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श्रीसिद्धिमाताका कृपानुभूतिमय जीवन

बंगदेश (वर्तमान बँगलादेशके) -अन्तर्गत यशोहर (जेसोर) जनपदके अन्तर्गत नराइल सबडिवीजनमें मल्लिकपुर ग्राम निवासी प्रसन्नकुमार चट्टोपाध्यायकी धर्मपत्नी श्यामासुन्दरी देवीके गर्भसे 'श्री श्रीसिद्धिमाता 'ने अपने मामाके घर नदिया जिलाके अन्तर्गत नैल जमालपुर गाँवमें अनुमानतः १२९२ (बँगला) संवत्के श्रावणमासकी शुक्लाष्टमी, मंगलवारको जन्म ग्रहण किया था। माँका शुभ नाम था 'कात्यायनी' ।

सुनते हैं कि आठ ही वर्षकी अवस्थामें माँको श्रीभगवान् रामचन्द्रका साक्षात् दर्शन प्राप्त हुआ था। वे शैशवसे ही साम्प्रदायिक भेद-भावसे मुक्त थीं। सभी देवताओंकी वे समभावसे भक्ति करती थीं और किसीमें उनका विशेष पक्षपात नहीं था । उनको जैसे श्रीरामचन्द्रका दर्शन प्राप्त हुआ, वैसे ही श्रीश्रीजगदम्बाका दर्शन भी एकाधिक बार प्राप्त हुआ था ।

१३१४ (बँगला) सालमें श्री श्रीमाँ अपने पिता, माता और स्वामीके साथ काशीधाममें पधारीं और वे लोग अगस्त्यकुण्ड मुहल्लाके एक घरमें ठहरे। वहीं माँके पिताजीको 'काशीलाभ' प्राप्त हुआ तथा उसी घरमें श्राद्ध आदि कर्मानुष्ठान समाप्त करके माँके घरके लोग अगस्त्यकुण्डका मकान छोड़कर खालिसपुराके मकानमें चले गये।

माँ काशीमें आनेके बादसे ही नियमितरूपसे प्रतिदिन गंगास्नान तथा देवताओंके दर्शन करती थीं। विश्वनाथ, अन्नपूर्णा, विशालाक्षी, चतुःषष्टि योगिनी एवं केदारनाथ उनके नित्य दर्शनके स्थान थे। वे जब जिस मन्दिरमें दर्शन करने जातीं, तब वहाँ पूर्ण भक्तिपूर्वक अर्चना तथा स्तव-स्तोत्रादिका पाठ करती थीं तथा एक जगह खड़ी होकर केवल दर्शन ही करतीं; उस समय उन्हें बाह्य चेतना नहीं रह जाती। उनकी दृष्टिमें देवता निरी पाषाण मूर्ति नहीं थे, बल्कि चिन्मयस्वरूपमें प्रकाशित होते थे। निम्नलिखित कुछ घटनाओंसे उनके उस समयके साधन-जीवनके इतिहासपर कुछ प्रकाश पड़ता है।

एक दिन माँ विश्वनाथके मन्दिरमें क्या देखती हैं कि चारों ओर महादेवकी मूर्ति झूल रही है। इसी प्रकार एक दिन उन्होंने देखा कि विश्वनाथकी ध्वजा आकर उनके मस्तकके ऊपर पड़ रही है और हाथको स्पर्श कर रही है। तथा एक दिन विश्वनाथके मन्दिरमें प्रवेश करते ही एक ब्राह्मणने आकर माँके हाथमें एक चित्र देते हुए -'देखो, इसके भीतर हर-गौरी हैं।' उसने एक कहा- ' बार उस चित्रको खोलकर माँको हर-‍ -गौरीके दर्शन कराकर फिर चित्रको बन्द कर दिया और उसे माँके हाथमें देते हुए कहा- 'तुम विश्वनाथका दर्शन करने जाती हो, इसको विश्वनाथके मस्तकपर चढ़ा देना।' माँने चित्र खोलकर सुन्दर हर-गौरीकी मूर्ति देखी। ब्राह्मणने माँको क्यों यह चित्र दिया, यह पूछने के लिये माँने जब ब्राह्मणकी ओरवह अन्तर्धान हो गया था। तत्पश्चात् मा कुछ देर खड़ी रहकर विश्वनाथ मन्दिरमें गयीं तथा उसे विश्वनाथजीके मस्तकपर चढ़ा दिया। परंतु उसी क्षण पता नहीं, वह कहाँ छिप गया कि खोजनेपर भी नहीं मिला।

एक दिन माँ कालभैरवका दर्शन करनेके लिये हाथमें फूलकी डलिया लेकर घरसे बाहर निकलीं। दाहिना हाथ छातीपर रखकर जप करती हुई तन्मय होकर जा रही थीं। इस भावमें चलनेके कारण रास्ता भूल गयीं और कालभैरवको छोड़कर किसी निर्जन स्थानमें जा पहुँचीं। उनको यह ज्ञात हो गया कि वह स्थान कालभैरवके पासका कोई स्थान नहीं है तथा अपरिचित स्थान देखकर वे शंकित हो उठीं पासमें एक कोल्हूकी घानी चलते देखकर, वहाँ जाकर माँको पूछने पर पता लगा कि वे कालभैरवसे बहुत दूर चली आयी हैं। उस समय बहुत देर हो गयी थी तथा उनके मनमें नाना प्रकारकी चिन्ताएँ उठने लगीं तब वे वहाँसे हटकर एक जगह खड़ी होकर रोने लगीं। इतनेमें देखती क्या हैं कि हाथमें शंख लिये लाल किनारीकी साड़ी पहने कोई स्त्री उनकी ओर आ रही है। देखते ही माँने तुरंत पूछा- 'तुम कहाँ जाओगी, माँ ?' उस स्त्रीने उत्तर दिया- 'मैं अन्नपूर्णामन्दिरमें जाऊँगी।' तब माँने कहा— 'मैं विश्वनाथ मन्दिर जाऊँगी, परंतु रास्ता भूल रही हूँ।' उस स्त्रीने कहा- 'तब मेरे साथ आओ।'- तब माँ उसके साथ बातें करती हुई चलने लगीं और थोड़े ही समयमें ढुण्डिराज गणेशके सामने आ गयीं। तब उस स्त्रीने कहा- 'ये ही तो ढुण्डिराज गणेश हैं!' यह बात सुनकर माँ गणेशकी ओर देखने लगीं। उसके बाद यह पूछने के लिये कि 'इतनी जल्दीसे इतना दूर दुण्डिराज कैसे पहुँच गये ?' उन्होंने जैसे ही पीछेकी ओर ताका तो यह देखकर उनके आश्चर्यका ठिकाना न रहा कि वह स्त्री वहाँ नहीं है, अन्तर्हित हो गयी है। उसके बाद माँने अन्नपूर्णा-मन्दिरमें जाकर बहुत खोज की, पर वह स्त्री न मिली। तब उन्होंने समझा कि माँ अन्नपूर्णाने ही इस प्रकार विपत्के समय उनकी रक्षा की है।

एक दिन माँ अन्नपूर्णाके मन्दिरमें बैठकर एकाग्र चित्तसे जप कर रही थीं। अचानक देखती क्या हैं कि माँ अन्नपूर्णा स्वयं दोनों हाथोंमें भरकर मणिमुक्ताका माँको उपहार देनेके लिये उद्यत हैं। माँ अन्नपूर्णा 'लो 'न'-कहकर माँको लेनेके लिये बारम्बार अनुरोध करने लगीं। परंतु माँ देवीके रूप और वसन- आभूषणके सौन्दर्यपर मुग्ध होकर एकटक उनकी ओर देखती रह गर्यो। मणिमुक्ताकी ओर उनकी दृष्टि बिलकुल ही नहीं थी। जब देवी माँको लेनेके लिये बारम्बार कहने लगीं, तब माँने कहा- 'ये लेकर मैं क्या करूँगी ? यह सब यहीं रहने दीजिये।' यह सब घटना कोई देख रहा है या नहीं - यह जाननेके लिये माँने पीछेकी ओर दृष्टि घुमायी और फिर जब देवीकी ओर देखनेके लिये दृष्टि लौटायी, तब देखती क्या हैं कि देवी अदृश्य हो गयी हैं। उनको फिर वे वहाँ न देख सकीं।

माँ एक दिन चतुःषष्टि योगिनीके मन्दिरमें दर्शन करनेके लिये गयीं। वे सामने खड़ी होकर माँका दर्शन करने लगीं। उस समय चौसट्टी माँ हिंदीमें माँके साथ बातें करने लगीं। पासमें वेणीमाधव भट्टाचार्य पूजा करते थे। माँने उनसे पूछा कि 'चौसट्टी माँने हिंदीमें जो बातें की हैं, उन्हें क्या आपने सुना?' भट्टाचार्य महाशय माँकी ओर देखकर और मनका भाव समझकर अवाक् हो गये, और फिर पीछे माँसे बोले-'माँ ! तुम्हारे समान मेरा भाग्य कहाँ है, जो मैं चौसट्टी माँकी बात सुन पाऊँगा।' वे माँको 'धन्य-धन्य' कहने लगे।

एक दिन माँ गंगा स्नानके बाद गंगाके तटपर बैठकर सदाकी तरह मिट्टी लेकर पिण्डी बनाकर मृण्मय शिवकी अर्चना करने लगीं। तन्मयतापूर्वक एकाग्रभावसे अर्चना करते-करते अचानक उन्होंने देखा कि सामने उन मृण्मय शिवने उज्ज्वल सुवर्णमय आकार धारण कर लिया है। यह दर्शन करके वे केवल विस्मित ही नहीं हुई, अपितु इस दर्शनसे और एक गम्भीरतर रहस्यमय दर्शनका सौभाग्य उनको प्राप्त हुआ। उन्होंने देखा कि केवल वे पार्थिव शिव ही स्वर्णमय हो गये हों, ऐसी बात नहीं है; सारा का सारा काशीधाम ही उनके सामने मानो एक सुवर्णमय पुरीके रूपमें प्रतिभात होने लगा। माँने प्रत्यक्ष देखा कि यह शिवनगरी हिरण्यमय ज्योतिद्वारा निर्मित है; यहाँ जो देव-देवी प्रतिष्ठित हैं, सभी नित्य-जाग्रत् और चैतन्यमय हैं। वे सभी बातें करते हैं तथा जीवित मनुष्यके समान स्वेच्छानुसार इधर-उधर चलते-फिरते हैं। यह सुवर्णमय काशीदर्शन माँके साधन-जीवनका एक आश्चर्यमय अनुभव था। ज्योतिर्मय काशीका यथार्थ स्वरूप और अवस्थान, विश्वेश्वरके द्वारा मुमूर्षु जीवके दक्षिण कर्णमें तारक ब्रह्मका उपदेश, काशीक्षेत्रमें कालभैरवके द्वारा दण्डदानकी व्यवस्था तथा काशीश्वरी माँ अन्नपूर्णाकी महिमा हिन्दू शास्त्रोंमें, विशेषतः काशीखण्ड आदि ग्रन्थोंमें प्रसिद्ध है। माँने कहा था कि उन्होंने ये सब तत्त्व स्वयं प्रत्यक्ष किये थे। उन्होंने अपनी आँखों देखा था कि काशी स्वर्णमयी है तथा शिवके त्रिशूलके ऊपर स्थित है। मणिकर्णिकामें सोनेका घाट तथा अर्द्धचन्द्राकृति गंगा हैं। महायोगी काशीपति विश्वनाथ गुरुरूपमें मणिकर्णिका में - उपविष्ट होकर काशीमें मृत्युको प्राप्त हुए जीवोंको तारक ब्रह्मका नाम सुनाते हैं।

उन्हें इस प्रकार निरन्तर नाना प्रकारके दर्शन होते थे। कहनेकी आवश्यकता नहीं कि ये सब बाह्य दर्शन थे। परंतु उसी समय साधनाके क्रम-विकासके नियमके अनुसार माँ स्वभावतः नाना प्रकारके अलौकिक दर्शन प्राप्त करती थीं। वे प्रतिदिन विधिपूर्वक अनेकों देव देवियोंके दर्शन करनेके लिये निकलतीं तथा नाना स्थानोंमें, नाना समय देव-देवियोंके प्रत्यक्ष दर्शन करके ध्यानस्थ हो जातीं तथा कभी-कभी गम्भीर तन्मयताके फलस्वरूप समाधिस्थ हो जातीं।
[ सुश्री राजबाला देवीजी ]



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sunate hain ki aath hee varshakee avasthaamen maanko shreebhagavaan raamachandraka saakshaat darshan praapt hua thaa. ve shaishavase hee saampradaayik bheda-bhaavase mukt theen. sabhee devataaonkee ve samabhaavase bhakti karatee theen aur kiseemen unaka vishesh pakshapaat naheen tha . unako jaise shreeraamachandraka darshan praapt hua, vaise hee shreeshreejagadambaaka darshan bhee ekaadhik baar praapt hua tha .

1314 (bangalaa) saalamen shree shreemaan apane pita, maata aur svaameeke saath kaasheedhaamamen padhaareen aur ve log agastyakund muhallaake ek gharamen thahare. vaheen maanke pitaajeeko 'kaasheelaabha' praapt hua tatha usee gharamen shraaddh aadi karmaanushthaan samaapt karake maanke gharake log agastyakundaka makaan chhoda़kar khaalisapuraake makaanamen chale gaye.

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[ sushree raajabaala deveejee ]

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