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[ ठाकुर मेघसिंह ] एक भक्त की साधुता कैसे पापी के पाप युक्त मन को भी बिल्कुल साफ कर देता है?

ठाकुर मेघसिंह जागीरदार थे। रियासत बहुत बड़ी तो नहीं थी, परंतु नितान्त छोटी भी नहीं थी। अच्छी आमदनी थी । ठाकुर साहब अक्षरोंकी दृष्टिसे बहुत विद्वान् नहीं थे, पर वैसे यथार्थ दृष्टिमें वे विद्वान् थे। विद्या वही, जो मनुष्यको सच्चे मार्गकी ओर ले जाय । जो विद्या मनुष्यको विपथगामिनी बनाकर भीषण नरकानलमें जलनेको बाध्य करती है, जिसके द्वारा जीवन अभिमान, काम, क्रोध, लोभ, मोह आदिके भयानक तूफान में पड़कर नष्ट-भ्रष्ट हो जाता है, वह तो साक्षात् अविद्या है, प्रत्यक्ष तम है। ऐसी विद्यासे तो बचना ही चाहिये । ठाकुर मेघसिंह उस विनाशकारिणी विद्यासे बचे थे। उनकी विद्याने उनके जीवनको सब ओरसे प्रकाशमय बना रखा था, इससे उनका प्रत्येक कार्य मानव जीवनके परम लक्ष्यको सामने रखकर ही होता था।

ठाकुर साहबकी प्रजाप्रियता और न्यायसे सभी लोग प्रसन्न थे । उनका प्रत्येक न्याय प्रजावत्सलता और सर्वहितकी दृष्टिसे दयापूर्ण ही होता था। उन्हें बड़े से बड़ा त्याग करनेमें भी किसी कठिनाईका सामना नहीं करना पड़ता था । भगवान्के मङ्गलविधानपर अटल विश्वास होनेके कारण उन्हें किसी भी अवस्थामें कोई उद्वेग या विषाद नहीं होता था । जहाँ विषाद या उद्वेग है, वहाँ निश्चय ही भगवान्पर अविश्वास है । ठाकुर साहब नित्य प्रसन्नमुख तथा प्रसन्नमन रहते थे। भगवान्का स्मरण तो उनके जीवनमें श्वासक्रियाकी भाँति अनिवार्य हो गया था । वे नित्य प्रातःकाल सूर्योदयसे एक पहर पूर्व उठते ही सबसे पहले भगवान्‌का ध्यान करते। तदनन्तर शौच-स्नानसे निवृत्त होकर सन्ध्या करते, गायत्रीका जप करते, गीता - विष्णुसहस्रनामका पाठ करते और फिर भगवन्नाम-जपमें लग जाते थे। जपके समय भी उनका मानसध्यान तो चलता ही था । मध्याह्नके समय उनकी पूजा समाप्त होती । तब अभ्यागत अतिथियोंको स्वयं अपने सामने भोजन करवाकर भगवत्प्रसादरूपमें स्वयं भोजन करते। इसके बाद अपनी रियासतका काम देखने कचहरीमें जाकर विराजते और बड़ी धीरता तथा बुद्धिमत्तासे सारा कार्य सँभालते तथा झगड़ोंको निपटाते। उस समय भी उनका भगवत्-स्मरण अखण्ड चलता ही रहता । वे भगवच्चिन्तन करते हुए समस्त कार्य करते ।

संसारमें सब तरहके मनुष्य होते हैं । ठाकुर साहबकी पवित्र जीवनचर्या और उनका साधु स्वभाव भी किसीके लिये ईर्ष्या और द्वेषका कारण बन गया । तमसाच्छन्न हृदयकी कुटिलतासे दृष्टि बदल जाती है। फिर उसे अच्छेमें बुरे, देवतामें राक्षस, साधुमें असाधु और सत्यमें मिथ्याके दर्शन होते हैं। बुद्धि बिगड़नेपर क्रियाका बिगड़ना स्वाभाविक ही है। इसी स्वभाव-विपरीतताका शिकार ठाकुर साहबका ही एक सेवक हो गया । वह जातिका चारण था और उसका नाम था भैरूँदान, वह ठाकुरका बड़ा विश्वासी था और पहले उसके व्यवहारमें भी कोई दोष नहीं था; परंतु किसी दैवदुर्विपाकसे उसका मन बिगड़ गया और मन-ही-मन वैरबद्ध-सा होकर वह ठाकुर साहबको मारनेकी बात सोचने लगा। एक दिन ठाकुर साहबको कचहरीमें देर हो गयी थी। रात्रिका पहला पहर था । कृष्ण पक्ष था । बाहर सब ओर अँधेरा छाया था। उसीमें ठाकुर साहब निकले और कुछ दूरपर स्थित अपने रनिवासकी ओर जाने लगे । भैरूँदान उनके साथ था। पापबुद्धिने जोर दिया, भैरूँदानने कटार निकाली, एक बार हाथ काँपा; परन्तु पापकी प्रेरणासे पुनः अँधेरेमें अपने साधुस्वभाव स्वामीपर वार कर दिया । परन्तु भगवान्‌का विधान कुछ और था, उसी क्षण सामनेसे दौड़ता हुआ एक साँड़ आया। ठाकुर तो आगे बढ़ गये और उसका एक सींग भैरूँदानकी छातीमें लगा । कटार हाथमें लिये भैरूँदान गिर पड़ा, हाथ उलट गया था, इससे कटार जाकर नाकपर लगी, नाकका अगला हिस्सा कट गया । भैरूँदान चिल्लाया। क्षणोंमें यह घटना हो गयी । ठाकुर साहब समीप ही थे । चिल्लाहट सुनकर लौटे। साँड़ तो आगे निकल गया था। इन्होंने जमीनपर पड़े हुए भैरूँदानको उठाया। वह छातीपर लगी सींगकी चोटसे तथा नाककी पीड़ासे बेहोश हो गया था । ठाकुर साहबने पुकारकर रनिवाससे नौकरोंको बुलाया । भैरूँदानको उठाकर वे रनिवासमें ले गये। बाहर चौपालमें चारपाई डलवाकर उसे सुलवा दिया । दीपक आ ही गया था, सो उजाला हो गया । देखा तो उसकी मुट्ठीमें खूनसे भरी तेजधार कटार है और नाकसे खून बह रहा है । मुट्ठी ऐसी जकड़ गयी थी कि कटार उसमेंसे गिरी नहीं । ठाकुर यह दृश्य देखकर अचरजमें पड़ गये। उन्हें साँड़के द्वारा गिराये जानेका तो अनुमान था, पर मुट्ठीमें कटार रहने तथा नाकके कटनेका पूरा रहस्य वे नहीं जानते थे। यद्यपि उन्होंने अँधेरेमें भैरूँदानको अपनेपर वार करते हुए- से देखा था। लेकिन इस रहस्यको जाननेकी चिन्तामें न पड़कर वे उसे होशमें लानेका यत्न करने लगे । मुट्ठी खोलकर कटार निकाली। नाक धोयी, उसपर चूना लगाया। छातीपर कोई दवा लगायी और सिरपर पानी डालकर स्वयं हवा करने लगे । घरके नौकरोंके सिवा और कोई वहाँ था नहीं, इसलिये ठकुराइन भी वहाँ आ गयी थीं । वह भी हवा करने लगीं । इस सेवा और सावधान होकर उसने उपचारसे भैरूँदानको भीतरी होश तो जल्दी हो गया; परंतु छातीकी पीड़ाके मारे उसकी आँखें नहीं खुलीं, वह वैसे ही पड़ा रहा । इधर ठकुराइनने एक प्रसङ्ग छेड़ दिया और उनमें नीचे लिखी बातें हुईं :-

ठकुराइन – चारणजीकी छातीमें साँड़के सींगसे चोट लग गयी, यह तो होनीकी बात है; पर इन्होंने अपने हाथमें कटार क्यों ले रखी थी ? कहीं आपपर वार करनेका तो इनका मन नहीं था ? ठाकुर साहबने भैरूँदानको अपने ऊपर वार करते-से देखा था; परंतु उनके साधु मनने उसपर कोई सन्देह नहीं आने दिया। उन्होंने अनुमान किया कि अँधेरेमें मेरी रक्षाके लिये ही इन्होंने कटार हाथमें ले रखी होगी । अबतक तो इनके मनमें कोई बात थी ही नहीं; परंतु ठकुराइनके प्रश्नसे उन्हें फिर कुछ जागृति-सी हुई, पर सन्देहशून्य पवित्र मनमें सन्देह क्यों होता ? उन्होंने कहा -

'तुम पगली तो नहीं हो गयी ? भैरूँदान मेरा अति विश्वासी साथी है। ‘यह मेरे ऊपर कटार चलावेगा' इस प्रकारका सन्देह करना भी पाप है। सम्भव है, इसने मेरी रक्षाके लिये कटार हाथमें ले रखी हो ।'

ठकुराइनआपकी रक्षाकी वहाँ क्या आवश्यकता थी । मेरे पापी मनमें तो यही जँचती है कि चारणके मनमें बुराई थी, पर भगवान्ने आपकी रक्षा की । -

ठाकुर — देखो, मेरी समझसे तो तुमको ऐसा नहीं सोचना चाहिये । किसीपर भी सन्देह करना पाप है। फिर भला, तुम तो यह जानती ही हो कि हमलोगोंको जो कुछ भी भोग प्राप्त होते हैं, सब हमारे श्रीगोपालजीकी देख-रेखमें तथा उन्हींके विधानके अनुसार होते हैं। वे परम मङ्गलमय हैं, अतएव उनके विधान भी मङ्गलमय हैं। यदि कटार लगती तो भी उनके मङ्गलविधानसे ही लगती । न लगी तो भी मङ्गलविधानसे ही। मैं तो समझता हूँ कि भैरूँदानको जो चोट लगी है, इससे भी इसका कोई मङ्गल ही हुआ है। मुझे मारनेका प्रयास यह क्यों करता ? यदि किया है तो उसमें मेरे किसी पूर्वकर्मके कारण कोई प्रेरणा इसके मनमें हुई होगी। यदि यह भी नहीं है और सचमुच इसके मनमें कोई दुर्भाव ही आया है तो मङ्गलमय भगवान्के मङ्गलविधानसे इस चोटके द्वारा उसका प्रायश्चित्त हो गया । इसे जो आगे भीषण नरकयन्त्रणा भोगनी पड़ती, उसका यहीं थोड़ी-सी चोटमें ही भुगतान हो गया । मुझे तो पूरा विश्वास है कि भगवान् सबका मङ्गल ही करते हैं। मैं अपने भगवान्से कातर प्रार्थना करता हूँ — दयामय प्रभु ! भैरूँदान मेरा परम विश्वासी है। मेरे मनमें कभी किसी प्रकार भी किसीकी या इसकी बुराई करनेकी कोई भावना न आयी हो तो इसकी पीड़ा अभी शान्त हो जाय और इसके मनमें यदि कोई दुर्भावना आयी हो तो उसका भी समूल नाश हो जाय । यह यदि इसके किसी पापका फल हो तो नाथ ! वह फल मुझको भुगता दिया जाय और इसकी शारीरिक तथा मानसिक पीड़ा और उसके कारणोंका विनाश हो जाय ।'

यों प्रार्थना करते-करते ठाकुर साहबकी आँखोंसे आँसुओंकी धारा बहने लगी। उनकी इस दशाको देखकर तथा उनके पवित्र भावोंसे प्रभावित होकर ठकुराइनका हृदय भी द्रवित हो गया । उसने भी रोते हुए भगवान् से प्रार्थना की –‘नाथ ! मैंने जो चारणजीपर सन्देह किया, इस पापके लिये मुझे क्षमा कीजिये और चारणजीको शीघ्र पीड़ासे मुक्त कर दीजिये ।'

भैरूँदानको भीतरी होश था ही । उसने यह सारी बातें सुनीं – ज्यों-ज्यों सुन रहा था, त्यों-ही-त्यों उसका मन बदलता जा रहा था और उसके मनमें अपनी करनीपर पश्चात्ताप हो रहा था। पश्चात्तापकी आगसे उसका हृदय कुछ शुद्ध हो गया । फिर जब ठाकुर साहबने भगवान्‌से प्रार्थना की, तब तो उसका हृदय सर्वथा निर्मल हो गया और क्षणोंमें ही उसकी छातीकी पीड़ा भी सर्वथा शान्त हो गयी। उसने आँखें खोलीं और उठकर वह ठाकुर साहबके चरणोंमें लोट गया । ठाकुर साहब इस बीच भगवान्‌के ध्यानानन्द सुधासागरमें डूब गये थे। उन्हें बाहरकी कोई सुधि नहीं थी । ठकुराइन भी भावावेशमें बेसुध थीं। कुछ देर चारण दोनोंके चरणोंमें लोटता रहा । जब भगवत्प्रेरणासे ठाकुर-ठकुराइनको बाह्य चेतना हुई, तब उन्होंने अपने चरणोंपर पड़े भैरूँदानको अश्रुओंसे चरण पखारते पाया । ठाकुरने उसको उठाकर हृदयसे लगा लिया । - भैरूँदानने अपनेको छुड़ाते हुए रोकर कहा – 'मालिक ! मेरे जैसा महापापी मैं ही हूँ। आप मुझ पापीका स्पर्श मत कीजिये। मैं नरकका कीड़ा महापाभर व्यर्थ ही आपमें दोष देखकर आपको मारने चला था । भगवान्ने बड़ी दया की जो साँड़के रूपमें आकर मेरे नीच आक्रमणसे आपको बचा लिया । आपको क्या, उन्होंने नाक काटकर उचित शिक्षा दी एवं मुझको बचा लिया और ऐसा बचाया कि मेरे पाप-पादपके मूलका ही उच्छेद कर दिया। यह सब आपकी सहज साधुता और भगवत्प्रीतिका चमत्कार है। मेरा मन पश्चात्तापकी आगसे जल रहा है। मैं इसका समुचित दण्ड चाहता हूँ। तभी मुझे तृप्ति होगी ।'

ठाकुर साहबने हँसते हुए कहा – 'भैरूँदान ! तुम जरा भी चिन्ता न करो। तुम मुझे जैसे पहले प्यारे थे, अब उससे भी बढ़कर प्यारे हो । तुम्हारे इस आचरणने मेरे भगवद्विश्वासको और भी बढ़ाया है । इसलिये मैं तो तुम्हारा बड़ा उपकार मानता हूँ और अपनेको तुम्हारा ऋणी पाता हूँ। जिस किसी भी निमित्तसे भगवान्‌में विश्वास उत्पन्न हो और बढ़े, वह निमित्त देखनेमें यदि असुन्दर भी हो, तो भी वस्तुतः बड़ा ही सुन्दर श्रेष्ठ तथा वन्दनीय है। तुम इसमें निमित्त बने । इसलिये तुम मेरे परम हितकारी बन्धु हो। तुम दण्ड चाहते हो, अच्छी बात है। मैं दण्ड देता हूँ, तुम्हारे शरीरको ही नहीं, तन-मन-वचन तीनोंको देता हूँ । जब तुम चाहते हो, तब उसे सानन्द ग्रहण तो करोगे ही। हाँ, यदि तुम ग्रहण करोगे तो मुझको और भी ऋणी बना लोगे । दण्ड यह है कि शरीरसे किसीका कुछ भी बुरा न करके सदा भगवद्भावसे सबकी सेवा किया करो, वचनसे किसीको कभी कठोर वाणी न कहकर सत्य, हितकर, मधुर और परिमित वाणीसे तथा भगवन्नामगुणादिके दिव्य कीर्तन-गायनसे सबको सुख पहुँचाया करो और मनसे द्रोह, दम्भ, काम, क्रोध, लोभ, विषाद और जगच्चिन्तनरूपी विषसमूहको निकालकर प्रेम, सरलता, सचाई, प्रसन्नता, सन्तोष और नित्य भगवच्चिन्तनादिकी अमृतधाराके द्वारा सबका मङ्गल किया करो और यह सब भी किया करो केवल भगवान्‌की प्रसन्नताके लिये ही। यही यथार्थ त्रिदण्ड है। जो इनको धारण करता है, वही त्रिदण्डी है। तुम इन तीनों दण्डोंको धारण कर सदाके लिये त्रिदण्डी बन जाओ। मैं तुम्हारा बड़ा उपकार मानूँगा ।' इन सारी बातोंके होनेमें ठाकुर साहबकी भगवत्स्मृति नित्य अक्षुण्ण बनी रही। कहना नहीं होगा कि भैरूँदानका जीवन ही पलट गया और ठाकुर मेघसिंहजीके बर्ताव और सङ्गसे वह परम साधुताको प्राप्तकर नित्य भगवद्विश्वासी बन गया।



[ thaakur meghasinh ] ek bhakt kee saadhuta kaise paapee ke paap yukt man ko bhee bilkul saaph kar deta hai?

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bhairoondaanako bheetaree hosh tha hee . usane yah saaree baaten suneen – jyon-jyon sun raha tha, tyon-hee-tyon usaka man badalata ja raha tha aur usake manamen apanee karaneepar pashchaattaap ho raha thaa. pashchaattaapakee aagase usaka hriday kuchh shuddh ho gaya . phir jab thaakur saahabane bhagavaan‌se praarthana kee, tab to usaka hriday sarvatha nirmal ho gaya aur kshanonmen hee usakee chhaateekee peeda़a bhee sarvatha shaant ho gayee. usane aankhen kholeen aur uthakar vah thaakur saahabake charanonmen lot gaya . thaakur saahab is beech bhagavaan‌ke dhyaanaanand sudhaasaagaramen doob gaye the. unhen baaharakee koee sudhi naheen thee . thakuraain bhee bhaavaaveshamen besudh theen. kuchh der chaaran dononke charanonmen lotata raha . jab bhagavatpreranaase thaakura-thakuraainako baahy chetana huee, tab unhonne apane charanonpar pada़e bhairoondaanako ashruonse charan pakhaarate paaya . thaakurane usako uthaakar hridayase laga liya . - bhairoondaanane apaneko chhuda़aate hue rokar kaha – 'maalik ! mere jaisa mahaapaapee main hee hoon. aap mujh paapeeka sparsh mat keejiye. main narakaka keeda़a mahaapaabhar vyarth hee aapamen dosh dekhakar aapako maarane chala tha . bhagavaanne baड़ee daya kee jo saanड़ke roopamen aakar mere neech aakramanase aapako bacha liya . aapako kya, unhonne naak kaatakar uchit shiksha dee evan mujhako bacha liya aur aisa bachaaya ki mere paapa-paadapake moolaka hee uchchhed kar diyaa. yah sab aapakee sahaj saadhuta aur bhagavatpreetika chamatkaar hai. mera man pashchaattaapakee aagase jal raha hai. main isaka samuchit dand chaahata hoon. tabhee mujhe tripti hogee .'

thaakur saahabane hansate hue kaha – 'bhairoondaan ! tum jara bhee chinta n karo. tum mujhe jaise pahale pyaare the, ab usase bhee badha़kar pyaare ho . tumhaare is aacharanane mere bhagavadvishvaasako aur bhee badha़aaya hai . isaliye main to tumhaara bada़a upakaar maanata hoon aur apaneko tumhaara rinee paata hoon. jis kisee bhee nimittase bhagavaan‌men vishvaas utpann ho aur badha़e, vah nimitt dekhanemen yadi asundar bhee ho, to bhee vastutah bada़a hee sundar shreshth tatha vandaneey hai. tum isamen nimitt bane . isaliye tum mere param hitakaaree bandhu ho. tum dand chaahate ho, achchhee baat hai. main dand deta hoon, tumhaare shareerako hee naheen, tana-mana-vachan teenonko deta hoon . jab tum chaahate ho, tab use saanand grahan to karoge hee. haan, yadi tum grahan karoge to mujhako aur bhee rinee bana loge . dand yah hai ki shareerase kiseeka kuchh bhee bura n karake sada bhagavadbhaavase sabakee seva kiya karo, vachanase kiseeko kabhee kathor vaanee n kahakar saty, hitakar, madhur aur parimit vaaneese tatha bhagavannaamagunaadike divy keertana-gaayanase sabako sukh pahunchaaya karo aur manase droh, dambh, kaam, krodh, lobh, vishaad aur jagachchintanaroopee vishasamoohako nikaalakar prem, saralata, sachaaee, prasannata, santosh aur nity bhagavachchintanaadikee amritadhaaraake dvaara sabaka mangal kiya karo aur yah sab bhee kiya karo keval bhagavaan‌kee prasannataake liye hee. yahee yathaarth tridand hai. jo inako dhaaran karata hai, vahee tridandee hai. tum in teenon dandonko dhaaran kar sadaake liye tridandee ban jaao. main tumhaara bada़a upakaar maanoonga .' in saaree baatonke honemen thaakur saahabakee bhagavatsmriti nity akshunn banee rahee. kahana naheen hoga ki bhairoondaanaka jeevan hee palat gaya aur thaakur meghasinhajeeke bartaav aur sangase vah param saadhutaako praaptakar nity bhagavadvishvaasee ban gayaa.



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सुबह सवेरे  लेकर तेरा नाम प्रभु,
करते है हम शुरु आज का काम प्रभु,
मेरा यार यशुदा कुंवर हो चूका है
वो दिल हो चूका है जिगर हो चूका है
राधा नाम की लगाई फुलवारी, के पत्ता
के पत्ता पत्ता श्याम बोलता, के पत्ता
मेरे बांके बिहारी बड़े प्यारे लगते
कही नज़र न लगे इनको हमारी
शिव कैलाशों के वासी, धौलीधारों के राजा
शंकर संकट हारना, शंकर संकट हारना
राधा ढूंढ रही किसी ने मेरा श्याम देखा
श्याम देखा घनश्याम देखा
कारे से लाल बनाए गयी रे,
गोरी बरसाने वारी
दिल की हर धड़कन से तेरा नाम निकलता है
तेरे दर्शन को मोहन तेरा दास तरसता है
किशोरी कुछ ऐसा इंतजाम हो जाए।
जुबा पे राधा राधा राधा नाम हो जाए॥
दुनिया का बन कर देख लिया, श्यामा का बन
राधा नाम में कितनी शक्ति है, इस राह पर
श्याम हमारे दिल से पूछो, कितना तुमको
याद में तेरी मुरली वाले, जीवन यूँ ही
मुझे रास आ गया है, तेरे दर पे सर झुकाना
तुझे मिल गया पुजारी, मुझे मिल गया
राधे तु कितनी प्यारी है ॥
तेरे संग में बांके बिहारी कृष्ण
दुनिया से मैं हारा तो आया तेरे दवार,
यहाँ से जो मैं हारा तो कहा जाऊंगा मैं
सावरे से मिलने का सत्संग ही बहाना है ।
सारे दुःख दूर हुए, दिल बना दीवाना है ।
सारी दुनियां है दीवानी, राधा रानी आप
कौन है, जिस पर नहीं है, मेहरबानी आप की
ज़रा छलके ज़रा छलके वृदावन देखो
ज़रा हटके ज़रा हटके ज़माने से देखो
बोल कान्हा बोल गलत काम कैसे हो गया,
बिना शादी के तू राधे श्याम कैसे हो गया
हम प्रेम दीवानी हैं, वो प्रेम दीवाना।
ऐ उधो हमे ज्ञान की पोथी ना सुनाना॥
श्यामा तेरे चरणों की गर धूल जो मिल
सच कहता हूँ मेरी तकदीर बदल जाए॥
राधे राधे बोल, राधे राधे बोल,
बरसाने मे दोल, के मुख से राधे राधे बोल,
यह मेरी अर्जी है,
मैं वैसी बन जाऊं जो तेरी मर्ज़ी है
आज बृज में होली रे रसिया।
होरी रे रसिया, बरजोरी रे रसिया॥
तुम रूठे रहो मोहन,
हम तुमको मन लेंगे
मेरी रसना से राधा राधा नाम निकले,
हर घडी हर पल, हर घडी हर पल।
सब के संकट दूर करेगी, यह बरसाने वाली,
बजाओ राधा नाम की ताली ।
इक तारा वाजदा जी हर दम गोविन्द गोविन्द
जग ताने देंदा ए, तै मैनु कोई फरक नहीं
हम राम जी के, राम जी हमारे हैं
वो तो दशरथ राज दुलारे हैं
जिनको जिनको सेठ बनाया वो क्या
उनसे तो प्यार है हमसे तकरार है ।
हम हाथ उठाकर कह देंगे हम हो गये राधा
राधा राधा राधा राधा

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तीनों लोकों में है सबसे निराला,
वो कान्हा मेरे मन बसता,
भोले मेरी कुटिया में धीरे धीरे आना,
अभी अभी सोया मेरा श्याम ना जगाना॥
हाथ जोड़ कर करूँ मैं विनती,
सांवरिया सरकार,
मुझे है काम ईश्वर से जगत रूठे तो रूठे
कुटुंब परिवार सुत धारा माल धनलाज लोकन
ये श्री बालाजी महाराज हैं,
रखते भक्तो की ये लाज हैं,