माधवदासजी कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे। गृहस्थ आश्रममें आपने अच्छी धन-सम्पत्ति कमायी । आप बड़े ही विद्वान् तथा धार्मिक भक्त थे । जब आपकी धर्मपत्नी स्वर्गलोकको सिधारीं, तब आपके हृदयमें संसारसे सहसा वैराग्य हो गया। संसारको निस्सार समझकर आपने घर छोड़ जगन्नाथपुरीका रास्ता पकड़ा। वहाँ पहुँचकर आप समुद्रके किनारे एकान्त स्थानमें पड़े रहे और अपनेको भगवद्ध्यानमें तल्लीन कर दिया। आप ऐसे ध्यानमग्न हुए कि आपको अन्न-जलकी भी सुध न रही । प्रेमकी यही दशा है। इस प्रकार बिना अन्न-जल आपको कई दिन बीत गये; तब दयालु जगन्नाथजीको आपका इस प्रकार भूखे रहना न सहा गया । तुरंत सुभद्राजीको आज्ञा दी कि आप स्वयं उत्तम-से-उत्तम भोग सुवर्ण-थालमें रखकर मेरे भक्त माधवके पास पहुँचा आओ। सुभद्राजी प्रभुकी आज्ञा पाकर सुवर्ण थाल सजाकर माधवदासजीके पास पहुँचीं। आपने देखा कि माधव तो ध्यानमें ऐसा मग्न है कि उनके आनेका भी कुछ ध्यान नहीं करता । अपनी आँखें मूँदे प्रभुकी परम मनोहर मूर्तिका ध्यान कर रहा है, अतएव आप भी ध्यानमें विक्षेप करना उचित न समझ थाल रखकर चली आयीं। जब माधवदासजीका ध्यान समाप्त हुआ, तब वे सुवर्णका थाल देख भगवत्कृपाका अनुभव कर आनन्दाश्रु बहाने लगे ।
भोग लगाया, प्रसाद पा थालको एक ओर रख दिया; फिर ध्यानमग्न हो गये !
उधर जब भगवान्के पट खुले, तब पुजारियोंने सोनेका एक थाल न देख बड़ा शोर-गुल मचाया । पुरीभरमें तलाशी होने लगी । ढूँढ़ते-ढूँढ़ते थाल माधवदासजीके पास पड़ा पाया गया । बस, फिर क्या था, माधवदासजीको चोर समझकर उनपर चाबुक पड़ने लगे । माधवदासजीने मुसकराते हुए सब चोटें सह लीं ! रात्रिमें पुजारियोंको भयङ्कर स्वप्न दिखलायी दिया । भगवान्ने स्वप्नमें कहा कि – 'मैंने माधवकी चोट अपने ऊपर ले ली, अब तुम्हारा सत्यानाश कर दूँगा, नहीं तो, उसके चरणोंपर पड़कर अपने अपराध क्षमा करवा लो।' बेचारे पण्डा दौड़ते हुए माधवदासजीके पास पहुँचे और उनके चरणोंपर जा गिरे। माधवदासजीने तुरंत क्षमा प्रदान कर उन्हें निर्भय किया । भक्तोंकी दयालुता स्वाभाविक है !
अब माधवदासजीके प्रेमकी दशा ऐसी हो गयी कि जब कभी आप भगवद्दर्शनके लिये मन्दिरमें जाते, तब प्रभुकी मूर्तिको ही एकटक देखते रह जाते । दर्शन समाप्त होनेपर आप तल्लीन अवस्थामें वहीं खड़े-खड़े पुजारियोंके अदृश्य हो जाते ।
एक बार माधवदासजीको अतिसारका रोग हो गया । आप समुद्रके किनारे दूर जा पड़े। वहाँ इतने दुर्बल हो गये कि उठ-बैठ न सकते थे। ऐसी दशामें जगन्नाथजी स्वयं सेवक बनकर आपकी शुश्रूषा करने लगे। जब माधवदासजीको कुछ होश आया, तब उन्होंने तुरंत पहचान लिया कि हो-न-हो ये प्रभु ही हैं। यह समझ झट उनके चरण पकड़ लिये और विनीत भावसे कहने लगे'नाथ ! मुझ जैसे अधमके लिये क्यों आपने इतना कष्ट उठाया ? फिर प्रभो ! आप तो सर्वशक्तिमान् हैं। अपनी शक्तिसे ही मेरे दुःख क्यों न हर लिये, वृथा इतना परिश्रम क्यों किया ?' भगवान् कहने लगे – 'माधव ! मुझसे भक्तोंका कष्ट नहीं सहा जाता, उनकी सेवाके योग्य मैं अपने सिवा किसीको नहीं समझता। इसी कारण तुम्हारी सेवा मैंने स्वयं की । तुम जानते हो कि प्रारब्ध भोगनेसे ही नष्ट होता है, यह मेरा ही नियम है, इसे मैं क्यों तोड़ूँ ? इसलिये केवल सेवा कर प्रारब्ध-भोग भक्तोंसे करवाता हूँ और 'योऽसौ विश्वम्भरो देवः स भक्तान् किमुपेक्षते' इसकी सत्यता संसारको दिखलाता हूँ।' भगवान् यह कहकर अन्तर्धान हो गये । इधर माधवदासजीके भी सब दुःख दूर हो गये । इन घटनाओंसे लोगोंको बड़ा आश्चर्य हुआ। अब तो माधवदासजीकी महिमा चारों ओर फैलने लगी । लोग इनको बहुत घेरने लगे। भक्तोंके लिये सकामी संसारी जीवोंसे घिर जाना एक बड़ी आपत्ति है। आपको यह सूझा कि अब पागल बन जाना चाहिये। बस, आप पागल बन इधर-उधर हरि-ध्वनि करते घूमने लगे । एक दिन आप एक स्त्रीके द्वारपर गये और भिक्षा माँगी । वह स्त्री उस समय चौका दे रही थी, उसने मारे क्रोधसे चौकेका पोतना माधवजीके मुँहपर फेंककर मारा । आप बड़े प्रसन्न होकर उस पोतनेको अपने डेरेपर ले गये । उसे धो-सुखाकर भगवान्के मन्दिरमें जा उसकी बत्ती बनाकर जलायी, जिसका यह फल हुआ कि उस पोतनेकी बत्तीसे ज्यों-ज्यों मन्दिरमें प्रकाश फैलने लगा, त्यों-त्यों उस स्त्रीके हृदय-मन्दिरमें भी ज्ञानका प्रकाश होना प्रारम्भ हुआ। यहाँतक कि अन्तमें वह स्त्री परम भक्तिमती हो गयी और रात-दिन भगवान्के ध्यानमें मस्त रहने लगी।
एक बार एक बड़े शास्त्री पण्डित शास्त्रार्थद्वारा दिग्विजय करते हुए माधवजीके पाण्डित्यकी चर्चा सुनकर शास्त्रार्थ करने जगन्नाथपुरी आये और माधवदासजीसे शास्त्रार्थ करनेका हठ करने लगे। भक्तोंको शास्त्रार्थ निरर्थक प्रतीत होता है। माधवदासजीने बहुत मना किया, पर पण्डित भला कैसे मानते ? अन्तमें माधवदासजीने एक पत्रपर यह लिखकर हस्ताक्षर कर दिया, 'माधव हारा, पण्डितजी जीते।' पण्डितजी इस विजयपर फूले न समाये । तुरंत काशीको चल दिये । वहाँ पण्डितोंकी सभा कर वे अपनी विजयका वर्णन करने लगे और वह प्रमाणपत्र लोगोंको दिखाने लगे । पण्डितोंने देखा तो उसपर यह लिखा पाया, 'पण्डितजी हारे, माधव जीता।' अब तो पण्डितजी क्रोधके मारे आगबबूला हो गये । उलटे पैर जगन्नाथपुरी पहुँचे। वहाँ माधवदासजीको जी खोल गालियाँ सुनायीं और कहा कि ‘शास्त्रार्थमें जो हारे, वही काला मुँह कर गदहेपर चढ़ नगरभरमें घूमे।' माधवदासजीने बहुत समझाया, पर वे क्यों मानने लगे ? अवकाश पाकर भगवान् माधवदासजीका रूप बना पण्डितजीसे शास्त्रार्थ करने पहुँचे और भरी सभामें उन्हें खूब छकाया। अन्तमें उनकी शर्तके अनुसार उनका मुँह काला कर गदहेपर चढ़ा, सौ-दो-सौ बालकोंको ले धूल उड़ाते नगरमें सैर की । माधवदासजीने जब यह हाल सुना, तब भागे और भगवान्के चरण पकड़ उनसे पण्डितजीके अपराधोंकी क्षमा चाही । भगवान् तुरंत अन्तर्धान हो गये। माधवदासजीने पण्डितजीको गदहेसे उतारकर क्षमा माँगी, उनका रोष दूर किया । धन्य है भक्तोंकी सहिष्णुता और दयालुता !
एक बार माधवदासजी व्रजयात्राको जा रहे थे । मार्गमें एक बाई आपको भोजन कराने ले गयी । बाईने बड़े प्रेमसे आपको भोजन करवाया । इधर आपके साथ श्यामसुन्दरजी बगल में बैठ भोजन करने लगे। बाई भगवान्का सुकुमार रूप देखकर रोने लगी और माधवजीसे पूछा, 'भगवन् ! किस कठोरहृदय माताने ऐसे सुन्दर बालकको आपके साथ कर दिया।' माधवदासजीने गर्दन फिराकर देखा तो श्यामसुन्दरजी भोजन कर रहे हैं। बस, आप सुध-बुध भूल गये और बाईजीकी प्रशंसा कर उनकी परिक्रमा करने लगे। उसके भक्तिभाव और सौभाग्यकी सराहना कर वहाँसे विदा हुए ।
बोलो भक्त और उनके भगवान्की जय !
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