बीसवीं शताब्दीकी घटना है। एक बड़े शहरमें एक बड़े प्रतिष्ठित धनी निवास करते थे। उनके चित्तमें बड़ा वैराग्य था, भगवान्के भजनमें बड़ी रुचि थी। वे सोचते रहते थे कि कब वह अवसर मिलेगा, जब सबकी चिन्ता छोड़कर मैं भजनमें ही लग जाऊँगा। उनके सन्तान नहीं थी। एक भतीजा था, जिसके पढ़ाने लिखानेकी जिम्मेदारी सेठजीपर ही थी। वे उसको योग्य बनाकर भजनमें लगना चाहते थे।
कुछ दिनोंमें पढ़-लिखकर सेठजीका भतीजा योग्य हो गया। सेठजीने व्यापारका सारा काम-काज उसे सँभला दिया और अपना विचार प्रकट किया कि मैं तो अब व्रजमें रहकर भगवान्का भजन ही करूँगा। भतीजेने पूछा- 'चाचाजी, इस घरमें व्यापारमें, रुपये में और भोगोंमें जो आनन्द है, भजनमें उससे अधिक आनन्द है क्या?' चाचाजी- 'इसमें क्या सन्देह है, बेटा! हमारा व्यापार, भोग और सुख तो अत्यन्त अल्प हैं। संसारके त्रैकालिक सुखोंको और मोक्ष सुखको भी यदि एकत्र करके एक पलड़ेपर रखा जाय और दूसरे पलड़ेपर भजनका लेशमात्र सुख रखा जाय, तो भी वह लेशमात्र सुख ही अधिक होगा। और तो क्या कहूँ, बेटा? भजनमें जो दुःख होता है, वह भी संसारके सब सुखोंसे श्रेष्ठ है' भतीजा'चाचाजी । जब भजनमें इतना सुख है, तब मुझे इस दुःखरूप व्यापारमें लगाकर आप अकेले क्यों उस सुखका उपभोग करने जा रहे हैं? जिसे आप दुःख समझते हैं, उसमें मुझे डाल रहे हैं और आप सुखमें जा रहे हैं, भला, यह कहाँका न्याय है? मैं भी आपके साथ चलूंगा।' चाचाजी- 'बेटा, मैं तो चाहता हूँ कि संसारके सभी लोग भगवान्में लग जायें। मुझे कई बार इस बातका दुःख भी होता है कि लोग ऐसा सुखमय भजन छोड़कर प्रपंचोंमें क्यों फँसते हैं। परंतु संसारका अनुभव किये बिना इसके दुःखोंका ज्ञान नहीं होता। तुम अभी नवयुवक हो। तुम कुछ दिनोंतक संसारकेव्यवहारोंमें रहकर इसके सुख-दुःखोंको देख लो, फिर तुम्हारी रुचि हो तो भजनमें लग जाना।' भतीजा 'चाचाजी, आपकी बात मुझे जँचती नहीं है। सोचता हूँ कि जिस व्यापार आदिमें लगे रहकर आपने अपनी इतनी उम्र बितायी है, उसका अनुभव आपसे अधिक मुझे कब होगा! जब आपका अनुभव इतना प्रत्यक्ष है, मेरी आँखोंके सामने है, तब फिर उसका अनुभव प्राप्त करनेके लिये इतना सुखद भजन छोड़ देना कहाँतक उचित है? इसलिये में भजनके लिये अवश्य चलूँगा, आप साथ न रखेंगे तो मैं अकेला ही चला जाऊँगा।'
भतीजेका दृढ़ निश्चय देखकर सेठजीको प्रसन्नता हुई। अपनी सारी सम्पत्तिका उन्होंने इस्ट बना दिया जिससे दीन-दुखियोंकी सेवा हुआ करे दोनोंने समस्त | वस्तुओंका त्याग करके व्रजकी यात्रा की। रास्तेमें चाचाजीने अपने भतीजेसे बातचीत करते हुए कहा 'बेटा! ऐसी बात नहीं है कि घरमें भगवान्का भजन हो ही नहीं सकता हो तो सकता है, होता है। मेरे सामने संसारके व्यवहार, व्यापारमें बहुत बड़ी कठिनाई थी। आजकल व्यापारकी प्रणाली इतनी कलुषित, इतनी गन्दी हो गयी है कि बड़े-बड़े सत्पुरुषोंका व्यवहार भी पूर्णत: शुद्ध नहीं होता। जहाँ दूसरोंसे सम्बन्ध रखना पड़ता है, वहाँ कुछ-न-कुछ उनके सम्बन्धका ध्यान रखना ही पड़ता है। इसलिये कैसा भी सज्जन क्यों न हो, व्यवहारके क्षेत्रमें उसे विवश होकर अपराध करना पड़ता है। सम्भव है दो-एक इसके अपवाद भी हों परंतु है यह बहुत कठिन । अवश्य ही यह व्यापारका दोष नहीं है, किंतु कलियुगमें ऐसे व्यक्तियोंकी ही भरमार है। इसीसे जो लोग अपने ईमान और सचाईकी रक्षा करना चाहते हैं, अपने अन्तःकरणको शुद्ध रखना चाहते हैं, वे थोड़े से थोड़ा व्यापार करते हैं अथवा उससे बिलकुल अलग होकर भजन करने लग जाते हैं। भजन हीसर्वस्व है, भजन ही जीवन है। भजनके आनन्दके सामने त्रिलोकी तुच्छ है।'
दोनों ही चाचा और भतीजे व्रजमें रहकर भजन करने लगे। सत्संग करते, लीला देखते, जप करते, ध्यान करते और व्रजकी रजमें लोटते। दोनों अलग-अलग विचरण करते, अलग-अलग भिक्षा करते और रातको दूर-दूर रहते। कुछ दिनोंके बाद तो सत्संग करते-करते उनकी बुद्धि इतनी शुद्ध हो गयी कि एकको दूसरेकी याद ही नहीं रहती। कोई कहीं रहकर भजन कर रहा है, तो कोई कहीं। दोनों मस्त थे।
एक दिन बड़ी विचित्र घटना घटित हो गयी, सेठजी जप कर रहे थे। उनके मनमें बार-बार खीर खानेकी इच्छा होने लगी। एक तो यों ही मनुष्यकी इच्छाएँ उसके साथ जोड़ी जाती हैं, दूसरे भजनके समयकी इच्छा तो कल्पवृक्षके नीचे बैठकर की हुई इच्छाके समान है। भगवान् अपने भक्तकी प्रत्येक इच्छा उचित समझकर पूर्ण करते हैं। थोड़ी ही देरमें एक बारह वर्षकी सीधी-सादी लड़की वहाँ आयी और सेठजीके सामने दूध, चावल और चीनी रख गयी। सेठजीको बड़ा आश्चर्य हुआ। वे भगवान्की भक्तवत्सलता देखकर मुग्ध तो हुए, परंतु उनकी खीर खानेकी इच्छा अभी मिटी नहीं थी। उन्होंने आग जलाकर खीर पकाना शुरू किया। अब उनके मनमें भतीजेकी याद आने लगी। वे सोचने लगे कि यदि वह भी आ जाता, तो उसे भी खीर मिल जाती। चाचाके स्मरणका प्रभाव भतीजेके चित्तपर पड़ा और वह अपने स्थानसे चलकर सेठजीके पास पहुँचा। भतीजेकी स्थिति बहुत ऊँची थी, उसमें आत्मबल था। तभी तो वह एक ही दिनमें अपनी सारी सम्पत्ति छोड़ सका था। खीरकी तैयारी देखकर उसने चाचाजीसे सब बात पूछी और उदास हो गया। उसने कहा 'चाचाजी! यदि खीर ही खानी थी, तो घर क्यों छोड़ा? वहीं रहकर जो कुछ बनता, भजन करते, दूसरोंको खीर-पूड़ी खिलाते और खुद भी खाते जिसको छोड़ दिया, उसकी फिर क्या इच्छा? जिसकोउगल दिया, उसको फिर खाना- यह तो कुत्तोंका काम है। चाचाजी, आपने सनातन गोस्वामीकी बात तो सुनी ही होगी। इतने विरक्त थे वे कि अपने ठाकुरको भी बाजरेकी सूखी रोटी खिलाते थे। एक दिन ठाकुरजीने उनसे कहा-'भाई! कम-से-कम नमक तो खिलाया करो। सूखी रोटी मेरे मुँहमें गड़ती है।' भगवान्की यह बात सुनकर श्रीसनातन गोस्वामीको बड़ा दुःख हुआ। उन्होंने कहा-'मेरे चित्तमें स्वादकी वासना होगी, तभी तुम ऐसा कह रहे हो। अन्यथा तुम्हें नमककी क्या आवश्यकता है?' सनातन गोस्वामीकी बात स्मरण करके हमें तो अपनी दशापर बड़ा दुःख हो रहा है। अभी भोगोंकी आसक्ति हमारे चित्तसे मिटी नहीं इसीसे तरह-तरहके बहाने बनाकर और प्रत्यक्ष भी हम भोग चाहते हैं। न जाने भगवान्की क्या इच्छा है।' भतीजा बोल रहा था और सेठजीकी आँखोंसे आँसू गिर रहे थे। यह भी भगवान्की कृपा ही होगी' इतना कहकर वह ध्यानमग्न हो गया।
थोड़ी देरमें वही लड़की, जो खीरका सामान दे गयी थी, आयी। वह कहने लगी- 'बाबा, तुम रोते क्यों हो? अवतक तुमने खीर भी नहीं खानी है? ऐसा क्यों? क्या मेरा कोई अपराध था ?' उस लड़कीकी मधुर वाणी सुनकर दोनोंने आँखें खोलीं तो वह लड़की साधारण नहीं, ज्योतिर्मयी साक्षात् श्रीजी थीं। दोनोंने साष्टांग दण्डवत् करते न करते सुना कि श्रीजी कह रही हैं 'यह सब मेरी ही लीला थी। यह व्रजभूमि मेरी भूमि है। यहाँ रहकर तुम करने न करनेका अभिमान छोड़ दो। तुम कुछ करते नहीं कर सकते नहीं। सब में करती हूँ। जबतक तुम अपनेको एक भी क्रिया या संकल्पका कर्ता मानोगे, तबतक तुम्हें दुःख होगा। जैसे मैं रखूं, वैसे रहो। जो कराती हूँ, सो करो। तुम मेरे हो।' दण्डवत् करके जब उन दोनोंने आँखें खोलीं, तब
वहाँसे श्रीजी अन्तर्धान हो चुकी थीं। वे जीवनभर मस्त देखे गये।
[ स्वामी श्रीअखण्डानन्दजी सरस्वती ]
beesaveen shataabdeekee ghatana hai. ek bada़e shaharamen ek bada़e pratishthit dhanee nivaas karate the. unake chittamen baड़a vairaagy tha, bhagavaanke bhajanamen bada़ee ruchi thee. ve sochate rahate the ki kab vah avasar milega, jab sabakee chinta chhoda़kar main bhajanamen hee lag jaaoongaa. unake santaan naheen thee. ek bhateeja tha, jisake padha़aane likhaanekee jimmedaaree sethajeepar hee thee. ve usako yogy banaakar bhajanamen lagana chaahate the.
kuchh dinonmen paढ़-likhakar sethajeeka bhateeja yogy ho gayaa. sethajeene vyaapaaraka saara kaama-kaaj use sanbhala diya aur apana vichaar prakat kiya ki main to ab vrajamen rahakar bhagavaanka bhajan hee karoongaa. bhateejene poochhaa- 'chaachaajee, is gharamen vyaapaaramen, rupaye men aur bhogonmen jo aanand hai, bhajanamen usase adhik aanand hai kyaa?' chaachaajee- 'isamen kya sandeh hai, betaa! hamaara vyaapaar, bhog aur sukh to atyant alp hain. sansaarake traikaalik sukhonko aur moksh sukhako bhee yadi ekatr karake ek palada़epar rakha jaay aur doosare palada़epar bhajanaka leshamaatr sukh rakha jaay, to bhee vah leshamaatr sukh hee adhik hogaa. aur to kya kahoon, betaa? bhajanamen jo duhkh hota hai, vah bhee sansaarake sab sukhonse shreshth hai' bhateejaa'chaachaajee . jab bhajanamen itana sukh hai, tab mujhe is duhkharoop vyaapaaramen lagaakar aap akele kyon us sukhaka upabhog karane ja rahe hain? jise aap duhkh samajhate hain, usamen mujhe daal rahe hain aur aap sukhamen ja rahe hain, bhala, yah kahaanka nyaay hai? main bhee aapake saath chaloongaa.' chaachaajee- 'beta, main to chaahata hoon ki sansaarake sabhee log bhagavaanmen lag jaayen. mujhe kaee baar is baataka duhkh bhee hota hai ki log aisa sukhamay bhajan chhoda़kar prapanchonmen kyon phansate hain. parantu sansaaraka anubhav kiye bina isake duhkhonka jnaan naheen hotaa. tum abhee navayuvak ho. tum kuchh dinontak sansaarakevyavahaaronmen rahakar isake sukha-duhkhonko dekh lo, phir tumhaaree ruchi ho to bhajanamen lag jaanaa.' bhateeja 'chaachaajee, aapakee baat mujhe janchatee naheen hai. sochata hoon ki jis vyaapaar aadimen lage rahakar aapane apanee itanee umr bitaayee hai, usaka anubhav aapase adhik mujhe kab hogaa! jab aapaka anubhav itana pratyaksh hai, meree aankhonke saamane hai, tab phir usaka anubhav praapt karaneke liye itana sukhad bhajan chhoda़ dena kahaantak uchit hai? isaliye men bhajanake liye avashy chaloonga, aap saath n rakhenge to main akela hee chala jaaoongaa.'
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donon hee chaacha aur bhateeje vrajamen rahakar bhajan karane lage. satsang karate, leela dekhate, jap karate, dhyaan karate aur vrajakee rajamen lotate. donon alaga-alag vicharan karate, alaga-alag bhiksha karate aur raatako doora-door rahate. kuchh dinonke baad to satsang karate-karate unakee buddhi itanee shuddh ho gayee ki ekako doosarekee yaad hee naheen rahatee. koee kaheen rahakar bhajan kar raha hai, to koee kaheen. donon mast the.
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vahaanse shreejee antardhaan ho chukee theen. ve jeevanabhar mast dekhe gaye.
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