अठारहवीं शताब्दीकी बात है। महाराष्ट्र प्रान्तके सतारा जिलाके विटे नामक गाँवमें गोपालपन्त नामक एक गरीब ब्राह्मण ग्रामके बालकोंको पढ़ाकर अपना घर चलाते थे। गोपालजी पढ़ानेमें बड़े ही कुशल थे। उनके सदाचार, शील, तप, धर्मपरायणता, सरलता, श्रद्धा, संयम आदिकी सर्वत्र ख्याति थी।
पन्तजीके एक लड़का था, जिसका नाम था ज्योतिषन्त पण्डितजी सभी लड़कोंको बड़े परिश्रमसे पढ़ाते थे, फिर अपने पुत्रके लिये तो कहना ही क्या था ? वे जी-जान से परिश्रम करके उसे अपनेसे बढ़कर विद्वान् बनाना चाहते थे, परंतु दैवकी इच्छा कुछ और ही थी। ज्योतिपन्तकी उम्र बीस वर्षकी पूरी हो गयी, परंतु पढ़नेके नामपर उसने सिवा राम नाम लेनेके और कुछ भी नहीं पढ़ा। ज्योतिपन्तका यज्ञोपवीत संस्कार होनेपर पिताने लगातार छः महीनेतक उसे तीनों समय संध्याकी शिक्षा दी, परंतु उसे गायत्री मन्त्र भी याद नहीं हुआ। लड़केकी ऐसी मन्द बुद्धि देखकर गोपालपन्तको जो दुःख होता था, उसका अनुमान कोई वैसा ही विद्वान् पिता कर सकता है। एक दिन पन्तजी उद्विग्न होकर विचार कर रहे थे कि ऐसे पुत्रसे तो पुत्रहीन रहना अच्छा है, यह मूर्ख तो मेरी विद्वत्तापर कलंक लगानेवाला होगा। इतनेमें ही ज्योति उनके सामने आ गया, उसे देखकर पण्डितजीको दुःखके मारे गुस्सा आ गया और उन्होंने 'इस घरमें रहना है तो विद्या पढ़कर आओ' कहकर उसे घर से निकाल दिया। इस समाचारसे ज्योतिकी माताको बड़ा दुःख हुआ, उसने रोकर पतिसे कहा कि 'स्वामिन्! आपने यह क्या किया? मेरा ज्योति मूर्ख है, पर मेरे तो हृदयका वही एकमात्र अवलम्बन है। इकलौते लड़केको घरसे निकालते आपको दया नहीं आयी, वह कहाँ गया होगा, क्या करता होगा, उसे कौन खानेको देगा ? आप पता लगाकर उसे लाइये उसे आँखसे देखे बिना में अन्न ग्रहण नहीं करूँगी।' इतना कहकर वह रोने लगी। पत्नीकी दशा देखकर और उसकी बातें सुनकर गोपालजीका हृदय भी पसीज गया, उनकी आँखोंसे आँसूकी बूंदें टपक पड़ीं, वे पुत्रको खोजने निकले, परंतु कहीं पता नहीं लगा। उन्हें क्या मालूम था कि मेरी यह निष्ठुरता ही पुत्रके परम कल्याणका कारण बनेगी!
ज्योतिपन्त घरसे निकलकर अपने मित्रोंके पास आया और उन्हें साथ लेकर जंगलमें गया। गाँवके बाहर श्रीगणेशजीका एक जीर्ण मन्दिर था। श्रीगणेशजीके दर्शनकर ज्योतिपन्तने सरल विश्वास और दृढ़ निश्चयके साथ कहा- 'अहा ! ये तो विद्याके दाता श्रीगणेशजी ही मिल गये। अब क्या चिन्ता है ? इनसे चौदह विद्या और चौंसठ कलाएँ माँग लेंगे। यह दयालु क्या इतनी-सी दया हमलोगोंपर नहीं करेंगे।' लड़कोंने भी ज्योतिपन्तकी बातका समर्थन किया। तब ज्योतिपन्तने कहा- 'अच्छा तो अब श्रीगणेशजीकी कृपा न होनेतक हमलोगोंको परम श्रद्धाके साथ यहीं बैठकर उनकी आराधना करनी चाहिये।' साथियोंने कहा कि 'यह हमसे न होगा, तेरी इच्छा हो तो तू चाहे यहाँ बैठा कर, हमलोग तो यहाँ न रहेंगे। पहले ही बहुत देर हो गयी है, यदि थोड़ा सा भी समय और बीत गया तो हमारे माता-पिता बहुत नाराज होंगे'-यों कहकर वे सब वहाँसे जाने लगे। ज्योतिपन्तने उन लोगोंको बहुत समझाया-बुझाया, परंतु किसीने उसकी बात नहीं मानी। अन्तमें ज्योतिपन्तने कहा कि 'भाइयो! तुमलोग जाना ही चाहते हो तो जाओ, मैं तो यहीं बैठूंगा। जबतक श्रीगणेशजी दर्शन नहीं देंगे, यहीं बैठा रहूँगा। परंतु इस मन्दिरका दरवाजा बन्द करके उसे चूने-मिट्टीसे लीप दो, जिससे बाहरका कोई आदमी मुझे देख न सके। और गाँवमें जाकर मेरे सम्बन्धमें किसीसे कुछ कहना नहीं।' लड़कोंने प्रतिज्ञा की और मन्दिरका दरवाजा बन्द करके उसे भलीभाँति लीप-पोतकर सब अपने-अपने घरोंको चले गये। किसीने भी ज्योतिपन्तके बारेमें किसीसे कुछ भी नहीं कहा। पुत्रका पता न लगनेसे माता-पिताके क्लेशका पार नहीं है। पुत्र-वियोगमें दोनोंके दिन-रात रोते बीतते हैं। लगातार छः दिन हो गये, घरमें चूल्हा नहीं जला। छठी रातको गोपालजीको स्वप्नमें श्रीशिवजीने दर्शन देकर कहा, 'तुमलोग चिन्ता मत करो। मेरे पुत्रकी कृपासे तुम्हारा पुत्र बड़ा ही भक्त और यशस्वी होगा'।
इधर छः दिनोंसे ज्योतिपन्त मन्दिरमें एकासनपर बैठा श्रीगणेशजीका ध्यान-स्तवन कर रहा है। छः दिनोंमें उसे भूख-प्यासने बिलकुल नहीं सताया। वृत्तियाँ पूर्णरूपसे श्रीगणेशजीमें लग गयीं। सातवें दिन चतुर्भुजधारी श्रीगणेशजी महाराजने साक्षात् प्रकट होकर अपना वरदहस्त ज्योतिपन्तके मस्तकपर रखकर उससे मनमाना वर माँगने को कहा । ज्योतिपन्त चेतना लाभकर भगवान् श्रीगणेशजीके चरणोंपर गिर पड़ा और बोला कि 'प्रभो! पहले तो मेरी विद्यालाभकी इच्छा थी, परंतु अब तो मैं केवल तत्त्वज्ञान और निष्काम प्रेमा-भक्तिकी भीख चाहता हूँ, इसके अतिरिक्त मुझे और कुछ भी नहीं चाहिये। हे कृपासागर ! मेरी इतनी-सी इच्छा आप पूर्ण कर दें।' श्रीगणेशजी ज्योतिपन्तकी प्रार्थना सुनकर बड़े ही प्रसन्न हुए और उनकी जीभपर 'ॐ' लिखकर उससे कहने लगे 'तेरी पूर्व इच्छानुसार तुझे विद्या तो दे दी गयी। तेरा दूसरा मनोरथ भी सफल होगा; परंतु उसके लिये अभी कुछ समय लगेगा। कुछ दिनों बाद तुझे काशी जाना पड़ेगा। वहाँ छः महीने अनुष्ठान करनेपर श्रीव्यासजीके द्वारा गंगाजीमें तुझे मन्त्रकी प्राप्ति होगी, तब तेरी कामना पूर्ण होगी। मेरी बातपर दृढ़ विश्वास रखना और किसी समय कोई भी कार्य हो तो मुझे स्मरण करना, तुम्हारे स्मरण करते ही मैं दर्शन दूँगा। अब तुम अपने घर जाओ।'
विद्या प्राप्तकर ज्योतिपन्त घर आ गया। आज माता-पिताके आनन्दका पार नहीं है। ज्योतिपन्तने माता-पिताको सारा हाल सुनाया और उसकी विद्वत्ता देखकर उन्हें उसकी बातपर विश्वास भी हो गया। गाँवके लोगोंको जब ज्योतिपन्तके विद्या पढ़कर घर आनेका समाचार ज्ञात हुआ, तब लोगोंने उनके घर आ-आकर बधाइयाँ दीं। उन लड़कोंको बड़ा ही पश्चात्ताप हुआ, जो ज्योतिपन्तकी बात न मानकर जंगलसे लौट आये थे।
ज्योतिपन्तके मामा महीपति पूनामें पेशवाके एक प्रधान कार्यकर्ता थे और सम्पत्तिवान् पुरुष थे। ज्योतिपन्तकी माताने लड़केको काम सीखनेके लिये उसके मामाके पास भेज दिया। बड़े आदमीके यहाँ अभिमान गरीब सम्बन्धीकी कद्र नहीं होने देता। इसीके अनुसार महीपतिने संकोचवश भाँजे ज्योतिपन्तको वहाँ रख तो लिया, पर उसे नौकरी दी चार रुपये माहवारीकी ही। उस जमाने में चार रुपये कम भी नहीं थे, अतः ज्योतिपन्तका काम मजेमें चलने लगा।
दफ्तर में हिसाब-किताबका काम बहुत चढ़ गया था। पेशवाने तीन दिनके अन्दर सारे बही-खाते ठीक कर देनेका कड़ा हुक्म दे दिया। काम इतना अधिक था कि दफ्तरके सारे कर्मचारी लगकर भी उसे एक महीनेसे कममें नहीं कर सकते थे। परंतु पेशवाकी आज्ञापर कुछ बोलनेकी हिम्मत भी किसीमें नहीं थी। महीपतिकी चिन्ताका पार नहीं रहा। ज्योतिपन्तने मामाकी यह दशा देख, उससे कहा-'आप चिन्ता न करें, तीन दिनके अन्दर सारे बही-खाते ठीक हो जायँगे। आप किसी एकान्त कमरेमें दावात, कलम, कागज, बही-खाते, बैठनेके लिये अच्छी गद्दी, तकिया, रोशनी, शुद्ध जल और फलाहारका सारा सामान रखवाकर कमरा बन्द करवा दें, तीन दिनमें सारा हिसाब लिखा जानेपर मैं इशारा कर दूँगा, तब आप किवाड़ खुलवा दीजियेगा ।' इस बातपर लोगोंने बड़ा मजाक उड़ाया, परंतु चिन्तापुर महीपतिने भगवान्पर भरोसाकर भाँजेके कथनानुसार एक अलग कमरेमें सब व्यवस्था कर दी और उस कमरेमें चले जानेपर दरवाजा बन्द कर दिया। ज्योतिपन्तने अन्दर जाकर विधिपूर्वक भगवान् श्रीगणेशजीका पूजन करके उन्हें स्मरण किया। तत्काल श्रीगणेशजीने प्रकट होकर स्मरण करनेका कारण पूछा। ज्योतिपन्तने पूजन-प्रार्थना करनेके बाद सारे समाचार सुनाकर हिसाब लिख देनेकी प्रार्थना की। भक्तभयहारी भवानीनन्दन लिखनेको बैठ गये और उसके इच्छानुसार तीन दिनमें सारा हिसाब लिखकर तैयार कर दिया और अन्तर्धान हो गये।
इधर बाहर लोगोंने महीपतिको समझाकर कहा कि 'भला इतना बड़ा काम वह अनुभवशून्य बालक तीन दिनमें कैसे कर देगा ? आपने बच्चेकी बातपर विश्वासकर बड़ी भूल की, कहीं बालक अन्दर ही अन्दर दम घुटकर मर जायगा तो व्यर्थकी ब्रह्महत्या लगेगी और आपकी बहन सदाके लिये दुखी होकर आपको शाप देगी। भलाई इसीमें है कि आप दरवाजा खोलकर उसे बाहर निकाल दीजिये और फिर हिसाब लिखवानेका दूसरा प्रबन्ध सोचिये।'
तीन दिन हो चुके थे, ज्योतिपन्त दरवाजा खोलनेको कहना ही चाहता था, इतनेमें उसने उपर्युक्त बातचीत भी सुन ली और पुकारकर तुरंत ही दरवाजा खोलवा लिया। सारे बहीखाते पूरे तैयार देखकर सब लोग दंग रह गये। अक्षर तो इतने सुन्दर और आकर्षक थे कि लोग एकटक लगाये उनकी ओर देखने लगे। महीपति बहियोंको लेकर हर्षोत्फुल्ल हृदयसे दरबारमें पहुँचे। पेशवाने आश्चर्यचकित हो महीपतिसे काम करनेवालेका नाम पूछा और उसे दरबारमें बुलानेकी आज्ञा दी। महीपतिने घर आदमी भेजकर ज्योतिपन्तको राजकीय पोशाकमें आनेके लिये कहलवा दिया। ज्योतिपन्त दरबारी पोशाक न पहनकर अपने नित्यके मामूली वेषमें दरबारमें आया और पेशवाका यथायोग्य अभिनन्दन करके नम्रताके साथ एक ओर खड़ा हो गया। उसके निर्मल तेजस्वी चेहरेको देखकर सभी आश्चर्यमें डूब गये। पेशवाने बड़े प्रेमसे उसे अपने पास बुलाकर परिचय पूछा। ज्योतिपन्तने विनम्र मधुर स्वरोंमें कहा- 'राजन्! मैं श्रीमान् महीपतिजीकी बड़ी बहनका लड़का हूँ, मेरा नाम ज्योतिपन्त है, माताकी आज्ञासे कुछ काम करने मामाजीके यहाँ आया हूँ, और उनके आज्ञानुसार काम करता हूँ। वे कृपापूर्वक मुझे चार रुपये मासिक देते हैं, जिससे बड़े आनन्दसे मेरा काम चल जाता है।' बालककी सच्ची सरल वाणी सुनकर पेशवाने प्रसन्न होते हुए फिर पूछा- 'ज्योतिपन्त ! तीन ही दिनमें इतना बड़ा काम कैसे हो गया? इतने सुन्दर हस्ताक्षर कैसे बन गये ? हमने तो ऐसे अक्षर आजतक कभी नहीं देखे, सच बतलाओ, इसमें क्या रहस्य है ?" ज्योतिपन्तने कहा-'महाराज ! मेरी प्रार्थनापर भगवान् श्रीगणेशजीने सारा हिसाब ठीक करके लिख दिया और ये उन्हींके हस्ताक्षर हैं।' इसके बाद पेशवाके आग्रह करनेपर ज्योतिपन्तने श्रीगणेशजीकी कृपा प्राप्त करनेका सारा हाल उन्हें सुनाया। जिसे सुनकर पेशवाको ही बड़ा आनन्द हुआ। पेशवाने ज्योतिपन्तको सुयोग्य समझकर अपने हाथसे अधिकारीकी पोशाक और राजकी मोहर देकर उसे पुरन्दर किलेकी रक्षाका भार सौंप दिया। आज ज्योतिपन्तकी इज्जत महीपतिसे बढ़ गयी। अब महीपति भी भाँजेके गौरवसे अपनेको गौरवान्वित समझने लगे। भोजनके समय मामाने उसे अपने पास बैठाकर स्वर्णके पात्रोंमें भोजन करवाया। भगवान्के प्रेमका पात्र सबके आदरका पात्र कैसे न हो? [ संकलित ]
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