'भगवान् बुद्धदेवकी जय ! '
गगन-मण्डल गूँज उठा तथागतके नामघोषसे। कितने दिनों बाद कपिलवस्तुके प्राणप्रिय नरेश शुद्धोदनके पुत्र सिद्धार्थ राजधानीमें पधार रहे हैं। समस्त प्रजा हर्षोत्फुल्ल है। सिद्धार्थ आज बालक सिद्धार्थ नहीं हैं। उन्हें जगत्का मिथ्यात्व-बोध हो गया है। ज्ञान उन्होंने प्राप्त कर लिया है, मोक्ष उनके करतलगत है और अखण्ड शान्ति उनका साथ नहीं छोड़ती। पृथ्वीको सुख-शान्ति वितरित करते हुए एक बार यहाँ पधारनेका उन्होंने कष्ट स्वीकार किया है। नगरकी प्रत्येक देहरीपर आम्र-पल्लवके तोरण बँधे हैं। विविध सुगन्धित पुष्पोंकी मालाएँ टँगी हैं। राजमार्ग और समस्त पथ प्रशस्त हो गये हैं। उनपर जल-सिञ्चन हो गया है और सर्वत्र ही बिखरी पुष्पराशि दीख रही है। भगवान् अपने सुकोमल
चरण धीरे-धीरे रखते हुए आ रहे थे। उनके पीछे विशाल जनसमुद्र लहरा रहा था। मार्गके दोनों ओर छतोंपर स्त्रियाँ मङ्गल-गानके द्वारा | उनकी स्तुति करती हुई उनपर पुष्प वृष्टि कर रही थीं। और अपलक नेत्रोंसे उनके दर्शन कर रही थीं। आज कपिलवस्तुकी प्रजा धन्य हो गयी थी, आज उसकाजीवन सफल हो गया था, वह कृतार्थ हो गयी थी जो अपने भगवान्की दिव्यमूर्तिके प्रत्यक्ष दर्शन कर रही थी। आज कपिलवस्तुके समस्त प्राणी अपनी चिन्ता, शोक और विषाद सदाके लिये भूल गये हैं। उनके सामने आनन्दको मुक्तहस्तसे वितरित करनेवाले देवता जो आ गये हैं।
"मैं धन्य हो गया।' सिद्धार्थके वैमात्रेय भ्राता नन्द नंगे पैरों दौड़े आये थे और तथागतके चरणोंमें दण्डकी भाँति पड़ गये। उनके नेत्रोंसे बहती अनवरत वारिधाराएँ बुद्धदेवके युगल पाद-पद्मोंका प्रक्षालन करने लगीं। उनका हृदय गद्गद और वाणी अवरुद्ध हो गयी थी।
इच्छा होनेपर भी वे बोल नहीं पा रहे थे। 'प्रिय नन्द !' बुद्धदेवने नन्दको उठाकर अङ्कसे कस लिया। उनकी विमाता मायादेवी और यह उनका भाई उन्हें कितना प्रिय था, वे कैसे बताते। पर आज - तो जगतीका प्रत्येक जीव उनके लिये प्राणाधिक प्रिय हो गया था। वे नन्दके सिरपर हाथ फेर रहे थे। नन्दके नेत्र अब भी अश्रुवर्षा कर रहे थे। बड़ी कठिनाईसे नन्दने कहा - 'आज कपिलवस्तु और उसकी प्रजा - धन्य हो गयी। आप जैसे भाईको पाकर मेरा जीवनपरम पावन बन जाय, इसमें तो कहना ही क्या। आपके अवतरित होनेसे समस्त मेदिनी पुनीत हो गयी। जगत्के पाप-ताप दूर भाग गये। पृथ्वीका भार हलका हो गया। आज वह पुलकित.....|'
नन्द आगे नहीं बोल सके। एक अत्यन्त सुमधुर स्मितके साथ बुद्धदेवने उन्हें अपने अङ्कमें पुनः कस लिया और उधर प्रेमोन्मत्त असंख्य जन कण्ठोंने उच्चघोष किया भगवान् बुद्धदेवकी जय'
'भगवान् बुद्धदेवकी जय!' नन्दके मुखसे स्वतः निकल गया। उनके नेत्रोंसे प्रेमाश्रु बहते ही जा रहे थे।
'बुद्धं शरणं गच्छामि।'
'धम्मं शरणं गच्छामि।'
'संघं शरणं गच्छामि।'
नन्द बार-बार उच्चारण करते। बोधिसत्त्वके चरणोंका
ध्यान एवं उनके उपदेशका वे प्रतिक्षण मनन करते।
'जगत्की प्रत्येक प्रिय और मनोरम वस्तुका विछोह
होगा ये छूटेंगी ही उनका नाश निश्चित है।' बोधिसत्वक
इस वाणीने उनके मनमें वैराग्य उत्पन्न कर दिया था। मुक्ति-प्राप्तिके लिये वे प्राणपणसे प्रयत्न कर रहे थे। उनकी प्रत्येक क्रिया मुक्तिके लिये ही हो रही थी। किंतु जिस प्रकार सघन जलद मालाके बीच सौदामनी कौंधकर क्षणार्द्धके लिये घनान्धकारको समाप्त कर देती है, सर्वत्र प्रकाश छा जाता है, उसी प्रकार नन्दके मस्तिष्क में एक ऐसी स्मृति उदित हो जाती, जिसके कारण वे क्षणभरके लिये सहम जाते, उनका सारा प्रयत्न जैसे शिथिल हो जाता मुक्तिके सम्पूर्ण प्रयत्नपर जैसे पानी फिर जाता।
'प्रिय शीघ्र लौटना।' नागिन जैसे अपने कृष्ण केशोंको फैलाये चन्द्रमुखी शाक्यानी जनपद-कल्याणीने अत्यन्त करुण स्वरमें कहा था। उसकी चम्पकलता सी कोमल काया काँप रही थी और कमल सरीखे नेत्रोंसे आँसूकी गोल-गोल बड़ी-बड़ी रही थीं। नन्दने अपनी प्राणप्रियाके इस रूपको तिरछे नेत्रोंसे एक बार केवल एक ही बार देखा था; पर उसकी वह करुणमूर्ति बरबस न चाहनेपर भी नन्दके हृदय - मन्दिरमें प्रवेश कर गयी थी-चुपकेसे नेत्रोंमें।बस गयी थी।
पर नन्दने बोधिसत्वके तेजस्वी रूपका दर्शन लिया था, उनका अमृतमय उपदेश सुना संसारको असारता तथागतके शब्दोंमें अब भी उन कानोंमें झंकृत हो रही थी, फिर वे किस प्रकार पीछे पण रखते थे बड़े-बढ़ते गये तथागतके चरणमि | जीवमात्रको मुक्तिका मार्ग बतानेके लिये जब भगवान्ने धरित्रीपर पग रखा था, तब नन्दको वे क्यों नहीं दीक्षित करते ? था।
नन्द विशुद्ध अन्तर्मनसे ब्रह्मचर्य का पालन कर रहे थे। किंतु प्रातः - सायं मध्याह्न या नीरव निशीथमें जब ये एकाकी 'बुद्धं शरणं गच्छामि' की आवृत्ति करते होते, तब अचानक शाक्यानी जनपद-कल्याणीको करुणमूर्ति नेत्रोंके सामने आ जाती। उसकी बड़ी वी आँसूकी बूँदोंकी स्मृतिसे वे सिहर उठते और उसी समय उन्हें कोकिलकण्ठका अनुनय सुनायी देता - 'प्रिय शीघ्र लौटना।
नन्द आकुल हो जाते। उनकी बुद्धि काम नहीं कर रही थी। सुविस्तृत मार्गपर वे अपने पग दृढ़तासे बढ़ते जायेंगे, इसकी आशा उनके मनसे तिरोहित सी चली जा रही थी।
"आवुस!' अन्ततः अधीर नन्दने अपने मनकी बा एक भिक्षुपर प्रकट कर दी। 'मेरा साधन शिथिल होता जा रहा है। ब्रह्मचर्यका पालन मुझसे सम्भव नहीं। मैं इस व्रतको त्यागकर पुनः गार्हस्थ्य-जीवनमें लौट जानेका विचार कर रहा हूँ।' 'सत्य कहते हो, नन्द ?' भिक्षुने आश्चर्यचकित हो
पूछा और नन्दकी ओर देखने लगा। 'आवुस!' नन्दने अवनत वदन उत्तर दे दिया।
सत्य कहता हूँ। पत्नी की स्मृति मुझे विकल कर रही है। नन्द चकित थे। उन्होंने ऐसे-ऐसे विस्तृत और रमणीय प्रासाद कभी नहीं देखे थे। मणिमय भित्तियाँ और स्वर्णके दोमिय ऊँचे कलश देखकर मन हो जाता था। विस्तीर्ण पथ, उपवन और जिस ओर भ दृष्टि जाती, वहीं रुक जाती नन्दने पूछा-'भन्ते! हम कहाँ है?''यह देवलोक है।' तथागतने उत्तर दिया और आगे । गये।
'भन्ते! ऐसा रूप लावण्य तो मैंने कभी देखा यहाँ सदके आश्चर्यको सीमा नहीं थी। अपने नेत्रोंसे उन्होंने जो कभी नहीं देखा और जो कभी सुननेको भी नहीं मिला और मनने जिसकी कभी कल्पनातक नहीं की, वह सब यहाँ दीख रहा था। वे परम विस्मित थे। शनी जनपद-कल्याणी तथा पृथ्वीको सर्वोत्तम सुन्दरी तो इन लावण्यवतियोंके सम्मुख पुच्चाहना कृतिकानी कुतियासे भी अत्यधिक कुरूपा और उपेक्षणीया हैं। 'ये देवियाँ कौन हैं ?' पूछ लिया उन्होंने ।
"ये अधाराएँ हैं। देवाधिपति की सेवामें उपस्थित हुई है । बोधिसत्व मुसकराते हुए कहा 'एक बात पूछें, बताओगे ?'
'अवश्य बताऊँगा।' नन्दकी दृष्टि अप्सराओंकी ओर थी। 'आपसे क्या गोप्य है।'
'भूलोककी सुन्दरियाँ इनकी तुलना 'कुछ भी नहीं।' तथागतका प्रश्न पूरा हुए बिना ही
नन्दने उत्तर दे दिया। 'महाकुरूपा हैं वे इनके सामने।' 'जनपदकल्याणी ?' तथागतने पुनः पूछा।
'वह भी।' नन्दने बल देकर कहा 'इस सौन्दर्यकी तुलना जगत् कहाँ प्रभो!'
मैं इन पाँच सौ रूपसियों को तुम्हें दिला दूंगा।" तथागतने कहा । 'मेरे वचनपर विश्वास करके तुम ब्रह्मचर्य का पालन करो ?'
'भन्ते! मैं अवश्य ब्रह्मचर्य व्रतका पालन करूँगा।' अत्यन्त उत्साहसे नन्दने उत्तर दिया। 'आपके वचनका विश्वास धरातलका कौन प्राणी नहीं करेगा।'
नन्दने देखा, वे भगवान्के साथ पुनः जेतवनमें आ गये हैं। देवलोक अलक्षित हो गया।
'पाँच सौ रूपसियोंके लोभसे नन्द ब्रह्मचर्यका न कर रहे हैं।' शूल-जैसी निन्द चिन्ता नहीं करते। उन्हें तो दृढ विश्वास था भगवान्केवचनका निश्चय ही पाँच सौ अलौकिक लावण्यवतियाँ सुलभ हो जायेंगी। वे दत्तचित्त हो ब्रह्मचर्य व्रतका पालन करते जा रहे थे।
विशुद्ध निष्ठा और आत्मसंयमसे वे व्रतमें लगे रहे। कुछ ही समय बाद उन्हें वह प्राप्त हो गया, जिसके लिये प्रव्रजित हुआ जाता है। उनका व्रत सफल हो गया। ममताका बन्धन छिन्न हो गया। इसके बाद कुछ करना शेष नहीं है' इसे उन्होंने जान लिया। तत्त्वका उन्होंने साक्षात्कार कर लिया।
प्रत्यूष वेला। शीतल पवन मन्थर गतिसे बह रहा था। सर्वत्र शान्तिका एकाधिप साम्राज्य था। भगवान् शान्त बैठे थे।
'भन्ते!' नन्दने अभिवादन करनेके पश्चात् कहा, 'जिन पाँच सौ अप्सराओंको मुझे दिलानेका आपने वचन दिया था, अब मुझे उनकी आवश्यकता नहीं रह गयी।'
"नन्द!' बुद्धदेवने वैसी ही शान्तिसे कहा, 'मुझे विदित हो गया है कि नन्द यहाँपर चेतोविमुक्ति, प्रज्ञा विमुक्तिको जान, उनका साक्षात्कार कर चुका है। तुम्हें प्रापञ्चिक जगत्से मुक्ति मिलते ही मैं अपने वचन पालनके दायित्वसे मुक्त हो गया।'
कुछ रुककर भगवान्ने पुनः धीरे-धीरे कहा 'काम जिन्हें स्पर्श नहीं कर पाता, ममता पाशमें जो बँध नहीं पाता और सुख-दुःखसे जो प्रभावित नहीं होता, वही सच्चा भिक्षु है।'
'भन्ते! जगत्का आकर्षण मेरे मनसे सर्वथा समाप्त हो गया!' सीस झुकाकर आयुष्मान् नन्दने निवेदन किया। 'अब तो मेरे मनमें तीव्रतम आकर्षण है केवल आपके पाद-पद्योंमें।'
तथागत मौन तथा शान्त थे। उनकी आकृतिसे तेज छिटक रहा था। नन्द मन-ही-मन आवृत्ति कर रहे थे 'युद्धं शरणं गच्छामि। धम्मं शरणं गच्छामि। संघ शरणं"।' शि0 दु0
'bhagavaan buddhadevakee jay ! '
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'buddhan sharanan gachchhaami.'
'dhamman sharanan gachchhaami.'
'sanghan sharanan gachchhaami.'
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dhyaan evan unake upadeshaka ve pratikshan manan karate.
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"ye adhaaraaen hain. devaadhipati kee sevaamen upasthit huee hai . bodhisatv musakaraate hue kaha 'ek baat poochhen, bataaoge ?'
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'bhoolokakee sundariyaan inakee tulana 'kuchh bhee naheen.' tathaagataka prashn poora hue bina hee
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'vah bhee.' nandane bal dekar kaha 'is saundaryakee tulana jagat kahaan prabho!'
main in paanch sau roopasiyon ko tumhen dila doongaa." tathaagatane kaha . 'mere vachanapar vishvaas karake tum brahmachary ka paalan karo ?'
'bhante! main avashy brahmachary vrataka paalan karoongaa.' atyant utsaahase nandane uttar diyaa. 'aapake vachanaka vishvaas dharaatalaka kaun praanee naheen karegaa.'
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'paanch sau roopasiyonke lobhase nand brahmacharyaka n kar rahe hain.' shoola-jaisee nind chinta naheen karate. unhen to dridh vishvaas tha bhagavaankevachanaka nishchay hee paanch sau alaukik laavanyavatiyaan sulabh ho jaayengee. ve dattachitt ho brahmachary vrataka paalan karate ja rahe the.
vishuddh nishtha aur aatmasanyamase ve vratamen lage rahe. kuchh hee samay baad unhen vah praapt ho gaya, jisake liye pravrajit hua jaata hai. unaka vrat saphal ho gayaa. mamataaka bandhan chhinn ho gayaa. isake baad kuchh karana shesh naheen hai' ise unhonne jaan liyaa. tattvaka unhonne saakshaatkaar kar liyaa.
pratyoosh velaa. sheetal pavan manthar gatise bah raha thaa. sarvatr shaantika ekaadhip saamraajy thaa. bhagavaan shaant baithe the.
'bhante!' nandane abhivaadan karaneke pashchaat kaha, 'jin paanch sau apsaraaonko mujhe dilaaneka aapane vachan diya tha, ab mujhe unakee aavashyakata naheen rah gayee.'
"nanda!' buddhadevane vaisee hee shaantise kaha, 'mujhe vidit ho gaya hai ki nand yahaanpar chetovimukti, prajna vimuktiko jaan, unaka saakshaatkaar kar chuka hai. tumhen praapanchik jagatse mukti milate hee main apane vachan paalanake daayitvase mukt ho gayaa.'
kuchh rukakar bhagavaanne punah dheere-dheere kaha 'kaam jinhen sparsh naheen kar paata, mamata paashamen jo bandh naheen paata aur sukha-duhkhase jo prabhaavit naheen hota, vahee sachcha bhikshu hai.'
'bhante! jagatka aakarshan mere manase sarvatha samaapt ho gayaa!' sees jhukaakar aayushmaan nandane nivedan kiyaa. 'ab to mere manamen teevratam aakarshan hai keval aapake paada-padyonmen.'
tathaagat maun tatha shaant the. unakee aakritise tej chhitak raha thaa. nand mana-hee-man aavritti kar rahe the 'yuddhan sharanan gachchhaami. dhamman sharanan gachchhaami. sangh sharanan".' shi0 du0