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शुकदेवजीका वैराग्य  [Hindi Story]
शिक्षदायक कहानी - Story To Read (Hindi Story)

एक बार व्यासजीके मनमें ब्याहकी अभिलाषा हुई। उन्होंने जाबालि मुनिसे कन्या माँगी। जाबालिने अपनी चेटिका नामकी कन्या उन्हें दे दी। चेटिकाका दूसरा नाम पिङ्गला था। कुछ दिनोंके बाद उसके गर्भ में शुकदेवजी आये बारह वर्ष बीत गये, पर से बाहर नहीं निकले। शुकदेवजीको बुद्धि बड़ी प्रखर थी। उन्होंने सारे वेद, वेदाङ्ग, पुराण, धर्मशास्त्र और मोक्ष शास्त्रोंका वहीं श्रवण करके गर्भ में ही अभ्यास कर लिया। वहाँ यदि पाठ करनेमें कोई भूल होती तो शुकदेवजी गर्भमेंसे ही डाँट देते। इधर माताको भी गर्भके बढ़नेसे बड़ी पीड़ा हो रही थी। यह सब देखकर व्यासजी बड़े विस्मित हुए। उन्होंने गर्भस्थ बालकसे पूछा- 'तुम कौन हो ?"

शुकदेवजीने कहा- 'जो चौरासी लाख योनियाँबतायी गयी हैं, उन सबमें मैं घूम चुका हूँ। ऐसी दशामें मैं क्या बताऊँ कि कौन हूँ ?'

व्यासजीने कहा- 'तुम बाहर क्यों नहीं आते ?' शुकदेव - 'भयंकर संसारमें भटकते-भटकते मुझे बड़ा वैराग्य हो गया है। पर मैं जानता हूँ गर्भसे बाहर आते ही वैष्णवी मायाके स्पर्शसे सारा ज्ञान-वैराग्य हवा हो जायगा । अतएव मेरा विचार इस बार गर्भमें रहकर ही योगाभ्यासमें तत्पर हो मोक्षसिद्धि करनेका है।'

अन्तमें व्यासदेवजीके वैष्णवी मायाके न स्पर्श करनेका आश्वासन देनेपर वे किसी प्रकार गर्भसे बाहर तो आये, पर तुरंत ही वनके लिये चलने लगे। यह देख व्यासजी बोले- 'बेटा! मेरे घरमें ही ठहरो। मैं तुम्हारा जातकर्म आदि संस्कार तो कर दूँ।' इसपर शुकदेवजीने कहा- 'अबतक जन्म-जन्मान्तरोंमें मेरेसैकड़ों संस्कार हो चुके हैं। उन बन्धनप्रद संस्कारोंने ही मुझे भवसागरमें भटका रखा है। अतएव अब मुझे उनसे कोई प्रयोजन नहीं है।'

व्यासदेव – 'द्विजके बालकको पहले विधिपूर्वक ब्रह्मचर्याश्रममें रहकर वेदाध्ययन करना चाहिये। तदनन्तर उसे गृहस्थ, वानप्रस्थ एवं संन्यासाश्रममें प्रवेश करना चाहिये। इसके बाद ही वह मोक्षको प्राप्त होता है। अन्यथा पतन अवश्यम्भावी है।'

शुकदेव - 'यदि ब्रह्मचर्यसे मोक्ष होता हो तब तो नपुंसकोंको वह सदा ही प्राप्त रहता होगा; पर ऐसा नहीं दीखता। यदि गृहस्थाश्रम मोक्षका सहायक हो, तब तो सम्पूर्ण जगत् ही मुक्त हो जाय। यदि वानप्रस्थियोंको मोक्ष होने लगे, तब तो सभी मृग पहले मुक्त हो जायँ । यदि आपके विचारसे संन्यास-धर्मका पालन करनेवालोंको मोक्ष अवश्य मिलता हो, तब तो दरिद्रोंको पहले मोक्ष मिलना चाहिये।'

व्यासदेव–'मनुका कहना है कि सद्-गृहस्थोंके लिये लोक-परलोक दोनों ही सुखद होते हैं। गृहस्थका समन्वयात्मक संग्रह सनातन सुखदायक होता है। '

शुकदेव - 'सम्भव है दैवयोगसे कभी आग भी शीत उत्पन्न कर सके, चन्द्रमासे ताप निकलने लग जाय; पर परिग्रहसे कोई सुखी हो जाय - यह तो त्रिकालमें भी सम्भव नहीं है।'

व्यासदेव - 'बड़े पुण्योंसे मनुष्यका शरीर मिलता है। इसे पाकर यदि कोई गृहस्थधर्मका तत्त्व ठीक-ठीक समझ जाय तो उसे क्या नहीं मिल जाता ?'

शुकदेव - 'जन्म होते ही मनुष्यका गर्भजनितज्ञान-ध्यान सब भूल जाता है। ऐसी दशामें गार्हस्थ्यमें प्रवेश तथा उससे लाभकी कल्पना तो केवल आकाशसे पुष्प तोड़नेके समान है।'

व्यासदेव - 'मनुष्यका पुत्र हो या गदहेका, जब वह धूल में लिपटा चञ्चलगति से चलता और तोतली वाणी बोलता है, तब उसका शब्द लोगोंके लिये अपार आनन्दप्रद होता है।'

शुकदेव - 'मुने! धूलमें लोटते हुए अपवित्र शिशुसे सुख या संतोषकी प्राप्ति सर्वथा अज्ञानमूलक ही है। | उसमें सुख माननेवाले सभी अज्ञानी हैं।'

व्यासदेव - 'यमलोक में एक महाभयंकर नरक है, जिसका नाम है—'पुम्'। पुत्रहीन मनुष्य वहीं जाता है। इसलिये पुत्रकी प्रशंसा की जाती है।' शुकदेव - 'यदि पुत्रसे ही स्वर्गकी प्राप्ति हो जाती तो सूअर, कूकर और टिड्डियोंको यह विशेषरूपसे मिल सकता।'

व्यासदेव - 'पुत्रके दर्शनसे मनुष्य पितृ ऋणसे मुक्त हो जाता है। पौत्र-दर्शनसे देव ऋणसे मुक्त हो जाता है और प्रपौत्रके दर्शनसे उसे स्वर्गकी प्राप्ति होती है।'

शुकदेव - 'गीध दीर्घजीवी होते हैं, वे सभी अपनी कई पीढ़ियोंको देखते हैं। पौत्र, प्रपौत्र तो सर्वथा नगण्य वस्तु हैं उनकी दृष्टिमें पर पता नहीं उनमेंसे अबतक कितनोंको मोक्ष मिला।'

यों कहकर विरक्त शुकदेवजी वनमें चले गये।

-जा0 श0

(स्कन्दपुराण, नागरखण्ड पूर्वार्ध 150: देवीभागवत, स्कन्ध
1 अ0 4-5)



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shukadevajeeka vairaagya

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shukadevajeene kahaa- 'jo chauraasee laakh yoniyaanbataayee gayee hain, un sabamen main ghoom chuka hoon. aisee dashaamen main kya bataaoon ki kaun hoon ?'

vyaasajeene kahaa- 'tum baahar kyon naheen aate ?' shukadev - 'bhayankar sansaaramen bhatakate-bhatakate mujhe baड़a vairaagy ho gaya hai. par main jaanata hoon garbhase baahar aate hee vaishnavee maayaake sparshase saara jnaana-vairaagy hava ho jaayaga . ataev mera vichaar is baar garbhamen rahakar hee yogaabhyaasamen tatpar ho mokshasiddhi karaneka hai.'

antamen vyaasadevajeeke vaishnavee maayaake n sparsh karaneka aashvaasan denepar ve kisee prakaar garbhase baahar to aaye, par turant hee vanake liye chalane lage. yah dekh vyaasajee bole- 'betaa! mere gharamen hee thaharo. main tumhaara jaatakarm aadi sanskaar to kar doon.' isapar shukadevajeene kahaa- 'abatak janma-janmaantaronmen meresaikada़on sanskaar ho chuke hain. un bandhanaprad sanskaaronne hee mujhe bhavasaagaramen bhataka rakha hai. ataev ab mujhe unase koee prayojan naheen hai.'

vyaasadev – 'dvijake baalakako pahale vidhipoorvak brahmacharyaashramamen rahakar vedaadhyayan karana chaahiye. tadanantar use grihasth, vaanaprasth evan sannyaasaashramamen pravesh karana chaahiye. isake baad hee vah mokshako praapt hota hai. anyatha patan avashyambhaavee hai.'

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vyaasadeva–'manuka kahana hai ki sad-grihasthonke liye loka-paralok donon hee sukhad hote hain. grihasthaka samanvayaatmak sangrah sanaatan sukhadaayak hota hai. '

shukadev - 'sambhav hai daivayogase kabhee aag bhee sheet utpann kar sake, chandramaase taap nikalane lag jaaya; par parigrahase koee sukhee ho jaay - yah to trikaalamen bhee sambhav naheen hai.'

vyaasadev - 'bada़e punyonse manushyaka shareer milata hai. ise paakar yadi koee grihasthadharmaka tattv theeka-theek samajh jaay to use kya naheen mil jaata ?'

shukadev - 'janm hote hee manushyaka garbhajanitajnaana-dhyaan sab bhool jaata hai. aisee dashaamen gaarhasthyamen pravesh tatha usase laabhakee kalpana to keval aakaashase pushp toda़neke samaan hai.'

vyaasadev - 'manushyaka putr ho ya gadaheka, jab vah dhool men lipata chanchalagati se chalata aur totalee vaanee bolata hai, tab usaka shabd logonke liye apaar aanandaprad hota hai.'

shukadev - 'mune! dhoolamen lotate hue apavitr shishuse sukh ya santoshakee praapti sarvatha ajnaanamoolak hee hai. | usamen sukh maananevaale sabhee ajnaanee hain.'

vyaasadev - 'yamalok men ek mahaabhayankar narak hai, jisaka naam hai—'pum'. putraheen manushy vaheen jaata hai. isaliye putrakee prashansa kee jaatee hai.' shukadev - 'yadi putrase hee svargakee praapti ho jaatee to sooar, kookar aur tiddiyonko yah vishesharoopase mil sakataa.'

vyaasadev - 'putrake darshanase manushy pitri rinase mukt ho jaata hai. pautra-darshanase dev rinase mukt ho jaata hai aur prapautrake darshanase use svargakee praapti hotee hai.'

shukadev - 'geedh deerghajeevee hote hain, ve sabhee apanee kaee peedha़iyonko dekhate hain. pautr, prapautr to sarvatha nagany vastu hain unakee drishtimen par pata naheen unamense abatak kitanonko moksh milaa.'

yon kahakar virakt shukadevajee vanamen chale gaye.

-jaa0 sha0

(skandapuraan, naagarakhand poorvaardh 150: deveebhaagavat, skandha
1 a0 4-5)

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