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आसक्तिका अन्तर  [आध्यात्मिक कहानी]
Shikshaprad Kahani - Hindi Story (Spiritual Story)

एक नरेशकी श्रद्धा हो गयी एक महात्मापर। नरेशने संतकी सेवाका महत्त्व सुना था। वे राजा थे, अतः अपने ढंगसे वे सेवा करनेमें लग गये। अपने राजभवनके समान भवन उन्होंने महात्माके लिये बनवा दिया। अपने उद्यान - जैसा उद्यान लगवा दिया। अपनी सवारियाँ जैसी सवारियाँ, हाथी, घोड़े आदि रख दिये उनकीसेवामें । एक रानी तो वे महात्माके लिये नहीं दिलवा सके, परंतु सेवक, शय्या, वस्त्र एवं दूसरी सब सुख सामग्री उन्होंने महात्माके लिये भी वैसी ही जुटा दी जैसी उनके पास थी ।

एक दिन नरेश महात्माके साथ घूमने निकले। उन्होंने पूछ लिया- 'भगवन्! अब आपमें और मुझमेंअन्तर क्या रहा है ?'

संतने समझ लिया कि राजा बाहरी त्यागको महत्ता देकर यह प्रश्न कर रहा है; किंतु प्रश्नका उत्तर न देकर बोले- 'तनिक आगे चलो, फिर बताऊँगा । '

'भगवन्! कितनी दूर चलेंगे! अब लौटना चाहिये। हमलोग नगरसे दूर निकल आये हैं।' राजाने प्रार्थना की; क्योंकि महात्मा तो चले ही जा रहे थे। वे रुकनेका नाम ही नहीं लेते थे और राजा थक चुके थे। उन्हें स्मरण आ रहा था आजका राज्यकार्य, जिसमें विलम्ब करना हानिकर लगता था ।

संतने कहा- 'अब लौटकर ही क्या करना है ? मेरी इच्छा तो लौटनेकी है नहीं। चलो, वनमें चलें।वहाँ भगवान्का भजन करेंगे। सुख तो बहुत दिन भोग चुके ।'

राजाने घबराकर हाथ जोड़े - 'भगवन्! मेरे स्त्री है, पुत्र और राज्यकी भी मैंने कोई व्यवस्था नहीं की है। वनमें रहने-जैसा साहस भी अभी मुझमें नहीं है। मैं इस प्रकार कैसे चल सकता हूँ ! '

संत हँसे—'राजन्! मुझमें और तुममें यही अन्तर है। बाहरसे एक-जैसा व्यवहार रहते हुए भी हृदयका अन्तर ही मुख्य अन्तर होता है । भोगोंमें जो आसक्त है, वह वनमें रहकर भी संसारी है और जो उनमें आसक्त नहीं, वह घरमें रहकर भी विरक्त ही है। अच्छा, अब तुम राजधानी पधारो !' – सु0 सिं0



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aasaktika antara

ek nareshakee shraddha ho gayee ek mahaatmaapara. nareshane santakee sevaaka mahattv suna thaa. ve raaja the, atah apane dhangase ve seva karanemen lag gaye. apane raajabhavanake samaan bhavan unhonne mahaatmaake liye banava diyaa. apane udyaan - jaisa udyaan lagava diyaa. apanee savaariyaan jaisee savaariyaan, haathee, ghoda़e aadi rakh diye unakeesevaamen . ek raanee to ve mahaatmaake liye naheen dilava sake, parantu sevak, shayya, vastr evan doosaree sab sukh saamagree unhonne mahaatmaake liye bhee vaisee hee juta dee jaisee unake paas thee .

ek din naresh mahaatmaake saath ghoomane nikale. unhonne poochh liyaa- 'bhagavan! ab aapamen aur mujhamenantar kya raha hai ?'

santane samajh liya ki raaja baaharee tyaagako mahatta dekar yah prashn kar raha hai; kintu prashnaka uttar n dekar bole- 'tanik aage chalo, phir bataaoonga . '

'bhagavan! kitanee door chalenge! ab lautana chaahiye. hamalog nagarase door nikal aaye hain.' raajaane praarthana kee; kyonki mahaatma to chale hee ja rahe the. ve rukaneka naam hee naheen lete the aur raaja thak chuke the. unhen smaran a raha tha aajaka raajyakaary, jisamen vilamb karana haanikar lagata tha .

santane kahaa- 'ab lautakar hee kya karana hai ? meree ichchha to lautanekee hai naheen. chalo, vanamen chalen.vahaan bhagavaanka bhajan karenge. sukh to bahut din bhog chuke .'

raajaane ghabaraakar haath joda़e - 'bhagavan! mere stree hai, putr aur raajyakee bhee mainne koee vyavastha naheen kee hai. vanamen rahane-jaisa saahas bhee abhee mujhamen naheen hai. main is prakaar kaise chal sakata hoon ! '

sant hanse—'raajan! mujhamen aur tumamen yahee antar hai. baaharase eka-jaisa vyavahaar rahate hue bhee hridayaka antar hee mukhy antar hota hai . bhogonmen jo aasakt hai, vah vanamen rahakar bhee sansaaree hai aur jo unamen aasakt naheen, vah gharamen rahakar bhee virakt hee hai. achchha, ab tum raajadhaanee padhaaro !' – su0 sin0

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