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दक्षिण भारतमें श्रीहनुमान चालीसाके पाठका चमत्कार

श्रीहनुमान चालीसाके पाठका चमत्कार उत्तर भारतमें तो सुनने में आता ही है, इसके पाठका चमत्कार दक्षिण भारतमें भी अनेकानेक रूपोंमें व्याप्त है। उसीका एक उदाहरण यहाँ दिया जा रहा है। आन्ध्रप्रदेशमें गोस्वामी तुलसीदासकृत हनुमान चालीसाके पाठका कबसे प्रारम्भ हुआ, यह शोधका विषय है, लेकिन इसका व्यापक प्रचार सन् १९५० से देखने में आया है, जिसका श्रेय श्रीअवधूतेन्द्र स्वामीजी अर्थात् ब्रह्मलीन श्रीसियारघुवरदासजीको है। विरक होनेके पूर्व आप 'विश्वेश्वर राव' नामसे पुकारे जाते थे। आपका जन्म आन्ध्रप्रदेशके अतिसि गाँवमें हुआ था। आप ग्वालियरमें संगीत सीखते-सीखते विरक्त हो गये। और अयोध्या आकर स्वामी जानकीवल्लभशरणजी महाराजसे दीक्षा लेकर भगवन्नाम संकीर्तन तथा श्रीहनुमान चालीसाके पाठके प्रचारमें लग गये। अपने गुरुकी आज्ञासे पूरे देशमें भ्रमणके पश्चात् अयोध्या वापस आ गये। उसी समय उनके जीवनमें एक आश्चर्यजनक घटना घटित हुई। आन्ध्रप्रदेशके भीमवरम नामक नगरमें एक अखिल भारतीय प्राकृतिक चिकित्सा सम्मेलन हुआ। उसका विवरण बिहारके एक हनुमत् भक्त श्रीराम पाण्डेयके द्वारा मुझे ज्ञात हुआ। उनका कथन है कि उन्होंने देखा कि आश्रम जहाँ सम्मेलन आयोजित था, उसके एक कक्षमें एक महात्मा कुछ भक्तोंसे घिरे हैं। यही महात्मा अवधूतेन्द्र सरस्वतीजी थे। ये महात्मा तुलसीकृत श्रीहनुमान चालीसाकी तेलुगू लिपिमें प्रकाशित किताबको विद्यार्थियों तथा रोगियों में बाँटते थे। इसकी दो प्रतियाँ उन्होंने मुझे (श्रीराम पाण्डेयको) भी दी थीं। श्रीहनुमान चालीसाको वितरित करनेके पीछे उनके जीवनका रहस्य छिपा था। महात्माजीके ही शब्दों में- 'जब मैं बिहारसे वापस अयोध्या आया, तभी एक दिन मुझे लकवा मार गया। उठना-बैठना तो दूर, मेरी वाणी भी चली गयी थी। एक भक्तने कृपा की। एक चिकित्सकने परीक्षणोपरान्त रोगको असाध्य बतायाऔर चिकित्सा करने से इनकार कर दिया। चिकित्सककी रायमें इस असाध्य रोगपर व्यय करना व्यर्थ था' ।

उसी दिन अयोध्याके उसी मठके एक महात्माने स्वामीजीको सान्त्वना एवं तुलसीकृत श्रीहनुमान चालीसाकी प्रति देते हुए कहा कि आप दुखी न होइये। आप इसका पाठ करिये। आपका कल्याण होगा। यदि आपको यह संसार भी छोड़ना पड़े तो आप पुण्यधाममें हैं।

स्वामी अवधूतेन्द्रजीका कहना था कि जब मैंने संकेतसे बताया कि मेरी वाणी भी चली गयी है तो मैं पाठ कैसे करूँगा? महात्माजीने कहा कि मन-ही-मन पाठ करिये। स्वामीजीने बताया कि मैं लेटे-ही-लेटे मन-ही-मन श्रीहनुमान चालीसाका पाठ करने लगा। इसका फल आश्चर्यजनक हुआ, तीन महीनेमें मेरी वाणी भी खुल गयी।

स्वामीजी जब पूर्ण स्वस्थ हो गये तो वे हिन्दी क्षेत्रमें हिन्दी लिपिमें और आन्ध्रप्रदेशमें तेलुगू लिपिमें श्रीहनुमान चालीसाको छपवाकर सहस्रों प्रतियाँ प्रतिवर्ष निःशुल्क वितरित करने लगे।

स्वामीजी संकीर्तन भवन झूसी प्रयागमें सन्तशिरोमणि श्रीप्रभुदत्त ब्रह्मचारीजीके सान्निध्यमें कई वर्ष रहे। एक बार अस्वस्थ होनेपर प्रभुदत्त ब्रह्मचारीजी महाराजकी आज्ञासे आन्ध्रप्रदेश आकर गुटुरके रामनाम क्षेत्रको अपना कार्यक्षेत्र बनाया। यहींसे स्वामीजी जीवनपर्यन्त आन्ध्रप्रदेशके सभी नगरोंमें अपनी संकीर्तन मण्डलीके साथ घूम-घूमकर भगवन्नाम संकीर्तन, वासुदेव-नाम मन्त्र तथा श्रीहनुमान चालीसाके पाठका प्रचार करते रहे। सन् १९७५ में स्वामीजी गोलोकधाम पधार गये। लेकिन उनकी स्मृतिमें आज भी आन्ध्रप्रदेशमें नगर-नगर भगवन्नाम संकीर्तन, वासुदेवनाममन्त्र तथा श्रीहनुमान चालीसाके पाठका प्रचार हो रहा है।

श्रीहनुमान चालीसाका पाठ उत्तर तथा दक्षिण भारतके कोने-कोने में श्रद्धालुओं द्वारा श्रद्धा-विश्वाससे किया जाता है, जो देशकी एकता-अखण्डताका प्रतीक है।

[ श्रीदयाशंकर सिंहजी ]



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[ shreedayaashankar sinhajee ]

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