संसारकी अनुकूल परिस्थितियोंमें प्रायः कुछ आस्तिक जन भगवान्की कृपाका अनुभव करने लगते हैं। संसारके भोगोंकी प्राप्तिमें जब उन्हें सफलता मिलती है तो कुछ भगवद्विश्वासी महानुभाव यह मान लेते हैं कि भगवान्की कृपासे ही यह सब उन्हें प्राप्त हो रहा है। परंतु जो व्यक्ति अनुकूल भोग-पदार्थोंकी प्राप्तिमें भगवान्की कृपा मानता है, वह प्रतिकूल परिस्थितियोंमें इसके विपरीत सोचनेको बाध्य हो सकता है। उसके मनमें यह बात आती है कि मैं तो भगवान्पर विश्वास रखता हूँ, उनकी पूजा करता हूँ, प्रेम करता हूँ, पर वे कितने निर्दयी हैं ! उनकी मुझपर कृपा नहीं है। कभी-कभी अधिक कष्ट होनेपर मनुष्य यहाँतक भी सोचने लगता है कि भगवान् हैं या नहीं, क्या यह सब कल्पनामात्र है ? क्योंकि यदि भगवान् होते तो इस प्रकार वे अन्याय क्यों करते ? व्यक्तिके मनमें ऐसे संशययुक्त भाव उत्पन्न होने स्वाभाविक ही हैं। पर वस्तुस्थिति दूसरी है। भगवान् तो परम न्यायकारी हैं। प्राणिमात्रके सुहृद् हैं- 'सुहृदं सर्वभूतानाम्' अर्थात् वे सबके परम हितैषी हैं। जो भगवान् प्राणिमात्रकेसुहृद् हैं, वे किसीको दुःख कैसे दे सकते हैं? अर्थात् किसीको भी दुखी देखना नहीं चाहते। जो भी अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थिति हमारे समक्ष आती है, वह पहलेके किये हुए कर्मोंके फलस्वरूप ही आती है और अपनी ही है। कर्म तो जीव करता है, पर उन कर्मोंका फल-विधानमात्र भगवान् करते हैं।
जीवके समक्ष प्रतिकूल परिस्थितियाँ भेजकर पुराने पापोंका नाश करते हैं और नये पापोंसे बचनेके लिये जीवको सावधान करते हैं। उससे यह शिक्षा मिलती है कि पाप करोगे तो विपरीत परिस्थिति आयेगी। अतः पाप करनेसे बचो। अभी जो भयंकर परिस्थिति दिखायी देती है, उससे पुराने पाप नष्ट हो रहे हैं। जो पुराने पापोंको समाप्त करता है और नये पापोंसे बचनेके लिये सावधान करता है, उससे बढ़कर दयालु और कृपालु दूसरा कौन हो सकता है। इस प्रकार प्रभुकी कृपा संसारके सभी प्राणियोंपर सदा-सर्वदा निरन्तर बरस रही है। केवल इस कृपाको अनुभव करनेकी आवश्यकता है। भगवत्-कृपाका अनुभव आप जितना करोगे, जीवनमें उस प्रभु कृपाका प्राकट्यउतना ही अधिक होगा। अनुकूल परिस्थितियों में तो यह अनुभव करना सरल है, पर प्रतिकूल परिस्थितियों में कृपाका अनुभव करना ही मुख्य बात है।
एक समयकी बात है, गोरखपुरमें गीताप्रेसके प्रांगणमें एक सत्संगका आयोजन था। पूज्य स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराज उपस्थित थे। एक सत्संगी भाईने कहा - स्वामीजी ! भगवत्-कृपाका दर्शन कराया जाय। उस दिन स्वामीजीने श्रोताओंको भगवत्कृपाका दर्शन कराया। बड़ी अच्छी और मार्मिक बातें सुनायीं। 'भगवान् की कृपा तो सदा-सर्वदा सर्वत्र है।' सुखकी सामग्री और दुःखकी सामग्री दोनों ही भगवत्प्राप्तिकी साधन-सामग्री हैं, पर विपरीत परिस्थितियाँ जल्दी कल्याण करनेवाली हैं। इसलिये साधकको प्रतिकूल परिस्थितियोंमें भगवान्की विशेष कृपाका दर्शन करना चाहिये। जैसे माँकी कृपा अपने बच्चोंके प्रति स्वाभाविक होती है, बच्चेके मनके विरुद्ध भी कोई कार्य माँ करती है तो वह उसके हितमें ही होता है, उसी प्रकार परमपिता प्रभुकी कृपा सब जीवोंपर समान रूपसे है। प्रतिकूल परिस्थितियोंमें भी प्राणीका परम हित ही होता है।
पर यह हित जगत्के जीवोंको ऊपरसे दिखायी नहीं देता। फलतः वे विपरीत वातावरणमें विचलित हो उठते हैं। उनका मस्तिष्क अशान्त हो जाता है। ऐसे अवसरपर सहिष्णुता, धैर्य और सन्तोष ही एकमात्र अवलम्बन बनते हैं।
यहाँ एक बात समझ लेनेकी है। हमारी मनचाही वस्तु जब हमें नहीं मिलती तथा हमारे विषयोंका हरण होता है तो वहाँ दृढ़तापूर्वक समझना चाहिये कि भगवान् हमपर कृपा करते हैं। भगवान्की कृपाके विभिन्न रूप हैं। वे मालूम नहीं, कब किस रूपमें प्रकट होते हैं, पर संसारमें भौतिक असफलता भी उसका एक रूप है। जो लोग संसारके विषय-भोगोंकी प्राप्तिमें ही भगवान्की कृपा मानते हैं, वे भगवान्की कृपाका एकांगी दर्शन करते हैं। सांसारिक उपलब्धियोंको जब हम भगवान्की कृपा मान लेते हैं, तब हम उसे एक सीमित दायरेमें लेआते हैं। भगवान्की कृपा तो यहाँ भी है, पर ये समस्त भोग सामग्रियाँ भगवान्की पूजाके उपकरण बन जानी चाहिये। पर जब ये सामग्रियों भगवान की पूजाके उपकरण न बनकर मनुष्यको अपनी ही पूजामें लगाती हैं तथा मनुष्य परमार्थ और अध्यात्मको सर्वथा भूलकर लौकिक स्वार्थकी सिद्धिमें लग जाता है, तो वह अपने कर्तव्यका पालन नहीं करता। प्रारब्धवशात् कुछ समय भोग भोगता है, फिर भगवान् उसके पूर्वकृत शुभकर्मोके अनुसार कृपा करते हैं और पापके प्रवाहसे बचाने के लिये उसके ऐश्वर्य और उसकी सफलताका अपहरण करते हैं। जो वस्तु उसे अभिलषित है, उसे प्राप्त नहीं होने देते तथा जिस प्राप्त वस्तुने उसे मोहित कर रखा है, उसे छीन लेते हैं अर्थात् नष्ट कर देते हैं। ऐसे अवसरपर जो व्यक्ति भगवान्की विशेष कृपाका अनुभव करता हुआ उनकी शरण हो जाता है, वह निश्चितरूपसे अपना कल्याण करनेमें समर्थ होता है।
भगवान्में मन लगे और भोगों से मन हटे- यह प्रयत्न करनेवाला ही सच्चा मित्र है। इसीलिये श्रीतुलसी दासजी महाराजने कहा -
तुलसी सो सब भाँति परम हित पूज्य, प्रान ते प्यारो । जाते होय सनेह रामपद एतो मतो हमारो॥
वही परम हितैषी है, वही परम पूज्य है, वही प्राणों का प्यारा है, जिससे रामके चरणों में स्नेह बढ़े, यह हमारा दृढ़ मत है।
ब्रह्मलीन परम श्रद्धेय सेठजी श्रीजयदयालजी गोयन्दकाने एक स्थानपर भगवत् कृपाका दिग्दर्शन इस रूपमें कराया है'हम जब परमात्माकी दयापर विचार करते हैं तो हमें पद पदपर परमात्माकी दयाके दर्शन होते हैं। ईश्वरने हमारी सुविधाके लिये संसारमें पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, सूर्य, चन्द्रमा आदि ऐसे-ऐसे अद्भुत पदार्थ बनाये हैं, जिनसे हम आरामसे जीवन धारण करते हैं और सुखसे विचरते हैं। कोई कैसा भी महान पापी क्यों न हो, भगवान् के इस दानसे वह वंचितनहीं रहता। सुख या दुःख, जय या पराजय- जो कुछ भी प्राप्त होता है, वह ईश्वरकी दयासे पूर्ण है और स्वयं ईश्वरका ही किया हुआ विधान है। उसकी दया इस रूपमें प्रकट हुई है। मनुष्य जब इस रहस्यको जान लेता है, तब उसे सुख और विजय मिलनेपर जो हर्ष प्राप्त होता है, वही दुःख और पराजयमें भी होता है। जबतक ईश्वरके विधानमें सन्तोष नहीं है, तबतक मनुष्यने भगवान्को दयाके तत्त्वको वास्तवमें समझा ही नहीं है।'
भगवती गंगाका प्रवाह जैसे नित्य निरन्तर समभावसे चारों ओर बहता है, वैसे ही भगवान्की कृपा भी नित्य निरन्तर समभावसे एकरस सर्वत्र व्याप्त है। पर जैसे कोई अज्ञानी व्यक्ति गंगाके किनारे पड़ा हो, उसे निकटमें ही स्थित गंगाके प्रवाहका ज्ञान न हो, इस कारण जल न ग्रहणकर प्यासके मारे तड़प रहा हो, वैसे ही भगवत् कृपाके रहस्यको न जाननेवाले संसारके अज्ञानी व्यक्ति इससे वंचित रह जाते हैं। यथार्थमें तो आकाशकी तरह भगवत् कृपा असीम है, इस कृपाको जो जितना अपने ऊपर मानता है, अथवा अनुभव करता है, उसे उतना ही अधिक उसका लाभ प्राप्त होता है। जैसे अथाह गंगाके प्रवाहमेंसे एक लोटा गंगाजल प्यास बुझानेके लिये पर्याप्त है, वैसे ही उस असीम कृपासागरकी कृपाका एक कण भी मनुष्यके अनन्त जन्मोंके पापोंका पूर्ण विनाश करनेमें समर्थ है।
भगवत्कृपाका दर्शन एक स्थलपर नित्यलीलालीन पूज्य श्रीभाईनी हनुमानप्रसादजी पोरने इस रूपमें कराया है
'पुरुषार्थ करनेवालेको यदि असफलता मिलती है, तो वह अपने कर्ममें त्रुटि तथा दूसरोंको बाधक मानकर दुखी होता है, प्रारब्धवादी असफलतामें अपने भाग्यको कोसकर दुखी होता है, रोता है; पर जो प्रत्येक फलमें भगवान् की कृपासे भरा हुआ भगवान्का मंगलविधान देखता है, वह न तो प्रचुर सम्पत्तिमें हर्षित होता है, न भारी विपत्तिमें रोता है। वह शान्तिपूर्ण चित्तसे निरन्तर अनुकूलता-प्रतिकूलता — दोनोंमें भगवान्का मंगलमय विधान मानकर उसीमें कल्याण मानता हुआ आनन्दमग्न रहताहै। वह हर अवस्थामें भगवान्की सुहृद्ता तथा कृपाकेदर्शन करता है।'
पर यह स्थिति किसी कारणवश यदि नहीं बन पाती है तो इसका एक अमोघ उपाय अपने शास्त्रोंने बताया है और वह है- भगवान् के नामका स्मरण एवं भगवन्नामका आश्रय
वेदानां सारसिद्धान्तं सर्वसौख्यैककारणम् । रामनाम परं ब्रह्म सर्वेषां प्रेमदायकम् ॥ तस्मात् सर्वात्मना रामनाम माङ्गल्यकारणम् । भजध्वमवधानेन त्यक्त्वा सर्वदुराग्रहान् ॥
'चारों वेदोंका सार-सिद्धान्त, सब सुखोंका एकमात्र कारण और सबको प्रेम प्रदान करनेवाला भगवान् रामका नाम ही परब्रह्मरूप है। अतएव मन, वचन और कर्मसे सावधानीपूर्वक सारे दुष्ट अभिनिवेशोंको त्यागकर परम कल्याणकारी भगवान् रामके नामका भजन करो।' यह ओषधि अत्यन्त गुणकारी है, जिसके सेवनका अधिकारी प्रत्येक व्यक्ति है। इस सरल साधनको जो अपने जीवनमें अपनाता है, उसे निश्चितरूपसे भगवत्-कृपाके दर्शन प्राप्त होते हैं।
क्षण-क्षणमें अतः आज ही मनमें निश्चय कीजिये । बारंबार निश्चय कीजिये कि मुझपर भगवान्की बड़ी कृपा है। कृपा हो रही है। ऐसा दृढ़ निश्चय होनेपर हमें क्षण-क्षणमें भगवत्कृपाका अनुभव होने लगेगा। यह कल्पना नहीं है। यह तो सत्यमें सत्यका दर्शन है। यह कृपा आपकी अपनी निजी सम्पत्ति है। जैसे माताका वात्सल्य बच्चेकी अपनी निजी सम्पत्ति है, वैसे ही इस भगवत्कृपाको न जानने और न माननेके कारण हम दीन और दुखी हो रहे हैं। वस्तुतः हमारे पास प्रभुकृपाकी अमोघ सम्पत्ति है। उस भगवत्कृपाका आश्रय लेकर यदि हम मनको वशमें करना चाहेंगे तो मन वशमें हो जायगा। विघ्न-बाधाओंसे बचना चाहेंगे तो उससे रक्षा हो जायगी। दोषों और पापोंसे छूटना चाहेंगे तो दोष और पाप छूट जायँगे। यदि हम इस बातको जान लें, मान लें तो अभी सुखी हो जायँ, निहाल हो जायँ
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