संस्कृतके शब्दकोशके अनुसार रहम, दयालुता एवं करुणा प्रभृति अर्थोंको धारण करनेवाला 'कृपा' शब्द अन्यत्र इन्हीं अर्थो में अनुकम्पा शब्दसे भी व्यवहृत होता है। यद्यपि करुणा या दया अन्य भावोंकी भाँति प्रत्येक व्यक्तिके हृदयमें अनभिव्यक्त रूपमें विद्यमान रहती है, जो कारण कार्यभावसे यथासमय अभिव्यक्त होती है। सम्भवत: इसीलिये साहित्यशास्त्रमें अन्य रसोंकी तरह करुण रस भी प्रमुखतया प्रतिष्ठित है, जिसका स्थायीभाव शोक है। काव्यप्रकाशकार मम्मटने कहा भी है कि
श्रृंगारहास्यकरुणरौद्रवीरभयानकाः
बीभत्साद्भुतसंज्ञी चेत्यष्टी नाटये रसाः स्मृताः ॥ रतिर्ह्रासश्च शोकश्च क्रोधोत्साहौ भयं तथा । जुगुप्सा विस्मयश्चेति स्थायिभावाः प्रकीर्तिताः ॥
विचारणीय यह है कि करुणरसप्रधान नाटकको देखनेपर मनमें करुणा तो जाग्रत होती है, किंतु उसे कृपा नहीं कहा जा सकता; क्योंकि करुणासे कृपालुके मनमें कृपाभावका उद्रेक होता है तथा कृपाके प्रति प्रेरणा प्राप्त होती है। ध्यातव्य है कि सामान्यतया जीवनमें कृपाका भावोदय यथावसर सभी लोगोंके मनमें बार-बार हुआ करता है, किंतु यह किसी समर्थ व्यक्तित्वद्वारा ही व्यावहारिक आकार ग्रहण कर पाता है और कहीं-कहीं समर्थ जनके द्वारा भी अपनी-अपनी भावनाओं, परिस्थितियों, प्रेरणाओं और संस्कारोंके वशीभूत होकर अपने हृदयमें समुपजात कृपाभावकी उपेक्षाकर नकार दिया जाता है तथा कभी कृपापात्र के अदृष्ट (उसके द्वारा पूर्वकृत कमके विपाक), दयाके आतिशब्द, स्वयंके स्वभाव और संस्कारगत प्रभाव, देव-देवी, माता-पिता, ऋषि सन्त, गुरु एवं आचार्यके आशीर्वाद, वरदान, परिवार और मित्रोंकी प्रेरणा, लोकसे सम्बन्धित संकोच, कृपापात्रकी भक्ति-सेवा-निष्ठा, कर्मफलकी परिपक्वता अथवा प्रशासनिक निर्देशके कारण कृपालु जन कृपापात्रपर अपनी अनुकम्पा कर देते हैं। इस प्रकार यह निश्चित है कि कृपाका भाव मानसिक या वाचिक रूपमें उत्पन्नभले सभीमें होता हो, किंतु वह कर्मणा फलीभूत समर्थ व्यक्तित्वमें ही होता है और कृपा वहीं अपने स्थूल रूपमें सार्थकताको प्राप्त कर पाती है। यहाँ कृपा-भाजन कृपा- फलका प्रापक और कृपालु उसका साक्षात् या प्रयोजक कर्ता होता है। ठीक इसी तरह यदि कृपाके विविध स्तरों और स्वरूपोंपर विचार किया जाय, तो कहा जा सकता है कि यह कृपालु और कृपाभाजन; दोनोंकी परिस्थितियों, अदृष्टों एवं तद्गत प्रेरणाओं, संयोगों और प्रसंगों पर निर्भर करता है। यदि कृपालु और कृपापात्रोंकी बात की जाय, तो कहा जा सकता है कि कृपालुओं की सूची में तपस्वी, महर्षि ऋषि, साधक, आचारशील ब्राह्मण, गुरु, धर्माचार्य, सन्त, प्रशासक, संरक्षक, ईश्वर, माता-पिता, देवतागण तथा एवंविध अन्य किसी भी प्रकारसे समर्थ पात्रोंकी गणना की जा सकती है तथा कृपाभाजनोंकी सुदीर्घसूची में पुत्र-पौत्रादि, शिष्य, भक्त, आराधक, सेवक, दीनहीन, दुखी, संसारानलतप्त ऐसे जिज्ञासु, जो मोक्षके अधिकारी हों तथा लौकिक उपलब्धियोंके आकांक्षी जन आदि लोगोंकी गणना की जा सकती है। यहाँ सूच्य है कि कृपालुओंकी संख्या सीमित और कृपाप्राप्तिके आकांक्षियोंकी संख्या अत्यधिक होती है, जिनमें कृपालु जन अनेक दृष्टियोंसे विचार करके वास्तविक कृपापात्रोंकी संख्या यथावसर अपने निकषके अनुरूप अथवा उनके अदृष्टके फलस्वरूप निश्चित करते हैं; क्योंकि एतदर्थ ऐसा करनेके लिये वे पूर्णतया अधिकृत होते हैं।
यदि यही करुणभाव किसी मित्र, अपरिचित व्यक्ति अथवा धनपतिमें उत्पन्न होकर सुमूर्त बने, तो उसे सहायता तथा कृपाभाजनका अदृष्ट अथवा सहायकका सद्भाव माना जाता है, उसे कृपा नहीं कहा जा सकता। हाँ, कुछ सहायक कभी-कभी उस अवसरविशेषपर स्वयंको कृपालु अवश्य मान लेते हैं, किंतु उनकी यह कृपालुता एकपक्षीय मानी जाती है। कभी परिस्थिति विशेषमें कृपाभाजन भी उपर्युक्त जनद्वारा प्राप्त सहायताकोकृपा मान लेता है, परंतु शास्त्रीय चिन्तनमें वह सहायता कृपासदृश भले प्रतीत होती हो, किंतु उसकी गतार्थता तो गुरु, ईश्वर और सन्त आदिसे ही सम्बद्ध है।
सूक्ष्मतया विचार करनेपर हम देख सकते हैं कि मुख्य रूपसे कृपा लौकिक और आमुष्मिक अथवा पारमार्थिक दो प्रकारकी होती है, जिसमें वह कृपा वास्तविक है, जो कृपाभाजनको जीवनके अन्तिम लक्ष्यकी ओर ले जाती है; क्योंकि नीरक्षीरविवेकेन लौकिक कृपा अल्पकालिक होनेके साथ-साथ अन्य कर्मोकी भाँति जीवको मायाके माध्यमसे बाँधनेवाली है, जिससे जीव मोहमें फँसकर लक्ष्यसे च्युत हो जाता है तथा पुनः कर्मफलके भोगहेतु जन्म-मरणके चक्रमें पड़ जाता है
पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननीजठरे शयनम्
कठोपनिषद् में नचिकेतासे यमराज कहते हैं कि 'ऐसा विषयी जीव बार-बार मेरे वशमें आता रहता है- पुनः पुनर्वशमापद्यते मेएतावता ऐसी कृपा ही अर्थवती है, जो जीवको इस भवसागरसे सदा-सदाके लिये मुक्त कर दे।
विचारणीय है कि ऐसी कृपा गुरुके बिना अन्य किसीके द्वारा सम्भव नहीं होती। उनकी इस अहैतुकी कृपामें असीम शक्ति है। इसीलिये गुरु मानव नहीं, शिवके साक्षात् स्वरूप हैं। ईश्वर, आचार, योग, ज्ञान, ध्यान, धर्मादि एवं सपर्या आदिके स्वरूप और तत्सम्बद्ध विधिका बोध गुरुद्वारा ही सम्भव है, उनकी कृपाके अभावमें मनुष्य संसार सागरमें डूबता -उतराता रहता है। उससे मुक्त नहीं हो पाता। कोश और लोकव्यवहारमें सर्वत्र माता-पिता, अध्यापक, आचार्य, प्रत्येक श्रद्धेय एवं आदरणीय वृद्ध इत्यादि लोगोंको भी गुरु कहा गया है।
जिस प्रकार लोकमें तकनीकी शिक्षा, वैद्यक, ज्योतिष, कर्मकाण्ड, योग एवं साधनाका बोध मात्र ग्रन्थोंके अध्ययनसे नहीं होता, प्रत्युत गुरुकी असीम अनुकम्पासे ही होता है, ठीक उसी प्रकार आध्यात्मिक लक्ष्यकी प्राप्तिसम्बन्धी प्रक्रिया भी अनुभवी, ब्रह्मज्ञानी एवं आचारादि आवश्यक सभी निकषोंपर खरे सिद्ध गुरु ही बता सकते हैं और तद्द्द्वारा वे लक्ष्यपर्यन्त पहुँचाकर शिष्यके जीवनको धन्य और सार्थक बना सकते हैं, किंतु गुरुकी इस कृपानुभूतिके लिये शिष्यकेअन्तर्गत गुरुके प्रति श्रद्धा, निष्ठा, विश्वास, समर्पण, त्याग, निर्लोभकी अटल भावना आदि योग्यताएँ होनी आवश्यक हैं। गुरुके प्रति शिष्यके अन्तर्गत ऐसी भावना होनी चाहिये,जैसी गोस्वामी तुलसीदासमें भगवान् रामके प्रति थी
एक भरोसो एक बल एक आस बिस्वास।
एक राम घनस्याम हित चातक तुलसीदास ॥
गुरुकी कृपानुभूति लिये यह आवश्यक है कि शिष्य स्वयंद्वारा वरण किये गये ब्रह्मनिष्ठ गुरुमें कोई परिवर्तन करे, अन्यथा श्रद्धा आदिसे सम्बन्धित सभी समीकरण असन्तुलित हो जायेंगे तथा इसके विपरीत सच्चे हृदयसे गुरुके प्रति विश्वासपूर्वक भक्ति और तन्निर्दिष्ट आचार भक्तको शिवत्वकी प्राप्ति करा देते हैं। न केवल इतना ही प्रत्युत वे देहात्मवादी शिष्यको अध्यात्मवादी बना देते हैं। साधनाके माध्यम से वे श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ गुरु शिष्यके अज्ञानान्धकारको दूरकर ज्ञानी बनाकर उसके अन्तःकरण में अजन्माका जन्म कराते हुए उसे जागतिक बन्धनोंसे मुल करा देते हैं। यहाँतक कि अद्वैत वेदान्तमें प्रतिपादित उस चिज्जडग्रन्थिको उद्घाटित कर देते हैं, जो शिष्यमें जन्म जन्मान्तरसे विद्यमान होती है। गोस्वामी तुलसीदासने सरल भाषामें इस चिज्जडग्रन्थिका वर्णन और उससे मुक्तिका परिचय देते हुए रामचरितमानसमें इस प्रकार कहा है कि ईस्वर अंस जीव अबिनासी। चेतन अमल सहज सुखरासी ॥ सो मायाबस भयउ गोसाई। बँध्यो कीर मरकट की नाई ॥ जड़ चेतनहि ग्रंथि परि गई। जदपि मृषा छूटत कठिनई ॥ तब ते जीव भयउ संसारी छूट न ग्रंथि न होइ सुखारी ॥ श्रुति पुरान बहु कहेउ उपाई छूट न अधिक अधिक अरुझाई ॥ जीव हृदयँ तम मोह बिसेषी। ग्रंथि छूट किमि परइ न देखी ॥ अस] [संजोग इस जब करई तब कदाचित यो निरुआई ॥
इत्यादि अर्थात् इस ग्रन्थिका उद्घाटन गुरुरूप ईश्वरकी कृपासे ही सम्भव है; क्योंकि एतत्सम्बद्ध जप तप, व्रत, नियम और धर्मके मार्गका ज्ञान गुरुके बिना कैसे हो सकता है? ज्ञानका पथ बहुत कठिन है। कठोपनिषद् के अनुसार इसका अनुसरण तलवारकी धारपर चलने सदृश है -
क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत् कवयो वदन्ति।
भारतीय सनातन परम्परामें ऐसे अनेक उदाहरण हैं, जिनमें शिष्योंको गुरुकी कृपानुभूति प्राप्त हुई। नारदको गुरु माननेवाली भगवती पार्वती, यमशिष्य नचिकेता, वरतन्तुशिष्य कौत्स वाल्मीकिशिष्य लव-कुश, सान्दीपनि शिष्य श्रीकृष्ण, बलरामशिष्य भीम, द्रोणाचार्यशिष्य अर्जुन, वसिष्ठविश्वामित्रशिष्य राम-लक्ष्मण तथा इसी प्रकार ध्रुव, प्रह्लाद, परशुराम, भीष्म, भगवत्पाद शंकराचार्य एवं ढेर सारे अन्य महापुरुष; जिन्हें अपने गुरुद्वारा निर्दिष्ट मार्गका अनुसरण करनेपर न केवल लौकिक सिद्धियाँ प्राप्त हुई, प्रत्युत आध्यात्मिक सफलताएँ भी मिलीं।
जगज्जननी पार्वती के कुलगुरु महर्षि नारदने पार्वतीके पतिके रूपमें भगवान् शिवके लिये भविष्यवाणी की थी, जिनकी आज्ञाको स्वीकारकर शिवकी प्राप्तिहेतु पार्वतीने
तपश्चर्या आरम्भ की। तपस्याके समय उनकी परीक्षा हुई, जिसमें उन्होंने गुर्वाज्ञाके प्रति अपना अटल विश्वास तथा शिवके प्रति एकनिष्ठ भक्ति-भाव बनाये रखा। परिणामतः उन्हें शिवका न केवल साक्षात्कार हुआ, प्रत्युत पतिके रूपमें उन्हें उनकी प्राप्ति भी हुई। अपर्णाकी तपस्या के मध्य सप्तर्षियोंने जब शिवप्राप्तिके आग्रहको छोड़नेका परामर्श दिया, तो भगवती उमाने कहा कि नारदजी मेरे कुलगुरु हैं। अतः मैं न तो उनके वचनोंका उल्लंघनकरूँगी और न ही अपनी प्रतिज्ञा छोड़ेंगी, चाहे मुझे करोड़ों जन्मतक कुवाँरी क्यों न रहना पड़े। यथा
सत्य कहे गिरिभव तनु एहा हठ न छूट छूटै बरु देहा ।। कनकड पुनि पधान तें होई। जारेहुँ सहजु न परिहर सोई ।। नारद वचन न मैं परिहरऊँ। बसठ भवनु उजरउ नहिं डरऊँ ॥ गुर के बचन प्रतीति न जेही सपनेहुँ सुगम न सुख सिधि तेही ।। जन्म कोटि लगि रगर हमारी बरउँ संभु न त रहउँ कुआरी ॥
तज न नारद कर उपदेसू। आप कहहिं सत बार महेसू। जिसका फल यह हुआ कि भगवान् शिव प्रकट हो गये और उस स्थानसे चले जानेके लिये उपक्रमशील भगवती पार्वतीकी स्थिति न ययौ न तस्थौ की हो गयी। इसी प्रकार कठोपनिषद्के अन्तर्गत पिताके वचनकोमानकर यमराजके पास पहुँचे नचिकेताकी निष्ठा, त्यागशीलता और गुरुके प्रति अटल भक्ति, विश्वास एवं गुरुकी कृपाने चार वरदान देकर न केवल शिष्य नचिकेताको ही प्रत्युत इस माध्यमसे सम्पूर्ण विश्वको जिस प्रकार कृपाकी अनुभूति करायी, वह अद्भुत है। वरदान देनेके पूर्व यमने शिष्यके प्राप्तव्यको नितान्त कठिन बताते हुए उन्हें अनेक अलौकिक उपलब्धियोंको स्वीकार करनेका प्रस्ताव रखा, जिन्हें नचिकेताने अस्वीकार करते हुए कहा-
श्वोभावा मत्र्त्यस्य यदन्तकैतत्सर्वेन्द्रियाणां जरयन्ति तेजः । अपि सर्व जीवितमल्पमेव तवैव वाहास्तव नृत्यगीते ॥ न वित्तेन तर्पणीयो मनुष्यो लप्स्यामहे वित्तमद्राक्ष्म चेत्त्वा । जीविष्यामो यावदीशिष्यसि त्वं वरस्तु मे वरणीयः स एव ॥ अजीयंताममृतानामुपेत्य जीर्यन्मर्त्यः स्वधः स्थः प्रजानन् । अभिध्यायन् वर्णरतिप्रमोदानतिदीर्घे जीविते को रमेत ॥
(कठोपनिषद् १ । १ २६-२८) यहाँ कृपाके पूर्व नचिकेताकी वास्तविक पात्रगत परीक्षामें गुरु यमने कहा था कि हे नचिकेता ! तुम अपनी इच्छाके अनुसार सभी लौकिक वस्तुएँ माँग लो, किंतु आत्मज्ञानका प्रस्ताव छोड़ दो। शतायुषः पुत्रपौत्रान् वृणीष्व बहून् पशून् हस्तिहिरण्यमश्वान् । भूमेर्महदायतनं वृणीष्व स्वयं च जीव शरदो यावदीच्छसि ॥ ये ये कामा दुर्लभा मर्त्यलोके सर्वान् कामश्छन्दतः प्रार्थयस्व । इमा रामाः सरथाः सतूर्या न हीदृशा लम्भनीया मनुष्यैः ॥आभिर्मत्प्रत्ताभिः परिचारयस्व नचिकेतो मरणं मानुप्राक्षीः ॥
कठोपनिषद् १ । १ । २३, २५)
किंतु आत्मज्ञानके प्रति निष्ठावान् गुरुभक्त नचिकेताके त्याग और पात्रताको देखते हुए अन्तमें गुरुकृपासे उसे आत्मज्ञानकी प्राप्ति हुई।
इसी प्रकार महाभारतके युद्धसे विरत होते शिष्यको जगद्गुरु भगवान् श्रीकृष्ण (वन्दे कृष्णं जगद्गुरुम् ) से प्राप्त कृपाकी अनुभूति मात्र अर्जुनको ही नहीं हुई प्रत्युत विगत पाँच सहस्राब्दियोंसे अधिक समयसे सतत सम्पूर्ण संसारको भी हो रही है। यही कारण है कि भगवत्पाद शंकराचार्यजी महाराजने गुर्वष्टकम्के अन्तर्गत कहा है कि
शरीरं सुरूपं तथा वा कलत्रं यशश्चारुचित्रं धनं मेरुतुल्यम् । मनश्चेन्न लग्नं गुरोरंघ्रिपद्ये ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ॥ कलत्रं धनं पुत्रपौत्रादि सर्वं गृहं बान्धवाः सर्वमेतद्धि जातम् मनश्चेन्न लग्नं गुरोरंघ्रिपद्मे ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ॥ अनय रत्नादिमुक्तानि सम्यक् समालिंगिता कामिनी यामिनीषु मनश्चेन्न लग्नं गुरोरंघ्रिपद्ये ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ॥ गुरोरष्टकं यः पठेत् पुण्यदेही यतिर्भूपतिर्ब्रह्मचारी च गेही लभेद वांछितार्थं पदं ब्रह्मसंज्ञं गुरोरुक्तवाक्ये मनो यस्य लग्नम् ॥
अर्थात् विश्वकी सम्पूर्ण सुविधाएँ, सम्पत्ति, साधन, सम्मान, यश, विद्या, प्रतिभा, अधिकार और अन्य सभी सांसारिक शक्तियाँ मनुष्यको प्राप्त हों, किंतु ब्रह्मनिष्ठ गुरुके चरणोंमें यदि उसकी निष्ठा न हो, गुरुकी कृपा उसे प्राप्त न हो, तो उस व्यक्तिका मानवजातिमें जन्म लेना व्यर्थ है; क्योंकि चौरासी लाख योनियोंमें अनवरत भटकनेके बावजूद प्रभुकृपासे प्राप्त मनुष्यका जन्म गुरु कृपा और उससे प्राप्त होनेवाले लक्ष्यकी प्राप्तिके अभावमें निरर्थक हो जाता है।
वस्तुतः गुरु अपने पूर्वगुरुओंसे तत्त्वज्ञान प्राप्त करनेके बाद अपनी साधनासे उस ज्ञानमें कुछ जोड़कर अपनी परवर्ती शिष्य परम्पराको प्रदान करते हैं, जिसके परिणामस्वरूप गुरुकी कृपासे शिष्य योग्य, आचारशील, ज्ञानी और यशस्वी बनकर गुरुके यशके प्रत्यभिज्ञापकहो पाते हैं, उन्होंके कारण लोकमें गुरुका गौरव बढ़ता है। साथ ही गुरुसे प्राप्त संस्कारके अनुसार वह अपने शिष्यों के ऊपर कृपादृष्टि रखता है। सांख्यकारिकाकारने कहा है- प्रमेयसिद्धिः प्रमाणाद्धि प्रमेयकी सिद्धि प्रमाणसे होती है। गुरु-शिष्य परम्परामें गुरुका वचन ही प्रमाण है, जो शब्दप्रमाण कहा जाता है। आचार्य दण्डीने कहा है कि यदि शब्दकी ज्योति गुरु तथा गुरुकृपासे प्राप्त बुद्धि एवं शास्त्रोंकी परम्परा न होती तो यह संसार अन्धकारमय होता
यदि शब्दाह्वयं ज्योतिरासंसारं न दीप्यते।
भारतीय वैदिक सनातन धर्म एवं संस्कृतिकी सरणिमें गुरुका इतना महत्त्व है कि एक ओर जहाँ प्रश्नोपनिषद्पिप्पलाद ऋषिने सुकेशा सत्यकाम, गार्ग्य, कौसल्य, भार्गव एवं कबन्धीसंज्ञक शिष्योंको अपने आश्रममें एक वर्षपर्यन्त निवास करनेके पश्चात् उनकी प्रश्नगत जिज्ञासाओंका समाधान किया, वहीं केनोपनिषद्के अन्तर्गत शिष्यको गुरुने गहन परमतत्त्वका ज्ञान कराते हुए प्रथम मन्त्रमें उपस्थित प्रश्नोंका उत्तर भी दिया। प्रथम मन्त्र है
ॐ केनेषितं पतति प्रेषितं मनः केन प्राणः प्रथमः प्रैति युक्तः ।केनेषितां वाचमिमां वदन्ति चक्षुः श्रोत्रं क उ देवो युनक्ति ॥
(केनोपनिषद् १।१) इसी प्रकार गुरुओं की कृपाकी जिस परम्पराने सम्पूर्ण जगत्को ईशावास्य बताते हुए निर्लोभी होकर त्यागपूर्वक जीवनयापनकी शिक्षा दी और विश्वमें सामाजिक सन्तुलन बनाया, उसी परम्पराने ब्रह्मज्ञानकीपवित्र विचारश्रृंखलाका भी निर्देशन किया
अथर्वणे यां प्रवदेत ब्रह्माऽथर्वा तां पुरोवाचाङ्गिरे ब्रह्मविद्याम् । स भारद्वाजाय सत्यवहाय प्राह भारद्वाजोऽङ्गिरसे परावराम् ॥
(मुण्डकोपनिषद् १।२) अर्थात् ब्रह्माने जिस ब्रह्मविद्याका उपदेश अपने ज्येष्ठ पुत्र अथर्वाको दिया, उसी ज्ञानका उपदेश अथर्वाने अंगिरस ऋषिको, अंगिरस ऋषिने भारद्वाज सत्यवह ऋषिको तथा इसी क्रमसे गुरु-शिष्य परम्पराके द्वारा यह ब्रह्मविद्या आगेके ऋषियों और शिष्योंको प्राप्त हुई। यदि गुरुकृपा न होती, तो नितान्त गूढ, प्रकाशस्वरूप, अक्षर, अरूप, मन-वाणीसे अगम, अगोचर सच्चिदानन्दघन परमेश्वरका स्वरूपबोध इस जीवजगत् के लोगोंको भला किस प्रकार होता ?
वे गुरु ही हैं, जो धर्म, कर्म, लोकव्यवहार, करणीयाकरणीय, गम्यागम्य खाद्याखाद्य प्रभृति सम्पूर्ण लौकिक जीवनके निर्वाहकी शिक्षाके साथ-साथ शनैः शनैः हमें उस पथका पथिक बना देते हैं, जिससे आगे बढ़ने पर हमारी बुद्धिमें स्थित अविद्याजन्य वासनामय काम नष्ट हो जाता है। परिणामतः हृदयकी चिज्जडग्रन्थिके खुल जानेके कारण सर्वविध संशय दूर हो जाते हैं तथा ज्ञानके पूर्व एवं जन्मान्तरकृत कर्मके बन्धन विशीर्ण हो जाते हैं;
क्योंकि ज्ञानका अग्नि सभी कर्मोंको भस्म कर देता है ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात् कुरुतेऽर्जुन ॥
और इस प्रकार आत्मबोधके कारण शिष्यका मानवजीवन सफल हो जाता है। वस्तुतः यही गुरुका परम गुरुत्व है और शिष्य की यही श्रेष्ठ गति है-सा काष्ठा सा परा गतिः ।
गुरु ज्ञानशक्तिके वह पुँजीभूत अक्षयभण्डार हैं, जिनका आश्रय ग्रहणकर वक्र चन्द्र भी विश्ववन्द्य हो गया। ऐसे महनीय गुरु शिवको वन्दना करते हुए तुलसीदासने कहा है कि
वन्दे बोधमयं नित्यं गुरु शंकररूपिणम्। यमाश्रितो हि वक्रोऽपि चन्द्रः सर्वत्र वन्द्यते ॥
वर्तमान सन्दर्भों में भी गुरुकृपाकी वही गरिमा और वही महिमा है, जो चिरकालमें रही है; क्योंकि यह सिद्धान्त शाश्वत है। एतावता इसकी महत्ता अनन्त है और रहेगी। विपश्विज्जनसमुदायका मानना है कि लोक, परलोक सब कुछ गुरुकृपाका ही परिणाम है-गुरुकृपा हि केवलम् । गुरुद्वारा एक बार स्वीकार कर लिये जानेपर शिष्यके सम्पूर्ण योगक्षेमका निर्वाह गुरु स्वयं करने लगते हैं-योगक्षेमं वहाम्यहम्।
शास्त्रीय पद्धतिके अनुसार यह सिद्धान्त सर्वधा प्रमाणित है कि भगवद्भक्ति पुण्यतोया पावनपुलिना परमपावनी भगवती जाह्नवीका वह पूत प्रवाह है जहाँसे ब्रह्मविद्यासम्बन्धी विचार अभिव्यक्ति पाते हैं, एतदर्थ प्रभुके कृपावश की जानेवाली सत्संगति मानवमनमें विवेक उत्पन्न करती है; क्योंकि वह सब प्रकारकी सिद्धियों, साधनों, प्रसन्नताओं, मंगलों और परिणामोंकी निर्विघ्न प्रदात्री है तथा अजातशत्रु सन्त उस अंजलिगत शुभ और सुष्ठु मनवाले पुष्पके सदृश हैं, जिनकी सन्निधि और मनसा, वाचा, कर्मणा, स्पर्शसे मनुष्यके व्यक्तित्व एवं जीवन दोनों सुगन्धित हो जाते हैं किंतु एतादृश पवित्र कर्म, भगवद्धति तथा प्रभुस्वरूपका ज्ञान तो ब्रह्मनिष्ठ गुरुके असीम करुणाजन्य कृपाकटाक्षसे ही सम्भव है, जो कहीं अन्यत्रसे नहीं मिल सकता। यह तभी सम्भव है, जब कि गुरुकी कृपादृष्टिसे शिष्यका मोहान्धकार नष्ट हो जाय, प्रभुके स्वरूपदर्शनहेतु तदहं ज्ञाननेत्र उसके द्वारा उद्घाटित हो जायँ, जिसके फलस्वरूप जागतिक बन्धनजन्य जन्म-मरणके दुःख मिट जाते हैं। एतावता गुरुकी कृपासे जनित आध्यात्मिक अनुभूति ही शिष्यकी वास्तविक पूँजी और उसके जीवनका वास्तविक उद्देश्य है, जो उसके जन्म-जन्मान्तरकी पुण्यराशिके परिपाकस्वरूप किसी-किसीको ही प्राप्त हो पाती है। इसलिये गोस्वामी तुलसीदासने कहा है कि
बंदउँ गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि महामोह तम पुंज जासु बचन रवि कर निकर ।
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sookshmataya vichaar karanepar ham dekh sakate hain ki mukhy roopase kripa laukik aur aamushmik athava paaramaarthik do prakaarakee hotee hai, jisamen vah kripa vaastavik hai, jo kripaabhaajanako jeevanake antim lakshyakee or le jaatee hai; kyonki neeraksheeraviveken laukik kripa alpakaalik honeke saatha-saath any karmokee bhaanti jeevako maayaake maadhyamase baandhanevaalee hai, jisase jeev mohamen phansakar lakshyase chyut ho jaata hai tatha punah karmaphalake bhogahetu janma-maranake chakramen pada़ jaata hai
punarapi jananan punarapi maranan punarapi jananeejathare shayanam
kathopanishad men nachiketaase yamaraaj kahate hain ki 'aisa vishayee jeev baara-baar mere vashamen aata rahata hai- punah punarvashamaapadyate meetaavata aisee kripa hee arthavatee hai, jo jeevako is bhavasaagarase sadaa-sadaake liye mukt kar de.
vichaaraneey hai ki aisee kripa guruke bina any kiseeke dvaara sambhav naheen hotee. unakee is ahaitukee kripaamen aseem shakti hai. iseeliye guru maanav naheen, shivake saakshaat svaroop hain. eeshvar, aachaar, yog, jnaan, dhyaan, dharmaadi evan saparya aadike svaroop aur tatsambaddh vidhika bodh gurudvaara hee sambhav hai, unakee kripaake abhaavamen manushy sansaar saagaramen doobata -utaraata rahata hai. usase mukt naheen ho paataa. kosh aur lokavyavahaaramen sarvatr maataa-pita, adhyaapak, aachaary, pratyek shraddhey evan aadaraneey vriddh ityaadi logonko bhee guru kaha gaya hai.
jis prakaar lokamen takaneekee shiksha, vaidyak, jyotish, karmakaand, yog evan saadhanaaka bodh maatr granthonke adhyayanase naheen hota, pratyut gurukee aseem anukampaase hee hota hai, theek usee prakaar aadhyaatmik lakshyakee praaptisambandhee prakriya bhee anubhavee, brahmajnaanee evan aachaaraadi aavashyak sabhee nikashonpar khare siddh guru hee bata sakate hain aur tadddvaara ve lakshyaparyant pahunchaakar shishyake jeevanako dhany aur saarthak bana sakate hain, kintu gurukee is kripaanubhootike liye shishyakeantargat guruke prati shraddha, nishtha, vishvaas, samarpan, tyaag, nirlobhakee atal bhaavana aadi yogyataaen honee aavashyak hain. guruke prati shishyake antargat aisee bhaavana honee chaahiye,jaisee gosvaamee tulaseedaasamen bhagavaan raamake prati thee
ek bharoso ek bal ek aas bisvaasa.
ek raam ghanasyaam hit chaatak tulaseedaas ..
gurukee kripaanubhooti liye yah aavashyak hai ki shishy svayandvaara varan kiye gaye brahmanishth gurumen koee parivartan kare, anyatha shraddha aadise sambandhit sabhee sameekaran asantulit ho jaayenge tatha isake vipareet sachche hridayase guruke prati vishvaasapoorvak bhakti aur tannirdisht aachaar bhaktako shivatvakee praapti kara dete hain. n keval itana hee pratyut ve dehaatmavaadee shishyako adhyaatmavaadee bana dete hain. saadhanaake maadhyam se ve shrotriy brahmanishth guru shishyake ajnaanaandhakaarako doorakar jnaanee banaakar usake antahkaran men ajanmaaka janm karaate hue use jaagatik bandhanonse mul kara dete hain. yahaantak ki advait vedaantamen pratipaadit us chijjadagranthiko udghaatit kar dete hain, jo shishyamen janm janmaantarase vidyamaan hotee hai. gosvaamee tulaseedaasane saral bhaashaamen is chijjadagranthika varnan aur usase muktika parichay dete hue raamacharitamaanasamen is prakaar kaha hai ki eesvar ans jeev abinaasee. chetan amal sahaj sukharaasee .. so maayaabas bhayau gosaaee. bandhyo keer marakat kee naaee .. jada़ chetanahi granthi pari gaee. jadapi mrisha chhootat kathinaee .. tab te jeev bhayau sansaaree chhoot n granthi n hoi sukhaaree .. shruti puraan bahu kaheu upaaee chhoot n adhik adhik arujhaaee .. jeev hridayan tam moh biseshee. granthi chhoot kimi parai n dekhee .. asa] [sanjog is jab karaee tab kadaachit yo niruaaee ..
ityaadi arthaat is granthika udghaatan gururoop eeshvarakee kripaase hee sambhav hai; kyonki etatsambaddh jap tap, vrat, niyam aur dharmake maargaka jnaan guruke bina kaise ho sakata hai? jnaanaka path bahut kathin hai. kathopanishad ke anusaar isaka anusaran talavaarakee dhaarapar chalane sadrish hai -
kshurasy dhaara nishita duratyaya durgan pathastat kavayo vadanti.
bhaarateey sanaatan paramparaamen aise anek udaaharan hain, jinamen shishyonko gurukee kripaanubhooti praapt huee. naaradako guru maananevaalee bhagavatee paarvatee, yamashishy nachiketa, varatantushishy kauts vaalmeekishishy lava-kush, saandeepani shishy shreekrishn, balaraamashishy bheem, dronaachaaryashishy arjun, vasishthavishvaamitrashishy raama-lakshman tatha isee prakaar dhruv, prahlaad, parashuraam, bheeshm, bhagavatpaad shankaraachaary evan dher saare any mahaapurusha; jinhen apane gurudvaara nirdisht maargaka anusaran karanepar n keval laukik siddhiyaan praapt huee, pratyut aadhyaatmik saphalataaen bhee mileen.
jagajjananee paarvatee ke kulaguru maharshi naaradane paarvateeke patike roopamen bhagavaan shivake liye bhavishyavaanee kee thee, jinakee aajnaako sveekaarakar shivakee praaptihetu paarvateene
tapashcharya aarambh kee. tapasyaake samay unakee pareeksha huee, jisamen unhonne gurvaajnaake prati apana atal vishvaas tatha shivake prati ekanishth bhakti-bhaav banaaye rakhaa. parinaamatah unhen shivaka n keval saakshaatkaar hua, pratyut patike roopamen unhen unakee praapti bhee huee. aparnaakee tapasya ke madhy saptarshiyonne jab shivapraaptike aagrahako chhoda़neka paraamarsh diya, to bhagavatee umaane kaha ki naaradajee mere kulaguru hain. atah main n to unake vachanonka ullanghanakaroongee aur n hee apanee pratijna chhoda़engee, chaahe mujhe karoda़on janmatak kuvaanree kyon n rahana pada़e. yatha
saty kahe giribhav tanu eha hath n chhoot chhootai baru deha .. kanakad puni padhaan ten hoee. jaarehun sahaju n parihar soee .. naarad vachan n main pariharaoon. basath bhavanu ujarau nahin daraoon .. gur ke bachan prateeti n jehee sapanehun sugam n sukh sidhi tehee .. janm koti lagi ragar hamaaree baraun sanbhu n t rahaun kuaaree ..
taj n naarad kar upadesoo. aap kahahin sat baar mahesoo. jisaka phal yah hua ki bhagavaan shiv prakat ho gaye aur us sthaanase chale jaaneke liye upakramasheel bhagavatee paarvateekee sthiti n yayau n tasthau kee ho gayee. isee prakaar kathopanishadke antargat pitaake vachanakomaanakar yamaraajake paas pahunche nachiketaakee nishtha, tyaagasheelata aur guruke prati atal bhakti, vishvaas evan gurukee kripaane chaar varadaan dekar n keval shishy nachiketaako hee pratyut is maadhyamase sampoorn vishvako jis prakaar kripaakee anubhooti karaayee, vah adbhut hai. varadaan deneke poorv yamane shishyake praaptavyako nitaant kathin bataate hue unhen anek alaukik upalabdhiyonko sveekaar karaneka prastaav rakha, jinhen nachiketaane asveekaar karate hue kahaa-
shvobhaava matrtyasy yadantakaitatsarvendriyaanaan jarayanti tejah . api sarv jeevitamalpamev tavaiv vaahaastav nrityageete .. n vitten tarpaneeyo manushyo lapsyaamahe vittamadraakshm chettva . jeevishyaamo yaavadeeshishyasi tvan varastu me varaneeyah s ev .. ajeeyantaamamritaanaamupety jeeryanmartyah svadhah sthah prajaanan . abhidhyaayan varnaratipramodaanatideerghe jeevite ko ramet ..
(kathopanishad 1 . 1 26-28) yahaan kripaake poorv nachiketaakee vaastavik paatragat pareekshaamen guru yamane kaha tha ki he nachiketa ! tum apanee ichchhaake anusaar sabhee laukik vastuen maang lo, kintu aatmajnaanaka prastaav chhoda़ do. shataayushah putrapautraan vrineeshv bahoon pashoon hastihiranyamashvaan . bhoomermahadaayatanan vrineeshv svayan ch jeev sharado yaavadeechchhasi .. ye ye kaama durlabha martyaloke sarvaan kaamashchhandatah praarthayasv . ima raamaah sarathaah satoorya n heedrisha lambhaneeya manushyaih ..aabhirmatprattaabhih parichaarayasv nachiketo maranan maanupraaksheeh ..
kathopanishad 1 . 1 . 23, 25)
kintu aatmajnaanake prati nishthaavaan gurubhakt nachiketaake tyaag aur paatrataako dekhate hue antamen gurukripaase use aatmajnaanakee praapti huee.
isee prakaar mahaabhaaratake yuddhase virat hote shishyako jagadguru bhagavaan shreekrishn (vande krishnan jagadgurum ) se praapt kripaakee anubhooti maatr arjunako hee naheen huee pratyut vigat paanch sahasraabdiyonse adhik samayase satat sampoorn sansaarako bhee ho rahee hai. yahee kaaran hai ki bhagavatpaad shankaraachaaryajee mahaaraajane gurvashtakamke antargat kaha hai ki
shareeran suroopan tatha va kalatran yashashchaaruchitran dhanan merutulyam . manashchenn lagnan guroranghripadye tatah kin tatah kin tatah kin tatah kim .. kalatran dhanan putrapautraadi sarvan grihan baandhavaah sarvametaddhi jaatam manashchenn lagnan guroranghripadme tatah kin tatah kin tatah kin tatah kim .. anay ratnaadimuktaani samyak samaalingita kaaminee yaamineeshu manashchenn lagnan guroranghripadye tatah kin tatah kin tatah kin tatah kim .. gurorashtakan yah pathet punyadehee yatirbhoopatirbrahmachaaree ch gehee labhed vaanchhitaarthan padan brahmasanjnan guroruktavaakye mano yasy lagnam ..
arthaat vishvakee sampoorn suvidhaaen, sampatti, saadhan, sammaan, yash, vidya, pratibha, adhikaar aur any sabhee saansaarik shaktiyaan manushyako praapt hon, kintu brahmanishth guruke charanonmen yadi usakee nishtha n ho, gurukee kripa use praapt n ho, to us vyaktika maanavajaatimen janm lena vyarth hai; kyonki chauraasee laakh yoniyonmen anavarat bhatakaneke baavajood prabhukripaase praapt manushyaka janm guru kripa aur usase praapt honevaale lakshyakee praaptike abhaavamen nirarthak ho jaata hai.
vastutah guru apane poorvaguruonse tattvajnaan praapt karaneke baad apanee saadhanaase us jnaanamen kuchh joda़kar apanee paravartee shishy paramparaako pradaan karate hain, jisake parinaamasvaroop gurukee kripaase shishy yogy, aachaarasheel, jnaanee aur yashasvee banakar guruke yashake pratyabhijnaapakaho paate hain, unhonke kaaran lokamen guruka gaurav badha़ta hai. saath hee guruse praapt sanskaarake anusaar vah apane shishyon ke oopar kripaadrishti rakhata hai. saankhyakaarikaakaarane kaha hai- prameyasiddhih pramaanaaddhi prameyakee siddhi pramaanase hotee hai. guru-shishy paramparaamen guruka vachan hee pramaan hai, jo shabdapramaan kaha jaata hai. aachaary dandeene kaha hai ki yadi shabdakee jyoti guru tatha gurukripaase praapt buddhi evan shaastronkee parampara n hotee to yah sansaar andhakaaramay hotaa
yadi shabdaahvayan jyotiraasansaaran n deepyate.
bhaarateey vaidik sanaatan dharm evan sanskritikee saranimen guruka itana mahattv hai ki ek or jahaan prashnopanishadpippalaad rishine sukesha satyakaam, gaargy, kausaly, bhaargav evan kabandheesanjnak shishyonko apane aashramamen ek varshaparyant nivaas karaneke pashchaat unakee prashnagat jijnaasaaonka samaadhaan kiya, vaheen kenopanishadke antargat shishyako gurune gahan paramatattvaka jnaan karaate hue pratham mantramen upasthit prashnonka uttar bhee diyaa. pratham mantr hai
oM keneshitan patati preshitan manah ken praanah prathamah praiti yuktah .keneshitaan vaachamimaan vadanti chakshuh shrotran k u devo yunakti ..
(kenopanishad 1.1) isee prakaar guruon kee kripaakee jis paramparaane sampoorn jagatko eeshaavaasy bataate hue nirlobhee hokar tyaagapoorvak jeevanayaapanakee shiksha dee aur vishvamen saamaajik santulan banaaya, usee paramparaane brahmajnaanakeepavitr vichaarashrrinkhalaaka bhee nirdeshan kiyaa
atharvane yaan pravadet brahmaa'tharva taan purovaachaangire brahmavidyaam . s bhaaradvaajaay satyavahaay praah bhaaradvaajo'ngirase paraavaraam ..
(mundakopanishad 1.2) arthaat brahmaane jis brahmavidyaaka upadesh apane jyeshth putr atharvaako diya, usee jnaanaka upadesh atharvaane angiras rishiko, angiras rishine bhaaradvaaj satyavah rishiko tatha isee kramase guru-shishy paramparaake dvaara yah brahmavidya aageke rishiyon aur shishyonko praapt huee. yadi gurukripa n hotee, to nitaant goodh, prakaashasvaroop, akshar, aroop, mana-vaaneese agam, agochar sachchidaanandaghan parameshvaraka svaroopabodh is jeevajagat ke logonko bhala kis prakaar hota ?
ve guru hee hain, jo dharm, karm, lokavyavahaar, karaneeyaakaraneey, gamyaagamy khaadyaakhaady prabhriti sampoorn laukik jeevanake nirvaahakee shikshaake saatha-saath shanaih shanaih hamen us pathaka pathik bana dete hain, jisase aage badha़ne par hamaaree buddhimen sthit avidyaajany vaasanaamay kaam nasht ho jaata hai. parinaamatah hridayakee chijjadagranthike khul jaaneke kaaran sarvavidh sanshay door ho jaate hain tatha jnaanake poorv evan janmaantarakrit karmake bandhan visheern ho jaate hain;
kyonki jnaanaka agni sabhee karmonko bhasm kar deta hai jnaanaagnih sarvakarmaani bhasmasaat kurute'rjun ..
aur is prakaar aatmabodhake kaaran shishyaka maanavajeevan saphal ho jaata hai. vastutah yahee guruka param gurutv hai aur shishy kee yahee shreshth gati hai-sa kaashtha sa para gatih .
guru jnaanashaktike vah punjeebhoot akshayabhandaar hain, jinaka aashray grahanakar vakr chandr bhee vishvavandy ho gayaa. aise mahaneey guru shivako vandana karate hue tulaseedaasane kaha hai ki
vande bodhamayan nityan guru shankararoopinam. yamaashrito hi vakro'pi chandrah sarvatr vandyate ..
vartamaan sandarbhon men bhee gurukripaakee vahee garima aur vahee mahima hai, jo chirakaalamen rahee hai; kyonki yah siddhaant shaashvat hai. etaavata isakee mahatta anant hai aur rahegee. vipashvijjanasamudaayaka maanana hai ki lok, paralok sab kuchh gurukripaaka hee parinaam hai-gurukripa hi kevalam . gurudvaara ek baar sveekaar kar liye jaanepar shishyake sampoorn yogakshemaka nirvaah guru svayan karane lagate hain-yogaksheman vahaamyaham.
shaastreey paddhatike anusaar yah siddhaant sarvadha pramaanit hai ki bhagavadbhakti punyatoya paavanapulina paramapaavanee bhagavatee jaahnaveeka vah poot pravaah hai jahaanse brahmavidyaasambandhee vichaar abhivyakti paate hain, etadarth prabhuke kripaavash kee jaanevaalee satsangati maanavamanamen vivek utpann karatee hai; kyonki vah sab prakaarakee siddhiyon, saadhanon, prasannataaon, mangalon aur parinaamonkee nirvighn pradaatree hai tatha ajaatashatru sant us anjaligat shubh aur sushthu manavaale pushpake sadrish hain, jinakee sannidhi aur manasa, vaacha, karmana, sparshase manushyake vyaktitv evan jeevan donon sugandhit ho jaate hain kintu etaadrish pavitr karm, bhagavaddhati tatha prabhusvaroopaka jnaan to brahmanishth guruke aseem karunaajany kripaakataakshase hee sambhav hai, jo kaheen anyatrase naheen mil sakataa. yah tabhee sambhav hai, jab ki gurukee kripaadrishtise shishyaka mohaandhakaar nasht ho jaay, prabhuke svaroopadarshanahetu tadahan jnaananetr usake dvaara udghaatit ho jaayan, jisake phalasvaroop jaagatik bandhanajany janma-maranake duhkh mit jaate hain. etaavata gurukee kripaase janit aadhyaatmik anubhooti hee shishyakee vaastavik poonjee aur usake jeevanaka vaastavik uddeshy hai, jo usake janma-janmaantarakee punyaraashike paripaakasvaroop kisee-kiseeko hee praapt ho paatee hai. isaliye gosvaamee tulaseedaasane kaha hai ki
bandaun guru pad kanj kripa sindhu nararoop hari mahaamoh tam punj jaasu bachan ravi kar nikar .