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यह सच या वह सच  [Shikshaprad Kahani]
Story To Read - Hindi Story (शिक्षदायक कहानी)

2- यह सच या वह सच

राजा जनक अपने महलमें पलंगपर सोये थे । उनको एक सपना दीख पड़ा कि मानो वे स्वयं भिखारी हैं और फटे-पुराने कपड़े पहने हुए हैं। भोजनके लिये भीख माँगते फिर रहे हैं, पर तीन दिनसे कुछ भी खानेके लिये नहीं मिला है। चौथे दिन एक अन्न-सत्रमें पकायी हुई खिचड़ी बँट रही थी और उसे लेनेके लिये भिखारियोंकी टोली चली जा रही थी। वे स्वयं भी उसके साथ हो लिये। वे मिट्टीके एक खपरेमें खिचड़ी लेते हैं और सोचने लगते हैं-'अहा! खानेके लिये तो मिला, अब एक जगह एकान्तमें बैठकर खाऊँगा।' इस प्रकार विचार करते जा ही रहे थे कि पीछेसे एक गायने सींग मारा और वे जमीनपर गिर पड़े और वह मिट्टीका खपरा हाथसे छूटकर टूट गया तथा खिचड़ी जमीनपर बिखर गयी।
गिरनेकी चोटसे सहसा नींद टूट गयी। जागनेपर देखते हैं कि वे स्वयं अपने महलमें पलंगपर सोये हुए हैं। वे भिखारी नहीं हैं, भूखे भी नहीं हैं और न वह मिट्टीका खपरा और न खिचड़ी ही कहीं दीख रही है। इस स्वप्नका प्रभाव उनके मनपर इतना गहरा पड़ता है कि वे अपने-आपसे स्वयं पूछने लगते हैं कि 'यह सच है या वह ?' अपने-आप कोई समाधान नहीं होता; तब वे, जो ही आता है, उसीसे पूछते हैं कि 'यह सच है या वह सच है ?' इस प्रश्नका कोई क्या उत्तर देता!
एक दिन अष्टावक्रजी वहाँ आ पहुँचे। राजाने
उनसे भी यही प्रश्न पूछा। मुनिने उत्तर दिया- 'या तोदोनोंको सच्चा मानो या दोनोंको मिथ्या मानो।'
राजाने कहा- 'भगवन्! दोनोंको सच्चा कैसे मानें! और मिथ्या भी कैसे समझें। एकको सच्चा कहें तो दूसरेको मिथ्या कहना ही पड़ेगा।' अष्टावक्रजी बोले- 'राजन्! देखो, इस जाग्रत्-प्रपंचमें ब्रह्म ही जगत्रूपमें अविद्याके योगसे प्रतीत होता है; इसलिये अधिष्ठान- दृष्टिसे जगत्को सच्चा कह सकते हैं। इसी प्रकार स्वप्न में भी स्वप्नद्रष्टा अपने-आपको स्वप्न प्रपंचके रूपमें देखता है, इसलिये अधिष्ठान-दृष्टिसे स्वप्न-प्रपंचको भी सत्य कह सकते हैं। इसी प्रकार नामरूप- दृष्टिसे जाग्रत् और स्वप्न दोनों ही मिथ्या हैं।'
इस उत्तरसे राजाके मनका समाधान हो गया और उन्होंने बड़े ही आदर-सत्कारसे मुनिको अपने यहाँ रखा।



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yah sach ya vah sacha

2- yah sach ya vah sacha

raaja janak apane mahalamen palangapar soye the . unako ek sapana deekh pada़a ki maano ve svayan bhikhaaree hain aur phate-puraane kapaड़e pahane hue hain. bhojanake liye bheekh maangate phir rahe hain, par teen dinase kuchh bhee khaaneke liye naheen mila hai. chauthe din ek anna-satramen pakaayee huee khichada़ee bant rahee thee aur use leneke liye bhikhaariyonkee tolee chalee ja rahee thee. ve svayan bhee usake saath ho liye. ve mitteeke ek khaparemen khichada़ee lete hain aur sochane lagate hain-'ahaa! khaaneke liye to mila, ab ek jagah ekaantamen baithakar khaaoongaa.' is prakaar vichaar karate ja hee rahe the ki peechhese ek gaayane seeng maara aur ve jameenapar gir pada़e aur vah mitteeka khapara haathase chhootakar toot gaya tatha khichada़ee jameenapar bikhar gayee.
giranekee chotase sahasa neend toot gayee. jaaganepar dekhate hain ki ve svayan apane mahalamen palangapar soye hue hain. ve bhikhaaree naheen hain, bhookhe bhee naheen hain aur n vah mitteeka khapara aur n khichada़ee hee kaheen deekh rahee hai. is svapnaka prabhaav unake manapar itana gahara pada़ta hai ki ve apane-aapase svayan poochhane lagate hain ki 'yah sach hai ya vah ?' apane-aap koee samaadhaan naheen hotaa; tab ve, jo hee aata hai, useese poochhate hain ki 'yah sach hai ya vah sach hai ?' is prashnaka koee kya uttar detaa!
ek din ashtaavakrajee vahaan a pahunche. raajaane
unase bhee yahee prashn poochhaa. munine uttar diyaa- 'ya todononko sachcha maano ya dononko mithya maano.'
raajaane kahaa- 'bhagavan! dononko sachcha kaise maanen! aur mithya bhee kaise samajhen. ekako sachcha kahen to doosareko mithya kahana hee pada़egaa.' ashtaavakrajee bole- 'raajan! dekho, is jaagrat-prapanchamen brahm hee jagatroopamen avidyaake yogase prateet hota hai; isaliye adhishthaana- drishtise jagatko sachcha kah sakate hain. isee prakaar svapn men bhee svapnadrashta apane-aapako svapn prapanchake roopamen dekhata hai, isaliye adhishthaana-drishtise svapna-prapanchako bhee saty kah sakate hain. isee prakaar naamaroopa- drishtise jaagrat aur svapn donon hee mithya hain.'
is uttarase raajaake manaka samaadhaan ho gaya aur unhonne bada़e hee aadara-satkaarase muniko apane yahaan rakhaa.

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