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श्रीगणेशका कृपापात्र बालक नंबि

चिदम्बरम् के समीप तिरुनारैयूरमें श्रीगणेशजीका एक विशेष मन्दिर है। उसमें जिस मूर्तिकी पूजा होती है, उसके विषयमें पुजारियों और भक्तोंमें एक अपूर्व ही कथा प्रचलित है।

दसवीं शताब्दीमें नंबि नामका एक कुआँरा ब्राह्मण इस स्थानमें रहता था। बाल्यकालमें वह एकदम निरक्षर था, किंतु वैदिक पाठशालामें वेदाध्ययनके लिये प्रविष्ट हुआ। उस समय उसकी अवस्था नौ वर्षसे अधिक न थी। वह इस विनायक मन्दिरके पुजारीका इकलौता पुत्र था। माता-पिता उस मन्दिरमें प्रतिदिन सनातन रीति रिवाजके अनुसार पूजा और सेवा आदि करते थे। एक दिन उस पुजारीको किसी दूसरी जगह अनुष्ठान आदि कार्यसे जाना पड़ा। उसने अपने पुत्र नंबिके ऊपर उस दिन पूजा करने और गणेशजीसे वरदान माँगनेका कार्य साँप दिया।

नंबि निरा बालक था और विनायक मन्दिरमें पूजा तथा वैदिकाचारका ज्ञान उसमें पर्याप्त नहीं था। वह मन्दिर में गया, मूर्तिके सामने खड़ा हो गया और श्रद्धा भक्तिपूर्वक भूलोंके लिये क्षमा-प्रार्थना करके पूजा करने लगा। उस बालकके अन्तःकरणमें दयालु प्रभुकी अपूर्व कृपा हुई । उसके मुखसे कुछ श्लोक और वेदमन्त्र उच्चरित होने लगे और उसने अपने ढंगसे देवताके अभिषेक और अर्चनाका अनुष्ठान किया। जब नैवेद्य निवेदनका समय आया तो उसने एक छोटे-से पात्रमें ओदन भरकर मूर्तिके आगे रखा और पूर्ण भक्तिपूर्वक हृदयसे प्रार्थना करने लगा।

विघ्नेश्वर उस ब्रह्मचारीकी मानसिक अवस्थाको स्पष्टतः देख रहे थे। नंबि अपनी सरल भाषामें अपने हृदयके उद्गारको व्यक्त करते हुए प्रार्थना करने लगा 'हे मेरे प्रभु विघ्नेश्वर ! तुम हमारे प्रभु हो तुम सृष्टिकर्ता, पालनकर्ता और संहर्ता हो। तुम्हारे एकान्त भक्त, मेरे पिताने अपनी अनुपस्थितिमें मुझको अपने स्थानमें तुम्हारी सेवामें लगाया है। वे आशा लगाये हैं।कि मैं उनके स्थानमें तुम्हारी सेवा-पूजा करके तुम्हें पूर्ण संतुष्ट करूँ। मैं तुम्हारे चरणोंमें शरणापन्न हूँ। मैं प्रार्थना करता हूँ कि तुम अनुग्रह करके प्रसाद ग्रहण करो और अपने कृपा-कटाक्षसे मुझको कृतार्थ करो। यदि तुम मेरा यह नैवेद्य स्वीकार न करोगे तो मैं तुम्हारी इस चौखटपर अपना सिर फोड़ लूँगा और तुम्हारे सामने इस असार संसारसे विदा हो जाऊँगा।' भगवान् गणपति उस नौ वर्षके बालककी इस विचित्र प्रार्थनाको सुनकर दंग रह गये। नारैयूरके विघ्नेश्वरने अपने सूँड़रूपी उस लम्बे पाँचवें हाथको फौरन बढ़ाया और सारे नैवेद्यको उठाकर उस बालक नंबिके देखते-देखते उदरस्थ कर लिया। वह बालक पुजारी आनन्दसे तथा हृदयमें असीम तृप्तिसे देवताके सामने नाचने लगा।

पूरे एक घंटेतक आनन्दमग्न रहनेके बाद उसे अपना घर याद आया। बहुत देरसे उसकी माँ घरके द्वारपर खड़ी उसकी प्रतीक्षा कर रही थी। उसे बालकके आने में देरी अद्भुत और विलक्षण प्रतीत हो रही थी। वह सोच रही थी कि पूजा तो कुछ ही मिनटोंमें समाप्त हो जानी चाहिये। अपने इकलौते बेटेकी वह प्रतीक्षा कर रही थी और घंटेभरसे दोपहरका भोजन बनाकर उसकी राह देख रही थी। वह बालकके इस व्यवहारपर चकित थी। उसको माता-पिताकी सुधि न थी, बल्कि वह एक अदम्य ईश्वरीय शक्तिसे अभिभूत था। नंबि घर पहुँचा और उसने गणपतिदेवके प्राकट्यके विषयमें अपनी माताको अवगत कराया। माता बालककी मानसिक दशाको पिताकी अपेक्षा कहीं अधिक आसानीसे समझ सकती थी। उसने विघ्नेश्वरके उस कृपापात्र बालकको घरमें ले जाकर उसके लिये विशिष्ट भोजन तैयार किया, किंतु उस बालकको उसे ग्रहण करनेकी इच्छा न हुई।

दूसरे दिन पिताके आनेपर माताने उस दिन मन्दिरमें । घटित अपूर्व घटनाका वर्णन किया और पिताने पूजाका काम सँभाला। उसने अपने पुत्रको भी साथ लेकर स्वभावतः मन्दिरमें प्रवेश किया। उसने वेद-मन्त्रोंका उच्चारण करके शास्त्रविधिसे पूजा-अनुष्ठान किया, देवताके सम्मुख नैवेद्य रखा और पिछले दिनके समान उसे ग्रहण करनेकी प्रार्थना की। विनायक उस वयस्क पुजारीके समक्ष प्रकट न हुए। तब पिताने अपने बालकसे अनुरोध किया कि 'वह पिछले दिनके समान ही नैवेद्य ग्रहण करनेके लिये देवतासे प्रार्थना करे।' बालक देवताके सामने खड़ा हो गया और पूर्ववत् उसने बड़े ही अनुनय-विनयपूर्वक प्रभुसे नैवेद्य-ग्रहणके लिये प्रार्थना की। विघ्नेश्वरको अपने भक्त और प्रिय सेवककी प्रार्थनाके आगे झुकना पड़ा। उन्होंने अपने पाँचवें हाथ - सूँड़के द्वारा एक ही लपेटमें सारे नैवेद्यको ग्रहण कर लिया। इसपर उसका पिता चिल्ला उठा-'नंबि! अब तुम मेरे पुत्र नहीं रहे। अबसे तुम हमारे प्रभु नारैयूरके विघ्नेश्वरके परम प्रिय भक्त और शिष्य हो गये। उन्होंने तुमको अपनी शरणमें ले लिया है। तुमको उनके तत्त्वावधान में सारे वेद शास्त्र और दूसरी अध्यात्मविद्याकी शिक्षा ग्रहण करनी है। वे तुम्हारी सारी मन:कामना पूर्ण करेंगे। मेरे कर्तव्यकी इतिश्री हो गयी। प्रभुके प्रति तथा जगत् के प्रति तुम्हारे कर्तव्यका श्रीगणेश हो गया। तुम्हारी माँ अपने अभ्यासके अनुसार तुम्हारी देख-भाल करती रहेगी।' इतना कहकर पिताने अपने पुत्रको गणेशके सुपुर्द कर दिया।

तमिळ- साहित्यमें इन गणेशजीको 'पोल्लेपिचिआयुर' के नामसे पुकारते हैं। उनकी मूर्ति किसी शिल्पकारके द्वारा नहीं गढ़ी गयी है। वह एक शुभ मुहूर्तमें पाताललोकसे स्वयं उद्भूत हुई है। अतएव यह एक विटंक- विनायक विग्रह है। बालक नंबि इसी विघ्नेश्वरका शिष्य बना। उसको स्वयं प्रभुने अपने हाथसे ग्रहण किया। तबसे उसका नाम नंबियाण्डार नंबि पड़ा। उस बालकने अपने देव गुरुसे सम्पूर्ण ज्ञातव्य विषयोंकी शिक्षा ग्रहण की और वह एक महान् भक्त तथा संस्कृत और तमिलका महान् विद्वान् हो गया। शिवभक्तोंकी महिमापर उसने एक काव्यरचना की है।

राजराज चोल नृपति कतिपय प्रसिद्ध मन्दिरोंकी चट्टानोंपर देवारम्- शिवस्तुतिको उत्कीर्ण देखकर चिदम्बरम् पधारे। उस स्तुतिकी पूर्ण लिपिका उद्धार करनेकी उनकी अभिलाषा हुई। उन्होंने यथासम्भव उसे खोज निकालने की चेष्टा की, जो स्वयं प्रभुके द्वारा मानवीय दृष्टिसे अन्तर्हित कर दी गयी थी। वे चिदम्बरम् आये। श्रीनटराजके तीन हजार भक्तोंने मन्दिरकी ओरसे राजाका स्वागत किया और उनको परामर्श दिया कि इस उद्देश्यकी सिद्धिके लिये नंबियाण्डार नंबिके पास जाना चाहिये। चोल-नृपति तिरुनारैयूर गये और उस बालकसे उस दिव्य देवारम्-स्तुतिका अनुसन्धान करनेका अनुरोध किया, जो वहाँ मन्दिरमें कहीं लुप्तावस्थामें निहित थी। नंबिने अपने गुरु और प्रभुसे प्रार्थना की। उन्होंने उसको चिदम्बरम्-तहखानेसे स्तोत्रको ढूँढ़ निकालनेका आदेश देकर भेजा, जहाँ वह तीन शिवभक्तों- सम्बन्ध, अप्पर और सुन्दरके द्वारा भोजपत्रमें लपेटकर रखा गया था।

वह तहखाना तीन हजार ब्राह्मणों और चोल नृपतिकी उपस्थितिमें नंबिके द्वारा खोला गया। प्रेम, भक्ति, प्रार्थना और तत्त्वज्ञानका वह खजाना तहखानेसे निकला। देवारम् स्तोत्रोंकी संख्या शिवभक्तोंके द्वारा तहखाने में रखते समय दस लाख थी। भोजपत्रपर लिखित अधिकांश पदोंको दीमक चट कर गये थे।

बिके द्वारा उपस्थित किये गये सात सौ पदोंको चोल- नृपतिने अपने अधिकारमें लिया। उन्होंने उसे लेकर एक बड़ी शोभायात्रा निकाली और सर्वत्र घोषित किया कि 'देवारम्-स्तोत्रका गुम खजाना अब हाथ लग गया है।' भोजपत्रमें देवारम् स्तोत्र एक हाथीके शानदार हौदेके ऊपर स्वर्ण आसनपर रखा गया और नंबियाण्डार नंबि उस ग्रन्थके पास बैठाये गये। दो श्वेत चँवर हाथमें लेकर राजा पीछे बैठे तथा उन सबके ऊपर एक श्वेत छत्र लगाकर एक मन्त्री आसीन हुए। उस शोभायात्राने चिदम्बरम्की परिक्रमा की और श्रीनटराजके मन्दिरमें विशेष पूजाका आयोजन किया गया। इस प्रकार देवारम्-स्तोत्रको उसके गुप्त स्थानसे ढूँढ़ने तथा तीन भक्तोंके तमिल वेदके रूपमें तमिल-जनताके सामने लानेमें नंबि निमित्तकारण बने।



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shreeganeshaka kripaapaatr baalak nanbi

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