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कोरोनाकालमें रामनामका वाचन-जप

रामनामका बीज मेरे भीतर कैसे बोया गया एवं आगे चलकर मेरे जीवनमें अंकुरित होकर एक विशाल वृक्ष बना, यह मेरे लिये आज भी एक रहस्य है। हो सकता है कि यह मेरे किसी पूर्वजन्मका अभ्यास हो, जो इस जन्ममें प्रस्फुटित होना था। बचपनमें स्कूल जाते समय मेरी माँ मुझे कहा करती थी, 'भगवान्‌को नमस्कार करके जाया करो', पर कौनसे भगवान्‌को, यह नहीं बताया । घरमें एक स्थान था, जहाँ सारे देवताओंके फोटो एवं छोटी मूर्तियाँ रखी हुई थीं, भजन-पूजन, आरती आदि सब यहीं होते थे। पहले मैं यहाँ नमस्कार करके जाता था, पर यह मेरे पढ़ाईके कमरेसे बहुत दूर था। किताबें, बस्ता वगैरह सब वहीं थे, तो सोचा क्यों न भगवान्‌का एक फोटो यहीं हो तो उसे नमस्कार करके जायें। घरमें टटोला तो एक पुराना कैलेण्डर मिला, जिसमें भगवान्‌का एक बड़ा-सा फोटो था। एकाएक कहींसे 'राम' शब्द गूँजा और मेरे मनमें यह बात उठी 'अरे वाह यही रामजी हैं, इसे दीवारपर रोग लेते हैं और इसे ही नमस्कार करके जाया करेंगे।

कई वर्षोंतक मैं उस कैलेण्डरवाले भगवान् रामके फोटोको नमस्कार करके स्कूल जाता रहा। स्कूलके लिये क्रिकेट मैच खेलनेसे पहले, परीक्षासे पहले या फिर स्कूलकी किसी भी स्पर्धा में भाग लेनेसे पहले मैं विशेष नमस्कार करता था। मैं मन ही मन कहता था 'हे भगवान् रामजी! मुझे सफल करो, अव्वल आने दो' और अक्सर रामजीने मेरा साथ दिया, सफलता भी मिली और पुरस्कार भी मिले।

इन वर्षोंमें माँका कभी मेरे नमस्कार करनेपर ध्यान नहीं गया, पर एक दिन उन्होंने मुझसे पूछा, 'क्यों रे, तूने तो भगवान्‌को नमस्कार करना बन्द ही कर दियाहै क्या ?' 'माँ! मैं तो रोज नमस्कार करता हूँ।'

'मैंने तो कभी देखा नहीं, कहीं करते हो ?'
'मेरे पढ़ाईवाले कमरे में जो भगवान् रामजोका फोटो है, उसे मैं हमेशा नमस्कार करता हूँ।"'

"माँ हँसकर बोली, अरे पगले वह तो श्रीकृष्ण

भगवान्‌का फोटो है।' कुछ हैरान-सा हुआ मैं बोला- 'ठीक है, पर हमारे तो बस वही रामजी हैं और रहेंगे।'

अनजाने में ही सही, पर मुझे तभी एहसास हो गया था कि राम और कृष्ण एक ही हैं। मेरे इस एहसासके वास्तविक होनेकी पुष्टि लगभग पाँच दशक बाद हुई, जब महान् सन्त स्वामी रामसुखदासजी महाराजने अपने किसी ग्रन्थमें यह कहा- भीतरमें एक बातकी दृढ़ता होनी चाहिये कि राम और कृष्ण एक ही हैं। उनका पुराना नाम 'राम' है और नया नाम 'कृष्ण' है। राम त्रेतायुगमें हुए, कृष्ण द्वापरयुगमें हुए। राम ही कृष्ण हैं और कृष्ण ही राम हैं।

अध्ययनकाल समाप्त हो चुका था, जीवन आगे बढ़ता रहा और अगले दो दशकों में में सांसारिक भँवरमें कुछ ऐसा खिंच गया कि रामनाम तो लुप्त ही हो गया। यह इसका प्रमाण था कि भगवान्द्वारा रची हुई माया कितनी प्रबल है, जिसमें हम डूबकर परमपिता परमात्माको ही भूल जाते हैं। मेरे जीवनकालमें मुझे आजतक एक भी ऐसा व्यक्ति प्रत्यक्षरूपसे नहीं मिला, जिसने मुझे कहा हो, 'तुम्हारा जन्म परमात्म-प्राप्तिके लिये ही हुआ है और केवल यही तुम्हारा लक्ष्य होना चाहिये।' हाँ, आध्यात्मिक ग्रन्थोंमें इसे जरूर पढ़ा था। यद्यपि सांसारिक बातें सिखाने एवं शिक्षण, व्यवसाय आदि लोक सम्बन्धी सलाह देनेवालोंकी कमी कभी भी नहीं थी।

किताबें पढ़ने मेरी च स्कूलके दिनोंसे ही रहीहै और आगे चलकर जीवनमें यह रुचि एक प्रकारकाव्यसन-सा बन गयी। जैसे-जैसे परिपक्वता आती गयी,पढ़नेके विषय भी बदलते गये, परंतु एक निर्णायक मोड़तब आया, जब मेरे नानाजीकी किताबों में मुझे एकमहत्त्वपूर्ण किताब मिली। यह किताब थी गुरुदेवआर०डी० रानाडेद्वारा रचित 'मिस्टिसिज्म इन इंडिया :

द पोएट सेंट्स ऑफ महाराष्ट्र'। सन्त ज्ञानेश्वर, नामदेव, एकनाथ, तुकाराम एवं स्वामी रामदासजीकी रचनाओंको पढ़कर मैं चकित रह गया। उसके बाद मेरा सामान्य साहित्य पढ़ना लगभग बन्द ही हो गया और मैं केवल आध्यात्मिक किताबों एवं ग्रन्थोंका अध्ययन करता रहा तथा ये ही मेरे गुरु बन गये।

इसीके साथ-साथ ध्यान जपादि साधनोंके प्रयोग भी चलते रहे, पर किसी नियमित साधनपर नहीं पहुँचा था। नामस्मरण या जपकी ओर रुझान था, पर फिर भी किसी निश्चित साधनकी तलाश थी। उसी दौरान पूज्य बाबा बेलसरेकी मराठीमें लिखी हुई किताब 'समाधि/ सहज समाधि' पढ़नेमें आयी ये बाबा ब्रह्मचैतन्य श्रीगोंदवलेकरजी महाराजके शिष्य थे। इस किताब में एक रोचक लघुकथा मैंने पढ़ी, जो मेरे लिये प्रेरणास्त्रोत बनकर मेरे जीवनका अभिन्न अंग बन गयी। वह लघुकथा कुछ ऐसी थीकलकत्ताके पास स्थित दक्षिणेश्वरमें एक साधु आये हुए थे, उनका केवल भगवन्नामपर ही विश्वास था । उनके पास एक पोथी थी, जिसे वे अपने सीनेसे लगाये सदैव अपने साथ रखते थे। वह पोथी वे किसीको भी नहीं देते और बहुत सम्हालकर रखते इस बातको देखकर श्रीरामकृष्ण परमहंसके मनमें जिज्ञासा जागी कि आखिर यह कौन-सी पोधी है और इसमें ऐसा क्या है, जो यह साधु इतना सम्हालकर रख रहा है। एक दिन उन्होंने उस साधुसे इसके बारेमें पूछा, तब उन्होंने वह पोथी उन्हें खोलकर दिखायी। उस पोथीमें शुरूसे अन्ततक केवल रामनाम ही लिखा हुआ था श्रीरामकृष्णने उससे पूछा, 'यह वेदान्तकी पोथी नहीं है ?' साधुने जवाब दिया, 'सारे वेदान्तका सार इसी मन्त्रमें है, यह मैं निश्चित रूपसे मान चुका हूँ, तो फिर अन्य पोथियोंकी क्या आवश्यकता है ?"

यह लघुकथा पढ़नेके बाद उसका परिणाम मुझपर कुछ इतना गहरा उतरा कि मैंने ठान लिया कि ऐसी पोथीमुझे भी चाहिये। कई दिनोंतक खूब तलाश की, पर ऐसी
पोथी मुझे कहीं भी नहीं मिली। फिर सोचा, इसे छपया लेते हैं. पर कोई भी छपाईवाला एक प्रति छापने के लिये तैयार नहीं हुआ, वे बोलते, 'कम-से-कम हजार-पाँच सी तो छपवाओ।' उसी दौरान इंटरनेटपर ढूँढ़ते हुए एक अमरीकी कम्पनी मिली, जो ऑनलाइन 'प्रिंट ऑन डिमांड' पर किताबें छापकर देती थी। (अब तो भारतमें भी कुछ कम्पनियाँ उपलब्ध हैं)। उसी कम्पनीकी वेबसाइटपर जाकर मैंने खुद अपनी किताब डिजाइन की, जिसमें शुरू से अन्ततक केवल एक लाख रामनाम लिखे हुए थे। फिर उनसे यह एक लाख रामनामवाली किताब छपवाकर मँगवा ली, खर्चा लगभग पचास डॉलर आया।

यह किताब ३० अप्रैल २०१० को छापी गयी थी और मुझे जुलाईके पहले सप्ताहमें प्राप्त हुई। ७ जुलाई २०१० से मैंने इससे रामनाम पढ़ना शुरू किया। तबसे आजतक में नियमितरूपसे इस रामनामवाली किताबको पढ़ता आ रहा हूँ। दिनमें कम-से-कम ४ पन्ने यानी २४०० बार रामनाम पढ़नेका नियम है। पढ़नेकी रुचिको मैंने एक प्रकारसे 'वाचन-जप' बना लिया। शुरू-शुरू में बड़ा अटपटा लगा और विचार आता था कि 'भाई, यह क्या पागलपन है?' फिर सोचा 'लौकिक जीवनमें अक्लमन्दी तो काफी अपना ली, चलो अब इस अलौकिक यात्रापर यह पागलपन ही सही।' इस 'वाचन जप की पराकाष्टा तब हुई, जब मैं एक बार न्यूयार्क शहरमें बर्फ गिरनेसे अपने कमरे में ही बन्द था। उस दिन मैंने इस किताबको लगभग ७-८ घंटोंमें अखण्ड पढ़ा।

रामजीकी दयासे 'वाचन जप' का यह पागलपन मेरे जीवनमें वरदान सिद्ध हुआ। व्यावसायिक जीवन हो या निजी जीवन हो, परिस्थिति अनुकूल हो या प्रतिकूल हो, रामनामके 'वाचन-जप' ने मेरे भीतर एक शक्ति एवं 'समता' का निर्माण कर दिया। अनुकूल परिस्थितिको रामजीकी दया माना और प्रतिकूल परिस्थितिको रामजी की कृपा माना। हॉस्पिटल लेबोरेटरीका निर्देशक होने के नाते मेरा अत्यन्त जिम्मेदारीका काम था, मरीजको सही रिपोर्टदेना मेरा धर्म था। कई बार मेरी रिपोर्टपर डॉक्टर या के साचाद्वारा किया गया। लड़ाई हा पेपरबाजी, कानूनी कारवाईतककी नौबत आयी। मेरी रामजीसे हमेशा यही प्रार्थना रही-'हे रामजी, आप हमारे माता-पिता हैं, जो भी सत्य है, वह सामने आ जाय, अगर में झूठा साबित होऊ, तो दण्ड दीजिये और अगर सच तो यह आपकी ही जीत है और आपकी ही दया है।' हर संकट एवं हर कठिन परिस्थितिमें रामजीने हमारी लाज रख ली एवं नैया पार लगा दी।

'वाचन - जप' करते-करते अब लगभग एक दशक होनेको आ गया था और यह मेरे जीवनका अभिन्न अंग बन चुका था। इसी क्रममें मार्च २०२० का महीना आया। जिसमें लॉकडाउन घोषित किया गया और हमारे लेबोरेटरीके व्यवसायका एक नया अध्याय शुरू हुआ। देखते-देखते महामारी फैली और कुछ दिनों बाद हमारा हॉस्पिटल कोरोनाके मरीजोंसे भर गया। बाकी सारी गतिविधियाँ लगभग बन्द ही हो गयीं और सिवाय कोरोनाके कुछ भी अन्य चर्चा नहीं थी। सामान्य जाँचोंके अलावा कोरोनासे सम्बन्धित कई नयी जाँचें शुरू हुई, जो मैंने पहली बार ही की इन जाँचोंके नतीजोंपर कोरोनाके मरीजोंका सारा उपचार एवं भविष्य निर्भर था।

मैं अपने जीवनकालके ६७वें वर्षमें प्रवेश कर चुका था और मेरे व्यावसायिक जीवनका यह अन्तिम चरण था। उस समय मैं उस उम्र के हिसाब से कोरोना संक्रमणके अतिसंवेदनशील वर्गमें था परिवारवालोंका तो यह बार-बार आग्रह था कि मैं कामपर न जाऊँ, पर मेरा तो रामजीपर अटूट विश्वास था। नियमित रूपसे चल रहे 'वाचन-जप' में मैंने कभी बाधा नहीं आने दी। यह जीवन तो रामजीका ही दिया हुआ है एवं उनको ही समर्पित है, भला-बुरा जो भी हो, रामजी देख लेंगे; तो फिर भय काहेका ? इस स्थितिमें श्रीमद्भगवद्गीताके दो श्लोक मेरे मनमें उभर रहे थेयदृच्छया चोपपन्नं स्वर्गद्वारमपावृतम् । सुखिनः क्षत्रियाः पार्थं लभन्ते युद्धमीदृशम् ॥

(गौता २।३२)

अर्थात् ऐसा युद्ध तो अनायास ही किसी भाग्यवान्को प्राप्त होता है, जो स्वर्गका अबाधित मार्ग है। हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्। तामादनिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः ॥

(गीता २।३७)

अर्थात् अगर तेरी मृत्यु हो गयी तो तू स्वर्गको प्राप्त होगा, अगर जीत गया तो इस धरापर आनन्द भोगेगा, अतः उठो और इस युद्धमें लड़नेका निर्णय लो।कोरोना-संक्रमणकी वे दोनों लहरें मेरे लिये एकचुनौती थीं, मुख्य वजह थी स्टॉफकी कमी। बहुतसे दिन तो ऐसे बीते कि केवल मैं और मेरे साथ एक या दो तकनीशियन ही सारे टेस्ट कर रहे थे। मैंने कई ऐसे-ऐसे कार्य एवं टेस्ट किये, जिन्हें किये सालों हो चुके थे, कोरोनाकी पहली लहरमें ऐसा मेरे जीवनमें पहली बार हुआ कि मैंने लगातार १०० दिनोंतक काम किया।

फिर मैं २०२० की दीवालीके आस-पास कोरोनासे संक्रमित हो गया और मुझे १५ दिन क्वारंटाइन होना पड़ा। उस दौरान भी रामनामका 'वाचन जप' निरन्तर जारी रहा। रामजीकी कुछ ऐसी दया रही कि क्वारंटाइनका समय पलक झपकते बिना किसी पीड़ाके निकल गया और मैं फिरसे कामपर आ गया।

पूरे कोरोनाकालमें मुझे रामनामका ही सहारा रहा और अनेक कठिनाइयोंपर काबू पानेकी शक्ति प्राप्त हुई। अब जितना भी बचा हुआ जीवन है, यह भी 'वाचन जप' में निकल ही जायगा, रामजीके दर्शन हों, ना हों, यह तो उनकी इच्छापर निर्भर है, परन्तु 'रामनाम 'के तो दर्शन हो ही गये हैं और नाम और नामी तो एक ही हैं, यह बात भी निश्चित है।

[ डॉ० श्रीप्रदीपजी आप्टे ]



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koronaakaalamen raamanaamaka vaachana-japa

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'mainne to kabhee dekha naheen, kaheen karate ho ?'
'mere paढ़aaeevaale kamare men jo bhagavaan raamajoka photo hai, use main hamesha namaskaar karata hoon."'

"maan hansakar bolee, are pagale vah to shreekrishna

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main apane jeevanakaalake 67ven varshamen pravesh kar chuka tha aur mere vyaavasaayik jeevanaka yah antim charan thaa. us samay main us umr ke hisaab se korona sankramanake atisanvedanasheel vargamen tha parivaaravaalonka to yah baara-baar aagrah tha ki main kaamapar n jaaoon, par mera to raamajeepar atoot vishvaas thaa. niyamit roopase chal rahe 'vaachana-japa' men mainne kabhee baadha naheen aane dee. yah jeevan to raamajeeka hee diya hua hai evan unako hee samarpit hai, bhalaa-bura jo bhee ho, raamajee dekh lenge; to phir bhay kaaheka ? is sthitimen shreemadbhagavadgeetaake do shlok mere manamen ubhar rahe theyadrichchhaya chopapannan svargadvaaramapaavritam . sukhinah kshatriyaah paarthan labhante yuddhameedrisham ..

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arthaat aisa yuddh to anaayaas hee kisee bhaagyavaanko praapt hota hai, jo svargaka abaadhit maarg hai. hato va praapsyasi svargan jitva va bhokshyase maheem. taamaadanishth kauntey yuddhaay kritanishchayah ..

(geeta 2.37)

arthaat agar teree mrityu ho gayee to too svargako praapt hoga, agar jeet gaya to is dharaapar aanand bhogega, atah utho aur is yuddhamen lada़neka nirnay lo.koronaa-sankramanakee ve donon laharen mere liye ekachunautee theen, mukhy vajah thee staॉphakee kamee. bahutase din to aise beete ki keval main aur mere saath ek ya do takaneeshiyan hee saare test kar rahe the. mainne kaee aise-aise kaary evan test kiye, jinhen kiye saalon ho chuke the, koronaakee pahalee laharamen aisa mere jeevanamen pahalee baar hua ki mainne lagaataar 100 dinontak kaam kiyaa.

phir main 2020 kee deevaaleeke aasa-paas koronaase sankramit ho gaya aur mujhe 15 din kvaarantaain hona pada़aa. us dauraan bhee raamanaamaka 'vaachan japa' nirantar jaaree rahaa. raamajeekee kuchh aisee daya rahee ki kvaarantaainaka samay palak jhapakate bina kisee peeda़aake nikal gaya aur main phirase kaamapar a gayaa.

poore koronaakaalamen mujhe raamanaamaka hee sahaara raha aur anek kathinaaiyonpar kaaboo paanekee shakti praapt huee. ab jitana bhee bacha hua jeevan hai, yah bhee 'vaachan japa' men nikal hee jaayaga, raamajeeke darshan hon, na hon, yah to unakee ichchhaapar nirbhar hai, parantu 'raamanaam 'ke to darshan ho hee gaye hain aur naam aur naamee to ek hee hain, yah baat bhee nishchit hai.

[ daॉ0 shreepradeepajee aapte ]

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चलो सत्संग में चलें, हमें हरी गुण गाना
सज धज कर जिस दिन मौत की शहजादी आएगी,
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ओ माँ, ओ माँ, ओ माँ, ओ माँ ।
प्रीतम बोलो कब आओगे॥
बालम बोलो कब आओगे॥
अपनी वाणी में अमृत घोल
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तेरी मंद मंद मुस्कनिया पे ,बलिहार
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तू राधे राधे गा ,
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शंकर संकट हारना, शंकर संकट हारना
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राधा राधा राधा राधा
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मैं तक्दी रह गयी नी सहेलियो लगदा बड़ा
मीठे रस से भरी रे, राधा रानी लागे,
मने कारो कारो जमुनाजी रो पानी लागे
मेरा अवगुण भरा शरीर, कहो ना कैसे
कैसे तारोगे प्रभु जी मेरो, प्रभु जी
ये तो बतादो बरसानेवाली,मैं कैसे
तेरी कृपा से है यह जीवन है मेरा,कैसे
ये सारे खेल तुम्हारे है
जग कहता खेल नसीबों का

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मुझे दास बनाकर रख लेना, भोलेनाथ तू
भोलेनाथ तू अपने चरणों में, शंकर तू
मेहरावाली ज्योतावाली मेरी मईया
आदि भवानी कष्टों के तारे आन पड़ा अब
माँ जन कल्याणी को प्रणाम है महामाई करो
मईया के दरबार में आकर जय जैकार लगाते
मईया को हम दिल से मनाकर गाथा इनकी गाते
धुन: नित् खैर मंगा सोहनिया मैं तेरी