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स्वामी विवेकानन्दके जीवनके कतिपय प्रेरक-प्रसंग  [Spiritual Story]
Moral Story - हिन्दी कहानी (बोध कथा)

स्वामी विवेकानन्दके जीवनके कतिपय प्रेरक-प्रसंग

(डॉ0 श्रीसुरेशचन्द्रजी शर्मा, एम0एससी0 (एजी0), पी-एच0डी0)

अलवरके महाराजके साथ भेंट
एक निर्भय जीवन
स्वामी विवेकानन्द सन् 1890 ई0 में कोलकातासे एक परिव्राजक संन्यासीके रूपमें भारतकी यात्रापर निकल पड़े। इस भ्रमणकालमें स्वामीजी समाजके हर स्तरके लोगोंसे मिलते थे। अलवरमें वे राज्यके दीवानकी जानकारीमें आ गये, जिन्होंने महाराजके साथ उनका परिचय कराया। महाराज अपने विचारों तथा व्यवहारमें अंग्रेजी ढंगके थे। वे अनेक हिन्दू रीति-रिवाजोंके विरोधी भी थे।
एक बार महाराजने स्वामीजीके साथ मूर्तिपूजाका विषय उठाया और परम्पराका उपहास जैसा किया। स्वामीजी कुछ समय शान्त बैठे रहे और फिर दीवानसे दरबारके सभागार में दीवार पर लगे महाराजके तैलचित्रकी इशारा करते हुए पूछा- यह किसका चित्र है ? उत्तर सुनकर कि यह महाराजका चित्र है, उन्होंने दीवानसे चित्र उतरवाकर उसपर थूक देनेके लिये कहा। आश्चर्यचकित और भयभीत होकर दीवान बोला- ऐसा कैसे किया जा सकता है, यह तो महाराजके तिरस्कारके समान है? इसपर स्वामीजीने उससे पूछा- ' इसमें महाराजका तिरस्कार कैसे है, चित्र तो तिरपाल और रंगोंका बना हुआ है।' तदुपरान्त महाराजकी ओर देखते हुए स्वामीजीने कहा- 'जिस प्रकार आपका चित्र होते हुए भी विचारोंके साहचर्यके कारण आप स्वयं न होते
हुए भी इससे जुड़ गये हैं, उसी प्रकार एक विश्वासी भक्तके लिये भगवान्की मूर्ति उसे देवविशेषसे जोड़ देती है तथा उस मूर्तिके माध्यमसे वह उस देवताकी पूजा करता है, मिट्टी या पत्थरकी नहीं।'
जिस स्पष्टता और निर्भयताके साथ स्वामीजीने इस विषयको महाराजके मनमें उतारा, उससे उनके धार्मिक विचारोंमें मोड़ आया और वे मूर्तिपूजाका सम्मान करने लग गये।



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svaamee vivekaanandake jeevanake katipay preraka-prasanga

svaamee vivekaanandake jeevanake katipay preraka-prasanga

(daॉ0 shreesureshachandrajee sharma, ema0esasee0 (ejee0), pee-echa0dee0)

alavarake mahaaraajake saath bhenta
ek nirbhay jeevana
svaamee vivekaanand san 1890 ee0 men kolakaataase ek parivraajak sannyaaseeke roopamen bhaaratakee yaatraapar nikal pada़e. is bhramanakaalamen svaameejee samaajake har starake logonse milate the. alavaramen ve raajyake deevaanakee jaanakaareemen a gaye, jinhonne mahaaraajake saath unaka parichay karaayaa. mahaaraaj apane vichaaron tatha vyavahaaramen angrejee dhangake the. ve anek hindoo reeti-rivaajonke virodhee bhee the.
ek baar mahaaraajane svaameejeeke saath moortipoojaaka vishay uthaaya aur paramparaaka upahaas jaisa kiyaa. svaameejee kuchh samay shaant baithe rahe aur phir deevaanase darabaarake sabhaagaar men deevaar par lage mahaaraajake tailachitrakee ishaara karate hue poochhaa- yah kisaka chitr hai ? uttar sunakar ki yah mahaaraajaka chitr hai, unhonne deevaanase chitr utaravaakar usapar thook deneke liye kahaa. aashcharyachakit aur bhayabheet hokar deevaan bolaa- aisa kaise kiya ja sakata hai, yah to mahaaraajake tiraskaarake samaan hai? isapar svaameejeene usase poochhaa- ' isamen mahaaraajaka tiraskaar kaise hai, chitr to tirapaal aur rangonka bana hua hai.' taduparaant mahaaraajakee or dekhate hue svaameejeene kahaa- 'jis prakaar aapaka chitr hote hue bhee vichaaronke saahacharyake kaaran aap svayan n hote
hue bhee isase juda़ gaye hain, usee prakaar ek vishvaasee bhaktake liye bhagavaankee moorti use devavisheshase joda़ detee hai tatha us moortike maadhyamase vah us devataakee pooja karata hai, mittee ya pattharakee naheen.'
jis spashtata aur nirbhayataake saath svaameejeene is vishayako mahaaraajake manamen utaara, usase unake dhaarmik vichaaronmen moda़ aaya aur ve moortipoojaaka sammaan karane lag gaye.

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