कठोपनिषद्की कालजयी बोधदृष्टि
ज्योतिष्पीठाधीश्वर एवं द्वारकाशारदापीठाधीश्वर जगदगुरु शंकराचार्य स्वामी श्रीस्वरूपानन्दसरस्वतीजी महाराज)
गहन अध्यात्मप्रधान सैद्धान्तिक चिन्तन-सामग्री और कालजयी बोधदृष्टिके कोश होनेके कारण उपनिषद् वाङ्मयको वेदान्त स्वीकार किया गया है, जिनकी संख्या प्रमुखतः १०८ है और उनमें भी भगवान् आद्यशंकराचार्यजी महाराजद्वारा जिनके भाष्य किये गये हैं, उनमें कृष्णयजुर्वेदकी कठशाखासे सम्बद्ध अध्यायद्वया लंकृत, षट्वल्लीसंयुक्त एवं १२० मन्त्रोंवाले कठोपनिषद्का महत्त्वपूर्ण स्थान है।
प्रकृत उपनिषद्का श्रीगणेश विश्वजित् यज्ञ एवं तज्जन्य फलके इच्छुक वाजश्रवाके पुत्रद्वारा सम्पद्यमान गोदानसे होता है। शास्त्रीय निर्देशोंके अनुसार धनकी शुद्धि दानसे होती है। ध्यातव्य है कि यह दान-कर्म है तो बहुत उत्तम, किंतु इसमें दानीको दानके प्रति निरभिमानी, लोभरहित, निष्पक्ष, निराकांक्ष और पवित्र होकर सत्पात्रके लिये देय वस्तु समर्पित करनी होती है, अन्यथा दान-यज्ञका उचित फल दानीको नहीं मिलता। यह तथ्य सम्भवतः इस यज्ञके यजमानको ज्ञात नहीं है अथवा ज्ञात होनेपर भी वह अपने पुत्र नचिकेताके द्वारा बार-बार स्मरण कराये जानेके बावजूद मोहवश मानता नहीं है। यही कारण है कि अनेक बार नचिकेताद्वारा कहे जानेपर वह अपने पुत्रपर क्रोधकर उसे यमराजके लिये दान देने की बात करता है, जो क्रोधजन्य अविवेकका परिणाम कहा जा सकता है; क्योंकि उसकी दान प्रक्रियामें पुत्रमोहवश उपयोगी गायको रख लेने तथा अनुपयोगी गायोंको दान देनेकी प्रवृत्ति थी। अतः यहाँ क्रोध और मोह, दोनोंसे मुक्त रहने तथा शान्तभावसे दान करनेके सिद्धान्तको प्रतिपादित किया गया है। ऐसा न होनेपर यदि विश्वजित् सदृश महनीय यज्ञके यजमानको भी अपने प्रयोजन, पुत्रसुख, यश और पुण्यसे विरत हो जाना पड़ता है तो भला सामान्य जनकी तो बात ही क्या है; क्योंकि इसमें श्रुति प्रमाण है
पीतोदका जग्धतृणा दुग्धदोहा निरिन्द्रियाः । अनन्दा नाम ते लोकास्तान् स गच्छति ता ददत् ॥
इस उपनिषद् यज्ञ, दान, अक्रोध, पुण्य और मोहराहित्य प्रतिपादनसे पूर्व ही 'ॐ' संज्ञक ब्रह्म अधीत विद्याकी तेजोमयता, पारस्परिक अद्वेष तथा विविध शान्तिकी स्थापना कर दी गयी है। जिसमें आगे प्रतिपादित किये जानेवाले ब्रह्मज्ञान तथा उसकी स्वरूप-मीमांसा, नचिकेताकी तपःपूत विद्याकी मुमुक्षापूर्ण तेजस्विता, पिताके द्वारा मृत्युके लिये प्रदान किये जानेके बावजूद उनके प्रति सम्मान बनाये रखना तथा किसीके प्रति नचिकेताके मनमें द्वेषका न होना प्रभृति अन्तर्निहित अनेक मूल्योंका निर्देश है; क्योंकि पिताद्वारा 'मृत्यवे त्वा ददामीति' कहनेके बाद भी दुखी न होकर आदर्श पुत्र नचिकेताका मानना है कि 'अनेक विकल्पोंके होनेपर भी यमराजका ऐसा कौन सा कार्य हो सकता है, जिसे वह आज मेरेद्वारा निष्पन्न करेगा।' यथा-
बहूनामेमि प्रथमो बहूनामेमि मध्यमः ।
किः स्विद्यमस्य कर्तव्यं यन्मयाद्य करिष्यति II
यहाँ नचिकेताकी पितृभक्ति अद्भुत रीतिसे वर्णित है। आपने अपने पितृवचनको सत्य सिद्ध करनेके । उद्देश्यसे पिताजीको पूर्वपुरुषोंसे प्रेरणा ग्रहण करनेका संकेत और उन्हें सांसारिक नश्वरताका बोध कराते हुए कहा है कि-
अनुपश्य यथा पूर्वे प्रतिपश्य तथापरे । सस्यमिव मर्त्यः पच्यते सस्यमिवाजायते पुनः ॥
तत्पश्चात् यहाँ अतिथिके रूपमें ब्राह्मणके महत्त्व तथा उनकी सेवाजन्य पुण्यराशिके ब्याजसे कूप-निर्माण, यज्ञयागादि तथा बाग-बगीचे लगानेसे प्राप्त होनेवाले पुण्यफलको भी संकेतित कर दिया गया है। इसी प्रकार यहाँ यमराजसदृश महत्त्वपूर्ण देव (जिनसे सभी भयभीत रहते हैं) और नचिकेतासदृश असामान्य पित्राज्ञाकारी ब्राह्मण अतिथिका पात्रके रूपमें चयन किया गया है, जिसका तात्पर्य है कि यदि सर्वसमर्थ यमराज और यमराज्ञीतक ब्राह्मण अतिथिका सम्मान करते हैं. तो अन्योंको तो करना ही चाहिये, अन्यथा तज्जन्य दुष्परिणामका भोग करने हेतु तैयार रहना चाहिये।
आगे यमराज-नचिकेता संवादके प्रसंगमें यमराजद्वारा प्रदीयमान वरदानोंमें 'शान्तसंकल्पः सुमनाः यथा इत्यादि श्रुतिवाक्योंके अनुसार तीनों वरोंमें प्रथमतः पिताके प्रसन्नता सम्बन्धी वरदानको माँगकर एक बार पुनः अपनी पितृभक्तिको प्रमाणित करते हुए नचिकेता संसारके सभी पुत्रोंके लिये अनुकरणीय बन जाता है। वह अपने पिताको प्रसन्न, संतुष्ट और क्रोधमुक्त देखना चाहता है और साथ ही वह दूसरे वरदानके रूपमें उस अग्निविज्ञानका ज्ञान माँगता है, जो स्वर्गको प्राप्त करानेवाला है तथा तृतीय वरदानके रूपमें लौकिक सुख-सुविधाओंकी उपेक्षा करते हुए उस आत्मा और ब्रह्मके तादात्म्य तथा उनके स्वरूपज्ञानका प्रस्ताव रखता है, जिसे प्राप्त करना मानव-जीवनका परम लक्ष्य है
येयं प्रेते विचिकित्सा मनुष्ये
ऽस्तीत्येके नायमस्तीति चैके । एतद्विद्यामनुशिष्टस्त्वयाहं
वराणामेष वरस्तृतीयः ॥
तब नचिकेताने तीसरा वर इस तरह माँगा मनुष्यके मर जानेपर जो संशय होता है कि वह शरीर, इन्द्रिय, मन, बुद्धिसे अलग, दूसरे शरीरसे सम्बन्ध बनानेवाला कोई है। ऐसा कुछ लोगोंका मत है। शरीर- इन्द्रियादिसे पृथक् यह नहीं है, ऐसा भी किन्हींका मत है। इसलिये ऐसी संशयकी स्थितिमें मैं चाहता हूँ कि आप मेरे इस संशयको दूर करें और मुझे बतायें कि वास्तविकता क्या है? आत्मा नामका कोई तत्त्व इस शरीरसे पृथक् है या नहीं? यही मेरा तीसरा वर है।
आत्मज्ञानहेतु यमराजने नचिकेताकी परीक्षाके लिये अनेक शर्तें रखीं; और प्रलोभन भी दिये, किंतु वह बालक प्रत्येक कसौटीपर खरा उतरता है। इस प्रकार नचिकेताके त्याग, बुद्धिमत्ता, अध्यात्मप्रेम, पितृभक्ति और लोककल्याणकी भावना आदि गुण प्रत्येक व्यक्तिके लिये आदर्श हैं। नचिकेताको स्वर्गके स्वरूप, लोक - सम्पदाकी क्षणभंगुरता एवं स्वर्ग्याग्निकी महत्ताका सम्यग् बोध है तथा उसमें विचारोंकी दृढ़ता, निर्भीकता, सत्यप्रतिज्ञता और वाक्पटुताका पारस्परिक सामरस्य भी है। यही कारण है कि यमराज उसपर प्रसन्न होकर उसको 'नाचिकेताग्नि' सम्बन्धी चतुर्थ वरदान भी करते हैं, यथा- 'तवैव नाम्ना भवितायमग्निः सृकां चेमाम 'नेकरूपां गृहाण।' तथा उन्हें इस अग्निका सांगोपांग विधिविधानतः ज्ञान देते हैं, जिसे प्राप्तकर जीव मृत्युके बन्धनोंको तोड़कर वैराजलोकमें आनन्द प्राप्त करता है। यथा - स मृत्युपाशान् पुरतः प्रणोद्य शोकातिगो मोदते स्वर्गलोके ।
आत्माका स्वरूप-निरूपण एवं तदवबोध कराना उपनिषदोंका परम प्रयोजन है। जिसके प्रतिपादनमें कठोपनिषद् अन्यतम है। ऋषिकी दृष्टिमें संसार अनित्य है और परब्रह्मस्वरूप परमात्मामात्र ही नित्य है। इसीलिये प्रकृत प्रसंग नचिकेतमुखेन लोकको 'श्वोभावा' कहा गया है—'श्वोभावा मर्त्यस्य यदन्तकैतत् ।'
आगे चलकर इस ज्ञान मंजूषामें जीवके लिये श्रेय एवं प्रेय-इन उभयविध विकल्पोंमेंसे किसी एकके वरणका विधान किया गया है, जिसमें आत्मविद्यारूप श्रेयका वरणकर नचिकेता संसारके बन्धनसे सदाके लिये मुक्त हो जाता है; क्योंकि इस पथका प्रत्येक पथिक जीवनके परम लक्ष्य मुक्तिकी प्राप्ति कर सकता है। इसी प्रकार यहाँ शिष्यको योग्य बननेके लिये योग्य गुरुकी आवश्यकतापर बल देते हुए ज्ञानलवदुर्विदग्धोंसे दूर रहनेका परामर्श दिया गया है, ऐसा अभिव्यंजित होता है; क्योंकि
अविद्यायामन्तरे वर्तमानाः
स्वयं धीराः पण्डितम्मन्यमानाः ।
दन्द्रम्यमाणाः परियन्ति मूढा
अन्धेनैव नीयमाना यथान्धाः ॥
इसके ठीक बाद यहाँ लौकिकतापन्न व्यक्तिकी दुर्गति (पुनः पुनर्वशमापद्यते मे) की उपस्थापना की गयी है और यमराजको योग्य गुरुके रूपमें स्वीकार करते हुए उनके लक्षणोंका विधान भी किया गया है, यथा
श्रवणायापि बहुभिर्यो न लभ्यः
शृण्वन्तोऽपि बहवो यं न विद्युः ।
आश्चर्यो वक्ता कुशलोऽस्य लब्धा
अश्चर्यो ज्ञाता कुशलानुशिष्टः ॥
और इसोके साथ तर्कादिसे अप्राप्य, प्रखर बुद्धिसे समन्वित, धैर्यशाली, त्यागशील, आत्मज्ञानके अधिकारी एवं योग्य नचिकेताकी प्रशंसा भी की गयी है। तत्पश्चात् '3' संज्ञक परम अक्षर, सर्वावलम्ब, अजन्मा, नित्य, शाश्वत, अमर, अणोरणीयान् महतो महीयान् सर्वव्यापक, सर्वाधिष्ठान, सर्वकारणोंके कारण, सर्वविध तपश्चर्याओंके एकमात्र लक्ष्य, अविकारी, शरीररहित, मेधा-प्रवचन एवं अन्यान्य उपायोंसे साधकोंका स्वयं वरण करनेमें सर्वसमर्थ, निषिद्ध काम्यादि कर्मोंमें प्रवृत्त तथा मन आदि चंचल इन्द्रियवाले फलाकांक्षियोंसे सर्वथा दूर, ब्राह्मणादि वर्णों और मृत्यु आदिका भक्षण करनेवाला, मुमुक्षुओंके आश्रय, अभयस्वरूप, अविनाशी, बुद्धिके अन्तर्गत हृदयाकाशमें प्रविष्ट जीवके साथ ईश्वररूपमें छाया और धूपकी भाँति विद्यमान (छायातपौ ब्रह्मविदो वदन्ति), परापरगूढ ब्रह्मका स्वरूपावबोध रथरूपकके माध्यमसे कराया गया है तथा इन्द्रिय, मन, बुद्धि और महत्तत्त्वादिका व्याख्यान करते हुए मन्त्रोंके ऋषिने ब्रह्मको सर्वश्रेष्ठ बताया है। आपका कथन है कि उस परब्रह्म पुरुषके अतिरिक्त कारणके रूपमें अन्य कुछ भी नहीं है-सा काष्ठा सा परागतिः ।
इसीलिये उसे जानना भी कठिन है; क्योंकि उसका मार्ग दुर्गम है। इसे जाननेके लिये इन्द्रियोंको मनमें, बुद्धिको महत्-तत्त्वरूप आत्मामें तथा उसे भी निर्विशेष एवं समस्त ज्ञानोंके साक्षीभूत परम आत्मामें लीन करना पड़ता है। वह रूपरसगन्धस्पर्श और शब्दका विषय नहीं है, प्रत्युत अनादि, अनन्त, ध्रुव, सर्वोत्कृष्ट, कूटस्थ एवं अगम है। उसे जाननेका मार्ग क्षुरकी धारपर चलने जैसा है - 'क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत् कवयो वदन्ति' इसलिये संसारके प्रत्येक मनुष्यको इस कार्यके लिये अनवरत जाग्रत् रहना चाहिये- 'उत्तिष्ठत
जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत ।
प्रथम अध्यायकी तृतीय वल्लीमें नचिकेताके इस उपाख्यानको लौकिकामुष्मिकोभयरीत्या महनीय स्वीकारा गया है; क्योंकि जो भी इससे प्रेरणा ग्रहण करेगा, वह इस लोकमें शान्ति प्राप्तकर तत्पश्चात् मृत्युके मुखसे छूटकर आत्माके स्वरूपका बोधकर ब्रह्मलोक में महिमान्वित होगा।
जहाँतक बोधप्राप्तिका प्रश्न है, इससे विश्वके प्रत्येक मनुष्यको पितृभक्त, सच्चे दानशील, यज्ञप्रेमी सत्यवादी, त्यागी, आध्यात्मिक, कुशाग्रबुद्धि, निर्भीक, धनादिके लौकिक मोहसे मुक्त एवं आत्मज्ञानी नचिकेतासे प्रेरणा मिलती है और आत्मा-बुद्धि-इन्द्रियादिके लक्षणोंका ज्ञान, सांसारिक असारता, धैर्यशीलता, अतिथिको महता, आत्माके स्वरूप, प्रमादराहित्य, सृष्टिके क्रम, स्वर्ग और मृत्युके स्वरूप, धर्माधर्म, आत्माकी सुविज्ञेयता, दुर्दर्शता, गुहाहितत्व, गह्वरेष्ठत्व, पुराणता, अध्यात्मयोगाधिगमत्व अनन्यता, भूत, भव्य और वर्तमान, योगक्षेमकी अवधारणा, विद्याविद्याको व्याख्या, कर्माकर्मशीलता और विवेकका बोध होता है। इसी प्रकार आत्माके सन्दर्भमें उसकी कालत्रयसे पृथक्ता, विलक्षणता, सर्वस्वामिता, सर्वव्यापकता, गुह्यता, अनेकरूपताके बावजूद एकत्व, निर्लिप्तता. अद्वितीयता और चेतनताका भी ज्ञान होता है। ऋषि कहते हैं कि-'सूर्य, चन्द्र, विद्युत् और अग्निका प्रकाश-सभीका कारण आत्मतत्त्व ही है-न तंत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं I'
कठोपनिषद्में निरूपित ज्ञानवैभवके आधारपर अनेक ऐसी सूक्तियाँ हैं, जो मानवको अनेकविध ज्ञान कराने में समर्थ हैं, यथा—
१. सस्यमिव मर्त्यः पच्यते सस्यमिवाजायत पुनः।
अर्थात् फसलकी भाँति मनुष्य भी जन्म लेता है, वृद्ध होता है और मृत्युको प्राप्त हो जाता है तथा कर्मानुसार पुनः जन्म लेता है। इससे प्राणि जगत्में पुनर्जन्म, कर्मोंके परिणाम और सांसारिक नश्वरताके सिद्धान्तका बोध होता है।
२. वैश्वानरः प्रविशत्यतिथिर्ब्राह्मणो गृहान् ।
तस्यैताः शान्तिं कुर्वन्ति हर वैवस्वतोदकम् ॥
अर्थात् ब्राह्मण अतिथि किसी आतिथेयके घर अग्निकी भाँति प्रवेश करता है। अतः पाद्य, आसन और जलादिसे उसकी शान्ति करनी चाहिये। यहाँ ' अतिथिदेवो भव' का सिद्धान्तबोध होता है।
३. अतिथिर्नमस्यः ।
अर्थात् अतिथि पूज्य होता है।
४. स्वर्गलोका अमृतत्वं भजन्ते ।
अर्थात् स्वर्गस्थ लोग अमृतत्वको प्राप्त करलेते हैं।
५. शोकातिगो मोदते स्वर्गलोके ।
ज्ञानी बुभुक्षा, पिपासा एवं मृत्युके पाशसे मुक्त तथा शोकादिसे रहित होकर स्वर्गलोकमें आनन्द प्राप्त करता है।
६. श्वोभावा मर्त्यस्य यदन्तकैतत् सर्वेन्द्रियाणां जरयन्ति तेजः ।
मनुष्योंका अन्त करनेवाले सभी पदार्थ क्षणिक हैं और वे इन्द्रियोंके तेजको क्षीण करते हैं, नष्ट करते हैं।
७. अपि सर्वं जीवितमल्पमेव ।
सभीका सम्पूर्ण जीवन थोड़े समयके लिये है, अर्थात् क्षणभंगुर है।
८. न वित्तेन तर्पणीयो मनुष्यः ।
किसी मनुष्यको धनसे तृप्त, सन्तुष्ट नहीं किया जा सकता है अर्थात् धनादिसे कोई सन्तुष्ट नहीं हो सकता।
९. अन्धेनैव नीयमाना यथान्धाः ।
अर्थात् योग्य गुरु आवश्यक है, अन्यथा
जाका गुरु है अन्धला चेला खरा निरन्ध ।
अन्धै अन्धा ठेलिया दोऊ कूप पड़न्त ॥
१०. नैषा तर्केण मतिरापनेया।
ब्रह्मज्ञानकी प्राप्तिसम्बन्धी बुद्धि तर्कसे प्राप्त नहीं होती, प्रत्युत गुरु एवं प्रभुकी कृपासे प्राप्त होती है।
११. न हाध्रुवैः प्राप्यते हि ध्रुवं तत्।
अर्थात् अध्रुव (क्षणिक) साधनोंसे ध्रुव (नित्य) की प्राप्ति सम्भव नहीं है।
१२. नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया बहुना श्रुतेन ।
अर्थात् आत्माके स्वरूपका अवबोध प्रवचन, मेधा या श्रवणमात्रसे सम्भव नहीं है।
१३. धीरो न शोचति ।
धैर्यशाली कभी शोक नहीं करता।
१४. पुरुषान्न परं किंचित् ।
परब्रह्मसे श्रेष्ठ कुछ भी नहीं है।
१५. उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत ।
उठो, जागो और अविद्यासे मुक्त होकर आत्मस्वरूपको पहचानो।
इसी प्रकार छः वल्लियोंमें अनेक ऐसे मन्त्र भी हैं, जो सम्पूर्णतया सूक्ति किंवा सिद्धान्तवाक्यके रूपमें विद्यमान हैं।
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि लौकिक एवं पारलौकिक सभी दृष्टियोंसे कठोपनिषद्का नचिकेतोपाख्यान तथा उसके सभी मन्त्र किसी-न-किसी प्रकार मानव मात्रके लिये अमूल्य जीवन-सन्देश हैं, जिनका महत्त्व सार्वभौमिक, सार्वजनीन एवं सार्वकालिक है। एतावता इनकी महत्ता और उपयोगिता आज भी है और भविष्यत् कालमें भी बनी रहेगी।
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prakrit upanishadka shreeganesh vishvajit yajn evan tajjany phalake ichchhuk vaajashravaake putradvaara sampadyamaan godaanase hota hai. shaastreey nirdeshonke anusaar dhanakee shuddhi daanase hotee hai. dhyaatavy hai ki yah daana-karm hai to bahut uttam, kintu isamen daaneeko daanake prati nirabhimaanee, lobharahit, nishpaksh, niraakaanksh aur pavitr hokar satpaatrake liye dey vastu samarpit karanee hotee hai, anyatha daana-yajnaka uchit phal daaneeko naheen milataa. yah tathy sambhavatah is yajnake yajamaanako jnaat naheen hai athava jnaat honepar bhee vah apane putr nachiketaake dvaara baara-baar smaran karaaye jaaneke baavajood mohavash maanata naheen hai. yahee kaaran hai ki anek baar nachiketaadvaara kahe jaanepar vah apane putrapar krodhakar use yamaraajake liye daan dene kee baat karata hai, jo krodhajany avivekaka parinaam kaha ja sakata hai; kyonki usakee daan prakriyaamen putramohavash upayogee gaayako rakh lene tatha anupayogee gaayonko daan denekee pravritti thee. atah yahaan krodh aur moh, dononse mukt rahane tatha shaantabhaavase daan karaneke siddhaantako pratipaadit kiya gaya hai. aisa n honepar yadi vishvajit sadrish mahaneey yajnake yajamaanako bhee apane prayojan, putrasukh, yash aur punyase virat ho jaana pada़ta hai to bhala saamaany janakee to baat hee kya hai; kyonki isamen shruti pramaan hai
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shravanaayaapi bahubhiryo n labhyah
shrinvanto'pi bahavo yan n vidyuh .
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ashcharyo jnaata kushalaanushishtah ..
aur isoke saath tarkaadise apraapy, prakhar buddhise samanvit, dhairyashaalee, tyaagasheel, aatmajnaanake adhikaaree evan yogy nachiketaakee prashansa bhee kee gayee hai. tatpashchaat '3' sanjnak param akshar, sarvaavalamb, ajanma, nity, shaashvat, amar, anoraneeyaan mahato maheeyaan sarvavyaapak, sarvaadhishthaan, sarvakaaranonke kaaran, sarvavidh tapashcharyaaonke ekamaatr lakshy, avikaaree, shareerarahit, medhaa-pravachan evan anyaany upaayonse saadhakonka svayan varan karanemen sarvasamarth, nishiddh kaamyaadi karmonmen pravritt tatha man aadi chanchal indriyavaale phalaakaankshiyonse sarvatha door, braahmanaadi varnon aur mrityu aadika bhakshan karanevaala, mumukshuonke aashray, abhayasvaroop, avinaashee, buddhike antargat hridayaakaashamen pravisht jeevake saath eeshvararoopamen chhaaya aur dhoopakee bhaanti vidyamaan (chhaayaatapau brahmavido vadanti), paraaparagoodh brahmaka svaroopaavabodh ratharoopakake maadhyamase karaaya gaya hai tatha indriy, man, buddhi aur mahattattvaadika vyaakhyaan karate hue mantronke rishine brahmako sarvashreshth bataaya hai. aapaka kathan hai ki us parabrahm purushake atirikt kaaranake roopamen any kuchh bhee naheen hai-sa kaashtha sa paraagatih .
iseeliye use jaanana bhee kathin hai; kyonki usaka maarg durgam hai. ise jaananeke liye indriyonko manamen, buddhiko mahat-tattvaroop aatmaamen tatha use bhee nirvishesh evan samast jnaanonke saaksheebhoot param aatmaamen leen karana pada़ta hai. vah rooparasagandhasparsh aur shabdaka vishay naheen hai, pratyut anaadi, anant, dhruv, sarvotkrisht, kootasth evan agam hai. use jaananeka maarg kshurakee dhaarapar chalane jaisa hai - 'kshurasy dhaara nishita duratyaya durgan pathastat kavayo vadanti' isaliye sansaarake pratyek manushyako is kaaryake liye anavarat jaagrat rahana chaahiye- 'uttishthata
jaagrat praapy varaannibodhat .
pratham adhyaayakee triteey valleemen nachiketaake is upaakhyaanako laukikaamushmikobhayareetya mahaneey sveekaara gaya hai; kyonki jo bhee isase prerana grahan karega, vah is lokamen shaanti praaptakar tatpashchaat mrityuke mukhase chhootakar aatmaake svaroopaka bodhakar brahmalok men mahimaanvit hogaa.
jahaantak bodhapraaptika prashn hai, isase vishvake pratyek manushyako pitribhakt, sachche daanasheel, yajnapremee satyavaadee, tyaagee, aadhyaatmik, kushaagrabuddhi, nirbheek, dhanaadike laukik mohase mukt evan aatmajnaanee nachiketaase prerana milatee hai aur aatmaa-buddhi-indriyaadike lakshanonka jnaan, saansaarik asaarata, dhairyasheelata, atithiko mahata, aatmaake svaroop, pramaadaraahity, srishtike kram, svarg aur mrityuke svaroop, dharmaadharm, aatmaakee suvijneyata, durdarshata, guhaahitatv, gahvareshthatv, puraanata, adhyaatmayogaadhigamatv ananyata, bhoot, bhavy aur vartamaan, yogakshemakee avadhaarana, vidyaavidyaako vyaakhya, karmaakarmasheelata aur vivekaka bodh hota hai. isee prakaar aatmaake sandarbhamen usakee kaalatrayase prithakta, vilakshanata, sarvasvaamita, sarvavyaapakata, guhyata, anekaroopataake baavajood ekatv, nirliptataa. adviteeyata aur chetanataaka bhee jnaan hota hai. rishi kahate hain ki-'soory, chandr, vidyut aur agnika prakaasha-sabheeka kaaran aatmatattv hee hai-n tantr sooryo bhaati n chandrataarakan I'
kathopanishadmen niroopit jnaanavaibhavake aadhaarapar anek aisee sooktiyaan hain, jo maanavako anekavidh jnaan karaane men samarth hain, yathaa—
1. sasyamiv martyah pachyate sasyamivaajaayat punah.
arthaat phasalakee bhaanti manushy bhee janm leta hai, vriddh hota hai aur mrityuko praapt ho jaata hai tatha karmaanusaar punah janm leta hai. isase praani jagatmen punarjanm, karmonke parinaam aur saansaarik nashvarataake siddhaantaka bodh hota hai.
2. vaishvaanarah pravishatyatithirbraahmano grihaan .
tasyaitaah shaantin kurvanti har vaivasvatodakam ..
arthaat braahman atithi kisee aatitheyake ghar agnikee bhaanti pravesh karata hai. atah paady, aasan aur jalaadise usakee shaanti karanee chaahiye. yahaan ' atithidevo bhava' ka siddhaantabodh hota hai.
3. atithirnamasyah .
arthaat atithi poojy hota hai.
4. svargaloka amritatvan bhajante .
arthaat svargasth log amritatvako praapt karalete hain.
5. shokaatigo modate svargaloke .
jnaanee bubhuksha, pipaasa evan mrityuke paashase mukt tatha shokaadise rahit hokar svargalokamen aanand praapt karata hai.
6. shvobhaava martyasy yadantakaitat sarvendriyaanaan jarayanti tejah .
manushyonka ant karanevaale sabhee padaarth kshanik hain aur ve indriyonke tejako ksheen karate hain, nasht karate hain.
7. api sarvan jeevitamalpamev .
sabheeka sampoorn jeevan thoda़e samayake liye hai, arthaat kshanabhangur hai.
8. n vitten tarpaneeyo manushyah .
kisee manushyako dhanase tript, santusht naheen kiya ja sakata hai arthaat dhanaadise koee santusht naheen ho sakataa.
9. andhenaiv neeyamaana yathaandhaah .
arthaat yogy guru aavashyak hai, anyathaa
jaaka guru hai andhala chela khara nirandh .
andhai andha theliya dooo koop paड़nt ..
10. naisha tarken matiraapaneyaa.
brahmajnaanakee praaptisambandhee buddhi tarkase praapt naheen hotee, pratyut guru evan prabhukee kripaase praapt hotee hai.
11. n haadhruvaih praapyate hi dhruvan tat.
arthaat adhruv (kshanika) saadhanonse dhruv (nitya) kee praapti sambhav naheen hai.
12. naayamaatma pravachanen labhyo n medhaya bahuna shruten .
arthaat aatmaake svaroopaka avabodh pravachan, medha ya shravanamaatrase sambhav naheen hai.
13. dheero n shochati .
dhairyashaalee kabhee shok naheen karataa.
14. purushaann paran kinchit .
parabrahmase shreshth kuchh bhee naheen hai.
15. uttishthat jaagrat praapy varaannibodhat .
utho, jaago aur avidyaase mukt hokar aatmasvaroopako pahachaano.
isee prakaar chhah valliyonmen anek aise mantr bhee hain, jo sampoornataya sookti kinva siddhaantavaakyake roopamen vidyamaan hain.
is prakaar ham kah sakate hain ki laukik evan paaralaukik sabhee drishtiyonse kathopanishadka nachiketopaakhyaan tatha usake sabhee mantr kisee-na-kisee prakaar maanav maatrake liye amooly jeevana-sandesh hain, jinaka mahattv saarvabhaumik, saarvajaneen evan saarvakaalik hai. etaavata inakee mahatta aur upayogita aaj bhee hai aur bhavishyat kaalamen bhee banee rahegee.