धन्यं तं नौमि चैतन्यं वासुदेवं दयार्द्रधीः ।
नष्टकुष्ठं रूपपुष्टं भक्तितुष्टं चकार यः ॥ *
(श्रीचैत० चरिता० म० ली० ७।१)
जीवनमें मस्ती हो, संसारी लोगोंके मानापमानकी परवा न हो, किसी नियत स्थानमें नियत समयपर पहुँचनेका दृढ़ संकल्प न हो और किसी विशेष स्थानमें ममत्व न हो; बस, तभी तो यात्रामें मजा मिलता है। ऐसे यात्रीका जीवन स्वाभाविक ही तपोमय जीवन होगा और प्राणिमात्रके प्रति उसके हृदयमें प्रेम तथा ममताके भाव होंगे। असलमें तो ऐसे ही लोगोंकी यात्रा सफल यात्रा कही जा सकती है। ऐसे यात्री नरदेहधारी नारायण हैं, उनकी पदधूलिसे देश पावन बन जाते हैं। पृथ्वी पवित्र हो जाती है। तीर्थोंकी कालिमा धुल जाती है और रास्तेके किनारेके नगरवासी स्त्री-पुरुष कृतार्थ हो जाते हैं। माँ वसुन्धरे ! अनेक रत्नोंको दबाये रहनेसे तुझे इतना सुख कभी न मिलता होगा, जितना कि इन सर्वसमर्थ ईश्वरों के पदाघातसे। तीर्थोंका तीर्थत्व जो अभीतक ज्यों-का-त्यों ही अक्षुण्ण बना हुआ है, इसका सर्वप्रधान कारण यही है कि ऐसे महानुभाव तीर्थोंमें आकर अपने पादस्पर्शसे तीर्थों में एकत्रित हुए पापोंको भस्म कर देते हैं, जिससे तीर्थ फिर ज्यों-के-त्यों ही निर्मल हो जाते हैं।
महाप्रभु चैतन्यदेव दक्षिणकी ओर यात्रा कर रहे थे। वे जिस ग्राममें होकर निकलते, उसीमें उच्च स्वरसे भगवन्नामोंका घोष करते। उन हृदयग्राही सुमधुर भगवन्नामोंको प्रभुकी चित्ताकर्षक मनोहर वाणीद्वारा सुनकर ग्रामोंके झुंड के झुंड स्त्री-पुरुष आ-आकर प्रभुको घेर लेते। महाप्रभु उनके बीचमें खड़े होकर कहते -
हरि हरि बोल बोल हरि बोल। मुकुन्द माधव गोविन्द बोल ॥
प्रभुके स्वरमें स्वर मिलाकर छोटे-छोटे बच्चे
तालीबजा-बजाकर जोरोंके साथ नाचते हुए कहने लगते
हरि हरि बोल बोल हरि बोल। मुकुन्द माधव गोविन्द बोल ॥
बच्चोंके साथ बड़े भी गाने लगते और बहुत-से तो पागलोंकी तरह नृत्य ही करने लगते। इस प्रकार प्रभु जिधर होकर निकलते, उधर ही श्रीहरिनामकी गूँज होने लगती। इस प्रकार पथके असंख्य स्त्री-पुरुषोंको पावन करते हुए प्रभु कूर्माचल या कूर्मम् स्थानमें पहुँचे। यह तीर्थस्थान आन्ध्रप्रदेशके अन्तर्गत गंजाम जिलेमें अवस्थित है। कहते हैं कि पूर्वकालमें जगन्नाथजी जाते हुए भगवान् रामानुजाचार्य यहाँ ठहरे थे। पहले तो उन्हें कूर्मभगवान्की मूर्ति शिवरूपसे प्रतीत हुई और पीछे उन्होंने विष्णुरूप समझकर कूर्मभगवान्की सेवा की। पीछेसे यह स्थान माध्वसम्प्रदायवाले महात्माओंके अधिकारमें आ गया। दक्षिण देशमें इस तीर्थकी बड़ी भारी प्रतिष्ठा है। प्रभुने मन्दिरमें पहुँचकर कूर्मभगवान्के दर्शन किये और वे आनन्दमें विह्वल होकर नृत्य करने लगे। प्रभुके अलौकिक नृत्यको देखकर कूर्मनिवासी बहुत-से नर-नारी वहाँ एकत्रित होकर प्रभुके देवदुर्लभ दर्शनोंसे अपने नेत्रोंको सार्थक करने लगे। प्रभु बहुत देरतक भावावेशमें आकर नृत्य और कीर्तन करते रहे।
उसी ग्राममें वासुदेव नामक एक परम वैष्णव ब्राह्मण रहता था। उसकी साधु-महात्माओंके चरणोंमें अत्यधिक प्रीति थी। जहाँ भी किसी साधु-महात्माके आगमनका समाचार पाता, वहीं आकर वह उनकी दूरसे चरणवन्दना करता प्रारब्ध-कर्मोंसे उस परमभागवत वैष्णवके सम्पूर्ण अंगमें गलित कुष्ठ हो गया था, इससे उसे तनिक भी क्लेश नहीं होता था। वह इसे प्रारब्ध कर्मोंका भोग समझकर प्रसन्नतापूर्वक सहन करता था। उसके सम्पूर्ण अंगोंमें घाव हो गये थे और उनमें कीड़े पड़ गये थे।वासुदेव उन कीड़ोंको निकालनेकी कोशिश नहीं करता। यही नहीं किंतु जो कीड़ा आप-से-आप ही निकलकर पृथिवीपर गिर पड़ता, उसे उठाकर वह फिर ज्यों-का-त्यों ही अपने शरीरके घावोंमें रख लेता और पुचकारता हुआ कहता- 'भैया! तुम पृथिवीपर कहाँ जाओगे, किसीके पैरोंके नीचे कुचल जाओगे, इसलिये यहीं रहो, यहाँ खानेको भी आहार मिलता रहेगा।' संसारी लोग उसके इस व्यवहारको देखकर हँसते और उसे पागल बताते, किंतु उसे संसारी लोगों की परवा ही नहीं थी। वह तो अपने प्यारेको प्रसन्न करना चाहता था, संसार यदि बकता है तो उसे बकने दो। उसकी दृष्टिमें संसार पागल है और संसारकी दृष्टिमें वह पागल है।
उसने प्रातः काल सुना कि 'कूर्मदेव' ब्राह्मणके घरमें परम तेजस्वी अद्भुत रूप-लावण्ययुक्त नूतन अवस्थाके एक भगवद्भक्त विरक्त संन्यासी आये हैं, उनके दर्शनमात्रसे ही हृदयमें पवित्र भावोंका संचार होने लगता है और जिह्वा आप-से-आप ही 'हरि हरि' पुकारने लगती है। इतना सुनते ही वासुदेव उसी समय महाप्रभुके दर्शनोंके लिये कूर्म ब्राह्मणके घर दौड़ा आया। वहाँ आकर उसे पता चला कि प्रभु तो अभी थोड़ी ही देर पहले यहाँसे आगेके लिये चले गये हैं। इतना सुनते ही वह कुष्ठी ब्राह्मण भक्त मूच्छित होकर भूमिपर गिर पड़ा और करुण स्वरमें रुदन करते हुए विलाप करने लगा - 'हाय ! मैं ऐसा हतभागी निकला कि प्रभुके दर्शनोंसे भी वंचित रह गया। हे जगत्पते! मेरी रक्षा करो। हे अशरणशरण ! इस लोकनिन्दित दीन-हीन कंगालके ऊपर कृपा करके अपने दर्शनोंसे इस अधमको कृतार्थ करो। हे अन्तर्यामिन् ! आप तो घट-घटकी जाननेवाले हैं। आप ही साधु, सन्त, भक्त और संन्यासी आदि वेशोंसे पृथिवीपर पर्यटन करते हुए संसारी कीचड़में सने निराश्रित जीवोंका उद्धार करते फिरते हैं। भगवन्। मेरा तो कोई दूसरा आश्रय ही नहीं, कुटुम्ब-परिवारवालोंने मेरा परित्याग कर दिया, समाजमें मैं अस्पृश्य समझा जाता हूँ, कोई भी मुझसे बात नहीं करता। बस, केवल आप ही मेरेआश्रयस्थान हैं। मुझे दर्शनोंसे वंचित रखकर आप आगे क्यों चले गये ?'
मानो वासुदेवकी करुण ध्वनि दूरसे ही प्रभुने सुन ली। वे सहसा रास्तेसे ही लौट पड़े और कूर्मके घर आकर रोते हुए वासुदेवको बड़े प्रेमसे उन्होंने हृदयसे लगा लिया। भयके कारण काँपता हुआ और जोरोंसे पीछेको ओर हटता हुआ वासुदेव कहने लगा 'भगवन्! आप मेरा स्पर्श न करें। मेरे शरीरमें गलित कुष्ठ है। नाथ! आपके सुवर्ण-जैसे सुन्दर शरीरमें यह अपवित्र पीब लग जायगा। प्रभो! इस पापीका स्पर्श न कीजिये।' किंतु प्रभु कब सुननेवाले थे, वे तो भक्तवत्सल हैं। उन्होंने वासुदेवका दृढ़ आलिंगन करते हुए कहा- 'वासुदेव! तुम जैसे भगवद्भकका स्पर्श करके मैं स्वयं अपनेको पावन करना चाहता हूँ।'
प्रभुका आलिंगन पाते ही पता नहीं, वासुदेवके सम्पूर्ण शरीरका कुष्ठ कहाँ चला गया, वह बात-की बातमें एकदम स्वस्थ हो गया और उसका सम्पूर्ण शरीर सुन्दर सुवर्णके समान चमकने लगा। प्रभुकी ऐसी कृपालुता देखकर आँखोंसे प्रेमा बहाता हुआ गद्गद कण्ठसे वासुदेव कहने लगा-'प्रभो! मुझ जैसे पापीका उद्धार करके आपने अपने पतित पावन नामको ही सार्थक किया है। पतितोंको पावन करना तो आपका विरद ही है। मैं माया-मोहमें फँसा हुआ अल्पज्ञ प्राणी आपकी स्तुति कर ही क्या सकता हूँ? आपकी विशद विरदावलीका बखान करना मनुष्य-शक्तिके बाहरकी बात है। आप नररूप साक्षात् नारायण हैं, आप प्रच्छन्न वेशधारी श्रीहरि हैं। आपकी महिमा अपार है, शेषनागजी सहस्त्र फणोंसे सृष्टिके अन्ततक भी आपके गुणोंका बखान नहीं कर सकते।' इतना कहते-कहते उसका कण्ठ भर आया, आगे वह कुछ भी नहीं कह सका और मूच्छित होकर प्रभुके पैरोंके समीप गिर पड़ा। प्रभुने उसे अपने हाथसे उठाया और भगवन्नामका उपदेश करते हुए नित्यप्रति कृष्ण-कीर्तन करते रहनेकी शिक्षा दी। इस प्रकार दोनों ब्राह्मणों (कूर्मदेव और वासुदेव) को प्रेमसे आलिंगन करके प्रभु फिर वहाँसे आगेकी ओर चल दिये।
dhanyan tan naumi chaitanyan vaasudevan dayaardradheeh .
nashtakushthan roopapushtan bhaktitushtan chakaar yah .. *
(shreechaita0 charitaa0 ma0 lee0 7.1)
jeevanamen mastee ho, sansaaree logonke maanaapamaanakee parava n ho, kisee niyat sthaanamen niyat samayapar pahunchaneka dridha़ sankalp n ho aur kisee vishesh sthaanamen mamatv n ho; bas, tabhee to yaatraamen maja milata hai. aise yaatreeka jeevan svaabhaavik hee tapomay jeevan hoga aur praanimaatrake prati usake hridayamen prem tatha mamataake bhaav honge. asalamen to aise hee logonkee yaatra saphal yaatra kahee ja sakatee hai. aise yaatree naradehadhaaree naaraayan hain, unakee padadhoolise desh paavan ban jaate hain. prithvee pavitr ho jaatee hai. teerthonkee kaalima dhul jaatee hai aur raasteke kinaareke nagaravaasee stree-purush kritaarth ho jaate hain. maan vasundhare ! anek ratnonko dabaaye rahanese tujhe itana sukh kabhee n milata hoga, jitana ki in sarvasamarth eeshvaron ke padaaghaatase. teerthonka teerthatv jo abheetak jyon-kaa-tyon hee akshunn bana hua hai, isaka sarvapradhaan kaaran yahee hai ki aise mahaanubhaav teerthonmen aakar apane paadasparshase teerthon men ekatrit hue paaponko bhasm kar dete hain, jisase teerth phir jyon-ke-tyon hee nirmal ho jaate hain.
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hari hari bol bol hari bola. mukund maadhav govind bol ..
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