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विद्या अध्ययन करनेसे ही आती है।  [बोध कथा]
आध्यात्मिक कहानी - Spiritual Story (Wisdom Story)

कनखलके समीप गङ्गा-किनारे थोड़ी दूरके अन्तरसे महर्षि भरद्वाज तथा महर्षि रैभ्यके आश्रम थे। दोनों महर्षि परस्पर घनिष्ठ मित्र थे। रैभ्यके अर्वावसु और परावसु नामके दो पुत्र हुए। ये दोनों ही अपने पिताके समान शास्त्रोंके गम्भीर विद्वान् हुए। भरद्वाजजी तपस्वी थे। अध्ययन-अध्यापनमें उनकी रुचि नहीं थी। शास्त्रज्ञ न होनेके कारण उनकी ख्याति भी रैभ्यकी अपेक्षा कम थी। उनके एक पुत्र थे यवक्रीत । पिताके समान यवक्रीत भी अध्ययनसे अलग ही रहे। परंतु यवक्रीतको अपने पिताकी समाजद्वारा उपेक्षा और रैभ्य तथा उनकेपुत्रोंका सम्मान देखकर बड़ा दुःख होता था । अन्तमें सोच-समझकर उन्होंने वैदिक ज्ञान प्राप्त करनेके लिये उग्र तप प्रारम्भ किया । पञ्चाग्नि तापते हुए वे प्रज्वलित अग्निसे अपना शरीर संतप्त करने लगे।

यवक्रीतका कठोर तप देखकर देवराज इन्द्र उनके पास आये और उनसे इस तपका कारण पूछने लगे। यवक्रीतने बताया- 'गुरुके मुखसे वेदोंकी सम्पूर्ण शिक्षा शीघ्र नहीं पायी जा सकती, इसलिये मैं तपके प्रभावसे ही सम्पूर्ण वेद-शास्त्रोंका ज्ञान प्राप्त करना चाहता हूँ।' इन्द्र ने कहा- 'आपने सर्वथा उलटा मार्ग पकड़ाहै । गुरुके पास जाकर अध्ययन कीजिये। इस प्रकार व्यर्थ आत्म-हत्या करनेसे क्या लाभ ।'

इन्द्र तो चले गये; किंतु यवक्रीतने तपस्या छोड़ी नहीं। उन्होंने और कठोर तप प्रारम्भ कर दिया। देवराज दया करके फिर पधारे और बोले- 'ब्राह्मण! आपका यह उद्योग बुद्धिमत्तायुक्त नहीं है। किसीको गुरुमुखसे पढ़े बिना विद्या प्राप्त भी हो तो वह सफल नहीं होती। आप अपने दुराग्रहको छोड़ दें।'

जब देवराज यह आदेश देकर चले गये, तब यवक्रीतने निश्चय किया कि वे अपने अङ्ग-प्रत्यङ्ग काटकर अग्रिमें हवन कर देंगे। उन्होंने तपस्यासे ही विद्या पानेका आग्रह रखा। उनका निश्चय जानकर देवराज इन्द्र अत्यन्त वृद्ध एवं रोगी ब्राह्मणका रूप बनाकर वहाँ आये और जहाँ यवक्रीत गङ्गाजीमें स्नान किया करते थे, उसी स्थानपर गङ्गाजीमें बालू डालने लगे।

यवक्रीत जब स्नान करने आये तब उन्होंने देखा कि एक दुर्बल वृद्ध ब्राह्मण अञ्जलिमें बार-बार रेतलेकर गङ्गामें डाल रहा है। उन्होंने पूछा- 'विप्रवर ! आप क्या कर रहे हैं ?'

वृद्ध ब्राह्मणने उत्तर दिया- 'लोगोंको यहाँ गङ्गाके उस पार जानेमें बड़ा कष्ट होता है, इसलिये मैं गङ्गापर पुल बाँध देना चाहता हूँ ।'

यवक्रीत बोले—‘भगवन्! आप इस महाप्रवाहको बालूसे किसी प्रकार बाँध नहीं सकते। इसलिये इस असम्भव कार्यको छोड़कर जो कार्य हो सके उसके लिये प्रयत्न कीजिये ।'

अब वृद्धने घूमकर यवक्रीतकी ओर देखा- 'तुम जैसे तपस्याके द्वारा वैदिक ज्ञान प्राप्त करना चाहते हो, वैसे ही मैं यह कार्य कर रहा हूँ। तुम असाध्यको यदि साध्य कर सकोगे तो मैं क्यों नहीं कर सकूँगा ।'

ब्राह्मण कौन है, यह यवक्रीत समझ गये। उन्होंने नम्रतापूर्वक कहा - 'देवराज! मैं अपनी भूल समझ गया। आप मुझे क्षमा करें।'


-सु0 सिं0

(महाभारत, वन0 135)



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vidya adhyayan karanese hee aatee hai.

kanakhalake sameep gangaa-kinaare thoda़ee doorake antarase maharshi bharadvaaj tatha maharshi raibhyake aashram the. donon maharshi paraspar ghanishth mitr the. raibhyake arvaavasu aur paraavasu naamake do putr hue. ye donon hee apane pitaake samaan shaastronke gambheer vidvaan hue. bharadvaajajee tapasvee the. adhyayana-adhyaapanamen unakee ruchi naheen thee. shaastrajn n honeke kaaran unakee khyaati bhee raibhyakee apeksha kam thee. unake ek putr the yavakreet . pitaake samaan yavakreet bhee adhyayanase alag hee rahe. parantu yavakreetako apane pitaakee samaajadvaara upeksha aur raibhy tatha unakeputronka sammaan dekhakar bada़a duhkh hota tha . antamen socha-samajhakar unhonne vaidik jnaan praapt karaneke liye ugr tap praarambh kiya . panchaagni taapate hue ve prajvalit agnise apana shareer santapt karane lage.

yavakreetaka kathor tap dekhakar devaraaj indr unake paas aaye aur unase is tapaka kaaran poochhane lage. yavakreetane bataayaa- 'guruke mukhase vedonkee sampoorn shiksha sheeghr naheen paayee ja sakatee, isaliye main tapake prabhaavase hee sampoorn veda-shaastronka jnaan praapt karana chaahata hoon.' indr ne kahaa- 'aapane sarvatha ulata maarg pakada़aahai . guruke paas jaakar adhyayan keejiye. is prakaar vyarth aatma-hatya karanese kya laabh .'

indr to chale gaye; kintu yavakreetane tapasya chhoda़ee naheen. unhonne aur kathor tap praarambh kar diyaa. devaraaj daya karake phir padhaare aur bole- 'braahmana! aapaka yah udyog buddhimattaayukt naheen hai. kiseeko gurumukhase padha़e bina vidya praapt bhee ho to vah saphal naheen hotee. aap apane duraagrahako chhoda़ den.'

jab devaraaj yah aadesh dekar chale gaye, tab yavakreetane nishchay kiya ki ve apane anga-pratyang kaatakar agrimen havan kar denge. unhonne tapasyaase hee vidya paaneka aagrah rakhaa. unaka nishchay jaanakar devaraaj indr atyant vriddh evan rogee braahmanaka roop banaakar vahaan aaye aur jahaan yavakreet gangaajeemen snaan kiya karate the, usee sthaanapar gangaajeemen baaloo daalane lage.

yavakreet jab snaan karane aaye tab unhonne dekha ki ek durbal vriddh braahman anjalimen baara-baar retalekar gangaamen daal raha hai. unhonne poochhaa- 'vipravar ! aap kya kar rahe hain ?'

vriddh braahmanane uttar diyaa- 'logonko yahaan gangaake us paar jaanemen bada़a kasht hota hai, isaliye main gangaapar pul baandh dena chaahata hoon .'

yavakreet bole—‘bhagavan! aap is mahaapravaahako baaloose kisee prakaar baandh naheen sakate. isaliye is asambhav kaaryako chhoda़kar jo kaary ho sake usake liye prayatn keejiye .'

ab vriddhane ghoomakar yavakreetakee or dekhaa- 'tum jaise tapasyaake dvaara vaidik jnaan praapt karana chaahate ho, vaise hee main yah kaary kar raha hoon. tum asaadhyako yadi saadhy kar sakoge to main kyon naheen kar sakoonga .'

braahman kaun hai, yah yavakreet samajh gaye. unhonne namrataapoorvak kaha - 'devaraaja! main apanee bhool samajh gayaa. aap mujhe kshama karen.'


-su0 sin0

(mahaabhaarat, vana0 135)

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