शास्त्रोंमें गंगानदी के तटपर साधना, पुरश्चरण एवं अनुष्ठानका बहुत माहात्म्य बताया गया है। गंगानदी तटपर चलनेवाले मन्द मन्द समीर और आध्यात्मिक परिवेशके कारण जप-साधनामें मन अधिक नहीं भटकता और शीघ्र ही प्रशान्त होने लगता है। शास्त्रोंमें गंगानदीके तट और गंगाजल में खड़े होकर गायत्रीजप या गायत्री अनुष्ठानकी विशेष महिमा गायी गयी है। विष्णुपदी गंगाके सान्निध्यमें जप करनेसे हमारी चेतनाका प्रवाह भीतरकी ओर मुड़ता है और शीघ्र ही हम गायत्री या अपने इष्ट मन्त्रकी लयमें बँधने लगते हैं। यह बात शास्त्र, पुस्तक-पोथीमें लिखी कोरी कल्पना नहीं बल्कि प्रत्यक्ष एवं अनुभवगम्य है, जिसे कोई सामान्य व्यक्ति आज भी करके देख एवं समझ सकता है। गंगातटपर बैठकर साधु-सन्तों और महात्माओंने ही नहीं आम जनोंने भी गायत्री साधनासे बहुत कुछ प्राप्त किया है। गायत्री साधना सांसारिक स्तरपर ऐश्वयका भोग एवं आध्यात्मिक स्तरपर मोक्ष- दोनों प्रदान करती है। गायत्रीको वेदमाता कहा गया है- अर्थात् वेदोंकी शिक्षाओंका निचोड़। गायत्री मन्त्र कितना रहस्यपूर्ण है और इसमें वेदोंकी सारी विद्या कैसे विद्यमान है, इस तथ्यको केवल जपके द्वारा ही समझा और पाया जा सकता है।
किशोरावस्थामें वाराणसीके एक महात्माने मुझे गायत्री जपके लिये प्रोत्साहित करते हुए कहा था 'बेटा, गंगानदीमें कहीं भी सीधे उतरकर स्नान करना निरापद नहीं है। घाटके माध्यमसे गंगामें प्रवेश करना चाहिये। घाटसे गंगा स्नान निरापद हो जाता है। ठीक इसी प्रकार गायत्री ब्रह्मविद्याके लिये घाट है। इस घाटपर बैठनेसे ब्रह्मविद्या उपलब्ध हो जाती है।' सम्भवतः इसीलिये शास्त्रोंमें कहा गया है जपात् सिद्धिः जपात् सिद्धिः ।' जपके बिना सिद्धि मात्र दिवास्वप्न है।
जप चूँकि एक यज्ञ है, इसलिये इसे विधिपूर्वक करना चाहिये। अविधिपूर्वक कर्मको गीतामें न केवल अकुशल कर्म बल्कि आसुरी कर्म भी बताया गया है।गायत्री जपके लिये आता है कि इसे गंगा अथवा पवित्र नदियोंके तट या संगम, पवित्र जलाशयोंके समीप, पीपल वृक्ष के नीचे या देवस्थानमें करना चाहिये। यह एक सामान्य अनुभवकी बात है कि गंगानदीमें स्नान करनेके बाद न केवल स्फूर्ति बढ़ती है, बल्कि भूख भी लगती है। यह लक्षण इस बातका संकेत है कि गंगाजल सद्गुणोंको बढ़ाता है। यही कारण है कि प्राण त्याग रहे व्यक्तिको गंगाजलका सेवन करवाया जाता है। प्राण त्यागते समय यदि व्यक्तिके भीतर सद्गुणोंका प्राधान्य हो तो शास्त्रोंके अनुसार उस व्यक्तिको अगले जीवनमें सदाचारी परिवारमें जन्म मिलता है-ऐसा भगवान् श्रीकृष्णने कहा है।
गंगा एवं गायत्रीके बीच एक और सम्बन्ध विचारणीय है। प्राचीन मान्यता है कि भगीरथने अपने अथक प्रयासोंसे ज्येष्ठ शुक्ल दशमीके दिन ही गंगानदीका पृथ्वीपर अवतरण करवाया था। इसकी यादमें ही प्रतिवर्ष इसी तिथिपर गंगा दशहरा मनाया जाता है। लोग गंगा स्नानका पुण्यलाभ लेते हैं। ऐसी भी मान्यता है कि ज्येष्ठ शुक्ल दशमीके दिन ही गायत्री मन्त्रका भी अवतरण हुआ था। गंगाको जिस प्रकार पृथ्वीपर लाकर करोड़ों भारतीयोंका कल्याण करनेका श्रेय भगीरथको जाता है, वैसे ही गायत्री मन्त्रका साक्षात्कारकर इसे मानव-कल्याणके लिये सुलभ बनानेका श्रेय ऋषि विश्वामित्रको जाता है। जिस ऋषिने गायत्री - जैसे महामन्त्रको सुलभ करवाकर पूरी मानवताका कल्याण किया हो, उसका नाम विश्वामित्र होना पूरी तरहसे उपयुक्त है। गायत्रीकी तरह ही गंगा भी चराचर जगत्में प्राणियोंको सभी तरहके पापोंसे मुक्त कराती है।
प्रयाग में गंगातट या संगमपर गायत्रीजप एवं अनुष्ठानका विशेष माहात्म्य है। प्रयागमें गंगानदीका यमुना एवं पौराणिक नदी सरस्वतीमें संगम होता है। इसीलिये इस संगमको त्रिवेणी कहते हैं। गायत्री भी तीन शक्तियों सावित्री, लक्ष्मी एवं सरस्वतीका सम्मिलित स्वरूप है। हमारे परिवार में गंगातटपर गायत्री साधनाकीसुदीर्घ परम्परा रही है। मेरे प्रपितामह चतुर्वेदी द्वारिकाप्रसाद शर्मा आधुनिक हिन्दीके उन्नायक विद्वानोंमें एक थे, जिन्होंने जीवनभर गायत्री साधना की। माता गायत्री अपने भक्तोंको किस प्रकार कष्टोंसे उबारती हैं, इसका एक उदाहरण द्वारिकाप्रसादजी भी थे। बात सन् १९१० ई० की है, चतुर्वेदीजी ब्रिटिश सरकारकी नौकरी करते थे और इसी दौरान उन्होंने वारेन हेस्टिंग्जपर एक पुस्तक लिखी। इस पुस्तकमें अँगरेज वाइसराय हेस्टिंग्जद्वारा ब्रिटिश शासन के विस्तारके लिये रचे गये तमाम कुचक्रों और भारतीय हितोंपर कुठाराघातके षड्यन्त्रोंका बेबाकी से वर्णन किया गया। अँगरेजी शासनके लिये यह पुस्तक तो मानों खुली चुनौती थी। फिर तो जो होना चाहिये था, वही हुआ। ब्रिटिश सरकारने चतुर्वेदीजीके समक्ष दो प्रस्ताव रखे या तो अपनी पुस्तकको बाजारसे वापस लेकर सरकारसे माफी माँगो अथवा नौकरीसे त्यागपत्र दे दो। स्वाभिमानी एवं राष्ट्रभक्त होनेके कारण चतुर्वेदीजीने दूसरा ही रास्ता चुना।
उन्होंने जब सरकारी नौकरी त्यागी तो उनपर बहुत बड़े परिवारके निर्वाहकी जिम्मेदारी थी। उनके मित्रोंको जब उनकी सरकारी नौकरी जानेकी बात पता चली तो उन्होंने विभिन्न प्रकारकी सलाह दी, किंतु उन्होंने सभी लोगोंकी सलाहको मौन होकर सुना और किसीकी भी बातको नहीं माना। उन्होंने प्रभुके न्यायपर भरोसा करते हुए प्रयागमें गंगातटपर एक कुटिया बनवायी और करीब सवा माहके गायत्री - अनुष्ठानपर बैठ गये। गायत्री अनुष्ठान सम्पन्न होनेके चार-पाँच दिनके भीतर उस समयके शहरके सबसे बड़े प्रकाशक उनके पास आये। उनसे कहा कि सुननेमें आया है कि आपने नौकरी छोड़ दी है, क्या आप हमारे लिये पुस्तकें लिखेंगे ? चतुर्वेदीजीने इस प्रस्तावको माता गायत्रीका आदेश मानते हुए स्वीकार कर लिया। इसके बाद उन्होंने इस प्रकाशकके लिये बृहद् आकारके कई कोश, वाल्मीकीय रामायण, महाभारत आदि ग्रन्थोंका अनुवाद तथा विभिन्न विषयोंपर पुस्तकें लिखीं।
इसके बाद चतुर्वेदीजीने लेखनीको ही अपनीआजीविका बना लिया तथा सौसे अधिक पुस्तकें लिखीं और स्वयं कई पत्रिकाएँ निकालीं। उनके कई आलेख कल्याण पत्रिका और उसके विशेषांकोंमें भी प्रकाशित हुए चतुर्वेदीजीने इसके बाद भी कई बार गायत्री अनुष्ठान किया। एक बार उन्होंने गंगा नदीमें नौकापर रहकर करीब सवा माहका गायत्री- अनुष्ठान किया। गंगातटपर गायत्री साधनासे उन्हें क्या आध्यात्मिक उपलब्धियाँ हुई, इसको उन्होंने कभी चर्चाका विषय नहीं बनाया। इतना अवश्य है कि उनके परिचयके दायरेमें जो भी द्विज आता उसे वे सन्ध्योपासन एवं गायत्री जपके लिये अवश्य प्रेरित करते उन्होंने वैदिक मन्त्रोंपर आधारित सन्ध्योपासनकी एक संक्षिप्त विधि निर्धारित की। इस विधिसे आजके व्यस्त जीवनमें भी मात्र दस मिनटमें सन्ध्योपासन किया जा सकता है। चतुर्वेदीजी अपनी सारी उपलब्धियोंके लिये प्रभु एवं माता गायत्रीकी कृपाको ही हेतु बतलाते थे।
गायत्री साधनाकी इस परम्पराको हमारे पितामह एवं चतुर्वेदीजीके सबसे छोटे पुत्र प्रतापनारायण चतुर्वेदीने आगे बढ़ाया। उन्होंने गायत्री साधनासम्बन्धी अपने अनुभवको 'सन्ध्यायोग एवं भगवदाराधन' पुस्तकमें इन शब्दोंमें लिखा है-'लेखक सन् १९२५ ई० में पंजाब में नौकरी करते थे। वहाँ उनकी नौकरी छूट गयी, वे लौटकर प्रयाग आ गये। यहाँ डेढ़ मासतक ढूँढनेपर कोई काम नहीं मिला। अन्तमें उन्हें निराश होते देख उनके पिताजीने कहा कि अब तुम जैसा हम कहें, वैसा व्यवसाय पानेका प्रयत्न करो। उन्होंने कहा कि कहीं गंगातटपर एकान्त स्थानमें जाकर सवा लक्ष गायत्रीका जप करो। पिताजीके आदेशानुसार उन्होंने जप किया। जप समाप्त करनेके उपरान्त उन्हें पायनियर प्रेसमें जहाँ तीन-चार बार नो वैकेन्सीसे उनका स्वागत हो चुका था, पहलेके वेतनकी अपेक्षा ढाई गुने वेतनमें स्थान मिला।'
बादमें प्रतापनारायणजीने अपना स्वयंका प्रकाशन खोल लिया और जीवनभर गायत्री साधना करते रहे। इनके जीवनकी एक और घटनामें भी माता गायत्रीकी स्पष्ट कृपा देखनेको मिली। वह एक बार घरके बहुतसे बच्चोंको लेकर गंगानदीमें नावसे जा रहे थे। इसी दौरान नाव भँवरमें फँस गयी। हालत यहाँतक पहुँच गयी कि मल्लाहतकने हिम्मत खो दी। नावमें जितने बच्चे थे, शायद ही किसीको तैरना आता हो। बताते हैं कि प्रतापनारायणजीने उसी समय माता गायत्रीका ध्यान करना शुरू कर दिया। मेरे परिजन बताते हैं कि उनके आँख बन्द करके ध्यान करनेके कुछ ही पलों बाद देखते-देखते नाव उस भँवरसे ऐसे निकल गयी, मानो कुछ हुआ ही न हो।
मेरे पिता पण्डित गंगानाथजी चतुर्वेदी बताते हैं कि उन्हें युवावस्थामें प्रयागमें गंगामें खड़े होकर गायत्री जप करनेमें असीम आनन्द और उत्साह मिलता था। वह प्रायः उस स्थानपर खड़े होकर गायत्री जप करते थे, जहाँ लोगोंकी भीड़भाड़ न हो। एक बार वह जब जप कर रहे थे, उसी समय सहसा गंगाजीमें रेतकी एक बहुत बड़ी कगार टूटकर पानीमें गिरी। लेकिन सारी रेत उनपर न गिरकर उनके आस-पास गिरी। वह बताते हैं कि उनके आसपास इतनी रेत गिरी कि यदि उसे ट्रकमें भरा जाता तो वह कम-से-कम तीन-चार ट्रक होती, लेकिन उनका बाल भी बाँका नहीं हुआ। इस घटनाको वे गायत्री माँकी विशेष कृपा मानते हैं, जिसके कारणउनके प्राण सुरक्षित रहे। पिताजी बताते हैं कि प्रयागमें पाताली हनुमान्जीया लेटे हनुमान्जीके नामसे प्रसिद्ध मन्दिरके पास एक बाबा कुटियामें रहकर गायत्री साधना करते थे। पिताजीपर उनका काफी स्नेह था। एक बार पिताजीने कहा 'बाबा! आप पता नहीं इतना गायत्री जप कैसे कर लेते हैं, मुझे तो तनिकसे गायत्री जपके बाद ही बहुत गुस्सा आने लगता है ?' बाबाने इस सवालका कोई जवाब न देकर स्वयं ही एक सवाल कर दिया, 'जब तुम्हें गुस्सा आता है तो तुम क्या करते हो ?' पिताजीने बताया कि वे गायत्री जप कम कर देते हैं। इसपर बाबाने उन्हें समझाया—'बेटा! जब कमरेमें झाडू लगाते हो तो कितनी धूल उड़ती है ? क्या धूल उड़नेकी वजहसे झाड़ू लगाना छोड़ा जा सकता है ? गायत्री जप भी शुरूमै इसी तरह भीतरके क्रोध आदि दबे हुए भावों और संस्कारोंको बाहर निकालता है, इनसे घबराना नहीं चाहिये, बल्कि प्रसन्न होना चाहिये कि हमारा जप ठीक दिशामें जा रहा है। बस, जप करते रहो, सब अपने आप ठीक होता चला जायगा।'
मेरे पिताजीका इस बातपर विशेष बल रहता है कि सूर्य एवं चन्द्रग्रहणके कालमें गंगातटपर गायत्री जप करनेसे व्यक्तिको बहुत लाभ मिलता है। यह एक अनुपम अवसर होता है और व्यक्तिको इस अवसरका पूरा लाभ उठाते हुए गायत्रीजप अवश्य करना चाहिये।
[ श्रीमाधवजी चतुर्वेदी ]
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[ shreemaadhavajee chaturvedee ]