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प्रलोभनसे अविचलित रहनेका गौरव-बोध  [हिन्दी कथा]
बोध कथा - Spiritual Story (आध्यात्मिक कथा)

प्रलोभनसे अविचलित रहनेका गौरव-बोध

सौराष्ट्रके एक छोटे से राज्यकी पुराने जमानेकी बात है। बन्दरगाहके अधिकारके विषयमें अंग्रेजोंके साथ एक शर्तनामा तैयार करना था और इस कामके ● लिये सरकारी कर्मचारी उस राज्यमें आया था। दीवानको राज्यके हितके लिये उसमें कुछ छूट करानी थी। इसलिये उसने उस कर्मचारीको ललचानेकी चेष्टा की और कहा- 'इतना काम आप कर दें तो मैं इसके बदले दस हजार रुपये आपको दूँगा।' उस कर्मचारीने निषेधात्मक सिर हिलाया। दीवानने बीस हजार देनेके लिये कहा, उसपर भी वह कर्मचारी राजी न हुआ। बीसकी पचास हजार लिये तैयार होनेपर भी कोई फल न निकला। दीवानको तो किसी तरह काम था। इसलिये उसने एक-मुश्त एक लाख देनेके लिये कहा। दीवानके मनमें आया कि अब तो वह कर्मचारी अवश्य झुकेगा और अपना काम बन जायगा, परंतु उस कर्मचारीने दृढ़तापूर्वक नकारात्मक ही उत्तर दिया। दीवानके क्रोधका पार न रहा और वह गरजकर बोला 'साहब! इतना देनेवाला आपको कोई न मिलेगा, यह याद रखियेगा और फिर जैसी मर्जी हो, वैसा कीजियेगा।' उत्तर देते हुए उस कर्मचारीने शान्तिसे कहा- 'दीवान साहब! इतनी बड़ी रकम देनेवाले आप तो मुझे मिल ही गये। बल्कि कुछ और माँगें तो वह भी आप मुझे दे सकते हैं, ऐसा मैं समझता हूँ, परंतु लिख रखिये कि अपनी टेक रखनेमें इतनी बड़ी रकमको इतने बड़े प्रलोभनको ठोकर मारनेवाला भी आपको दूसरा कोई न मिलेगा।' [ स्वामी श्रीचिदानन्दजी सरस्वती, सिहोरवाले]



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pralobhanase avichalit rahaneka gaurava-bodha

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