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बिना बाँटे, अकेले खानेसे भोजन पापरूप हो जाता है  [प्रेरक कहानी]
Spiritual Story - शिक्षदायक कहानी (Hindi Story)

ऋग्वेद हमें यह शिक्षा देता है कि दूसरोंको श्रद्धापूर्वक देकर अवशिष्ट भागको स्वयं ग्रहण करना चाहिये। ऐसा कभी न करे कि स्वयं भोजन कर ले और दूसरा भूखा रह जाय। इस शिक्षामें आतिथ्यके साथ ही दूसरेके साथ प्रेम, सद्भाव, समता, दया, परोपकार आदिका उच्च आदर्श निहित है। सत्पुरुषोंका, संतोंका यह स्वभाव ही होता है कि वे बिना दूसरेको दिये भोजन ग्रहण ही नहीं करते। सत्पुरुषोंसे प्राप्त वही भोज्य पदार्थ प्रसाद-रूप हो जाता है। देवताओं, पितरों तथा मनुष्योंको उनका भाग न देकर स्वयं अकेला भोजन करनेवाला अत्यन्त स्वार्थी होता है। उसका वह भोजन-कर्म पुण्यरूप न होकर पापरूप हो जाता है, अतः वह पापका ही भक्षण करता | 'केवलाघो भवति केवलादी ।' (ऋग्वेद 10।117।6) । इसी बातसे सावधान करते हुए ऋग्वेदकी कतिपय ऋचाओंमें एक सुन्दर कथा आयी है, तदनुसार
प्राचीन समयमें आंगिरस सुधन्वा नामक एक महर्षि थे। उनके तीन पुत्र हुए, जिनके नाम थे ऋभु, विभ्वा तथा वाज। ये तीनों त्वष्टाके शिष्य बने। त्वष्टाने उन्हें शिल्पशास्त्र, वास्तुशास्त्र तथा संरचनासम्बन्धी सभी विद्याओंका उपदेश दिया। थोड़े ही समयमें उन्हें ज्ञान, विज्ञान तथा कला आदि सभी विद्याएँ अधिगत हो गयीं और वे सभी कर्मोंको करनेमें निष्णात हो गये। उन्होंने देवताओंके लिये अनेक प्रकारके दिव्य अस्त्र-शस्त्रों वाहनों तथा आयुधोंका निर्माण किया, इससे वे देवताओंक अत्यन्त प्रिय हो गये। वे तीनों अपने माता-पिता अपन भक्त थे, बड़े ही आज्ञाकारी थे। उनकी बड़ी ही श्रद्धा भक्तिसे सेवा किया करते थे। उन्होंने अपने तपोबलसे वृद्ध माता-पिताको युवा और सुन्दर रूपसे सम्पन्न कर दिया: इससे उनके माता-पिता अत्यन्त प्रसन्न हो गये और उन्होंने तीनोंको सूर्यके समान अत्यन्त कान्तियुक्त होनेका वर प्रदान किया (ऋग्वेद 1।2014) । ऋभुने अपनी शक्तिसे मृत गायको भी जीवितकर उसे नित्य दोग्ध्री बना दिया। (ऋग्वेद 1।161।7) इन्होंने अनेकों यज्ञोंका अनुष्ठान किया। ये सदा सत्कर्मोंको किया करते थे। इसी कारण मनुष्य होते हुए भी इन्होंने देवत्व प्राप्त कर लिया और वे देवकोटिमें प्रतिष्ठित हो गये।
अपने गुरु त्वष्टासे इन्हें एक दिव्य चमस (पात्र), प्राप्त हुआ था, जिसमें सोमरस ग्रहणकर पिया जाता था। देवकोटिमें स्थित हो जानेसे अब इन तीनोंको सोमपानका अधिकार प्राप्त था। एकदिन जब वे सोमपानके लिये तैयारी रहे थे, उसी समय देवताओंने उनकी परीक्षाके लिये अग्निदेवको उनके पास भेजा। उन तीनोंका समान रूप था, देखने में वे एक जैसे ही लगते थे। अतः अग्निदेवने भी अपना रूप ऋभुदेवताओं जैसा ही बना लिया। उसे देखकर प्रथम तो ऋभुदेवता सशंकित हो गये
कि यह हमारे ही समान चौथा कौन आ गया, यह हमसे ज्येष्ठ है, श्रेष्ठ है अथवा कनिष्ठ है। किंतु दूसरे ही क्षण उन्होंने उसे अपना भ्रातृरूप स्वीकारकर अपनेको तीनके स्थानपर चार समझा और उस दिव्य एक ही सोमपात्र (चमस) को अपनी संरचना - शक्तिसे चार रूपोंमें विभक्तकर सोमरसके चार समान भाग किये और उसमेंसे प्रथम भाग ऋभुओंने अग्निको प्रदानकर शेष तीन भाग स्वयं ग्रहण किये।
इस प्रकार ऋभुओंने उत्तम सोमको समान भागमें विभक्तकर ग्रहण किया। अकेले ग्रहण नहीं किया। इसी कारण वे महान् हो गये और देवताओंमें उनकी महान् प्रतिष्ठा हो गयी। अतः देवताओंके इस उच्च आदर्शको अपने जीवनमें ग्रहण करनेवालेको महान् शान्ति, सन्तोष तथा आनन्दकी प्राप्ति होती है और धीरे-धीरे उसमें दैवीसम्पदाका सन्निवेश हो जाता है।
नीतिमंजरी में इस वैदिक आख्यानको इस प्रकारकहा गया है
विभज्य भुज्जते सन्तो भक्ष्यं प्राप्य सहाग्निना।
चतुरश्चमसान् कृत्वा तं सोमम्भवः पपुः ॥



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bina baante, akele khaanese bhojan paaparoop ho jaata hai

rigved hamen yah shiksha deta hai ki doosaronko shraddhaapoorvak dekar avashisht bhaagako svayan grahan karana chaahiye. aisa kabhee n kare ki svayan bhojan kar le aur doosara bhookha rah jaaya. is shikshaamen aatithyake saath hee doosareke saath prem, sadbhaav, samata, daya, paropakaar aadika uchch aadarsh nihit hai. satpurushonka, santonka yah svabhaav hee hota hai ki ve bina doosareko diye bhojan grahan hee naheen karate. satpurushonse praapt vahee bhojy padaarth prasaada-roop ho jaata hai. devataaon, pitaron tatha manushyonko unaka bhaag n dekar svayan akela bhojan karanevaala atyant svaarthee hota hai. usaka vah bhojana-karm punyaroop n hokar paaparoop ho jaata hai, atah vah paapaka hee bhakshan karata | 'kevalaagho bhavati kevalaadee .' (rigved 10.117.6) . isee baatase saavadhaan karate hue rigvedakee katipay richaaonmen ek sundar katha aayee hai, tadanusaara
praacheen samayamen aangiras sudhanva naamak ek maharshi the. unake teen putr hue, jinake naam the ribhu, vibhva tatha vaaja. ye teenon tvashtaake shishy bane. tvashtaane unhen shilpashaastr, vaastushaastr tatha sanrachanaasambandhee sabhee vidyaaonka upadesh diyaa. thoda़e hee samayamen unhen jnaan, vijnaan tatha kala aadi sabhee vidyaaen adhigat ho gayeen aur ve sabhee karmonko karanemen nishnaat ho gaye. unhonne devataaonke liye anek prakaarake divy astra-shastron vaahanon tatha aayudhonka nirmaan kiya, isase ve devataaonk atyant priy ho gaye. ve teenon apane maataa-pita apan bhakt the, bada़e hee aajnaakaaree the. unakee bada़ee hee shraddha bhaktise seva kiya karate the. unhonne apane tapobalase vriddh maataa-pitaako yuva aur sundar roopase sampann kar diyaa: isase unake maataa-pita atyant prasann ho gaye aur unhonne teenonko sooryake samaan atyant kaantiyukt honeka var pradaan kiya (rigved 1.2014) . ribhune apanee shaktise mrit gaayako bhee jeevitakar use nity dogdhree bana diyaa. (rigved 1.161.7) inhonne anekon yajnonka anushthaan kiyaa. ye sada satkarmonko kiya karate the. isee kaaran manushy hote hue bhee inhonne devatv praapt kar liya aur ve devakotimen pratishthit ho gaye.
apane guru tvashtaase inhen ek divy chamas (paatra), praapt hua tha, jisamen somaras grahanakar piya jaata thaa. devakotimen sthit ho jaanese ab in teenonko somapaanaka adhikaar praapt thaa. ekadin jab ve somapaanake liye taiyaaree rahe the, usee samay devataaonne unakee pareekshaake liye agnidevako unake paas bhejaa. un teenonka samaan roop tha, dekhane men ve ek jaise hee lagate the. atah agnidevane bhee apana roop ribhudevataaon jaisa hee bana liyaa. use dekhakar pratham to ribhudevata sashankit ho gaye
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vibhajy bhujjate santo bhakshyan praapy sahaagninaa.
chaturashchamasaan kritva tan somambhavah papuh ..

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