श्रीवृन्दावन - धाममें एक वृद्ध संत रहते थे। द्रुमलता ही उनका आहार था। कुञ्जवनमें सतत विचरण करना ही उनकी चर्य्या थी । सदा महारसमें प्राप्त रहना, तनकी सुधि बिसारे रहना और अश्रु - प्रवाहसे कपोलोंको भिगोते रहना उनका स्वभाव था । उनमें बड़ा आकर्षण था । जहाँ वे बैठ जाते, वहाँके पशु-पक्षी उन्हें घेर लेते। कभी बछड़ा उनके चरणोंमें लोटता और कभी पक्षियोंका जोड़ा उनके हाथपर बैठ जाता । वे उन्हें प्यार करते, दुलराते और उनसे बातें करते थे। 'जाओ चरो-चुगो, अब मैं जाता हूँ।' कहकर उन्हें विदा कर देते और स्वाभाविक मस्तीमें उठकर चल देते। अपने गुरु महाराजकी आज्ञासे वहाँ मैं गया और सेवामें स्वीकार किये जानेकी प्रार्थना की । उस समय महापुरुष एक वृक्षके नीचे टहल रहे थे। वहाँ बड़ी सुगन्ध फैली हुई थी, हालाँकि वहाँ कोई पुष्प वृक्ष नहीं था । यह चरित देखकर मैं चकित रह गया । महात्माने मेरी प्रार्थनापर ध्यान दिया । कहा – 'अच्छे आये ! अन्त समयके साथी । रहो, जो सेवा तुमसे हो सके, करो। यहाँ तो अभी कुछ सेवा है ही नहीं। पर चेत रखना वह प्राण-प्यारा भूलने न पावे | रामनामकी ध्वनि जगाते रहना। यही मेरी सेवा है। सुनो, चिड़िया क्या गा रही है ? — ‘राम रटो, राम रटो ।' इस अमृतवाणीको सुनकर मेरा हृदय उछलने लगा। उसी समय कहींसे मुरलीकी तान सुन पड़ी । फिर जो मस्तीका रंग मुझपर चढ़ा, उसका वर्णन करनेकी योग्यता ही मुझमें नहीं रही। मेरा परोक्ष और अपरोक्ष ज्ञान, ध्यान, धारणा सब उस गोपियोंके दुकूल चुरानेवालेने अपहरण कर लिया ।
मैंने कहा – 'सब सम्पत्ति तो ले ही ली, रहा हृदय । उसे भी छवि दिखलाकर हर लेते तो छुट्टी मिलती।' बाबाने कहा – 'अरे ! उस सुदूर विटपावलीकी ओर देखते क्यों नहीं; वहीं तो वह त्रिभङ्गी वंशी बजा रहा है। अहा हा ! कैसी छटा है ? आँखोंमें लावण्य और अधरोंमें मधुरिमा ।' मेरी दृष्टि उधर फिरी । दर्शन करते ही मेरा हृदय निकलकर उस छबि समुद्रमें हिलोरें लेने लगा। मैं अपने अस्तित्वको खो बैठा । फिर क्या हुआ, मैं कुछ नहीं जानता। जब चेतना हुई, तब मैंने देखा कि महात्माजी हाथ पकड़कर मुझे उठा रहे हैं और कह रहे हैं— 'बच्चा ! राम-राम कहो, देर हुई जाती है।' मैंने अपना माथा बाबाके चरणोंमें रख दिया। मैंने कहा – 'लोग कहा करते हैं कि सेवा करनेसे मेवा मिलता है। यहाँ मैंने कुछ भी सेवा नहीं की, केवल सेवा करनेकी लालसा लेकर आया था, किंतु आपकी कृपासे अनायास भरपेट खानेको मेवा मिला ।' बाबाने कहा- 'उठो, चलो, यमुना-तटपर चलें । वहाँ तुमसे कड़ी सेवा ली जायगी ।' मैं हर्षित हो उठा और बाबाके साथ-साथ यमुनातटपर पहुँचा। वहाँ किनारे बैठकर बाबाने कहा - कहा – 'देखो, - 'देखो, यह शरीर बहुत जीर्ण हो गया । मैं अभी - चोला बदलूँगा। तुम घबराना नहीं । जब कपड़ा पुराना हो जाता है, तब उसे बदल देना ही उचित है। मैं वैकुण्ठ में नहीं जाऊँगा। फिर जन्म लूँगा । कहाँ जन्म लूँगा सो तुम्हें बताये देता हूँ। सालभर बाद तुम वहाँ आना । भुजा और नाभिपर जो लाञ्छन है, वह उस शरीरपर रहेगा, देखकर पहचान लेना ।' मैं तो इन बातोंको सुनकर सन्न हो गया । बाबाने फिर कहा–'जब तुम मुझे शिशुरूपमें मिलना, तब यह त्रयोदश अक्षरवाला मन्त्र- 'श्रीराम जय राम जय जय राम' मेरे प्रति उच्चारण करना '
श्रियं रामं जयं रामं द्विर्जयं राममीरयेत् ।
त्रयोदशाक्षरो मन्त्रः सर्वसिद्धिकरः स्मृतः ॥
मैंने इस मन्त्रको कण्ठ कर लिया । तब अनायास बाबाजीने शरीर त्याग कर दिया । भगवत्पार्षदोंके साथ वैकुण्ठमें जानेसे इनकार कर दिया और पितृयानपर चढ़कर चन्द्रलोकको प्रस्थान किया। भगवान्के पार्षद यह देखकर चकित रह गये। एकने कहा भी – 'संतकी मौज, मुक्ति निरादर भक्ति लुभाने।’ ‘जब स्वयं वैकुण्ठनाथ उनके पीछे-पीछे डोलते हैं, तब वे वैकुण्ठ लेकर क्या करेंगे ?' दूसरे पार्षदने कहा । इस प्रकार बातें करते हुए वे दिव्य विमान लेकर वापस गये। बाबाजीके प्रसादसे यह सब काण्ड होते हुए अपनी आँखों देखा और दिव्य पुरुषोंकी वाणी सुननेका अधिकारी हुआ । तदनन्तर मैंने बाबाके बताये हुए मन्त्रको सावधानतापूर्वक कण्ठ करके बाबाकी अन्त्येष्टि क्रिया करके काशीके लिये प्रस्थान किया । वहाँ पहुँचकर श्रीगुरु महाराजसे सब वृत्तान्त निवेदन किया | सुनकर वे बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने बहुत-बहुत आशीर्वाद दिया। सालभरके बाद महाराजने फिर आज्ञा दी कि 'बाबाके बताये हुए पतेसे उस ग्राममें जाकर शिशुका वृत्तान्त जान आओ।' मैं भी यही चाहता था । मैं चल पड़ा। उस गाँवमें गया। पता लगा कि अमुक गृहस्थके घर ऐसा सुन्दर और सुशील शिशु पैदा हुआ है कि दूध पीनेके लिये भी नहीं रोता। मैंने अनुमान किया कि ऐसे शिशु महापुरुष ही हो सकते हैं। मैं वहाँ पहुँचा । द्वारपर बैठ गया । भीतरसे एक कन्या भीख लेकर आयी । मैंने कहा कि 'संन्यासी बना बनाया भोजन करते हैं, अमनियाँ लेकर बनाते-खाते नहीं ।' यह सुनकर वह बहुत प्रसन्न हुई । भीतर गयी। फिर जल लेकर आयी, चरण पखारकर भीतर लिवा ले तब गयी। सुन्दर आसनपर बैठाकर उसने प्रेमसे मुझे भोजन कराया। भिक्षा करके जब मैं बाहर आया और चौकीपर बैठा, वही कन्या गोदमें शिशुको लिये हुए आयी । अङ्गभूत लाञ्छनको देखकर मैं पहचान गया । मन-ही-मन प्रणाम करके मैंने उस शिशुको अपनी गोदमें ले लिया। उस समय बड़ा ही आनन्द प्राप्त हुआ। मैंने त्रयोदशाक्षर मन्त्रका उच्चारण किया। शिशु घूरकर मेरी ओर देखने लगा । इससे मुझे अपूर्व संतोष हुआ । कुछ देरतक बच्चेसे लाड़ लड़ाकर मैंने उसे फिर कन्याकी गोदमें दे दिया। तबतक वह शिशु बराबर मेरी ओर ताकता ही रहा । उस समयकी अपनी अवस्था क्या कहूँ ? न टलते बने, न टालते बने। जब वह कन्या बच्चेको लेकर भीतर चली गयी, तब मैं वहाँसे उठा और गाँवके बाहर एक पोखरेपर जाकर चलदल वृक्षके नीचे आसन लगाया। दूसरे दिन मैं काशीको लौट गया । श्रीगुरु महाराजसे शिशु-वृत्तान्त कह सुनाया और अमोघ आशीर्वाद प्राप्त किया । वहाँ जानेकी आज्ञा हुई। मेरे जीमें चार वर्ष बाद फिर उत्सुकता थी ही, केवल आज्ञाकी देर थी । मैं तुरंत चल पड़ा चलते समय श्रीगुरु महाराजने उपदेश दिया कि 'अबके उस गाँवमें कुटी बनाकर रहना और बाल-संतकी लीला देखना ।' इस आदेशसे मैं बहुत प्रसन्न हुआ। उस ग्राममें पहुँचकर उसी वासुदेव वृक्षके नीचे एक झोंपड़ी डालकर रहने लगा । प्रतिदिन स्नान-ध्यान करके शिशु-द्वारपर पहुँच जाता, बच्चेके साथ खेलता और भिक्षा करके चला आता। एक दिन अपूर्व घटना घटित हुई । शिशुका दो बहिनें थीं – बेला और चमेली । बेलाने एक तोता पाल रखा था। जाड़ेके दिन थे। महावीरजीके चबूतरेके नीचे बेला शिशुको खेला रही थी। एक पिंजड़ेमें तोता भी वहीं था । मैं वहाँ उसी समय पहुँचा । मन्त्रोच्चारणपूर्वक शिशुका ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया । गम्भीर बालकने गम्भीर वाणीसे एक तत्त्वगर्भित पद्य कहा । जैसे-जैसे वह उसे सुस्पष्ट शब्दों में कहता जाता था वैसे-वैसे तोता, बेला और मैं मन्त्र मुग्धकी तरह उसे दुहराते जाते थे ।
शेष कार्य अशेष कारण परे आतम आन संत सदगुरु दया होतहि सहज प्रगटत ज्ञान | तदनन्तर सुग्गा पिंजड़ेसे निकलकर बालककी भुजापर बैठ गया । उस अद्भुत बालकने उसे पकड़कर अञ्जलिमें बैठा लिया और उठकर 'श्रीराम जय राम जय जय राम' गा-गाकर नाचने लगा। पैंजनी और किङ्किणी बजकर ठीक-ठीक ताल - स्वर देने लगीं। बेलाने देखा कि भैया नाचते-नाचते थक गया है, उसे गोदमें उठाकर वह भी वही मन्त्र गाकर नाचने लगी। मुझसे भी नहीं रहा गया । मैंने बालकको उसकी गोदसे लेकर कंधेपर चढ़ा लिया और वही मन्त्र गाकर मैं भी नृत्य करने लगा। उस गान और नृत्यमें जो सुख मिला, उसकी कल्पना चक्रवर्ती राजा भी नहीं कर सकते। इतनेमें आस-पासके लोग-लोगाई आकर्षित होकर आ गये और बालक मेरे कंधेसे उतर पड़ा । शुकको पिंजड़ेमें पधरा दिया और आप चुपचाप पालथी मारकर बैठ गया । बेला भी शान्त बैठी थी और मैं भी लीलाके रहस्यपर गम्भीरतापूर्वक विचार करता हुआ मौन साधकर बैठ गया । दर्शक बेचारे टुकुरटुकुर देखते ही रह गये । उस शान्तिके वातावरणमें किसीसे कुछ
पूछनेका साहस भी किसीको नहीं हुआ । शनैः शनैः शान्तिका पाठ पढ़ते हुए वे अपने-अपने धंधेमें लग गये। मैं अपने मनकी स्थितिको बुद्धिके सहारे सँभालता रहा। सम्पूर्ण घटनाका सिंहावलोकन करनेपर मैंने यही निश्चय किया कि बाल भक्तकी चित्-शक्तिके ही प्रभावसे सारी लीला हुई है । रहस्यज्ञ होनेसे मुझे इस अद्भुत लीलामें कुछ आश्चर्य नहीं हुआ, परंतु बेला संदेहमें पड़ गयी और बहुत डर गयी । उसके मनमें यह बात बैठ गयी कि भैयाके अङ्गपर कोई देवता सवार हो गया है। उसने मुझसे अपने विचारका समर्थन करानेके लिये कहा— -'स्वामीजी, देखिये ! भैया कितना बड़ा नादान है, अभी तुतलाकर बोलता है, कुछ पढ़ा-लिखा नहीं, वह एकबारगी पण्डित-पुरुखाकी तरह विष्णुपद गाने लगा । यह कितने बड़े आश्चर्यकी बात है। जो अनुमानसे भी परेकी बात है, वही हुई । हो-न-हो इसके सिरपर थोड़ी देरके लिये किसी पण्डितका भूत सवार हो गया था। उसने हम सबको नचा डाला । अब भूत उतर गया है । देखिये, चुपचाप बैठा हुआ है। मानो कुछ हुआ ही नहीं है। मैंने उस देवीसे 'इस नृत्य-गानमें तुमको सुख प्राप्त हुआ है कि दुःख ? ‘अपार सुख, जैसा कभी मिल नहीं सकता।' मैंने 'जब तुमको सुख मिला है, तब जान लो कि भूत नहीं सवार हुआ है, भगवान् सवार हुए हैं, क्योंकि भूत दुःख देता है और भगवान् सुख देते हैं। भगवान् तो हमारे - तुम्हारे सबके हृदयमें बैठे हुए हैं, वही सब लीला करते हैं, हमलोग श्रीहरिके हाथकी कठपुतली हैं । वही भगवान् हमारी रक्षा करते हैं । फिर, डर किस बातका ?' बेलाकी समझमें यह बात आ गयी, वह प्रसन्न हुई। मैंने उसको चेता दिया कि 'इस घटनाकी चर्चा किसीसे मत करना, मन-ही-मन स्मरण करके उसका आनन्द लेना, इसीमें तुम्हारा कल्याण है।' वह बालकको लेकर घर गयी और मैं भी भिक्षा लेकर अपनी कुटीपर आ गया।
जैसे भगवान्के बालचरित सुखदायी हैं, वैसे ही संतोंभक्तोंकी बाललीलाएँ भी कम सुखप्रद नहीं; क्योंकि भक्त और भगवन्तमें कुछ भी अन्तर मानना भारी भूल है।
बोलो भक्त और उनके भगवान्की जय !
shreevrindaavan - dhaamamen ek vriddh sant rahate the. drumalata hee unaka aahaar thaa. kunjavanamen satat vicharan karana hee unakee charyya thee . sada mahaarasamen praapt rahana, tanakee sudhi bisaare rahana aur ashru - pravaahase kapolonko bhigote rahana unaka svabhaav tha . unamen baड़a aakarshan tha . jahaan ve baith jaate, vahaanke pashu-pakshee unhen gher lete. kabhee bachhada़a unake charanonmen lotata aur kabhee pakshiyonka joda़a unake haathapar baith jaata . ve unhen pyaar karate, dularaate aur unase baaten karate the. 'jaao charo-chugo, ab main jaata hoon.' kahakar unhen vida kar dete aur svaabhaavik masteemen uthakar chal dete. apane guru mahaaraajakee aajnaase vahaan main gaya aur sevaamen sveekaar kiye jaanekee praarthana kee . us samay mahaapurush ek vrikshake neeche tahal rahe the. vahaan baड़ee sugandh phailee huee thee, haalaanki vahaan koee pushp vriksh naheen tha . yah charit dekhakar main chakit rah gaya . mahaatmaane meree praarthanaapar dhyaan diya . kaha – 'achchhe aaye ! ant samayake saathee . raho, jo seva tumase ho sake, karo. yahaan to abhee kuchh seva hai hee naheen. par chet rakhana vah praana-pyaara bhoolane n paave | raamanaamakee dhvani jagaate rahanaa. yahee meree seva hai. suno, chida़iya kya ga rahee hai ? — ‘raam rato, raam rato .' is amritavaaneeko sunakar mera hriday uchhalane lagaa. usee samay kaheense muraleekee taan sun paड़ee . phir jo masteeka rang mujhapar chadha़a, usaka varnan karanekee yogyata hee mujhamen naheen rahee. mera paroksh aur aparoksh jnaan, dhyaan, dhaarana sab us gopiyonke dukool churaanevaalene apaharan kar liya .
mainne kaha – 'sab sampatti to le hee lee, raha hriday . use bhee chhavi dikhalaakar har lete to chhuttee milatee.' baabaane kaha – 'are ! us sudoor vitapaavaleekee or dekhate kyon naheen; vaheen to vah tribhangee vanshee baja raha hai. aha ha ! kaisee chhata hai ? aankhonmen laavany aur adharonmen madhurima .' meree drishti udhar phiree . darshan karate hee mera hriday nikalakar us chhabi samudramen hiloren lene lagaa. main apane astitvako kho baitha . phir kya hua, main kuchh naheen jaanataa. jab chetana huee, tab mainne dekha ki mahaatmaajee haath pakada़kar mujhe utha rahe hain aur kah rahe hain— 'bachcha ! raama-raam kaho, der huee jaatee hai.' mainne apana maatha baabaake charanonmen rakh diyaa. mainne kaha – 'log kaha karate hain ki seva karanese meva milata hai. yahaan mainne kuchh bhee seva naheen kee, keval seva karanekee laalasa lekar aaya tha, kintu aapakee kripaase anaayaas bharapet khaaneko meva mila .' baabaane kahaa- 'utho, chalo, yamunaa-tatapar chalen . vahaan tumase kada़ee seva lee jaayagee .' main harshit ho utha aur baabaake saatha-saath yamunaatatapar pahunchaa. vahaan kinaare baithakar baabaane kaha - kaha – 'dekho, - 'dekho, yah shareer bahut jeern ho gaya . main abhee - chola badaloongaa. tum ghabaraana naheen . jab kapada़a puraana ho jaata hai, tab use badal dena hee uchit hai. main vaikunth men naheen jaaoongaa. phir janm loonga . kahaan janm loonga so tumhen bataaye deta hoon. saalabhar baad tum vahaan aana . bhuja aur naabhipar jo laanchhan hai, vah us shareerapar rahega, dekhakar pahachaan lena .' main to in baatonko sunakar sann ho gaya . baabaane phir kahaa–'jab tum mujhe shishuroopamen milana, tab yah trayodash aksharavaala mantra- 'shreeraam jay raam jay jay raama' mere prati uchchaaran karana '
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jaise bhagavaanke baalacharit sukhadaayee hain, vaise hee santonbhaktonkee baalaleelaaen bhee kam sukhaprad naheen; kyonki bhakt aur bhagavantamen kuchh bhee antar maanana bhaaree bhool hai.
bolo bhakt aur unake bhagavaankee jay !