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पापका फल स्वयंको ही भोगना पड़ता है  [Spiritual Story]
Spiritual Story - छोटी सी कहानी (आध्यात्मिक कथा)

पापका फल स्वयंको ही भोगना पड़ता है

प्राचीन कालमें सुमति नामक एक भृगुवंशी ब्राह्मण थे। उनकी पत्नी कौशिकवंशकी कन्या थी। सुमतिके एक पुत्र हुआ, जिसका नाम अग्निशर्मा रखा गया। वह पिताके बार-बार कहनेपर भी वेदाभ्यासमें मन नहीं लगाता था। एक बार उसके देशमें बहुत दिनोंतक वर्षा नहीं हुई। उस समय बहुत लोग दक्षिण दिशामें चले गये। विप्रवर सुमति भी अपने पुत्र और स्त्रीके साथ विदिशाके वनमें चले गये और वहाँ आश्रम बनाकर रहने लगे। वहाँ अग्निशर्माका लुटेरोंसे साथ हो गया; अतः जो भी उस मार्गसे आता, उसे वह पापात्मा मारता और लूट लेता था। उसको अपने ब्राह्मणत्वकी स्मृति नहीं रही। वेदका अध्ययन जाता रहा, गोत्रका ध्यान चला गया और वेद-शास्त्रोंकी सुधि भी जाती रही। किसी समय तीर्थयात्राके प्रसंगमें उत्तम व्रतका पालन करनेवाले सप्तर्षि उस मार्गपर आ निकले। अग्निशर्माने उन्हें देखकर मारने की इच्छासे कहा-'ये सब वस्त्र उतार दो, छाता और जूता भी रख दो।' उसकी यह बात सुनकर महर्षि अत्रि बोले- 'तुम्हारे हृदयमें हमें पीड़ा देनेका विचार कैसे उत्पन्न हो रहा है? हम तपस्वी हैं और तीर्थयात्राके लिये जा रहे हैं।'
अग्निशर्माने कहा- मेरे माता-पिता, पुत्र और पत्नी हैं। उन सबका पालन-पोषण मैं ही करता हूँ। इसलिये मेरे हृदयमें यह विचार प्रकट हुआ है।
अत्रि बोले- तुम अपने पितासे जाकर पूछो तो
सही कि मैं आपलोगोंके लिये पाप करता हूँ, यह पाप किसको लगेगा? यदि वे यह पाप करनेकी आज्ञा न दें, तब तुम व्यर्थ प्राणियोंका वध न करो।
अग्निशर्मा बोला- अबतक तो कभी मैंने उन लोगोंसे ऐसी बात नहीं पूछी थी। आज आपलोगोंके कहने से मेरी समझमें यह बात आयी है। अब मैं उन सबसे जाकर पूछता हूँ। देखूं, किसका कैसा भाव है? जबतक मैं लौटकर नहीं आता, तबतक आपलोग यहीं रहें।
ऐसा कहकर अग्निशर्मा तुरंत अपने पिताके समीप गया और बोला- 'पिताजी! धर्मका नाश करने और जीवोंको पीड़ा देनेसे बड़ा भारी पाप देखा जाता है और मुझे जीविकाके लिये यही सब पाप करना पड़ता है। बताइये, यह पाप किसको लगेगा ?' पिता और माताने उत्तर दिया- 'तुम्हारे पापसे हम दोनोंका कोई सम्बन्ध नहीं है। तुम करते हो अतः तुम जानो। जो कुछ तुमने किया है, उसे फिर तुम्हें ही भोगना पड़ेगा।' उनका यह वचन सुनकर अग्निशर्माने अपनी पत्नीसे भी पूर्वोक्त बात पूछी। पत्नीने भी यही उत्तर दिया- 'पापसे मेरा सम्बन्ध नहीं है, सब पाप तुम्हें ही लगेगा।' फिर उसने अपने पुत्रसे पूछा। पुत्र बोला- 'मैं तो अभी बालक हूँ, मेरा आपके पापसे क्या सम्बन्ध है ?' उनकी बातचीत और व्यवहारको ठीक-ठीक समझकर अग्निशर्मा मन-ही मन बोला- 'हाय! मैं तो नष्ट हो गया। अब वे तपस्वी महात्मा ही मुझे शरण देनेवाले हैं।' फिर तो उसने उस डण्डेको दूर फेंक दिया, जिससे कितने ही प्राणियोंका वध किया था और सिरके बाल बिखराये हुए वह तपस्वी महात्माओंके आगे जाकर खड़ा हुआ। वहाँ उनके चरणोंमें दण्डवत्-प्रणाम करके बोला—'तपोधनो! मेरे माता, पिता, पत्नी और पुत्र कोई नहीं हैं। सबने मुझे त्याग दिया है, अतः मैं आपलोगोंकी शरणमें आया हूँ। अब उत्तम उपदेश देकर आप नरकसे मेरा उद्धार करें।'
उसके इस प्रकार कहनेपर ऋषियोंने अत्रिजीसे कहा-' 'मुने! आपके कथनसे ही इसको बोध प्राप्त हुआ है, अतः आप ही इसे अनुगृहीत करें। यह आपका शिष्य हो जाय।' 'तथास्तु' कहकर अत्रिजी अग्निशर्मासे बोले-'तुम इस वृक्षके नीचे बैठकर भगवान् रामके सुन्दर स्वरूपका ध्यान करो। इस ध्यानयोगसे और महामन्त्र (रामनाम) के जपसे तुम्हें परम सिद्धि प्राप्त होगी।' ऐसा कहकर वे सब ऋषि यथेष्ट स्थानको चले गये। अग्निशर्मा तेरह वर्षोंतक मुनिके बताये अनुसार ध्यानयोगमें संलग्न रहा। वह अविचल भावसे बैठा रहा और उसके ऊपर बाँबी जम गयी। तेरह वर्षोंके बाद जब वे सप्तर्षि पुनः उसी मार्गसे लौटे, तब उन्हें वल्मीकमेंसे उच्चरित होनेवाली रामनामकी ध्वनि सुनायी पड़ी। इससे उनको बड़ा विस्मय हुआ । उन्होंने काठकी कीलोंसे वह बाँबी खोदकर अग्निशर्माको देखा और उसे उठाया। उठकर उसने उन सभी श्रेष्ठ मुनियोंको, जो तपस्याके तेजसे उद्भासित हो रहे थे, प्रणाम किया और इस प्रकार कहा-'मुनिवरो! आपके ही प्रसादसे आज मैंने शुभ ज्ञान प्राप्त किया है। मैं पाप-पंकमें डूब रहा था, आपने मुझ दीनका उद्धार कर दिया है।'
उसकी यह बात सुनकर परम धर्मात्मा सप्तर्षि बोले- 'वत्स! तुम एकचित्त होकर दीर्घकालतक वल्मीक (बाँबी)-में बैठे रहे हो, अतः इस पृथ्वीपर तुम्हारा नाम 'वाल्मीकि' होगा।' यों कहकर वे तपस्वी मुनि अपनी गन्तव्य दिशाकी ओर चल दिये। उनके चले जानेपर तपस्वीजनोंमें श्रेष्ठ वाल्मीकिने कुशस्थलीमें आकर महादेवजीकी आराधना की और उनसे कवित्वशक्ति पाकर एक मनोरम काव्यकी रचना की, जिसे 'रामायण' कहते हैं और जो छन्दोबद्ध काव्यात्मक कथा-साहित्यमें सबसे प्रथम माना गया है। [स्कन्दपुराण ]



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paapaka phal svayanko hee bhogana pada़ta hai

paapaka phal svayanko hee bhogana pada़ta hai

praacheen kaalamen sumati naamak ek bhriguvanshee braahman the. unakee patnee kaushikavanshakee kanya thee. sumatike ek putr hua, jisaka naam agnisharma rakha gayaa. vah pitaake baara-baar kahanepar bhee vedaabhyaasamen man naheen lagaata thaa. ek baar usake deshamen bahut dinontak varsha naheen huee. us samay bahut log dakshin dishaamen chale gaye. vipravar sumati bhee apane putr aur streeke saath vidishaake vanamen chale gaye aur vahaan aashram banaakar rahane lage. vahaan agnisharmaaka luteronse saath ho gayaa; atah jo bhee us maargase aata, use vah paapaatma maarata aur loot leta thaa. usako apane braahmanatvakee smriti naheen rahee. vedaka adhyayan jaata raha, gotraka dhyaan chala gaya aur veda-shaastronkee sudhi bhee jaatee rahee. kisee samay teerthayaatraake prasangamen uttam vrataka paalan karanevaale saptarshi us maargapar a nikale. agnisharmaane unhen dekhakar maarane kee ichchhaase kahaa-'ye sab vastr utaar do, chhaata aur joota bhee rakh do.' usakee yah baat sunakar maharshi atri bole- 'tumhaare hridayamen hamen peeda़a deneka vichaar kaise utpann ho raha hai? ham tapasvee hain aur teerthayaatraake liye ja rahe hain.'
agnisharmaane kahaa- mere maataa-pita, putr aur patnee hain. un sabaka paalana-poshan main hee karata hoon. isaliye mere hridayamen yah vichaar prakat hua hai.
atri bole- tum apane pitaase jaakar poochho to
sahee ki main aapalogonke liye paap karata hoon, yah paap kisako lagegaa? yadi ve yah paap karanekee aajna n den, tab tum vyarth praaniyonka vadh n karo.
agnisharma bolaa- abatak to kabhee mainne un logonse aisee baat naheen poochhee thee. aaj aapalogonke kahane se meree samajhamen yah baat aayee hai. ab main un sabase jaakar poochhata hoon. dekhoon, kisaka kaisa bhaav hai? jabatak main lautakar naheen aata, tabatak aapalog yaheen rahen.
aisa kahakar agnisharma turant apane pitaake sameep gaya aur bolaa- 'pitaajee! dharmaka naash karane aur jeevonko peeda़a denese bada़a bhaaree paap dekha jaata hai aur mujhe jeevikaake liye yahee sab paap karana pada़ta hai. bataaiye, yah paap kisako lagega ?' pita aur maataane uttar diyaa- 'tumhaare paapase ham dononka koee sambandh naheen hai. tum karate ho atah tum jaano. jo kuchh tumane kiya hai, use phir tumhen hee bhogana pada़egaa.' unaka yah vachan sunakar agnisharmaane apanee patneese bhee poorvokt baat poochhee. patneene bhee yahee uttar diyaa- 'paapase mera sambandh naheen hai, sab paap tumhen hee lagegaa.' phir usane apane putrase poochhaa. putr bolaa- 'main to abhee baalak hoon, mera aapake paapase kya sambandh hai ?' unakee baatacheet aur vyavahaarako theeka-theek samajhakar agnisharma mana-hee man bolaa- 'haaya! main to nasht ho gayaa. ab ve tapasvee mahaatma hee mujhe sharan denevaale hain.' phir to usane us dandeko door phenk diya, jisase kitane hee praaniyonka vadh kiya tha aur sirake baal bikharaaye hue vah tapasvee mahaatmaaonke aage jaakar khada़a huaa. vahaan unake charanonmen dandavat-pranaam karake bolaa—'tapodhano! mere maata, pita, patnee aur putr koee naheen hain. sabane mujhe tyaag diya hai, atah main aapalogonkee sharanamen aaya hoon. ab uttam upadesh dekar aap narakase mera uddhaar karen.'
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usakee yah baat sunakar param dharmaatma saptarshi bole- 'vatsa! tum ekachitt hokar deerghakaalatak valmeek (baanbee)-men baithe rahe ho, atah is prithveepar tumhaara naam 'vaalmeeki' hogaa.' yon kahakar ve tapasvee muni apanee gantavy dishaakee or chal diye. unake chale jaanepar tapasveejanonmen shreshth vaalmeekine kushasthaleemen aakar mahaadevajeekee aaraadhana kee aur unase kavitvashakti paakar ek manoram kaavyakee rachana kee, jise 'raamaayana' kahate hain aur jo chhandobaddh kaavyaatmak kathaa-saahityamen sabase pratham maana gaya hai. [skandapuraan ]

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