घर-घर दीप जले
(श्रीमती ऊषाजी अग्रवाल )
एक आदमी भीख माँग रहा था। वह कम-से कम सौ घरोंके आगे चक्कर लगा चुका था। साँझ ढलनेको थी। सुबहसे अबतक चलते-चलते उसका शरीर भी थक चुका था, पर भिक्षापात्रमें न तो अन्नका दाना था और न ही फूटी कौड़ी। यह दशा केवल आजकी नहीं, अपितु विगत दो दिनोंसे थी। वह यों ही भीख माँगता रहा, मगर किसीने भी उसे कुछ नहीं दिया। दुत्कार तो बहुत जगह मिली, पर सहानुभूति कहींसे नहीं पायी। थका-हारा भिखारी अपनी टूटी-फूटी झोपड़ी में पहुँचा और भाग्यको कोसता हुआ सो गया।
वह नींद लेना चाहता था, मगर भूखेको नींद कहाँसे आती? अन्न ही प्राण है, भोजन ही जीवनका रक्षक है। भोजन बिना चैन कहाँ? वह सोचता रहा, मनमें विचारोंकी आँधी उठती रही। उसे पता भी न चला कि कब उसकी आँखें मुँद गयीं। जब सुबह आँख खुली तो देखा कि पौ फट चुकी है और भूखा पेट उसे भीख माँगनेके लिये मजबूर कर रहा है। उसके कदम फिर चल पड़े नगरकी ओर, पेटकी आग बुझानेके लिये । उसने सोचा कि नगरमें तो बहुत घूम चुका हूँ, क्यों न आज नगर सेठकी हवेलीकी तरफ जाऊँ ।
भिखारी नगरसेठकी हवेलीपर गया। सेठ दालानमें बैठा था। भिखारीने सेठसे भीख माँगी कि 'सेठ साहब! भूखा हूँ, कुछ हो तो दीजिये।' लेकिन सेठने सुना-अनसुना कर दिया। कुछ देर बाद भिखारीने पुनः कहा। पर सेठने इस बार भी ध्यान नहीं दिया। भिखारीने तीसरी बार फिर कहा तो सेठ बोला- 'जाओ, चले जाओ, यहाँ कुछ नहीं है। सुबह हुई नहीं कि भीख माँगने निकल पड़े। हटो यहाँसे ।'
भिखारी सेठके इस उत्तरसे उदास तो जरूर हुआ, मगर यह सोचकर उसने सेठको पुनः पुकारा कि बार बार कहनेसे सम्भव है कि सेठका दिल पसीज जाय। भिखारीको मना करनेके बाद भी बार-बार माँगनेके लिये रट लगाना सेठको बुरा लगा। सेठने कहा- 'तुम जाते हो कि नहीं? या धक्के देकर निकलवाऊँ ?'
भिखारीकी आँखोंसे आँसू निकल पड़े, पर पेट बड़ा पापी होता है। भिखारीने हिम्मत करके एक बार फिर भीख माँग ली। अबकी बार सेठको इतना गुस्सा आया कि पासमें पड़ी ठण्डे पानीकी बाल्टी भिखारीके ऊपर डाल दी। भिखारी काँप उठा और उसकी आत्मा रो पड़ी। लेकिन सेठजीका दिल नहीं पसीजा।
सेठके द्वारा किये गये इस दुर्व्यवहारसे भिखारीकी भावनाओंको बहुत ठेस लगी- वह कहने लगा कि 'यह जिन्दगी भी कोई जिन्दगी है? इससे तो मरना भला है' और वह आत्महत्याके लिये एक तालाबमें कूद पड़ा। संयोगसे एक सन्त तालाबके किनारे बैठे थे। उन्होंने भिखारीको डूबते देखा और उसे बचाना अपना धर्म समझा । सन्त तालाब में कूद पड़े और उन्होंने भिखारीको बचा लिया। सन्तने भिखारीसे डूबनेका कारण पूछा। भिखारीने रोते-रोते अपनी राम-कहानी सन्तको सुना दी। सन्तने कहा- 'अरे! तूने भीख तो बहुतोंसे माँगी, मगर तुमने उस मानवसे भीख नहीं माँगी, जो दूसरे मानवको भी मानवस्वरूप मानता है।'
'ठीक हैं, मैं तुम्हें एक चश्मा देता हूँ। उसे पहनकर तुम नगरमें जाओ। जो इस चश्मेसे तुम्हें मानव दिखायी दे, उसीसे भीख माँगना।' भिखारीने सन्तकी आज्ञाका पालन किया। चश्मा पहनकर वह सारे नगरमें घूमा, परंतु उसे एक भी मानव नहीं दिखायी दिया। अन्तमें उसे एक मानव दीख ही पड़ा, वह जूता सिलाई कर रहा था। भिखारी सोचने लगा मानव तो मिला, किंतु इस मानवका दाना खानेका मुझे विधान नहीं है। भिखारी लौटने लगा। मोचीने उसे देख लिया और समझ गया कि इसे भोजनकी अभी सख्त जरूरत है। मोचीने भिखारीसे कहा-'आप यहाँ ठहरिये। मेरे पास एक जूतेकी जोड़ी है, उसे मैं बेचकर जो पैसा मिलेगा, आपको दे दूँगा।'
मोची जूतोंकी जोड़ी लेकर बाजारमें गया। संयोगसे उस देशका राजा अपने कुछ सिपाहियोंके साथ उसी समय बाजारसे निकल रहा था। राजाको जूतेकी जोड़ी बहुत अच्छी लगी। उसने दाम पूछा। मोचीने कहा 'आपको जो उचित लगे, वह दे दीजिये।' राजाके कहनेपर मन्त्री पैसे देने लगा तो मोची बोला-'राजन् ! इन पैसोंका अधिकारी मैं नहीं, कोई और है, आप कृपया उसीके हाथमें ये पैसे दीजिये। वह एक भिखारी है और कई दिनोंसे भूखा है।' राजाको बड़ा आश्चर्य हुआ; क्योंकि मोची स्वयं एक निर्धन व्यक्ति था। भिखारीको बुलाया गया। राजाने भिखारीसे पूछा- 'तुम कौन हो ? भीख क्यों माँगते हो ?' भिखारी बोला-'राजन्! मैं एक ब्राह्मण हूँ, भाग्यका मारा भीख माँग रहा हूँ।' राजा बोला- 'नगरमें इतने बड़े-बड़े धनी लोग हैं, उनको छोड़कर एक मोचीसे भीख माँगी ?'
भिखारीने कहा- 'राजन्! मैं कुछ कहूँ, इससे अच्छा कि आप यह चश्मा पहनकर स्वयं देख लें।' रहस्य जाननेके लिये राजाने चश्मा पहना। राजाकी आँखें चकरा गयीं। राजा चश्मेसे नगरके बड़े बाजारको देख रहा है, जिसमें बड़ी-बड़ी दुकानें हैं, किंतु दुकानोंमें एक भी मानव नहीं है। राजा जिधर देखता, उधर ही राजाको पशु-ही-पशु दिखायी पड़ते। राजाने अपने मन्त्रीकी तरफ देखा तो वह भी और सारे सिपाही भी राजाको पशु ही दिखायी दिये और जैसे ही उसने चश्मा उतारा, पशु फिर मनुष्य दिखायी देने लगे।
राजाने मन्त्रीसे कहा-'तुम भी मुझे इस चश्मेसे देखो।' मन्त्रीने चश्मा पहना। उसे राजाका ऐसा स्वरूप दिखायी दिया, जिसे कहते ही उसे फाँसीकी सजा मिल जाय। मन्त्री बोला-'आपका चेहरा तो इसमें बहुत सुन्दर दिखायी दे रहा है। देवतुल्य।' राजाने उसको डाँटा और कहा- 'चापलूसी मत करो। जो सत्य है, वह कहो।' मन्त्री बोला- 'राजन् ! क्षमा चाहता हूँ। आप इस चश्मे में एक जंगली शेर दिखलायी पड़ रहे हैं।'
राजा बोला-'तो क्या इस भरे बाजारमें और कोई मानव भी दिखायी देता है ?' मन्त्रीने कहा-'हाँ, राजन्! एक ही मानव दिखायी देता है और वह है-मोची।'
राजाको अपने ऊपर घृणा हो गयी और वह मोचीके चरणोंमें गिर पड़ा और कहने लगा 'मैं न तो राज्य चाहता हूँ, न देवत्व चाहता हूँ और न ही सारे संसारका आधिपत्य। मैं चाहता हूँ केवल तुम्हारे जैसा मनुष्यत्व।'
एक दीपक तो ऐसा है, जो है तो सोनेका, पर उसमें न तेल है, न बाती है और न ही अग्निका संस्कार है तथा दूसरा दीपक ऐसा है, जो है तो मिट्टीका, पर उसमें तेल, बाती और अग्निका संस्कार है। इनमें कौन-सा दीया श्रेष्ठ है? सोनेका या मिट्टीका ? मोचीके उस माटीके दीयेमें मानवताकी जो लौ जली थी, उसने मिट्टी के दीयेकी इतनी कीमत बढ़ा दी कि जिसके आगे सोनेके दीयेकी कीमत कौड़ीकी हो गयी।
महापुरुष लोग दौयेकी कीमत नहीं आँकते, आकारोंकी भी पूजा नहीं करते। उनकी नजरें टिकी रहती हैं, ज्योतिर्मुख लौपर, प्रकाशवादी जीवनपर। वे तो उस निराकारको आभाका दर्शन करना चाहते हैं, जो आकारोंके अन्तर्घटमें छिपी रहती है। हमलोग भी अपनी मानवताके बुझे हुए दीपको जलायें और जिन लोगोंने जला रखा है, वे उसमें थोड़ा और घी तेल डालनेका प्रयास करें।
घर-घरमें मानवताका दीप जलायें।
ghara-ghar deep jale
(shreematee ooshaajee agravaal )
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vah neend lena chaahata tha, magar bhookheko neend kahaanse aatee? ann hee praan hai, bhojan hee jeevanaka rakshak hai. bhojan bina chain kahaan? vah sochata raha, manamen vichaaronkee aandhee uthatee rahee. use pata bhee n chala ki kab usakee aankhen mund gayeen. jab subah aankh khulee to dekha ki pau phat chukee hai aur bhookha pet use bheekh maanganeke liye majaboor kar raha hai. usake kadam phir chal pada़e nagarakee or, petakee aag bujhaaneke liye . usane socha ki nagaramen to bahut ghoom chuka hoon, kyon n aaj nagar sethakee haveleekee taraph jaaoon .
bhikhaaree nagarasethakee haveleepar gayaa. seth daalaanamen baitha thaa. bhikhaareene sethase bheekh maangee ki 'seth saahaba! bhookha hoon, kuchh ho to deejiye.' lekin sethane sunaa-anasuna kar diyaa. kuchh der baad bhikhaareene punah kahaa. par sethane is baar bhee dhyaan naheen diyaa. bhikhaareene teesaree baar phir kaha to seth bolaa- 'jaao, chale jaao, yahaan kuchh naheen hai. subah huee naheen ki bheekh maangane nikal pada़e. hato yahaanse .'
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'theek hain, main tumhen ek chashma deta hoon. use pahanakar tum nagaramen jaao. jo is chashmese tumhen maanav dikhaayee de, useese bheekh maanganaa.' bhikhaareene santakee aajnaaka paalan kiyaa. chashma pahanakar vah saare nagaramen ghooma, parantu use ek bhee maanav naheen dikhaayee diyaa. antamen use ek maanav deekh hee pada़a, vah joota silaaee kar raha thaa. bhikhaaree sochane laga maanav to mila, kintu is maanavaka daana khaaneka mujhe vidhaan naheen hai. bhikhaaree lautane lagaa. mocheene use dekh liya aur samajh gaya ki ise bhojanakee abhee sakht jaroorat hai. mocheene bhikhaareese kahaa-'aap yahaan thahariye. mere paas ek jootekee joda़ee hai, use main bechakar jo paisa milega, aapako de doongaa.'
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raaja bolaa-'to kya is bhare baajaaramen aur koee maanav bhee dikhaayee deta hai ?' mantreene kahaa-'haan, raajan! ek hee maanav dikhaayee deta hai aur vah hai-mochee.'
raajaako apane oopar ghrina ho gayee aur vah mocheeke charanonmen gir pada़a aur kahane laga 'main n to raajy chaahata hoon, n devatv chaahata hoon aur n hee saare sansaaraka aadhipatya. main chaahata hoon keval tumhaare jaisa manushyatva.'
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ghara-gharamen maanavataaka deep jalaayen.