुर छविका दर्शनकर निःसंशय रहता है।
इसमें कोई सन्देह नहीं कि लौकिक दृष्टिसे समय समयपर भगवत्कृपाका स्वरूप बड़ा ही भीषण होता है। प्रह्लाद अग्निमें डाला जाता है, मीराको विषका प्याला दिया जाता है, सदनके हाथ काटे जाते हैं और हरिदासकी पीठसे बेतोंकी मारसे खून बहने लगता है, परंतु धन्य है उन प्रेमी और प्रेमके उपासक भक्तोंको, कि जो प्रत्येक अवस्थामें शान्त और निश्चिन्त देखे जाते हैं। उनकी स्थिरतामें तिलभर भी अन्तर नहीं पड़ता। कितने प्रगाढ़ विश्वास और भरोसेकी बात है! एक जरा-सा काँटा गड़ जानेपर चिल्लाहट मच जाती है-अग्निकी जरा-सी चिनगारीका स्पर्श होते ही मन तलमला उठता है, परंतु वे भक्तगण, जो परमात्माके प्रेमके लिये अपने आपको खो चुके हैं;-बड़े चावसे सारी यातनाओं और क्लेशोंको सहते हैं। उन ईश्वरगतप्राण भक्तोंको प्रेमके लिये न शूलीपर चढ़नेमें भय लगता है और न धधकती हुई अग्निमें कूदनेमें ही प्रेमके लिये मस्तकको तो वे हाथोंमें लिये फिरा करते हैं।
प्रेम न बाड़ी नीपजै, प्रेम न हाट विकाय राजा परजा जेहि रुचै, शीश देइ लै जाय
लोग कहते हैं 'देखो, बेचारेको कितना कष्ट हो रहा है, बेचारेने सारे जीवन रामका नाम लिया, परंतु कभी सुखकी नींद नहीं सोया! आजकल भगवान्के यहाँ न्याय नहीं रहा। यह तो बेचारा चौबीसों घण्टे भजन करता है और इसीपर दुःखोंके पहाड़ टूटकर पड़ते हैं।'
लोगोंकी ऐसी भोली बातोंको सुनकर वे भक्त विपत्ति सम्पत्तिको लात मारकर ऊँचे उठे हुए भक्त मन-ही-मन हँसते हैं और उनपर दया करते हैं।
वे सांसारिक लोग इस बातको नहीं जानते कि भगवान् कभी किसीको कष्ट पहुँचाना नहीं चाहते। भक्तके सामने भगवान् जो दुःखका रूप प्रकट करते हैं, सो केवल उनके कल्याणके लिये ही करते हैं। यदि केवल सुखमें ही भगवान्का रूप दीख पड़ता हो तो क्या दुःखमें उनका अभाव है? यदि सुखमें उनकी व्यापकता है तो दुःखमें भी है! कोई भी ऐसी अवस्था या कोई भी ऐसा पदार्थ नहीं कि जिसमें वे नहीं हीं इसी बातको पूर्णरूपसे प्रकट करनेके लिये भगवान् अपने भक्तोंके सामने दोनों स्वरूप प्रकट करते हैं। जब भक्त इस पहेलीको समझ लेता है, तब वह सब तरहसे और सब ओरसे भगवान्को पहचान लेता है। साधारण लोग एक तरफसे देखते हैं, इसीसे वे सुखकी मूर्तिको देखकर हँस उठते हैं और दुःखकी मूर्तिको देखकर काँप उठते हैं। परंतु जो भक्त हैं, वे दोनोंमें ही उनको देख पाते हैं। इसीसे उनको न तो दुःखमें द्वेष है और न सुखमें अधिक अनुराग! दाहिना और बाय दोनों उसीके तो हाथ हैं, भक्त किसी भी अवस्थामें इस ध्रुवसे अपनी दृष्टि नहीं हटाते, बल्कि ये तो दूसरे लोगोंको दुःखोंसे घबड़ाया हुआ जानकर भगवान्से उलटे यह प्रार्थना करते हैं -
न कामयेऽहं गतिमीश्वरात्परा
मष्टद्धियुक्तामपुनर्भव
आर्ति प्रपद्येऽखिलदेहभाजा-
मन्तः स्थितो येन भवन्त्यदुःखाः ॥
(श्रीमद्भा० ९।२१।१२)l
'हे नाथ! मैं (आप) परमेश्वरसे अणिमादि आठ सिद्धियोंसे युक्त गति या मुक्तिको नहीं चाहता, मेरी यही प्रार्थना है कि मैं ही सब प्राणियोंके अन्तःकरणमें स्थित होकर दुःख भोग करूँ, जिससे उन सबका दुःख दूर हो जाय।'
परम भक्त प्रह्लादने कातर कण्ठसे कहा था कि 'हे प्रभो ! मेरा चित्त तो आपके चरित्रगानरूपी सुधा-समुद्रमें निमग्न है, मुझे संसारसे कोई भय नहीं, परंतु मैं इन इन्द्रियोंके सुखोंमें लिप्त और भगवत्-विमुख दीन असुर बालकोंको छोड़कर अकेला मुक्त होना नहीं चाहता।'
यह है भक्तोंकी वाणी ! संसारभरका दुःख वे अपने मस्तकपर उठानेको प्रस्तुत हैं। दीन-दु:खियोंका उद्धार हुए बिना अकेले अपना उद्धार नहीं चाहते, कष्ट देनेवालेके लिये भी भगवान्से क्षमा चाहते हैं, अपने कष्टोंकी कोई परवा नहीं! परवा क्यों हो? उन्हें तो कष्टोंकी भीषण मूर्तिके अन्दर उस सलोने श्यामसुन्दरकीनव घनश्याममूर्तिका प्रत्यक्ष दर्शन होता है न! वे तो सब ओरसे अपना सारा अपनापन उसे सौंपकर उसकी कृपासुधाकी अनन्त और शीतल धारामें अवगाहनकर कृतार्थ हो चुके हैं और क्षण-क्षणमें उन्हें भगवत्कृपाके दिव्य दर्शन होते हैं। इसीसे वे समस्त सुख और दुःखभारको केवल भगवत्प्रसाद समझकर सानन्द ग्रहण करते हैं! कोई स्थिति उन्हें विचलित नहीं कर सकती, वे उस परम लाभको पाकर नित्य उसीमें रमण करते हुए प्रेमके परमानन्दमें निमग्न रहते हैं! भगवान्ने कहा है-
यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः ।
यस्मिन् स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते ॥
(गीता ६ २२)
(भक्त) परमात्माकी प्राप्तिरूप लाभको पाकर उससे अधिक दूसरा कुछ भी लाभ नहीं मानता और भगवत्प्राप्तिरूप अवस्थामें स्थित (वह) भक्त बड़े-से बड़े दुःखसे भी चलायमान नहीं होता।'
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jis dhana-sampatise itana anarth hota hai, keval useekee praaptimen paramaatmaakee kripa maanana kitanee bada़ee bhool hai! parantu uparyukt bhagavaan ke vachanonse koee yah samajhakar n kaanp uthe ki bhagavaan to apane bhaktonke dhan aishvaryaka naash hee kiya karate hain. yah baat naheen hai! vibheeshanako lankaaka atal raajy, dhruvako achalasampatti aur daridr sudaamaako atul aishvary bhagavaanne hee to diya thaa. jaisee avastha hotee hai, vaisee hee vyavasthaakee jaatee hai!
ek sadvaidh rogeeke rogaka nidaanakar use vahee aushadh deta hai, jo usake rogaka naash karanevaalee hotee hai, vah is baatako naheen dekhata ki dava kada़vee hai ya meethee rogeeke manake anukool hai ya pratikool, rogeeko ichchhaakee vah koee parava naheen karataa. rogee kupathy chaahata hai to vaidy use daant deta hai, usake bakane jhakanekee or koee khayaal naheen karata aur usake manake sarvatha vipareet usake liye kada़ve kvaathakee vyavastha karata hai, vah doosare dava bechanevaalonkee bhaanti mooly praapt hote hee munhamaangee dava naheen de deta, use chinta rahatee hai rogeeke hitaahitakee. usaka uddeshy hota hai keval 'rogaka samool naash kar denaa.' isee prakaar bhagavaan bhee apane bhaktonmense jisake jaisa rog dekhate hain, usake liye vaisee hee aushadhako vyavastha karate hain. anyaany devataaonkee bhaanti munhamaanga varadaan naheen de dete. usakee ichchha kya hai, isaka koee khayaal naheen karate, balki koee-koee samay to usake manake sarvatha vipareet kar dete hain. ek baar bhaktaraaj naaradane maayaase mohit hokar vivaah karana chaaha, bhagavaanse praarthana bhee kee, parantu bhagavaan jaanate the ki isase isaka ahit hoga, yah bhava-rogeeke liye kupathy hai, isaliye vivaah naheen hone diyaa. naaradako krodh a gaya, unhonne jhunjhalaakar bhagavaanko bahut buraa-bhala kaha, shaap de diyaa. bhagavaanne bhaktake shaapako saharsh grahan kiya, parantu use kartavyachyut naheen hone diyaa.
rogamukt hokar manushy jab balako praapt kar leta hai, tab use sabhee kuchh khaane-peeneka adhikaar mil jaata hai, isee prakaar bhavarogase mukt hokar bhagavat-praapti kar lenepar usako jab bhagavaanke sarvasvaka svaamitv praapt ho jaata hai, tab phir use kis baatakee kamee rahatee hai aur kauna-see baatamen baadha rahatee hai. manushy bhoolakar saansaarik dhan aishvaryake liye laalaayit rahata hai. yadicheshta karake vah us atul aishvaryashaalee paramaatmaako jisake ek anshamen yah saare aishvayonse bhara hua sansaar mahaan samudramen ek baalooke kanake samaan sthit hai praapt kar le to phir use samast padaarth aap se aap praapt ho jaayan.
raaja baline bhagavatkripaake vikat svaroopase n ghabada़aakar usaka saadar svaagat kiyaa. balika samast dhana-aishvary haran kar liya gayaa. agni pareeksha huee, parantu us pareekshaamen utteern honeke baad bhakt baliko us ramaneey aur samriddhisampann sutalalokaka raajy diya gaya ki jisakee devata bhee abhilaasha karate hain, jahaanpar bhagavatkripaase kabhee aadhi-vyaadhi, bhraanti, tandra, paraabhav aur kisee prakaaraka bhee bhautik upadrav naheen hotaa. itana aishvary dekar hee bhagavaan chup naheen ho gaye, unhonne baliko saavarni manvantaramen indr honeke liye var diya aur prahlaadase bole ki 'vats prahlaad tum apane pautrasahit sutalalok men jaakar jaatike logonko sukh pahunchaate hue aanandase raho, vahaan tum mujhako sada gada haathamen liye hue balike dvaarapar sab samay dekhoge.' yon balike dvaarapar dvaarapaal hona sveekaar kiya aur antamen usako apana paramadhaam pradaan kiya, kya yah param anugrah naheen hai? bhagavaanne hiranyaaksh hiranyakashipu, raavan kumbhakarn aur shishupaala- dantavaktraka kramasha: chaar baar avataar dhaaran karake vadh kiyaa. kisaliye ? unapar prem tha, unapar kripa karanee thee. isaliye! rishike shaapase bhrasht apane dvaarapaal jaya-vijayako shaapase mukt karaneke liye. mrityuse adhik bhayaanak baat aur kya ho sakatee hai. parantu bhagavaanke dvaara honevaalee mrityumen bhee unakee kripa bharee huee hotee hai. dushtonka naash karanevaalee mrityumen bhee unakee kripa bharee huee hotee hai. dushtonka naash bhagavaan kyon karate hain? unake uddhaarake liye unako paaponse muktakar apane sukha-shaantimay paramadhaamamen pahunchaane ke liye, bhaktagan divya-drishtise isako dekh paate hain. yah koee niyam naheen hai ki bhagavaanke bhakoopar koeesaansaarik kasht n aave ya use saansaarik sukh sarvatha hee n praapt ho. samaya-samayapar dononkee hee karmaanusaar praapti hotee hai. parantu dononmen hee bhagavatkripaaka vilakshan samaavesh rahata hai. is kripaaka yathaarth darshan unheen bhaagyavaanonko hota hai, jo sukha-duhkhamen samachitt hote hain aur jo paramaatmaase kuchh bhee saansaarik vastu chaahakar usakee apaar mahima aur apanee bhaktimen dosh naheen aane dete. bhakt apanee bhakti aur premik apane premase kya chaahate hain ? vahee bhakti aur prem ! vaastavamen aise bhaktonke hridayamen bhagavatpremake prati aisa prabal aakarshan hota hai ki ve usako paaneke liye kisee bhee vipattiko vipatti naheen samajhate!
jo kabhee sansaarakee or taakata hai aur kabhee paramaatmaakee or, vah poora premee naheen hai. usako abhee bhagavat-premakee prabal utkantha naheen huee . sansaar rahe ya jaay, ghar ujada़e ya base, kisee baatakee bhee parava naheen, parantu premamen koee baadha n aave. yahee sachchee lagan hai.
maata yadi chhote shishuko maaratee hai to bhee vah useekee godamen ghusata hai aur yadi vah puchakaaratee hai, tab bhee vah useeke paas rahata hai, maataakee godako chhoda़kar shishuko aur kaheen chain naheen pada़taa. isee prakaar bhaktako bhee apane bhagavaanko chhoda़kar aur kaheen vishraam naheen milataa. vah maare, chaahe pyaar kare. bhakt ek kshan bhee usake bina rahana naheen chaahataa. sambhav hai ki bhaktapar vipattiyonke baadal chaaron orase mandaraane lagen - yah bhee sambhav hai ki usaka samast jeevan keval saansaarik vipattiyonmen hee beete, aur ek kshanabharake liye bhee vipattika abhaav n ho tathaapi usaka man us premaanandamen itana magn rahata hai ki usako bhoolakar bhee bhagavatkripaake sambandhamen kabhee kinchit bhee sandeh naheen hota !
chaatakapar yadi usaka priyatam megh pattharonkee varsha kare, to kya vah meghase prem karana chhoda़ deta hai ? kya usake premamen kuchh bhee antar pada़ta hai? gosvaamee tulaseedaasajee kahate hain-
upal baradhi garajat taraji daarat kulis kathora.
chitav ki chaatak megh taji kabahun doosaree or ..
bhayaanak vajrapaatase usake praan bhale hee chale jaayen, parantu premee chaatak doosaree taraph naheen taakataa. isee prakaar bhakt bhee nity nishchint hokar rahata hai 'use n to duhkhonse udveg hota hai aur n usako sukhonkee spriha rahatee hai.' bhagavaan kahate hain
yo n hrishyati n dveshti n shochati n kaankshati . shubhaashubhaparityaagee bhaktimaan yah s me priyah
(geeta 12.17) 'jo n kabhee harshit hota hai, n dvesh karata hai, n shok karata hai aur n kisee prakaarakee aakaanksha karata hai, jo shubhaashubh dononka tyaagee hai, vah bhaktimaan (purusha) mujhako priy hai.'
is prakaar bhakt, jaise sampattimen useekee moorti dekhakar sandehashoony rahata hai, vaise hee vipattimen bhee useekee manamohinee madhur chhavika darshanakar nihsanshay rahata hai.
isamen koee sandeh naheen ki laukik drishtise samay samayapar bhagavatkripaaka svaroop bada़a hee bheeshan hota hai. prahlaad agnimen daala jaata hai, meeraako vishaka pyaala diya jaata hai, sadanake haath kaate jaate hain aur haridaasakee peethase betonkee maarase khoon bahane lagata hai, parantu dhany hai un premee aur premake upaasak bhaktonko, ki jo pratyek avasthaamen shaant aur nishchint dekhe jaate hain. unakee sthirataamen tilabhar bhee antar naheen pada़taa. kitane pragaadha़ vishvaas aur bharosekee baat hai! ek jaraa-sa kaanta gada़ jaanepar chillaahat mach jaatee hai-agnikee jaraa-see chinagaareeka sparsh hote hee man talamala uthata hai, parantu ve bhaktagan, jo paramaatmaake premake liye apane aapako kho chuke hain;-bada़e chaavase saaree yaatanaaon aur kleshonko sahate hain. un eeshvaragatapraan bhaktonko premake liye n shooleepar chadha़nemen bhay lagata hai aur n dhadhakatee huee agnimen koodanemen hee premake liye mastakako to ve haathonmen liye phira karate hain.
prem n baada़ee neepajai, prem n haat vikaay raaja paraja jehi ruchai, sheesh dei lai jaaya
log kahate hain 'dekho, bechaareko kitana kasht ho raha hai, bechaarene saare jeevan raamaka naam liya, parantu kabhee sukhakee neend naheen soyaa! aajakal bhagavaanke yahaan nyaay naheen rahaa. yah to bechaara chaubeeson ghante bhajan karata hai aur iseepar duhkhonke pahaada़ tootakar pada़te hain.'
logonkee aisee bholee baatonko sunakar ve bhakt vipatti sampattiko laat maarakar oonche uthe hue bhakt mana-hee-man hansate hain aur unapar daya karate hain.
ve saansaarik log is baatako naheen jaanate ki bhagavaan kabhee kiseeko kasht pahunchaana naheen chaahate. bhaktake saamane bhagavaan jo duhkhaka roop prakat karate hain, so keval unake kalyaanake liye hee karate hain. yadi keval sukhamen hee bhagavaanka roop deekh pada़ta ho to kya duhkhamen unaka abhaav hai? yadi sukhamen unakee vyaapakata hai to duhkhamen bhee hai! koee bhee aisee avastha ya koee bhee aisa padaarth naheen ki jisamen ve naheen heen isee baatako poornaroopase prakat karaneke liye bhagavaan apane bhaktonke saamane donon svaroop prakat karate hain. jab bhakt is paheleeko samajh leta hai, tab vah sab tarahase aur sab orase bhagavaanko pahachaan leta hai. saadhaaran log ek taraphase dekhate hain, iseese ve sukhakee moortiko dekhakar hans uthate hain aur duhkhakee moortiko dekhakar kaanp uthate hain. parantu jo bhakt hain, ve dononmen hee unako dekh paate hain. iseese unako n to duhkhamen dvesh hai aur n sukhamen adhik anuraaga! daahina aur baay donon useeke to haath hain, bhakt kisee bhee avasthaamen is dhruvase apanee drishti naheen hataate, balki ye to doosare logonko duhkhonse ghabaड़aaya hua jaanakar bhagavaanse ulate yah praarthana karate hain -
n kaamaye'han gatimeeshvaraatparaa
mashtaddhiyuktaamapunarbhava
aarti prapadye'khiladehabhaajaa-
mantah sthito yen bhavantyaduhkhaah ..
(shreemadbhaa0 9.21.12)l
'he naatha! main (aapa) parameshvarase animaadi aath siddhiyonse yukt gati ya muktiko naheen chaahata, meree yahee praarthana hai ki main hee sab praaniyonke antahkaranamen sthit hokar duhkh bhog karoon, jisase un sabaka duhkh door ho jaaya.'
param bhakt prahlaadane kaatar kanthase kaha tha ki 'he prabho ! mera chitt to aapake charitragaanaroopee sudhaa-samudramen nimagn hai, mujhe sansaarase koee bhay naheen, parantu main in indriyonke sukhonmen lipt aur bhagavat-vimukh deen asur baalakonko chhoda़kar akela mukt hona naheen chaahataa.'
yah hai bhaktonkee vaanee ! sansaarabharaka duhkh ve apane mastakapar uthaaneko prastut hain. deena-du:khiyonka uddhaar hue bina akele apana uddhaar naheen chaahate, kasht denevaaleke liye bhee bhagavaanse kshama chaahate hain, apane kashtonkee koee parava naheen! parava kyon ho? unhen to kashtonkee bheeshan moortike andar us salone shyaamasundarakeenav ghanashyaamamoortika pratyaksh darshan hota hai na! ve to sab orase apana saara apanaapan use saunpakar usakee kripaasudhaakee anant aur sheetal dhaaraamen avagaahanakar kritaarth ho chuke hain aur kshana-kshanamen unhen bhagavatkripaake divy darshan hote hain. iseese ve samast sukh aur duhkhabhaarako keval bhagavatprasaad samajhakar saanand grahan karate hain! koee sthiti unhen vichalit naheen kar sakatee, ve us param laabhako paakar nity useemen raman karate hue premake paramaanandamen nimagn rahate hain! bhagavaanne kaha hai-
yan labdhva chaaparan laabhan manyate naadhikan tatah .
yasmin sthito n duhkhen gurunaapi vichaalyate ..
(geeta 6 22)
(bhakta) paramaatmaakee praaptiroop laabhako paakar usase adhik doosara kuchh bhee laabh naheen maanata aur bhagavatpraaptiroop avasthaamen sthit (vaha) bhakt bada़e-se bada़e duhkhase bhee chalaayamaan naheen hotaa.'