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भगवान की कृपा किसे कहते हैं? इसके लिए हम क्या करें?

सबसे पहले जिज्ञासा होती हैं कि कृपा किसे कहते हैं।

कृपा

प्रत्युपकारानपेक्षया सततं परदुःखप्रहरणेच्छा कृपा । 'कृपा' शब्दका प्रयोग प्रत्युपकारकी अपेक्षाके

बिना दूसरोंके दुःखोंका शमन करते हुए सतत सर्वविध (नैतिक) अनुकूलता देनेके अर्थमें किया जाता है। जिसके लिये दया (दया भूतहितैषित्वम्), अनुग्रह आदि शब्द भी प्रयुक्त होते हैं।

अनुभूति - अनुभूतिसे तात्पर्य है किसी वस्तु, व्यक्ति, स्थानके संसर्गसे अथवा ज्ञान, ध्यान, जप, पाठादिके परिणामस्वरूप जो रसविशेष हमारे चित्त को प्राप्त हुआ, उसकी स्मृतिरूप गन्धको अनुभूति कह सकते हैं।

कृपानुभूति - कर्तुं अकर्तुं अन्यथाकर्तुं समर्थ सर्वसमर्थ अकारणकरुण करुणावरुणालय भक्तवत्सल भगवान्के भगवदीय विधानका आनुकूल्यानुभव ही कृपानुभूति है। कृपानुभूति-प्राप्तिका उपाय

विश्वासो गुरुवाक्येषु स्वस्मिन् दीनत्वभावना । शास्त्रज्ञानी पारम्परिक सदाचारसम्पन्न आचार्यके शास्त्रोक्त वचनोंपर पूर्ण श्रद्धा-विश्वास करके कि इनके द्वारा उपदिष्ट विधानके पालनसे ही मेरा कल्याण सुनिश्चित है। और स्वयंके दुर्गुणोंका, मानवोचित दुर्बलताका, अक्षमताका स्मरण करते हुए दैन्यका भाव रखकर पूर्णनिष्ठाके साथ इष्टोपासनामें धृत्युत्साहसमन्वित सुदीर्घ कालतक सतत संलग्न रहनेपर अवश्य ही कृपानुभूतिकी प्राप्ति होती है।

कृपानुभूतिके अनन्तर - साक्षात् भगवत्-भागवत दर्शन, पूर्वमें अश्रुत दैवीय शब्दश्रवण, एकान्तिक समाराधना वेलामें अलौकिक सुख देनेवाला अननुभूत विलक्षण शोक मोहविनाशक स्पर्श, सहसा एकान्तमें सौरभका आभास, रोमांच, अश्रुपात, अनायास चित्तको अव्यक्त प्रसादकी प्राप्ति अथवा स्वप्नादिमें अपेक्षित दिव्यभावानुभूति हो जानेपर सांसारिक- भावापन्न जनोंके मध्य आत्मश्लाघाकी दृष्टिसे कभी इस दिव्यानन्दको व्यक्त न करे।

यदि उस अलौकिक आनन्दको आत्मसात् करनेमेंस्वयंको असमर्थ समझे तो अतिविश्वसनीय परमार्थप्रवीण भावमय जीवन जीनेवाले, बाह्याडम्बररहित अतिसरल विरल संतके चरणोंमें ही निवेदन करे, अन्यत्र नहीं। देखो भाई, इस समग्र प्रपंचमें ईशानुग्रहवंचित तो

न कोई था, न अब है, न कोई होगा। जैसे सागरमें रहनेवाले सभी जीव सागरके आश्रयसे वंचित नहीं हैं, ठीक वैसे ही प्रभुके उदरमें अवस्थित ब्रह्माण्डवर्ती चराचर जीव भला भगवदीय अनुग्रहसे कैसे वंचित हो सकते हैं? इसीलिये परमात्माकी कृपा तो हिंसक अहिंसक, आस्तिक नास्तिक, धार्मिक-अधार्मिक, छोटे-बड़े, निर्धन-धनी, राजा-रंक, कुरूप सुरूप, ज्ञानी अज्ञानी, निर्बल-सबल सभी प्राणियोंपर समानरूपसे विद्यमान है ही। जैसे सूर्यका प्रकाश सभी प्राणियोंको भेदभावरहित होकर समानरूपसे प्राप्त है; जैसे पुष्पोंकी सुगन्ध सभीको सहज प्राप्त है; जैसे वर्षाका जल पात्रापात्रका विचार नहीं करता; जैसे एक अध्यापक कक्षामें उपस्थित सभी छात्रोंको समान उपदेश करता है, परंतु परिणाम भिन्न आते हैं। इसी प्रकार कृपानुभव भिन्नतया होते हैं।

कृपानुभूतिमें भिन्नताका कारण भगवान् नहीं, अपितु मनुष्यकी अपनी प्रवृत्तियाँ ही हैं।

जैसे कि हम पौराणिक आख्यानोंसे जानते हैं कि तपस्या करते समय प्रायः सभी साधकोंकी चित्तवृत्ति संयमित, साधनाकी दृढ़ता विलक्षण, संकल्पके प्रति पूर्ण समर्पण देखे जाते हैं। फिर चाहे वह नर, सुर-असुर, दैत्य-दानव, यक्ष-राक्षस, नाग, पितर, गन्धर्व ही क्यों न हो।

अपितु सात्त्विक जनोंकी अपेक्षा रजोगुणी - तमोगुणी साधक अति कठिन तप करते हैं। जैसे हिरण्यकशिपु आदि । भागवतकार कहते हैं— हिरण्यकशिपुके निरन्तर तीव्र तपके कारण उसके सिरसे सधूम आगकी लपटें उठने लगीं, जिससे सभी दिशाएँ जल-सी उठीं। तस्य मूर्ध्नः समुद्भूतः सधूमोऽग्निस्तपोमयः । तिर्यगूर्ध्वमधोलोकान्

अतपद्विष्वगीरितः ॥
।।

(७/३/४)
समग्र प्रकृति क्षुब्ध हो उठी।

निपेतुः सग्रहास्तारा जज्वलुश्च दिशो दश ।।

आकाशके तारे टूटकर गिरने लगे। देवगण स्वर्ग छोड़कर ब्रह्माजी के समीप आये। तेन तप्ता दिवं त्यक्त्वा ब्रह्मलोकं ययुः सुराः ॥

(७।३।४)

रावणादिकेसाधनाकालका वर्णन स्कन्दपुराणमें इस प्रकार है।

रावण ने सदाशिवको प्रसन्न करनेके लिये अपने सिर काट-काटकर ऐसे अर्पित किये, मानों कमलपुष्पचढ़ा रहा है।

सम्वत्सरसहस्त्राच्च स्वशिरो हि महाभुजः । कृत्वा करेण लिङ्गस्य पूजनार्थं समर्पयत् ॥

(स्कन्द० माहे० केदा० ८।४७)

शुम्भ-निशुम्भ, महिषासुर - भस्मासुर हों अथवा अगणित ऋषि महर्षि हों, सबके तप विलक्षण ही रहे हैं। महत्त्व तपका नहीं, महत्त्व उद्देश्यका है- लक्ष्यका है। रत्नाकर तप करके महर्षि वाल्मीकि बनते और लोकोपकारक, सकलकल्मषविनाशक, अमोघ और अखण्डप्रसाद रामायण प्रदान करते हैं।

इसी प्रकार सात्विक वृत्तिके तपका फल लोकमंगलहोता है।

सर्वे भवन्तु सुखिनः ""

प्राणियोंमें सद्भावना हो, विश्वका कल्याण हो ।

जैसा कि प्रह्लादजी कहते हैं

स्वस्त्यस्तु विश्वस्य खलः प्रसीदतां ध्यायन्तु भूतानि शिवं मिथो धिया (श्रीमद्भा० ५।१८।९)

विश्वका कल्याण हो, दुर्जन भी अपनी दुर्जनतामयी खिन्नताको त्यागकर सज्जनतामयी प्रसन्नताको प्राप्त हों, सभी प्राणी परस्पर प्रीतिपूर्ण हितभाव रखें।

दूसरी ओर नकारात्मक प्रवृत्तिके साधकोंकी तपस्याका उद्देश्य रहा है कि बस मैं सुखी रहूँ। मैं कभी मकै नहीं। मैं कभी हाऊँ नहीं मैं सबको मार हूँ। मैं सबको हरा दूँ।

'हम काढू के मरहिं न मारें" (श्रीरामचरितमानस)
मैं सबसे शक्तिशाली एवं सम्पत्तिशाली बन जाऊँ। मैं सबका शासक बनूँ, किसीके द्वारा शासित नहीं। इस प्रवृत्तिका दुष्परिणाम यह है कि 'मैं-मैं-मैं-मैं' करता हुआ अभिमानादिसमारूढ़ व्यक्ति सत्य सुनना, सत्य देखना, सत्य अनुभव करना भूलकर स्वयंको सर्वज्ञ सर्वसमर्थ मान बैठता है। अन्ततः शोषक बनकर समाजको आतंकित करता हुआ उसे अराजकताकी आगमें झोंक देता है।

अतः साधना कालकी भाँति साधनाके उपरान्त अर्थात् कृपानुभूतिके पश्चात् हमारे साधना पथमें कृत्रिमता नहीं आनी चाहिये। समाजमें हमारी प्रतिष्ठा बढ़े, तदर्थ हमें आत्मप्रशंसा नहीं करनी चाहिये। भगवदीय भावोंके अनुभवोंको जहाँ-कहाँ भी कहना नहीं चाहिये हमारी सात्त्विकता, आस्तिकता, विनम्रता, शुचिता, निरभिमानता कभी कम नहीं होनी चाहिये। सज्जनोंका साधनाकालका जीवन तथा सिद्धिप्राप्ति के पश्चात्का जीवन एक समान ही रहता है। उसमें कोई परिवर्तन नहीं होता। जबकि आसुरी प्रवृत्तिवालोंका साधनाकाल अति कठोर तपश्चर्यासे युक्त होता है। सफलता मिलनेपर उनमें विकृति आती है। इस प्रकारके उदाहरणोंसे समग्र इतिहास भरा है।

कृपानुभूतिके उपरान्त परमात्मासे संसार मत माँगो । प्रह्लादजी भगवान् के बारम्बार आग्रह करनेपर भी क्या माँगते हैं, देखो..

यदि रासीश मे कामान् वरांस्त्वं वरदर्षभ । कामानां हृद्यसंरोहं भवतस्तु वृणे वरम् ॥

(श्रीमद्भा० ७। १०।७)

हे वरदायक प्रभो! यदि आप मुझे अभीष्ट वर देना ही चाहते हैं; तो मैं वर माँगता हूँ कि मेरे हृदयमें कोई कामनाका अंकुर ही न उगे।

इस बातको सुनकर भगवान्‌का हृदय; जो प्रह्लादकी भक्तिसे अत्यन्त द्रवित तो था ही, सोचो कितना भावुकहुए होंगे भगवान्।

ये विचार इसलिये आवश्यक है क्योंकि यदि हम सफल होनेपर अभिमानवश अथवा अज्ञानवश अनर्थ पथपर व्यर्थ चल पड़े, तो इससे हमारा अकेलेका विनाशनहीं होता, अपितु जैसे एक सड़ा-गला फल समीपवर्ती अनेक फलोंको नष्ट कर देता है, ठीक वैसे ही हमारे कदाचारका दुष्परिणाम हमारे सम्पर्क से दूर-दूरतक दुर्गन्धका प्रसारकर अनेक जीवनोंका विनाशक बन जाता है। और अन्तमें इतना ही कि हमारी साधनाका,सिद्धिका, चेतनाका, चमत्कृतिका, हमारे अस्तित्वका रे होना मानवताके हितार्थ हो, राष्ट्रोत्कर्षका विधायक हो। सात्त्विकता और आस्तिकताका विस्तारक हो । शाश्वत सनातन संस्कृतिके प्रवाहका परिवर्धक हो।

नारायण ! नारायण !! नारायण !!!



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Real Life Experience प्रभुकृपा


bhagavaan kee kripa kise kahate hain? isake lie ham kya karen?

sabase pahale jijnaasa hotee hain ki kripa kise kahate hain.

kripaa

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atapadvishvageeritah ..
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(7/3/4)
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(7.3.4)

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(skanda0 maahe0 kedaa0 8.47)

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jaisa ki prahlaadajee kahate hain

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vishvaka kalyaan ho, durjan bhee apanee durjanataamayee khinnataako tyaagakar sajjanataamayee prasannataako praapt hon, sabhee praanee paraspar preetipoorn hitabhaav rakhen.

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yadi raaseesh me kaamaan varaanstvan varadarshabh . kaamaanaan hridyasanrohan bhavatastu vrine varam ..

(shreemadbhaa0 7. 10.7)

he varadaayak prabho! yadi aap mujhe abheesht var dena hee chaahate hain; to main var maangata hoon ki mere hridayamen koee kaamanaaka ankur hee n uge.

is baatako sunakar bhagavaan‌ka hridaya; jo prahlaadakee bhaktise atyant dravit to tha hee, socho kitana bhaavukahue honge bhagavaan.

ye vichaar isaliye aavashyak hai kyonki yadi ham saphal honepar abhimaanavash athava ajnaanavash anarth pathapar vyarth chal pada़e, to isase hamaara akeleka vinaashanaheen hota, apitu jaise ek sada़aa-gala phal sameepavartee anek phalonko nasht kar deta hai, theek vaise hee hamaare kadaachaaraka dushparinaam hamaare sampark se doora-dooratak durgandhaka prasaarakar anek jeevanonka vinaashak ban jaata hai. aur antamen itana hee ki hamaaree saadhanaaka,siddhika, chetanaaka, chamatkritika, hamaare astitvaka re hona maanavataake hitaarth ho, raashtrotkarshaka vidhaayak ho. saattvikata aur aastikataaka vistaarak ho . shaashvat sanaatan sanskritike pravaahaka parivardhak ho.

naaraayan ! naaraayan !! naaraayan !!!

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शिव समा रहे मुझमें
और मैं शून्य हो रहा हूँ
मुझे चढ़ गया राधा रंग रंग, मुझे चढ़ गया
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फाग खेलन बरसाने आये हैं, नटवर नंद
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बोलो राम राम राम, बोलो श्याम श्याम
रंगीलो राधावल्लभ लाल, जै जै जै श्री
विहरत संग लाडली बाल, जै जै जै श्री
अपने दिल का दरवाजा हम खोल के सोते है
सपने में आ जाना मईया,ये बोल के सोते है
मीठे रस से भरी रे, राधा रानी लागे,
मने कारो कारो जमुनाजी रो पानी लागे
आप आए नहीं और सुबह हो मई
मेरी पूजा की थाली धरी रह गई
हो मेरी लाडो का नाम श्री राधा
श्री राधा श्री राधा, श्री राधा श्री
गोवर्धन वासी सांवरे, गोवर्धन वासी
तुम बिन रह्यो न जाय, गोवर्धन वासी
तेरे दर की भीख से है,
मेरा आज तक गुज़ारा
नगरी हो अयोध्या सी,रघुकुल सा घराना हो
चरन हो राघव के,जहा मेरा ठिकाना हो
श्याम हमारे दिल से पूछो, कितना तुमको
याद में तेरी मुरली वाले, जीवन यूँ ही
हर पल तेरे साथ मैं रहता हूँ,
डरने की क्या बात? जब मैं बैठा हूँ
कैसे जीऊं मैं राधा रानी तेरे बिना
मेरा मन ही न लगे श्यामा तेरे बिना
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दीवानी बन जाउंगी मस्तानी बन जाउंगी,
ये सारे खेल तुम्हारे है
जग कहता खेल नसीबों का
श्री राधा हमारी गोरी गोरी, के नवल
यो तो कालो नहीं है मतवारो, जगत उज्य
मुझे चाहिए बस सहारा तुम्हारा,
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हर साँस में हो सुमिरन तेरा,
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सब दुख दूर हुए जब तेरा नाम लिया
कौन मिटाए उसे जिसको राखे पिया
तीनो लोकन से न्यारी राधा रानी हमारी।
राधा रानी हमारी, राधा रानी हमारी॥
मुझे रास आ गया है, तेरे दर पे सर झुकाना
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