वनवासमें पाण्डव जब काम्यक वनमें थे, तब श्रीकृष्णचन्द्र सात्यकि आदिके साथ उनसे मिलने गये थे। उस समय उनके साथ सत्यभामाजी भी थीं। एक दिन श्रीकृष्णचन्द्रकी प्रियतमा उन सत्यभामाजीने एकान्तमें द्रौपदीजीसे पूछा—'पाञ्चाली! तुम लोकपालोंके समान तेजस्वी और वीर अपने पतियोंको कैसे संतुष्ट रखती हो ? तुम्हारे पति तुमपर कभी क्रोध नहीं करते, वे सदा तुम्हारे वशमें रहते हैं, तुम्हारा मुख देखा करते हैं इसका क्या कारण है ? तुमने इसके लिये कोई व्रत, तप या जप किया है? अथवा किसी मन्त्र, दवा, अञ्जन या जड़ीका प्रयोग किया है? मुझे भी ऐसा कोई उपाय बतलाओ, जिससे मेरे स्वामी श्रीद्वारकेश मेरे वशमें रहें।'
द्रौपदीजीने कहा- 'सत्यभामाजी! तुम मुझसे यह दुष्टा स्त्रियोंकी-सी बात कैसे पूछती हो? तुम्हारे लिये ऐसा प्रश्न करना उचित नहीं है। देखो, जब पतिको पता लगता है कि स्त्री उसे वशमें करनेके लिये मन्त्र तन्त्रादिका प्रयोग करवाती है, तब वह उससे उसी प्रकार घबराता है जैसे लोग घरमें रहनेवाले सर्पसे डरतेहैं। वह पुरुष सदा चिन्तित रहने लगता है। बहिन ! मन्त्र-तन्त्रसे पुरुष कभी स्त्रीके वशमें नहीं हो सकता। इससे उलटे बुराई उत्पन्न होती है। वशीकरणके लोभमें पड़कर स्त्रियाँ अपने पतिको अज्ञानवश ऐसी वस्तुएँ खिला देती हैं, जिससे उनकी मृत्यु हो जाती है या वे असाध्य रोगोंके शिकार हो जाते हैं। भोजन या लेपमें वे ऐसी वस्तुएँ मिला देती हैं, जिनसे उनके पति जलोदर, कोढ़, नपुंसकता, पागलपन आदि भयंकर रोगोंसे पीड़ित हो जाते हैं अथवा अंधे या बहिरे हो जाते हैं। धूर्तलोग ऐसी स्त्रियोंको ठगकर उनका धन ले लेते हैं, उन्हें आचरणभ्रष्ट कर देते हैं और उनके द्वारा उनके पतिको विषैली वस्तुएँ दिलवा देते हैं। स्त्रीको पतिका अनिष्ट या अप्रिय कभी नहीं करना चाहिये।'
द्रौपदीजीने आगे बताया- 'सत्यभामाजी ! महात्मा पाण्डव मेरे जिन कामोंसे मुझपर प्रसन्न हैं, वे तुम्हें बतलाती हूँ। मैं अहंकार, कामवासना, क्रोध तथा दुष्ट भावोंसे दूर रहकर सदा पाण्डवों तथा उनकी अन्य पत्त्रियोंकी सेवा करती हूँ। कभी गर्व नहीं करती। मेरे पति जो चाहते हैं, वैसा ही कार्य करती हूँ। उनपर कभीसंदेह नहीं करती और न उनसे कभी कठोर वचन ही कहती हूँ। कभी बुरे स्थानपर या बुरी संगतिमें नहीं बैठती। ऐसी दृष्टिसे कभी किसीको नहीं देखती जिससे निन्दित विचार व्यक्त हों। पाण्डवोंके अतिरिक्त मेरे हृदयमें किसी पुरुषके लिये कभी स्थान नहीं पाण्डवोंके 1 भोजन किये बिना मैं भोजन नहीं करती और उनके स्नान किये बिना स्नान नहीं करती। उनके सो जानेपर ही सोती हूँ। यहाँतक कि घरके और लोगों तथा सेवकोंके खाने-पीनेसे पहले भी मैं स्नान, भोजन या शयन नहीं करती। मेरे पति बाहरसे लौटकर जब घर आते हैं, तब मैं आगेसे उठकर उनका स्वागत करती हूँ, उन्हें घरमें लाकर बैठनेको आसन देती हूँ तथा हाथ पैर एवं मुख धोनेके लिये जल देती हूँ। घर और घरकी सभी सामग्री स्वच्छ रखती हूँ। स्वच्छताके साथ भोजन बनाकर ठीक समयपर उन्हें भोजन कराती हूँ। अन्न तथा दूसरी सामग्री यबके साथ भंडारमें सुरक्षित रखती हूँ। बुरे आचरणकी निन्दित स्त्रियोंके पास न बैठती हूँ न उनसे मित्रता रखती हूँ। बिना हँसीका अवसर हुए मैं हँसती नहीं द्वारपर खड़ी नहीं रहती घरसे सटे उपवनमें देरतक नहीं रुकती। क्रोध उत्पन्न होनेवाले अवसरोंको टाल जाती हूँ। किसी कार्यसे जब पति कहीं विदेश जाते हैं, तब उस समय में पुष्प माला, सुगन्ध आदि त्याग देती हूँ। मेरे पति जो पदार्थ नहीं खाते, जिसका सेवन वे नहीं करते, उन पदार्थोंका में भी त्याग कर देती हैं। पतिके पास में सदा पवित्र होकर, सुन्दर स्वच्छ वस्त्र पहनकर और श्रृंगार करके ही जाती हूँ। पतियोंका प्रिय और हित करना ही मेरा व्रत है।'
'मेरी पूजनीया सासने अपने कुटुम्बके प्रति जो कर्तव्य मुझे बताये हैं, उनका मैं सदा पालन करती हूँ। भिक्षा देना, देव-पूजा, श्राद्ध, पर्वके दिन उत्तम भोजन बनाना, माननीय पुरुषोंकी पूजा करना तथा और भी जो अपने कर्तव्य मुझे ज्ञात हैं, उनमें कभी प्रमाद नहीं करती। विनयके भाव और पतिव्रताके नियमोंको ही अपनाये रहती हूँ। अपने पतियोंकी रुचिपर सदा दृष्टि रखकर उसके अनुकूल आचरण करती हूँ। पतियोंको कभी हीन दृष्टिसे नहीं देखती, उनसे उत्तम भोजन कभी नहीं करती और न उनसे उत्तम वस्त्राभूषण ही धारण करती। अपनी सासकी कभी निन्दा नहीं करती। उनकी सदा सेवा करती हूँ। सब काम मन लगाकर सावधानी से करती हूँ और बड़े-बूढ़ोंकी सेवामें तत्पर रहती हूँ।" 'अपने पतियोंकी पूजनीय माताको मैं अपने हाथसे परोसकर भोजन कराती हूँ। उनकी सब प्रकारसे सेवा करती हैं। कभी ऐसी बात नहीं कहती, जो उन्हें बुरी लगे। पहले महाराज युधिष्ठिरके भवनमें नित्य स्वर्णके पात्रोंमें आठ हजार ब्राह्मण भोजन करते थे। इनके अतिरिक्त अट्ठासी हजार स्नातक गृहस्थ ब्राह्मणोंको महाराजकी ओरसे अन्न-वस्त्र मिलता था। एक-एक ब्राह्मणकी सेवाके लिये तीस-तीस दासियाँ नियुक्त थीं। दस सहस्र ब्रह्मचारी साधुओंको प्रतिदिन स्वर्णपात्र में भोजन दिया जाता था। इन सब ब्राह्मणोंको भोजन कराकर, अन्न-वस्त्र देकर में उनकी पूजा करती थी।'
महाराज युधिष्ठिरके यहाँ एक लाख दासियाँ थीं। वे मूल्यवान् वस्त्राभूषणोंसे सज्जित रहती थीं। वे नाचती गाती महाराजके आगे चलती थीं तथा अन्य सेवाकार्य भी करती थीं। मैं उनके नाम, रूप तथा भोजनादिका स विवरण जानती थी। किसके लिये क्या काम नियत है, किसने क्या काम किया, यह भी मुझे ज्ञात रहता था। महाराजकी सवारीमें एक लक्ष अश्व और एक लक्ष गज साथ निकलते थे। मुझे इनकी संख्या ज्ञात थी और मैं ही उनका सब प्रबन्ध करती थी। पूरे अन्तःपुरका, सारे सेवकोंका, समस्त परिवारका, अतिथियोंका, पशुओं तथा पशुपालकोंतकका प्रबन्ध भी मैं ही करती थी।'
"बहिन सत्यभामा ! महाराजके राज्यके आय व्ययका विवरण मुझे ज्ञात था और मैं ही उसकी जाँच करती थी। पाण्डवोंने राज्य और कुटुम्बको देखभालका कार्य मुझे सौंप रखा था। वे निश्चिन्त होकर धर्म-कर्ममें लगे रहते थे और मैं सब सुख छोड़कर दिन-रात परिश्रम करके यह भार सँभालती थी। मैं भूख-प्यास भूलकर पतियोंकी सेवामें लगी रहती थी। पतियोंको सेवासे मेरा जो कभी नहीं ऊबता। मैं उनके सो जानेपर सोती हूँ और उनके उठने से पहले ही उठ जाती हूँ। पतियोंको वश करनेका मेरा उपाय यही है। ओछी स्त्रियोंके आचरणका हाल में नहीं जानती।'
द्रौपदीके इन वचनोंको सुनकर सत्यभामाजीने कहा-' पाञ्चाली। तुम मेरी सखी हो, इसीसे हंसीमें मैंने तुमसे यह बात पूछी थी। इसके लिये तुम दुःख या क्रोध मत करो।'
- सु0 सं0 (महाभारत, वन0 233)
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"bahin satyabhaama ! mahaaraajake raajyake aay vyayaka vivaran mujhe jnaat tha aur main hee usakee jaanch karatee thee. paandavonne raajy aur kutumbako dekhabhaalaka kaary mujhe saunp rakha thaa. ve nishchint hokar dharma-karmamen lage rahate the aur main sab sukh chhoda़kar dina-raat parishram karake yah bhaar sanbhaalatee thee. main bhookha-pyaas bhoolakar patiyonkee sevaamen lagee rahatee thee. patiyonko sevaase mera jo kabhee naheen oobataa. main unake so jaanepar sotee hoon aur unake uthane se pahale hee uth jaatee hoon. patiyonko vash karaneka mera upaay yahee hai. ochhee striyonke aacharanaka haal men naheen jaanatee.'
draupadeeke in vachanonko sunakar satyabhaamaajeene kahaa-' paanchaalee. tum meree sakhee ho, iseese hanseemen mainne tumase yah baat poochhee thee. isake liye tum duhkh ya krodh mat karo.'
- su0 san0 (mahaabhaarat, vana0 233)