त्रैवर्गिकायासविघातमस्मत्पतिर्विधत्ते पुरुषस्य शक्र । ततोऽनुमेयो भगवत्प्रसादो यो दुर्लभो किशनगोचरोऽन्यैः ॥
((श्रीमद्भा० ६।११।२३) भागवतोत्तम वृत्रासुर इन्द्रसे कहता है-' इन्द्र ! अपने जनका अर्थ, धर्म और कामकी प्राप्तिका प्रयत्न मेरे स्वामी नष्ट कर दिया करते हैं। इससे भगवत्कृपाका अनुमान करना चाहिये। उन अकिंचनगोचर प्रभुके जो नहीं हैं, ऐसी कृपा उनको दुर्लभ है।'
स्वाभाविक रूपसे मनुष्यकी जहाँ महत्त्वबुद्धि है, जहाँ उसका राग है, उस क्षेत्रमें जब उसे अकल्पित ... कभी-कभी आशाके विपरीत सुरक्षा और सहायता मिलती है, तो उसे वह भगवत्कृपा अनुभव करता है।
श्रीमद्भागवतके ऊपर दिये श्लोकमें परमभागवत वृत्रने भगवत्कृपाके दो रूपोंका संकेत दिया है और बड़े दावेसे भगवान्को' अस्मत्पति' अर्थात् 'मेरे अपने स्वामी' कहा है। वृत्रका तात्पर्य है-'भगवान् मेरे अपने स्वामीहैं। मैं उनका स्वभाव जानता हूँ—ठीक-ठीक जानता हूँ।' सामान्य संसारी व्यक्तिपर भगवत्कृपाका अनुभव एक रूपमें उतरता है। उसे रोग या शत्रुसे अथवा किसी दुर्घटनासे सुरक्षा अकस्मात् मिलती है। कहीं कोई अकल्पित आर्थिक सहायता या अनुमान न हो सके, ऐसी सुख सुविधा उपलब्ध हो जाती है।
सवपर भगवत्कृपा
गीता बगीचीमें प्रात:कालीन सत्संगका समय था। उस दिन स्वामी रामसुखदासजीको बोलना था। उन्होंने श्रोताओंसे पूछा- 'क्या सुनाऊँ ?'
लोगोंने कहा- 'अपने अनुभवको कोई बात सुनाइये।' 'मेरा कोई विलक्षण अनुभव नहीं है'- स्वामी रामसुखदासजीने बड़ी नम्रतासे यह कहा। लेकिन श्रोता आग्रह कर रहे थे। सत्संगका समय कुल डेढ़ घण्टा था कीर्तनसहित। वह बीता जा रहा था। मुझसे नहीं रहा गया तो मैंने आज्ञा माँगकर कहा-'मेरा विश्वास है और मैंने किसी संतसे सुना भी है कि आस्तिक-नास्तिक,पापी-पुण्यात्मा ऐसा कोई वयस्क मनुष्य संसारमें न कभी सहायता । हुआ, न है, न होगा, जिसे जीवनमें एक-दो बार ऐसा न लगा हो कि उसे यह कोई अदृश्य शक्तिकी मिली है। पीछे भले उसे वह भूल जाय या संयोग (बाईचान्स) कहकर टाल दे, किंतु उस समय तो उसे लगा अवश्य कि यह सहायता किसी अदृश्य शक्तिकी प्रेरणासे आयी है।'
अपनी बात समाप्त करते हुए मैंने कहा- 'आप कहते हैं कि आपको कोई अनुभव नहीं है। मैं कहता हूँ कि यहाँ जितने लोग बैठे हैं, सबके पास भगवत्कृपाके अनुभव हैं। अब मैं सच हूँ या नहीं, यह आप निर्णय कर दें।'
स्वामी रामसुखदासजीने स्वीकार किया कि मेरी बात ठीक है। उन्होंने जानबूझकर दो एक बहुत साधारण अनुभव अपने सुनाये, क्योंकि वे अपनी विनम्रताके कारण बहुत संकुचित हो रहे थे।
भगवान् अपार कृपापारावार हैं। उनकी अनन्त असीम कृपा प्रत्येक क्षण, प्रत्येक प्राणीपर अहर्निश बरस रही है। हम सब उसी कृपासागरमें उन्मज्जित-निमज्जित हो रहे हैं। भगवान्की कृपा कभी किसीपर होगी, ऐसी कोई बात नहीं है। कृपा तो रात-दिन है।
'माताका प्रेम अपने इकलौते नवजात बच्चेपर कब उतरेगा ?' - ऐसा प्रश्न कोई आपसे करेगा तो आप उसे पागल समझोगे या नहीं? माताका वात्सल्य तो उस शिशुपर असीम, अनन्त रात-दिन है ही। प्रश्न यह है कि बच्चा उसे अनुभव कब करेगा ?
बच्चेको जब भूख लगती है, कहीं गिरकर चोट लगती है या गिरनेपर उठानेकी आवश्यकता होती है, कहीं उसे भय लगता है तो अनेक बार उसके पुकारे बिना ही और कभी-कभी रोने-पुकारनेपर माँ उसकी सहायता करने आ जाती है। बच्चा उस समय समझता है कि उसपर माँका प्रेम उतरा। हम-आप भी अबोध बच्चे हैं। निरन्तर जिसकीकृपासे श्वास ले रहे हैं, जिसकी कृपासे जी रहे हैं, उसके सम्बन्धमें कहते हैं-'हमपर भगवान्की कृपा कब होगी ?'
जब कोई अभाव या संकट हमपर आ पड़ता है और उसे पूरा करना या टालना हमारे वशमें नहीं होता तो हमपर सदा स्नेहदृष्टि रखनेवाला सर्वज्ञ, सर्व-समर्थ कभी बिना पुकारे-बुलाये ही और कभी-कभी पुकारने बुलानेपर सहायता करने आ जाता है। हमें तब अनुभव होता है कि यह भगवत्कृपा हमपर हुई।
भगवत्कृपाका अनुभव कब बच्चा खा-पीकर खेलनेमें लगा है तो उसे माताकीकृपाका कोई अनुभव होगा ?
अपनी सम्पूर्ण व्यवस्था करके, जीवनकी सब आवश्यक सुविधाएँ जुटाकर आप घरमें सुरक्षित बैठे हैं या सीट सुरक्षित करके, होटलोंमें कमरे पहलेसे सुरक्षित कराके आप कहीं यात्रा करते हैं तो क्या अवसर है कि आपको भगवत्कृपाका अनुभव हो ? फिर तो कोई आकस्मिक दुर्घटना, कोई रोग, शत्रु या ऐसा ही कोई संकट जो आपकी सावधानीको बचाकर आ टपके और आपके साधनोंके वशका न हो, आपको भगवदीय सहायताका अनुभव करा पाता है।
आप अपने पूरे प्रयत्नसे, सब साधन, शक्ति औरबुद्धि लगाकर ऐसे अवसर जीवनमें न आवें, इसमें लगे हैं। फलतः जीवनमें बहुत ही कम अवसर आपको भगवत्कृपानुभवके प्राप्त होते हैं।
जो दुर्गम पर्वतों, ध्रुवीय हिमप्रदेशों, अतल सागरों और गहन अन्तरिक्षकी यात्रा करते हैं, जो साहसिक कार्यों में उत्साह रखते हैं, वे भले नास्तिक हों, उन्हें एक आश्रम में सुरक्षित रहकर साधन करनेवालेकी अपेक्षा भगवत्कृपाके अनुभव कहीं अधिक होते हैं।
जो अनाश्रित हैं, परिव्राजक हैं, अपरिग्रही हैं, उनके जीवनमें तो भगवत्कृपाके अनुभवोंकी राशि होती है। मैं अपनी ही बात करूँ तो जीवनकी सुरक्षा तथा छोटी-बड़ी सुविधाओंके जुटाते रहनेके इतने अवसरआये हैं, आते रहते हैं कि उनमें अधिकांश स्मरण ही नहीं हैं। जो स्मरण हैं, उनको लिखने बैठूं तो एक बहुत बड़ा पोथा बनेगा।
सच बात यह है कि मेरे लिये अब यह अकस्मात् होनेवाली, चौकानेवाली बात नहीं रही है। मुझे सन्देह नहीं है कि कन्हाई मेरा अपना है, और तब वह मेरी व्यवस्थाके प्रति सावधान रहता है तो अद्भुत क्या है ? मैं आपमें से किसीके घर सूचना देकर आऊँ तो आप मेरे ठहरने, भोजन आदिको व्यवस्था करोगे, इसमें क्या कोई ऐसी बात है, जो स्मरण रखने या चौंकनेयोग्य हो ? मेरे अव्यवस्थित, एकाकी जीवनने सिखा दिया है कि तेरी व्यवस्था-रक्षाका दायित्व तेरे कन्हाईके हाथमें है। अतः वह अब कृपा नहीं, स्वत्व बन गया है। उसकी चर्चाका कुछ अर्थ नहीं है।
विशेष भगवत्कृपा
वृत्रने दो प्रकारकी भगवत्कृपाको संकेत दिया है। एक कृपा तो सबपर सामान्य रूपसे है। जो जब संकटमें पड़ता है, उसे यह मिल जाती है। अधिकांश इसी कृपाको लोग भगवत्कृपा समझते कहते हैं। दूसरी विशेष कृपा सर्वसामान्यके लिये दुर्लभ है। वे अकिंचनगोचर प्रभु सबपर यह विशेष कृपा करते भी नहीं हैं; अतः आपके डरनेका कोई कारण नहीं। जिसे वे अपना स्वीकार कर लेते हैं, केवल उसीपर अपनी विशेष कृपा करते हैं। उनकी विशेष कृपाको कृपा देखने-समझनेवाले महाभाग भी संसारमें घोड़े ही होते हैं।
भगवान्की विशेष कृपा क्या है? यह कि उनका अपना जन जब अर्थोपार्जन, कीर्तिपद प्रतिष्ठा या भोग एकत्र करनेमें लगता है तो उसके ऐसे सब प्रयत्न वे नष्ट कर देते हैं।
बात कम समझमें आती है? तनिक सोचिये प्रभु संसारके बन्धन दें- बन्धनोंमें जकड़ें तो कृपा या बन्धनों से मुक्त करें तो कृपा ? धन-भवन, पत्नी-पुत्र, पद-प्रतिष्ठादि रागके बन्धन है या नहीं ? बन्धन करें भी नहीं और आप मुक्त भी हो जायें सम्भव है?मुझपर ऐसी विशेष कृपा-दृष्टि मेरे कन्हाईकी जन्मसे रही है और उसकी यह कृपा भूल जाऊँ तो मैं कृतघ्न होऊँगा ।
१ - बारह-तेरह वर्षका था, तब पिताजी मरे। माताजी एक वर्ष पूर्व विदा हो गयी थीं। छोटे भाईका भार भी मुझपर पड़ा। घर गरीब था - यह भी आप ठीक नहीं समझ सकोगे। घर था ही नहीं भी कह सकते हैं। यह प्रथम कृपा थी। बन्धन दिये ही नहीं; बन्धन बनते, इससे पहले ही वे उठा लिये गये।
२- दूसरी महती कृपा - बड़े प्रभावशाली एक सम्बन्धी थे। उच्चपदपर थे। एक हाईस्कूलके सर्वेसर्वा थे । बचपनमें वे मेरे घर रहकर पले-पढ़े थे। उनके पास गया—'फीस माफ करा दो आप, तो अंग्रेजी पढ़ लूँ।'उन्होंने टके-सा जवाब दे दिया। शिक्षा अवरुद्ध हो गयी। अब सोचता हूँ-पढ़ाई चली होती तो तेरे बन्धन कितने बढ़ते - तू अब सोच भी नहीं पायेगा।
३- तीन बार अवसर आये- बुद्धि डोली और विवाहकी बात प्रायः पक्की हो गयी। तीनों बार वह ऐसे कटी कि पूछो मत।
४- साहित्य-राजनीतिके क्षेत्रमें कई पुस्तकें लिखीं। लगता है, वे छपतीं तो महत्ता देतीं। आप विश्वास करोगे - कि उन सबकी पांडुलिपियाँ खो जाती रही हैं?
केवल इसलिये ये उदाहरण हैं कि विशेष भगवत्कृपाका रूप कैसा होता है, यह आपके ध्यानमें कुछ आ जाय।
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vishesh bhagavatkripaa
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bhagavaankee vishesh kripa kya hai? yah ki unaka apana jan jab arthopaarjan, keertipad pratishtha ya bhog ekatr karanemen lagata hai to usake aise sab prayatn ve nasht kar dete hain.
baat kam samajhamen aatee hai? tanik sochiye prabhu sansaarake bandhan den- bandhanonmen jakada़en to kripa ya bandhanon se mukt karen to kripa ? dhana-bhavan, patnee-putr, pada-pratishthaadi raagake bandhan hai ya naheen ? bandhan karen bhee naheen aur aap mukt bhee ho jaayen sambhav hai?mujhapar aisee vishesh kripaa-drishti mere kanhaaeekee janmase rahee hai aur usakee yah kripa bhool jaaoon to main kritaghn hooonga .
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3- teen baar avasar aaye- buddhi dolee aur vivaahakee baat praayah pakkee ho gayee. teenon baar vah aise katee ki poochho mata.
4- saahitya-raajaneetike kshetramen kaee pustaken likheen. lagata hai, ve chhapateen to mahatta deteen. aap vishvaas karoge - ki un sabakee paandulipiyaan kho jaatee rahee hain?
keval isaliye ye udaaharan hain ki vishesh bhagavatkripaaka roop kaisa hota hai, yah aapake dhyaanamen kuchh a jaaya.