⮪ All भगवान की कृपा Experiences

सकाम दैवी अनुष्ठानोंके सम्बन्धमें नम्र निवेदन

प्राकृतिक जगत् अनित्य, अपूर्ण और विनाशी है, अतएव दुःखालय है। प्राकृतिक वस्तुओं और स्थितियों में सुखकी खोज करना वास्तवमें मूर्खता ही है। यहाँ जो कुछ भी मनुष्य प्राप्त करता है, वह स्थायी नहीं होता; अधूरा होता है और उसका वियोग अवश्यम्भावी है। यहाँ वास्तविक सुख उसीको मिलता है, जो सारे जगत्‌को भगवान्‌में देखता है और भगवान्‌को जगत्में भरा देखता है। वहीं नित्य और पूर्ण परमानन्दस्वरूप भगवान्‌को देखता हुआ नित्य आनन्दमय बना रहता है।

भगवान्ने कहा है

यो मां पश्यति सर्वत्र सर्व च मयि पश्यति । तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति ॥

(गीता ६।३०)

'जो पुरुष सम्पूर्ण भूतोंमें सबके आत्मरूप मुझवासुदेवको ही व्यापक देखता है और सम्पूर्ण भूतोंकोमुझ वासुदेवके अन्तर्गत देखता है, उसके लिये मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिये अदृश्य नहीं होता।'

फिर यहाँ जो कुछ भी हानि-लाभ, सुख-दुःख आदि भोगरूपमें प्राप्त होते हैं, वे सब प्रारब्धके ही फल हैं। कर्म तीन प्रकारके होते हैं-क्रियमाण, संचित और प्रारब्ध। इस समय हम जो कुछ भी कर्म फलहेतुसे कर रहे हैं, उन्हें 'क्रियमाण' कहते हैं। फलहेतुक कर्म सम्पन्न होते ही कर्मसंचयके भंडारमें चला जाता है। यह पूर्वजन्मके किये हुए कर्मोंका, जिनका फल अभी नहीं भोगा जा चुका है, संग्रह ही 'संचित' कहलाता है और इस संचितमेंसे कुछ अंश लेकर कर्म- जगत्का नियन्त्रण करनेवाली प्रभुशक्ति एक जन्मके लिये जो कुछ फलका निर्माण कर देती है, उसका नाम प्रारब्ध है। इस 'प्रारब्ध' के अनुसार योनि, आयु और फल आदि पहले से ही निश्चित हो जाते हैं। अतएव जब, जो कुछ भी प्रारब्धवश फलरूपमें प्राप्त होना है, वह अवश्य होगा ही उसमें निमित्त तीन हो सकते हैं-'स्वेच्छा', 'परेच्छा' और 'अनिच्छा' किसी फलभोगके लिये कोईकर्म हमारी अपनी इच्छासे बन जाय, यह 'स्वेच्छाकृत फलभोग' है; जैसे आगमें हाथ डालने की इच्छा होने हाथ डालना और उसका जल जाना। किसी प्रारब्धका 'फल 'परेच्छा'-दूसरेकी इच्छासे होता है। इसका रुप है-किसी दूसरेके मनमें हमारा अच्छा-बुरा करनेकी इच्छा हो जाना और तदनुसार उस कर्मके सम्पन्न होनेपर हमें वैसा फल प्राप्त होना। जैसे—हमारे घरमें आग लगनेवाली हो, पर द्वेषवश दूसरा कोई इच्छा करके आग लगा दे। इसी प्रकार कुछ फल अनिच्छा से उत्पन्न होते हैं। जैसे- हम रास्ते में चल रहे हैं। अकस्मात् किसी पेड़की डाल टूटकर हमपर गिर जाय और हमें चोट लग जाय। फलभोग में प्रारब्धवश परतन्त्र होते हुए भी इन 'स्वेच्छा' और 'परेच्छा' कृत फलभोगोंमें हम अपनी भली-बुरी इच्छा के अनुसार क्रियमाण कर्म उत्पन्न करके अपने लिये अच्छे-बुरे संचित निर्माण करते हैं, भविष्य में हमारे लिये सुख-दुःखका कारण बन सकता है; क्योंकि संचित और प्रारब्धवश अच्छी-बुरी इच्छाअंकि उदय होनेपर भी मनुष्यको भगवान्ने अच्छे-बुरेकी पहचान के लिये विवेक, आदर्श शुभ कर्म करनेके लिये विधिनिषेधात्मक शास्त्रवाणी और कर्म करनेका अधिकार दिया है। 'कर्मण्येवाधिकारस्ते' गीताका प्रसिद्ध वचन है। यदि हम शास्त्रकी अवहेलना करके मनमाना अनाचार - दुराचार करते हैं तो उसका फल दुःख और सदाचार सद्व्यवहार करते हैं तो उसका फल सुख भविष्यमें होगा ही। प्रारब्धका फल अवश्यमेव भोगना ही होगा इसमें कोई संदेह नहीं, पर जो मनुष्य भगवान्के शरणागत होकर अपनेको सर्वतोभावेन भगवान्‌को समर्पित कर चुकते हैं अथवा जिन्हें तत्त्वज्ञानस्वरूप आत्मसाक्षात्कार हो जाता है, उनके शरीरमें प्रारब्धानुसार फलका उदय होनेपर भी उन्हें दुःख-सुख नहीं होता; और सकामभाव न होनेसे नवीन कर्मफल प्रदान करनेवाले कर्म संचितमें वैसे ही नहीं जमा होते जैसे भुने हुए बीज खेटमें डालनेपर भी उनसे अंकुर नहीं निकलते पूर्वके सारेसंचित कर्म भगवान्‌को सहज कृपा अथवा 'ज्ञानाग्नि' मे सर्वथा भस्म हो जाते हैं। इस प्रकार वह कर्मबन्धनसे मुक्त हो जाता है; तथापि शरोरसे प्रारब्धफलका भोग होता ही है। यह 'कर्म सिद्धान्त' है।

परंतु कुछ ऐसे 'प्रबल कर्म' भी होते हैं—जैसे सकाम भगवदाराधन या देवाराधन, किसी कारणवश शाप या वरदान जो तत्काल 'प्रारब्ध' बनकर फलदानोन्मुख प्रारब्धके फलको रोककर बीचमें अपना फल भुगता देते हैं। शेष प्रारब्धका फल तत्पश्चात् भोगना होता ही है। उदाहरणरूपमें किसीके प्रारब्धमें पुत्र-प्राप्तिका संयोग नहीं है; पर वह विधिपूर्वक 'पुत्रेष्टि यज्ञ' का अनुष्ठान करनेपर नवीन प्रारब्ध निर्माणके द्वारा पुत्र प्राप्त कर सकता है। ऐसे बहुत-से उदाहरण प्राचीन ग्रन्थोंमें मिलते हैं। इसी प्रकार किसीके प्रारब्धमें अमुक समय मृत्युका योग है; पर 'मृत्युंजय' आदि अनुष्ठान सविधि करनेपर वह अल्पायु मनुष्य 'दीर्घ जीवन का लाभ कर सका है। मार्कण्डेयका भगवान् शंकरकी उपासनाके फलस्वरूप अमरत्व प्राप्त करना प्रसिद्ध ही है। इसीलिये हमारे शास्त्रोंमें 'सकाम 'उपासना' का विस्तृत उल्लेख है।

यद्यपि सकाम उपासना बुद्धिमानी नहीं है; क्योंकि उसके द्वारा प्राप्त होनेवाला फल अनित्य, अपूर्ण और दुःखप्रद ही होता है, तथापि सात्त्विक सकाम उपासना भी उपासना के स्वरूपानुसार न्यूनाधिक रूपमें अन्तःकरणकी शुद्धि होती है, जिसका फल अन्तमें निष्कामताकी प्राप्ति होता है। भगवान्‌की उपासना तो किसी भी भावसे की जाय, अन्तमें भगवान्‌को प्राप्त करानेवाली होती है। भगवान्ने स्वयं अपने 'अर्थार्थी और 'आर्त' भक्तोंको भी 'उदार' बतलाते हुए अन्तमें उनको अपनी प्राप्ति होनेकी घोषणा की है। 'द सर्व एवैते' और 'मद्धका यान्ति मामपि' (गोता ) । अतएव सकाम देवाराधन और भगवदाराधन बुद्धिमानी न होते हुए भी लोकमें समृद्धि, सुख और अन्तमें क्रमानुसार भगवत्प्राप्तिमें हेतु होनेके कारण अकर्तव्यनहीं है। पाप तो है ही नहीं अवश्य ही तामस देवताओं' और 'तामस तत्वों की उपासना कभी नहीं करनी चाहिये और न ऐसी कोई उपासना-आराधना करनी चाहिये, जिसमें दूसरेके अहितकी कामना हो।' 'सामस उपासना' और 'पर अहितकी कामना' से की गयी उपासना दोनों ही अन्तःकरणकी अशुद्धि हेतु और बार-बार आसुरी योनि दुःख और अधोगतिकी प्राप्तिमें ही कारण होते हैं।

सकाम अनुष्ठानोंके सम्बन्धमें यह निश्चित रूपसे नहीं कहा जा सकता कि वे सबको समानरूपसे फल देंगे ही या तत्काल ही फल दे देंगे। तत्काल फल न हो तो बार-बार उनका प्रयोग करना चाहिये। एक ही दवा एक रोगीको तत्काल लाभ पहुंचाती है, दूसरेकी देरसे पहुँचाती है और किसीको उससे कुछ भी लाभ नहीं होता। इसी प्रकार देवाराधन भी प्रारब्धकी सहज, कठिन या अत्यन्त प्रबल प्रतिबन्धकताके अनुसार कोई तुरंत नवीन प्रारब्ध बनकर फल दे देता है, कोई देरसे और कोई बहुत देरसे फल देता है एवं कोई नहीं भी देता पूर्वनिर्मित प्रारब्धकी निर्बलता या प्रबलता ही इसमें प्रधान कारण है। परंतु दवाका अनुचित प्रयोग होनेपर उससे या आजकलकी विज्ञापनी विषाक्त दवाइयोंकी प्रतिक्रियाके रूपमें विपरीत परिणाम भी हो जाता है। रोग बढ़ जाता है और कहीं-कहीं रोगी मर भी जाता है। पर सात्त्विक (जिसमें किसी अवैध तामसिक वस्तु या विधिका प्रयोग न हो तथा जो किसी भी दूसरेके लिये जरा भी हानिकारक न हो, ऐसे) देवाराधनमें प्रतिक्रियारूपमें कोई भी हानि नहीं होती; वरं लाभ ही होता है।

एक प्रसिद्ध महात्मा हुए हैं; उन्होंने अर्थकी प्राप्तिके लिये गायत्रीके पूरे चौबीस पुरश्चरण किये। वे बार-बार पुरश्चरण करते, पर फल कुछ भी दिखायी नहीं देता; तथापि उनकी श्रद्धा नहीं घटी न धीरज ही छूटा और न वे उकताये ही तथा पुरश्चरण करते ही रहे। जबचौबीस पुरश्चरण पूरे हो गये और कोई प्रत्यक्ष फल नहीं दिखायी दिया, तब भी उनकी गायत्रीदेवीपर तनिक भी अश्रद्धा नहीं हुई; क्योंकि वे परम आस्तिक और विश्वासी थे। दूसरी ओर गायत्रीपुरश्चरणोंके द्वारा पवित्र हुए उनके विशुद्ध हृदयमें वैराग्य उत्पन्न हो गया। और सर्वत्याग करके वे संन्यासी हो गये। संन्यास सर्वत्यागमय होता है और यह यथार्थ सर्वत्याग एक 'महान् पुण्यकार्य' होता है। अतः संन्यास ग्रहण करनेके पश्चात् गायत्रीदेवीने प्रकट होकर उनसे वर माँगनेके लिये अनुरोध किया। संन्यासी महात्माने कहा-'माता। मैंने चौबीस पुरश्चरण श्रद्धा-विधिसहित किये, किंतु आपने दर्शन नहीं दिये। अब मेरे संन्यास ग्रहण करनेके पश्चात् आपके प्रकट होनेका क्या कारण है?' गायत्रीदेवीने कहा- 'वत्स! तुम्हारे पचीस महापाप थे; चौबीस पुरश्चरणोंसे उनमेंसे चौबीस महापापोंका प्रायश्चित्त हो गया। एक पुरश्चरण और कर लेते तो प्रतिबन्धक हट जाता और मैं प्रकट हो जाती। पर तुमने वह नहीं किया। अब तुम्हारा यह सर्वत्यागरूप संन्यास महान् पुण्य कार्य होनेके कारण इसके फलस्वरूप पचीसवें महापातकका भी प्रायश्चित्त हो गया। अब तुम नवीन फल प्राप्त करनेके अधिकारी हो गये। इसीसे मैं अब प्रकट हो गयी।' संन्यासी महात्माने कहा-'माता! अब तो मैं सर्वत्यागी संन्यासी हूँ। अब न मेरे मनमें कोई कामना है, न मुझे कोई आवश्यकता हो। आपको कृपा बनी रहे। आप पधारें।'

इस कथासे यह सिद्ध होता है कि प्रतिबन्धककी प्रबलतासे देवाराधनका मनोवांछित फल तत्काल न मिलनेपर भी लाभ तो निश्चितरूपसे होता ही है। साथ ही आजकल दवाइयोंमें जान्तव पदार्थों तथा विषका प्रयोग होता है, उनके सेवनमें हिंसा होती हैं तथा जहरतक खाया जाता है। व्यापार-नौकरी आदिमें असत्य, बेईमानी तथा पराये अहित साधनका पाप होता है। देवाराधक इन पापोंसे तो बच ही जाता है। यह भी कम लाभ नहीं है। उसकी बुद्धि अहिंसायुक्त तथा जाग्रत् रहती है, जिससे पराया अनिष्ट या अहित करनेवालेविचारों तथा पापोंसे छुटकारा मिलता है। यह याद रखना चाहिये कि जिस किसी विचार या कार्यसे परिणाम में अपना तथा दूसरोंका अनिष्ट या अहित होता हो, वही 'पाप' है और जिससे परिणाममें अपना तथा दूसरोंका इष्ट या हित होता हो, वही 'पुण्य' है। यही पाप तथा पुण्यकी सार्वभौम यथार्थ परिभाषा है। जिससे परिणाममें दूसरॉका अहित होगा, उससे हमारा हित होगा ही नहीं और जिससे परिणाममें दूसरोंका हित होता होगा, उससे हमारा कभी अहित न होकर हित ही होगा- यह सुनिश्चित है।

कहीं-कहीं देवाराधनके सफल न होनेमें श्रद्धा और विधिकी न्यूनता या उसका अभाव भी प्रधान कारण होता है। श्रद्धाकी आवश्यकता तो प्रत्येक कार्यमें है। अश्रद्धासे किया गया कार्य सिद्ध नहीं होता। भगवान् गीतामें कहते हैं

अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत्। असदित्युच्यते पार्थ न च तत्प्रेत्य नो इह ॥

(१७/२८)

'हे अर्जुन! बिना श्रद्धाके किया हुआ हवन, दिया हुआ दान एवं तपा हुआ तप और जो कुछ भी किया हुआ शुभ कर्म है - वह समस्त 'असत्'- इस प्रकार कहा जाता है, इसलिये वह न तो इस लोकमें लाभदायक है और न मरनेके बाद ही।"

अतएव कोई भी देवाराधन या मन्त्र-प्रयोग हो, अनुष्ठान करनेवालेमें उसके प्रति श्रद्धा-विश्वास अवश्य होना चाहिये। जिस देवता और जिस अनुष्ठान या आराधनमें श्रद्धा होगी, वही फलवान् होगा। किसी भी देवताकी आराधना कौतूहलनिवृत्ति या परीक्षाके लिये नहीं करनी चाहिये। परीक्षाके लिये की गयी आराधनासे तो देवताका अपमान होता है, जिसका फल अनिष्ट भी हो सकता है।

श्रद्धाके साथ सकाम कर्ममें विधिकी भी परमावश्यकता है। जैसे अमुक-अमुक वस्तुओंके अमुक अमुक निश्चित परिमाणमें मिलानेपर ही किसी अभीष्टवस्तुका निर्माण होता है, वैसे ही अमुक-अमुक विधिका भलीभांति पालन होनेपर ही देवताके द्वारा फलका निर्माण होता है। अतएव प्रत्येक अनुष्ठान यथासाध्य विधिवत् ही होना चाहिये।

देवानुष्ठानके समय तन-मन-वचनसे सदाचारका पालन करना चाहिये। अखण्ड ब्रह्मचर्यका (संतान प्राप्ति के अनुष्ठानमें वैध प्रसंगको छोड़कर) पालन अवश्य अवश्य होना चाहिये। जपके साथ दशांश हवन, तर्पण, मार्जन और ब्राह्मणभोजन भी आवश्यक होता है। साथ ही इस बातका भी ध्यान रखना चाहिये कि किसी भी दूसरेके अनिष्ट या अहितका कोई भी कार्य मन वाणी - शरीरसे न होने पाये।

किन्हीं ब्राह्मण या ब्राह्मणोंसे अनुष्ठान करवाया जाय तो यह ध्यान रखना आवश्यक है कि ब्राह्मण सदाचारी हों, अनुष्ठानके समय वे ब्रह्मचर्य का पालन करें और जहाँतक बने, अनुष्ठानकालमें यजमानका ही अन्न ग्रहण करें। ब्राह्मणोंको सम्मानपूर्वक उचित दक्षिणा दी जानी चाहिये; उसमें सौदा या मोल तोल नहीं करना चाहिये। उनका जी तो दुखाना ही नहीं चाहिये।

किसी दूसरेका अनिष्ट चाहकर कोई भी अनुष्ठान कभी नहीं करना कराना चाहिये; इससे परिणाममें बहुत बड़ी हानि होती है। अमुक कार्य सफल हो जानेपर देवताका अमुक कार्य किया जायगा या उसको अमुक चीज भेंट चढ़ायी जायगी अथवा अमुक देवस्थानकी यात्रा की जायगी- इस प्रकार मनौती मानना बहुत निम्न श्रेणीकी देवाराधना है। पहले सेवा करके तब फल माँगना या स्वीकार करना चाहिये। 'देवता हमारा अमुककाम कर देंगे, तब हम देवताको सेवा-पूजा करेंगे' यह वृत्ति बहुत नीची है। इसमें देवतापर पूरे विश्वासका अभाव है। यद्यपि इसमें भी प्रयास होता है; अतः देवता स्वभाववश प्रायः नाराज नहीं होते; तथापि है तो यह अविश्वासपूर्ण व्यापार' ही सच्ची बात तो यह है कि देवाराधन निष्काम प्रेमसे होना चाहिये। सेवा करके बदले में कुछ भी लेना सेवा नहीं कहलाता; बल्कि वह एक प्रकारका व्यापार हो जाता है। प्रह्लादने भगवान् नृसिंहसे कहा था- 'जो सेवा करके बदलेमें कुछ ले लेता है, वह सेवक नहीं है, लेन-देन करनेवाला व्यापारी है'

'न स भृत्यः स वै वणिक् ।'

( (श्रीमद्भा० ७।१०।४)

पर जो सेवाके पहले ही फल चाहते हैं, वे तो कुशल व्यापारी भी नहीं; उन्हें तो निम्न श्रेणीके स्वार्थी ही कहना चाहिये।

अन्तमें यही नम्र निवेदन है कि मानव जीवनका लक्ष्य 'भगवत्प्राप्ति' ही है। अन्य जितनी भी लोक परलोककी वस्तुएँ या स्थितियाँ हैं— सभी अनित्य तथा परिणाम दुःखद हैं। अतएव सकाम कर्मोमें प्रवृत्त न होकर निष्काम कर्म, तत्त्वविचार, भगवत्सेवा, भगवत्प्रेम आदि पारमार्थिक साधनोंमें ही लगना चाहिये; उसीमें जीवनकी सार्थकता है। पर जो सकामभावका त्याग नहीं कर सकते, उनकी विविध कामनाओंकी पूर्तिके लिये सकाम उपासनाका विधान है। सकामभाववाले लोग उन दैवी साधनोंका सेवन करके लाभ उठा सकते हैं।

[ नित्यलीलालीन श्रद्धेय भाईजी श्रीहनुमानप्रसादजी पोद्दार ]



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bhagavaanne kaha hai

yo maan pashyati sarvatr sarv ch mayi pashyati . tasyaahan n pranashyaami s ch me n pranashyati ..

(geeta 6.30)

'jo purush sampoorn bhootonmen sabake aatmaroop mujhavaasudevako hee vyaapak dekhata hai aur sampoorn bhootonkomujh vaasudevake antargat dekhata hai, usake liye main adrishy naheen hota aur vah mere liye adrishy naheen hotaa.'

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is kathaase yah siddh hota hai ki pratibandhakakee prabalataase devaaraadhanaka manovaanchhit phal tatkaal n milanepar bhee laabh to nishchitaroopase hota hee hai. saath hee aajakal davaaiyonmen jaantav padaarthon tatha vishaka prayog hota hai, unake sevanamen hinsa hotee hain tatha jaharatak khaaya jaata hai. vyaapaara-naukaree aadimen asaty, beeemaanee tatha paraaye ahit saadhanaka paap hota hai. devaaraadhak in paaponse to bach hee jaata hai. yah bhee kam laabh naheen hai. usakee buddhi ahinsaayukt tatha jaagrat rahatee hai, jisase paraaya anisht ya ahit karanevaalevichaaron tatha paaponse chhutakaara milata hai. yah yaad rakhana chaahiye ki jis kisee vichaar ya kaaryase parinaam men apana tatha doosaronka anisht ya ahit hota ho, vahee 'paapa' hai aur jisase parinaamamen apana tatha doosaronka isht ya hit hota ho, vahee 'punya' hai. yahee paap tatha punyakee saarvabhaum yathaarth paribhaasha hai. jisase parinaamamen doosaraॉka ahit hoga, usase hamaara hit hoga hee naheen aur jisase parinaamamen doosaronka hit hota hoga, usase hamaara kabhee ahit n hokar hit hee hogaa- yah sunishchit hai.

kaheen-kaheen devaaraadhanake saphal n honemen shraddha aur vidhikee nyoonata ya usaka abhaav bhee pradhaan kaaran hota hai. shraddhaakee aavashyakata to pratyek kaaryamen hai. ashraddhaase kiya gaya kaary siddh naheen hotaa. bhagavaan geetaamen kahate hain

ashraddhaya hutan dattan tapastaptan kritan ch yat. asadityuchyate paarth n ch tatprety no ih ..

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'he arjuna! bina shraddhaake kiya hua havan, diya hua daan evan tapa hua tap aur jo kuchh bhee kiya hua shubh karm hai - vah samast 'asat'- is prakaar kaha jaata hai, isaliye vah n to is lokamen laabhadaayak hai aur n maraneke baad hee."

ataev koee bhee devaaraadhan ya mantra-prayog ho, anushthaan karanevaalemen usake prati shraddhaa-vishvaas avashy hona chaahiye. jis devata aur jis anushthaan ya aaraadhanamen shraddha hogee, vahee phalavaan hogaa. kisee bhee devataakee aaraadhana kautoohalanivritti ya pareekshaake liye naheen karanee chaahiye. pareekshaake liye kee gayee aaraadhanaase to devataaka apamaan hota hai, jisaka phal anisht bhee ho sakata hai.

shraddhaake saath sakaam karmamen vidhikee bhee paramaavashyakata hai. jaise amuka-amuk vastuonke amuk amuk nishchit parimaanamen milaanepar hee kisee abheeshtavastuka nirmaan hota hai, vaise hee amuka-amuk vidhika bhaleebhaanti paalan honepar hee devataake dvaara phalaka nirmaan hota hai. ataev pratyek anushthaan yathaasaadhy vidhivat hee hona chaahiye.

devaanushthaanake samay tana-mana-vachanase sadaachaaraka paalan karana chaahiye. akhand brahmacharyaka (santaan praapti ke anushthaanamen vaidh prasangako chhoda़kara) paalan avashy avashy hona chaahiye. japake saath dashaansh havan, tarpan, maarjan aur braahmanabhojan bhee aavashyak hota hai. saath hee is baataka bhee dhyaan rakhana chaahiye ki kisee bhee doosareke anisht ya ahitaka koee bhee kaary man vaanee - shareerase n hone paaye.

kinheen braahman ya braahmanonse anushthaan karavaaya jaay to yah dhyaan rakhana aavashyak hai ki braahman sadaachaaree hon, anushthaanake samay ve brahmachary ka paalan karen aur jahaantak bane, anushthaanakaalamen yajamaanaka hee ann grahan karen. braahmanonko sammaanapoorvak uchit dakshina dee jaanee chaahiye; usamen sauda ya mol tol naheen karana chaahiye. unaka jee to dukhaana hee naheen chaahiye.

kisee doosareka anisht chaahakar koee bhee anushthaan kabhee naheen karana karaana chaahiye; isase parinaamamen bahut bada़ee haani hotee hai. amuk kaary saphal ho jaanepar devataaka amuk kaary kiya jaayaga ya usako amuk cheej bhent chadha़aayee jaayagee athava amuk devasthaanakee yaatra kee jaayagee- is prakaar manautee maanana bahut nimn shreneekee devaaraadhana hai. pahale seva karake tab phal maangana ya sveekaar karana chaahiye. 'devata hamaara amukakaam kar denge, tab ham devataako sevaa-pooja karenge' yah vritti bahut neechee hai. isamen devataapar poore vishvaasaka abhaav hai. yadyapi isamen bhee prayaas hota hai; atah devata svabhaavavash praayah naaraaj naheen hote; tathaapi hai to yah avishvaasapoorn vyaapaara' hee sachchee baat to yah hai ki devaaraadhan nishkaam premase hona chaahiye. seva karake badale men kuchh bhee lena seva naheen kahalaataa; balki vah ek prakaaraka vyaapaar ho jaata hai. prahlaadane bhagavaan nrisinhase kaha thaa- 'jo seva karake badalemen kuchh le leta hai, vah sevak naheen hai, lena-den karanevaala vyaapaaree hai'

'n s bhrityah s vai vanik .'

( (shreemadbhaa0 7.10.4)

par jo sevaake pahale hee phal chaahate hain, ve to kushal vyaapaaree bhee naheen; unhen to nimn shreneeke svaarthee hee kahana chaahiye.

antamen yahee namr nivedan hai ki maanav jeevanaka lakshy 'bhagavatpraapti' hee hai. any jitanee bhee lok paralokakee vastuen ya sthitiyaan hain— sabhee anity tatha parinaam duhkhad hain. ataev sakaam karmomen pravritt n hokar nishkaam karm, tattvavichaar, bhagavatseva, bhagavatprem aadi paaramaarthik saadhanonmen hee lagana chaahiye; useemen jeevanakee saarthakata hai. par jo sakaamabhaavaka tyaag naheen kar sakate, unakee vividh kaamanaaonkee poortike liye sakaam upaasanaaka vidhaan hai. sakaamabhaavavaale log un daivee saadhanonka sevan karake laabh utha sakate hain.

[ nityaleelaaleen shraddhey bhaaeejee shreehanumaanaprasaadajee poddaar ]

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