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कोई भी पाठ अथवा नाम जप करते हैं तो यह मुख्य और सब से महत्व की बात जरूर समझ लें ... इसमें सब साधनाओं का सार है

भगवान् जनार्दन भावग्राही हैं


श्रीचैतन्यमहाप्रभु सायंकालके समय जंगलोंमें घूमने जाया करते थे। एक दिन वे एक बगीचेमें गये। वहाँ जाकर उन्होंने देखा एक ब्राह्मण आसन लगाये। बड़े ही प्रेमके साथ गद्गद कण्ठसे गीताका पाठ कर रहा है। यद्यपि वह श्लोकोंका उच्चारण अशुद्ध कर रहा था, किंतु पाठ करते समय वह ध्यानमें ऐसा तन्मय था कि उसे बाह्य संसारका पता ही नहीं रहा। वह भावमें मग्न होकर श्लोकोंको बोलता था, उसका सम्पूर्ण शरीर रोमांचित हो रहा था, नेत्रोंसे जल बह रहा था। महाप्रभु बहुत देरतक खड़े-खड़े उसका पाठ सुनते रहे। जब वह पाठ करके उठा, तब महाप्रभुने उससे अत्यन्त ही स्नेहके साथ पूछा 'क्यों भाई, तुम्हें इस पाठमें ऐसा क्या आनन्द मिलता है, जिसके कारण तुम्हारी ऐसी अद्भुत दशा हो जाती है। इतने ऊँचे प्रेमके भाव तो अच्छे-अच्छे भक्तोंके शरीरमें प्रकट नहीं होते, तुम अपनी प्रसन्नताका मुझसे ठीक-ठीक कारण बताओ ?'


उस पुरुषने कहा- 'भगवन्! मैं एक अपठित बुद्धिहीन, ब्राह्मण-वंशमें उत्पन्न हुआ निरक्षर और मूर्ख ब्राह्मणबन्धु हूँ। मुझे शुद्धाशुद्धका कुछ भी बोध नहीं है। मेरे गुरुदेवने मुझे आदेश दिया था कि तू गीताका नित्यप्रति पाठ किया कर। भगवन्! मैं गीताका अर्थ क्या जानूँ। मैं तो पाठ करते समय इसी बातका ध्यान करता हूँ कि सफेद रंगके चार घोड़ोंसे जुता हुआ एक बहुत सुन्दर रथ खड़ा हुआ है। उसकी विशाल ध्वजापर हनुमान्जी विराजमान हैं। खुले हुए रथमें अस्त्र-शस्त्रोंसे सुसज्जित अर्जुन कुछ शोकके भावसे धनुषको नीचे रखे हुए बैठा है। भगवान् अच्युत सारथीके स्थानपर बैठे हुए कुछ मन्द मुसकानके साथ अर्जुनको गीताका उपदेश कर रहे हैं। बस, भगवान्‌की इसी रूपमाधुरीका पान करते-करते मैं अपने आपको भूल जाता हूँ। भगवान्‌की वह त्रिलोकपावनी मूर्ति मेरे नेत्रोंके सामने नृत्य करने लगती है, उसीके दर्शनोंसे मैं पागल सा बन जाता हूँ। लोग मेरे पाठको सुनकर पहले बहुत हँसते थे। बहुत-से तो मुझे बुरा-भला भी कहते थे। अब कहते हैं या नहीं - इस बातका तो मुझे पता नहीं है, किंतु मैंने किसीकी हँसीकी कुछ परवा नहीं की। इसी भावसे पाठ करता ही रहा। अब मुझे इस पाठमें इतना रस आने लगा है कि मैं एकदम संसारको भूल-सा जाता हूँ।'

उसकी बात सुनकर महाप्रभु बड़े ही मीठे स्वरसे कहने लगे, 'विप्रवर! तुम धन्य हो, यथार्थमें गीताका असली अर्थ तो तुमने ही समझा है। भगवान् शुद्ध अथवा अशुद्ध पाठसे प्रसन्न या असन्तुष्ट नहीं होते। वे तो भावके भूखे हैं। भावग्राही भगवान्‌से किसीके मनकी बात छिपी नहीं है। लाखों शुद्ध पाठ करो और भाव अशुद्ध हैं, तो उनका फल अशुद्ध ही होगा। यदि भाव शुद्ध हैं और अक्षर चाहे अशुद्ध भी उच्चारण हो जायें तो उसका फल शुद्ध ही होगा। भावोंकी शुद्धिकी ही अत्यन्त आवश्यकता है। भाव शुद्ध होनेपर पाठ शुद्ध हो, तब तो बहुत ही अच्छा है, सोनेमें सुगन्ध है और यदि पाठ शुद्ध न भी हो तो भी कोई हानि नहीं। जैसा कि कहा है

मूर्खो वदति विष्णाय धीरो वदति विष्णवे।
तयोः फलं तु तुल्यं हि भावग्राही जनार्दनः ॥


अर्थात् 'मूर्ख कहता है, 'विष्णाय नमः' जो कि व्याकरण की दृष्टिसे अशुद्ध पाठ है और पण्डित कहता है 'विष्णवे नमः' भाव शुद्ध होनेसे इन दोनोंका फल समान ही होगा। कारण कि भगवान् जनार्दन भावग्राही हैं।'

महाप्रभुके मुखसे इस बातको सुनकर उस ब्राह्मणको बड़ी प्रसन्नता हुई और उसने उसी समय प्रभुको आत्मसमर्पण कर दिया। जबतक प्रभु श्रीरंगक्षेत्रमें रहे, तबतक वह महाप्रभुके साथ हो रहा।



koee bhee paath athava naam jap karate hain to yah mukhy aur sab se mahatv kee baat jaroor samajh len ... isamen sab saadhanaaon ka saar hai

bhagavaan janaardan bhaavagraahee hain


shreechaitanyamahaaprabhu saayankaalake samay jangalonmen ghoomane jaaya karate the. ek din ve ek bageechemen gaye. vahaan jaakar unhonne dekha ek braahman aasan lagaaye. bada़e hee premake saath gadgad kanthase geetaaka paath kar raha hai. yadyapi vah shlokonka uchchaaran ashuddh kar raha tha, kintu paath karate samay vah dhyaanamen aisa tanmay tha ki use baahy sansaaraka pata hee naheen rahaa. vah bhaavamen magn hokar shlokonko bolata tha, usaka sampoorn shareer romaanchit ho raha tha, netronse jal bah raha thaa. mahaaprabhu bahut deratak khada़e-khada़e usaka paath sunate rahe. jab vah paath karake utha, tab mahaaprabhune usase atyant hee snehake saath poochha 'kyon bhaaee, tumhen is paathamen aisa kya aanand milata hai, jisake kaaran tumhaaree aisee adbhut dasha ho jaatee hai. itane oonche premake bhaav to achchhe-achchhe bhaktonke shareeramen prakat naheen hote, tum apanee prasannataaka mujhase theeka-theek kaaran bataao ?'


us purushane kahaa- 'bhagavan! main ek apathit buddhiheen, braahmana-vanshamen utpann hua nirakshar aur moorkh braahmanabandhu hoon. mujhe shuddhaashuddhaka kuchh bhee bodh naheen hai. mere gurudevane mujhe aadesh diya tha ki too geetaaka nityaprati paath kiya kara. bhagavan! main geetaaka arth kya jaanoon. main to paath karate samay isee baataka dhyaan karata hoon ki saphed rangake chaar ghoda़onse juta hua ek bahut sundar rath khada़a hua hai. usakee vishaal dhvajaapar hanumaanjee viraajamaan hain. khule hue rathamen astra-shastronse susajjit arjun kuchh shokake bhaavase dhanushako neeche rakhe hue baitha hai. bhagavaan achyut saaratheeke sthaanapar baithe hue kuchh mand musakaanake saath arjunako geetaaka upadesh kar rahe hain. bas, bhagavaan‌kee isee roopamaadhureeka paan karate-karate main apane aapako bhool jaata hoon. bhagavaan‌kee vah trilokapaavanee moorti mere netronke saamane nrity karane lagatee hai, useeke darshanonse main paagal sa ban jaata hoon. log mere paathako sunakar pahale bahut hansate the. bahuta-se to mujhe buraa-bhala bhee kahate the. ab kahate hain ya naheen - is baataka to mujhe pata naheen hai, kintu mainne kiseekee hanseekee kuchh parava naheen kee. isee bhaavase paath karata hee rahaa. ab mujhe is paathamen itana ras aane laga hai ki main ekadam sansaarako bhoola-sa jaata hoon.'

usakee baat sunakar mahaaprabhu bada़e hee meethe svarase kahane lage, 'vipravara! tum dhany ho, yathaarthamen geetaaka asalee arth to tumane hee samajha hai. bhagavaan shuddh athava ashuddh paathase prasann ya asantusht naheen hote. ve to bhaavake bhookhe hain. bhaavagraahee bhagavaan‌se kiseeke manakee baat chhipee naheen hai. laakhon shuddh paath karo aur bhaav ashuddh hain, to unaka phal ashuddh hee hogaa. yadi bhaav shuddh hain aur akshar chaahe ashuddh bhee uchchaaran ho jaayen to usaka phal shuddh hee hogaa. bhaavonkee shuddhikee hee atyant aavashyakata hai. bhaav shuddh honepar paath shuddh ho, tab to bahut hee achchha hai, sonemen sugandh hai aur yadi paath shuddh n bhee ho to bhee koee haani naheen. jaisa ki kaha hai

moorkho vadati vishnaay dheero vadati vishnave.
tayoh phalan tu tulyan hi bhaavagraahee janaardanah ..


arthaat 'moorkh kahata hai, 'vishnaay namah' jo ki vyaakaran kee drishtise ashuddh paath hai aur pandit kahata hai 'vishnave namah' bhaav shuddh honese in dononka phal samaan hee hogaa. kaaran ki bhagavaan janaardan bhaavagraahee hain.'

mahaaprabhuke mukhase is baatako sunakar us braahmanako bada़ee prasannata huee aur usane usee samay prabhuko aatmasamarpan kar diyaa. jabatak prabhu shreerangakshetramen rahe, tabatak vah mahaaprabhuke saath ho rahaa.



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