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एकमात्र कर्तव्य क्या है  [प्रेरक कथा]
Short Story - Wisdom Story (Hindi Story)

पुण्डरीक नाम के एक बड़े भगवद्भक गृहस्थ ब्राह्मण थे। साथ ही वे बड़े धर्मात्मा, सदाचारी, तपस्वी तथा कर्मकाण्डनिपुण थे वे माता-पिता सेवक, विषय-भोगोंसे सर्वथा निःस्पृह और बड़े कृपालु थे। एक बार अधिक विरक्तिके कारण वे पवित्र रम्य वन्य तीर्थोंकी यात्राकी अभिलाषासे निकल पड़े। वे केवल कन्द-मूल-शाकादि खाकर गङ्गा, यमुना, गोमती, गण्डक, सरयू, शोण, सरस्वती, प्रयाग, नर्मदा, गया तथा विन्ध्य एवं हिमाचलके पवित्र तीर्थोंमें घूमते हुए शालग्राम क्षेत्र (आजके हरिहर क्षेत्र) पहुंचे और वहाँ पहुँचकर प्रभुकी आराधना में तल्लीन हो गये। वे तो मे हो, आत इस दुष्ट भंगुर वीन रूप आयुष्य आदिसे सर्वथा उपरत होकर सहज ही भगवद्ध्यानमें लीन हो गये और संसारको सर्वथा भूल गये।

देवर्षि नारदजीको जब यह समाचार ज्ञात हुआ, तब उन्हें देखनेकी इच्छासे वे भी वहाँ पधारे। पुण्डरीकने बिना पहचाने ही उनको षोडशोपचार पूजा की औरफिर उनसे परिचय पूछा। जब नारदजीने उन्हें अपना परिचय तथा वहाँ आनेका कारण बतलाया, तब पुण्डरीक हर्षसे गद्गद हो गये। वे बोले-'महामुने! आज मैं धन्य हो गया। मेरा जन्म सफल हो गया तथा मेरे पितर कृतार्थ हो गये। पर देवर्षे ! मैं एक संदेहमें पड़ा हूँ, उसे आप ही निवृत्त कर सकेंगे। कुछ लोग सत्यकी प्रशंसा करते हैं तो कुछ सदाचारकी। इसी प्रकार कोई सांख्यकी, कोई योगकी तो कोई ज्ञानकी महिमा गाते हैं। कोई क्षमा, दया, ऋजुता आदि गुणोंकी प्रशंसा करता दीख पड़ता है। यों ही कोई दान, कोई वैराग्य, कोई यज्ञ, कोई ध्यान और कोई अन्यान्य कर्मकाण्डके अङ्गोंकी प्रशंसा करता है। ऐसी दशामें मेरा चित्त इस कर्तव्याकर्तव्यके निर्णयमें अत्यन्त विमोहको प्राप्त हो रहा है कि वस्तुतः अनुष्ठेय क्या है।'

इसपर नारदजी बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने कहा 'पुण्डरीक! वस्तुतः शास्त्रों तथा कर्म-धर्मके बाहुल्यके कारण ही विश्वका वैचित्र्य और वैलक्षण्य है। देश,काल, रुचि, वर्ण, आश्रम तथा प्राणिविशेषके भेदसे ऋषियोंने विभिन्न धर्मोका विधान किया है। साधारण मनुष्यकी दृष्टि अनागत, अतीत, विप्रकृष्ट, व्यवहित तथा अलक्षित वस्तुओंतक नहीं पहुँचती अतः मोह दुर्वार है। इस प्रकारका संशय, जैसा तुम कह रहे हो, एक बार मुझे भी हुआ था। जब मैंने उसे ब्रह्माजीसे कहा, तब उन्होंने उसका बड़ा सुन्दर निर्णय दिया था। मैं उसे तुमको ज्यों-का-त्यों सुना देता हूँ। ब्रह्माजीने मुझसे कहा था- 'नारद! भगवान् नारायण ही परम तत्त्व हैं। वे ही परम ज्ञान, परम ब्रह्म, परम ज्योति, परम आत्मा अथ च परमसे भी परम परात्पर हैं। उनसे परे कुछ भी नहीं है।'

नारायणः परं ब्रह्म तत्त्वं नारायणः परः ।

नारायणः परं ज्योतिरात्मा नारायणः परः ॥

परादपि परश्चासौ तस्मान्नास्ति परं मुने ।

(नृसिंहपुराण 64 63-64 )

"इस संसारमें जो कुछ भी देखा-सुना जाता है, उसके बाहर भीतर, सर्वत्र नारायण ही व्याप्त हैं। जो नित्य-निरन्तर, सदा-सर्वदा भगवान्‌का अनन्य भावसे ध्यान करता है, उसे यज्ञ, तप अथवा तीर्थयात्राकी क्या आवश्यकता है। बस, नारायण ही सर्वोत्तम ज्ञान, योग, सांख्य तथा धर्म है जिस प्रकार कई बड़ी बड़ी सड़कें किसी एक विशाल नगरमें प्रविष्ट होती हैं, अथवा कई बड़ी-बड़ी नदियाँ समुद्रमें प्रवेश कर जाती हैं, उसी प्रकार सभी मार्गोका पर्यवसान उन परमेश्वरमें होता है। मुनियोंने यथारुचि, यथामति उनके भिन्न-भिन्न नाम-रूपोंकी व्याख्या की है। कुछ शास्त्र तथा ऋषिगण उन्हें विज्ञानमात्र बतलाते हैं, कुछ परब्रह्म परमात्मा कहते हैं, कोई उन्हें महाबली अनन्त कालके नामसे पुकारता है, कोई सनातन जीव कहता है, कोई क्षेत्र कहता है तो कोई षड्विंशक तत्त्वरूप बतलाता है, कोई अङ्गुष्ठमात्र कहता है तो कोई पदारजकी उपमा देता है। नारद! यदि शास्त्र एक ही होता तो ज्ञान भी निःसंशय तथा अनाविद्ध होता। किंतु शास्त्र बहुत से हैं अतएव विशुद्ध, संशयरहित ज्ञान तो सर्वथा दुर्घट ही है। फिर भी जिन मेधावी महानुभावोंने दीर्घअध्यवसायपूर्वक सभी शास्त्रोंका पठन, मनन तथा समन्वयात्मक ढंगसे विचार किया है, वे सदा इसी निष्कर्षपर पहुँचे हैं कि सदा सर्वत्र, नित्य-निरन्तर, सर्वात्मना एकमात्र नारायणका ही ध्यान करना सर्वोपरि परमोत्तम कर्तव्य है।'

आलोड्य सर्वशास्त्राणि विचार्य च पुनः पुनः l

इदमेकं सुनिष्पन्नं ध्येयो नारायणः सदा ॥'

(64।78)

वेद, रामायण, महाभारत तथा सभी पुराणोंके आदि,
मध्य एवं अन्तमें एकमात्र उन्हीं प्रभुका यशोगान है-

वेदे रामायणे चैव पुराणे भारते तथा ।

आदौ मध्ये तथा चान्ते हरिः सर्वत्र गीयते ॥

'अतएव शीघ्र कल्याणकी इच्छा रखनेवालेको व्यामोहक जगज्जालसे सर्वथा बचकर सर्वदा निरालस्य होकर प्रयत्नपूर्वक अनन्यभावसे उन परमात्मा नारायणका ही ध्यान करना चाहिये।

'पुण्डरीक! इस प्रकार ब्रह्माजीने जब मेरा संशय दूर कर दिया, तब मैं सर्वथा नारायणपरायण हो गया। वास्तवमें भगवान् वासुदेवका माहात्म्य अनन्त है। कोई नृशंस, दुरात्मा, पापी ही क्यों न हो, भगवान् नारायणका आश्रय लेनेसे वह भी मुक्त हो जाता है। यदि हजारों जन्मोंके साधनसे भी मैं देवाधिदेव वासुदेवका दास हूँ' ऐसी निश्चित बुद्धि उत्पन्न हो गयी तो उसका काम बन गया और उसे विष्णुसालोक्यकी प्राप्ति हो जाती है-

'जन्मान्तरसहस्त्रेषु यस्य स्याद् बुद्धिरीदृशी ।

दासोऽहं वासुदेवस्य देवदेवस्य शार्ङ्गिणः ॥

प्रयाति विष्णुसालोक्यं पुरुषो नात्र संशयः । '

(94-95)

'भगवान् विष्णुकी आराधनासे अम्बरीष, प्रह्लाद, राजर्षि भरत, ध्रुव, मित्रासन तथा अन्य अगणित ब्रह्मर्षि, ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यासी तथा वैष्णव-गण परम सिद्धिको प्राप्त हुए हैं। अतः तुम भी निःसंशय होकर उनकी ही आराधना करो।'

इतना कहकर देवर्षि अन्तर्धान हो गये और भक्त पुण्डरीक हृत्पुण्डरीकके मध्यमें गोविन्दको प्रतिष्ठितकरभगवद्ध्यानमें परायण हो गये। उनके सारे कल्मष समाप्त हो गये और उन्हें तत्काल ही वैष्णवी सिद्धि प्राप्त हो गयी। उनके सामने सिंह- व्याघ्रादि हिंस्र जन्तुओंकी भी क्रूरता नष्ट हो गयी। पुण्डरीककी दृढ़ भक्ति-निष्ठाको देखकर पुण्डरीकनेत्र श्रीनिवास भगवान् शीघ्र ही द्रवीभूत हुए और उनके सामने प्रकट हो गये। उन्होंने पुण्डरीकसे वर माँगनेका दृढ़ आग्रह किया।पुण्डरीकने प्रभुसे गद्गद स्वरसे यही माँगा कि 'नाथ! जिससे मेरा कल्याण हो, आप मुझे वही दें। मुझ बुद्धिहीनमें इतनी योग्यता कहाँ जो आत्महितका निर्णय कर सकूँ।'

भगवान् उनके इस उत्तरसे बड़े प्रसन्न हुए और उन्होंने पुण्डरीकको अपना पार्षद बना लिया।

-जा0 श0

(पद्मपुराण, उत्तरखण्ड, अध्याय 81, नृसिंहपुराण, अध्याय 64)



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ekamaatr kartavy kya hai

pundareek naam ke ek bada़e bhagavadbhak grihasth braahman the. saath hee ve bada़e dharmaatma, sadaachaaree, tapasvee tatha karmakaandanipun the ve maataa-pita sevak, vishaya-bhogonse sarvatha nihsprih aur bada़e kripaalu the. ek baar adhik viraktike kaaran ve pavitr ramy vany teerthonkee yaatraakee abhilaashaase nikal pada़e. ve keval kanda-moola-shaakaadi khaakar ganga, yamuna, gomatee, gandak, sarayoo, shon, sarasvatee, prayaag, narmada, gaya tatha vindhy evan himaachalake pavitr teerthonmen ghoomate hue shaalagraam kshetr (aajake harihar kshetra) pahunche aur vahaan pahunchakar prabhukee aaraadhana men talleen ho gaye. ve to me ho, aat is dusht bhangur veen roop aayushy aadise sarvatha uparat hokar sahaj hee bhagavaddhyaanamen leen ho gaye aur sansaarako sarvatha bhool gaye.

devarshi naaradajeeko jab yah samaachaar jnaat hua, tab unhen dekhanekee ichchhaase ve bhee vahaan padhaare. pundareekane bina pahachaane hee unako shodashopachaar pooja kee auraphir unase parichay poochhaa. jab naaradajeene unhen apana parichay tatha vahaan aaneka kaaran batalaaya, tab pundareek harshase gadgad ho gaye. ve bole-'mahaamune! aaj main dhany ho gayaa. mera janm saphal ho gaya tatha mere pitar kritaarth ho gaye. par devarshe ! main ek sandehamen pada़a hoon, use aap hee nivritt kar sakenge. kuchh log satyakee prashansa karate hain to kuchh sadaachaarakee. isee prakaar koee saankhyakee, koee yogakee to koee jnaanakee mahima gaate hain. koee kshama, daya, rijuta aadi gunonkee prashansa karata deekh pada़ta hai. yon hee koee daan, koee vairaagy, koee yajn, koee dhyaan aur koee anyaany karmakaandake angonkee prashansa karata hai. aisee dashaamen mera chitt is kartavyaakartavyake nirnayamen atyant vimohako praapt ho raha hai ki vastutah anushthey kya hai.'

isapar naaradajee bada़e prasann hue. unhonne kaha 'pundareeka! vastutah shaastron tatha karma-dharmake baahulyake kaaran hee vishvaka vaichitry aur vailakshany hai. desh,kaal, ruchi, varn, aashram tatha praanivisheshake bhedase rishiyonne vibhinn dharmoka vidhaan kiya hai. saadhaaran manushyakee drishti anaagat, ateet, viprakrisht, vyavahit tatha alakshit vastuontak naheen pahunchatee atah moh durvaar hai. is prakaaraka sanshay, jaisa tum kah rahe ho, ek baar mujhe bhee hua thaa. jab mainne use brahmaajeese kaha, tab unhonne usaka bada़a sundar nirnay diya thaa. main use tumako jyon-kaa-tyon suna deta hoon. brahmaajeene mujhase kaha thaa- 'naarada! bhagavaan naaraayan hee param tattv hain. ve hee param jnaan, param brahm, param jyoti, param aatma ath ch paramase bhee param paraatpar hain. unase pare kuchh bhee naheen hai.'

naaraayanah paran brahm tattvan naaraayanah parah .

naaraayanah paran jyotiraatma naaraayanah parah ..

paraadapi parashchaasau tasmaannaasti paran mune .

(nrisinhapuraan 64 63-64 )

"is sansaaramen jo kuchh bhee dekhaa-suna jaata hai, usake baahar bheetar, sarvatr naaraayan hee vyaapt hain. jo nitya-nirantar, sadaa-sarvada bhagavaan‌ka anany bhaavase dhyaan karata hai, use yajn, tap athava teerthayaatraakee kya aavashyakata hai. bas, naaraayan hee sarvottam jnaan, yog, saankhy tatha dharm hai jis prakaar kaee bada़ee bada़ee sada़ken kisee ek vishaal nagaramen pravisht hotee hain, athava kaee bada़ee-bada़ee nadiyaan samudramen pravesh kar jaatee hain, usee prakaar sabhee maargoka paryavasaan un parameshvaramen hota hai. muniyonne yathaaruchi, yathaamati unake bhinna-bhinn naama-rooponkee vyaakhya kee hai. kuchh shaastr tatha rishigan unhen vijnaanamaatr batalaate hain, kuchh parabrahm paramaatma kahate hain, koee unhen mahaabalee anant kaalake naamase pukaarata hai, koee sanaatan jeev kahata hai, koee kshetr kahata hai to koee shadvinshak tattvaroop batalaata hai, koee angushthamaatr kahata hai to koee padaarajakee upama deta hai. naarada! yadi shaastr ek hee hota to jnaan bhee nihsanshay tatha anaaviddh hotaa. kintu shaastr bahut se hain ataev vishuddh, sanshayarahit jnaan to sarvatha durghat hee hai. phir bhee jin medhaavee mahaanubhaavonne deerghaadhyavasaayapoorvak sabhee shaastronka pathan, manan tatha samanvayaatmak dhangase vichaar kiya hai, ve sada isee nishkarshapar pahunche hain ki sada sarvatr, nitya-nirantar, sarvaatmana ekamaatr naaraayanaka hee dhyaan karana sarvopari paramottam kartavy hai.'

aalody sarvashaastraani vichaary ch punah punah l

idamekan sunishpannan dhyeyo naaraayanah sada ..'

(64.78)

ved, raamaayan, mahaabhaarat tatha sabhee puraanonke aadi,
madhy evan antamen ekamaatr unheen prabhuka yashogaan hai-

vede raamaayane chaiv puraane bhaarate tatha .

aadau madhye tatha chaante harih sarvatr geeyate ..

'ataev sheeghr kalyaanakee ichchha rakhanevaaleko vyaamohak jagajjaalase sarvatha bachakar sarvada niraalasy hokar prayatnapoorvak ananyabhaavase un paramaatma naaraayanaka hee dhyaan karana chaahiye.

'pundareeka! is prakaar brahmaajeene jab mera sanshay door kar diya, tab main sarvatha naaraayanaparaayan ho gayaa. vaastavamen bhagavaan vaasudevaka maahaatmy anant hai. koee nrishans, duraatma, paapee hee kyon n ho, bhagavaan naaraayanaka aashray lenese vah bhee mukt ho jaata hai. yadi hajaaron janmonke saadhanase bhee main devaadhidev vaasudevaka daas hoon' aisee nishchit buddhi utpann ho gayee to usaka kaam ban gaya aur use vishnusaalokyakee praapti ho jaatee hai-

'janmaantarasahastreshu yasy syaad buddhireedrishee .

daaso'han vaasudevasy devadevasy shaarnginah ..

prayaati vishnusaalokyan purusho naatr sanshayah . '

(94-95)

'bhagavaan vishnukee aaraadhanaase ambareesh, prahlaad, raajarshi bharat, dhruv, mitraasan tatha any aganit brahmarshi, brahmachaaree, grihasth, vaanaprasth, sannyaasee tatha vaishnava-gan param siddhiko praapt hue hain. atah tum bhee nihsanshay hokar unakee hee aaraadhana karo.'

itana kahakar devarshi antardhaan ho gaye aur bhakt pundareek hritpundareekake madhyamen govindako pratishthitakarabhagavaddhyaanamen paraayan ho gaye. unake saare kalmash samaapt ho gaye aur unhen tatkaal hee vaishnavee siddhi praapt ho gayee. unake saamane sinha- vyaaghraadi hinsr jantuonkee bhee kroorata nasht ho gayee. pundareekakee dridha़ bhakti-nishthaako dekhakar pundareekanetr shreenivaas bhagavaan sheeghr hee draveebhoot hue aur unake saamane prakat ho gaye. unhonne pundareekase var maanganeka dridha़ aagrah kiyaa.pundareekane prabhuse gadgad svarase yahee maanga ki 'naatha! jisase mera kalyaan ho, aap mujhe vahee den. mujh buddhiheenamen itanee yogyata kahaan jo aatmahitaka nirnay kar sakoon.'

bhagavaan unake is uttarase bada़e prasann hue aur unhonne pundareekako apana paarshad bana liyaa.

-jaa0 sha0

(padmapuraan, uttarakhand, adhyaay 81, nrisinhapuraan, adhyaay 64)

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