भक्तश्रेष्ठ भानुदासजीके पुत्र चक्रपाणि, चक्रपाणिके पुत्र सूर्यनारायण और सूर्यनारायणके पुत्र भक्तराज एकनाथ हुए। इनका जन्म सं0 1590 वि0 के लगभग हुआ था। इनके जन्मकालमें मूल नक्षत्र था । अतः इनके जन्मते ही इनके पिताका देहान्त हो गया तथा उसके कुछ काल बाद माताका भी। इनके पिता सूर्यनारायण बड़े मेधावी तथा माता रुक्मिणी बड़ी पतिव्रता और सुशीला थीं। इनका लालन-पालन पितामह चक्रपाणिने किया। एकनाथ बचपनसे ही बड़े बुद्धिमान्, श्रद्धावान् और भजनानन्दी थे। छठे वर्षमें इनका यज्ञोपवीत-संस्कार हो गया था। ब्राह्मकर्मकी इन्हें उत्तम शिक्षा मिली। रामायण, महाभारत तथा अनेक पुराण इन्होंने बाल्यावस्थामें ही सुन लिये।बारह वर्षकी अवस्थामें इनके अंदर ऐसी भगवत्प्रीति जागी कि भगवान्से मिलानेवाले सद्गुरुके लिये ये व्याकुल हो उठे। इसी स्थितिमें, रातके चौथे पहर किसी शिवालयमें बैठे ये हरिगुण गा रहे थे, तबतक इन्हें यह आकाशवाणी सुनायी पड़ी - 'जाओ देवगढ़में, वहाँ जनार्दन पंतके दर्शन करो; वे तुम्हें कृतार्थ करेंगे।' बस, ये बिना किसीसे कुछ कहे-सुने चल दिये। दो दिन और दो रातका रास्ता तै करके तीसरे दिन प्रातः काल देवगढ़ पहुँचे। वहाँ इन्हें श्रीजनार्दन पंतके दर्शन हुए। इन्होंने उनके चरण पकड़ लिये। यह गुरु-शिष्य-संयोग सं 1602 वि0 में हुआ। एकनाथजी छः वर्ष गुरुकी सेवामे रहे। गुरुसेवाकालमें गुरुसे पहले सोकर उठते थे औरगुरुकी निद्रा लग जानेके बाद सोते थे। गुरु जब स्नान अनेके लिये उठते तब ये पात्रमें जल भर देते, धोती चुनकर हाथमें दे देते, पूजाकी सब सामग्री पहलेसे ही जुटाकर रखते; जबतक पूजा होती, तबतक पास ही बैठे रहते; जब जो वस्तु आवश्यक होती, उसे आगे कर देते गुरु भोजन कर लेते, तब उन्हें पान लगाकर देते। और जब वे विश्राम करने लगते, तब ये पैर दबाते इस प्रकार गुरु सेवाको इन्होंने परम धर्म जानकर उसका भलीभाँति पालन किया।
जनार्दन स्वामीने कुछ दिनोंतक एकनाथजीको हिसाब किताबका काम सौंप रखा था। एक दिन इन्हें एक पाईका हिसाब नहीं मिला। इसलिये रातको गुरुसेवासे निवृत्त होकर ये वही खाता लेकर बैठ गये। तीन पहरतक हिसाब जाँचते रहे। आखिर जब भूल मिली, जब इन्होंने बड़ी प्रसन्नतासे ताली बजायी स्वामीजी उस समय सोकर उठे थे। उन्होंने झरोखेसे झाँककर देखा और पूछा कि 'एकनाथ! आज यह कैसी प्रसन्नता है?" एकनाथजीने बड़ी नम्रतासे पाईको भूलका हाल बतलाया। गुरुजीने कहा- 'एक पाईकी भूलका पता लगनेसे जब तुम्हें इतना आनन्द मिल रहा है, तब इस संसारकी बड़ी भारी भूल जो तुमसे हुई है, उसका पता लग जानेपर तुम कितने आनन्दित होगे! इसी प्रकार यदि तुम भगवान्के चिन्तनमें लग जाओ तो भगवान् कहीं दूर थोड़े ही हैं।' एकनाथजीने इसे गुरुका आशीर्वाद जाना और कृतज्ञतासे उनके चरणोंमें मस्तक रख दिया। इसके कुछ ही दिनों बाद श्रीएकनाथजीको श्रीदत्तात्रेय भगवान्का साक्षात्कार हुआ एकनाथजीने देखा— श्रीगुरु ही दत्तात्रेय हैं और श्रीदत्तात्रेय ही गुरु हैं। इसके पश्चात् एकनाथजीको श्रीदत्तात्रेयभगवान् चाहे जब दर्शन देने लगे। इस सगुण साक्षात्कारके अनन्तर श्रीगुरुने एकनाथजीको श्रीकृष्णोपासनाकी दीक्षा देकर शूलभञ्जन पर्वतपर रहकर तप करनेकी आज्ञा दी। एकनाथजी उस पर्वतपर चले गये और वहाँ उन्होंने घोर तपस्या की। तप पूरा होनेपर वे फिर गुरुके समीप लौटे। इसके बाद श्रीगुरुने उन्हें संत-समागम और भागवत-धर्मका प्रचार करनेके लिये तीर्थयात्रा करनेकी आज्ञा दी और स्वयं भी नासिकत्र्यम्बके धरतक उनके साथ गये। इसी यात्रामें एकनाथजीते चतुःश्लोकी भागवतपर ओवी छन्दमें एक ग्रन्थ लिखा, जिसको पहले-पहल उन्होंने पञ्चवटी पहुँचकर श्रीरामचन्द्रजीके सामने गुरु श्रीजनार्दनस्वामीको सुनाया।
तीर्थयात्रा पूरी करके एकनाथजी अपनी जन्मभूमि पैठण लौट आये, परंतु अपने घर न जाकर पिप्पलेश्वर महादेवके मन्दिरमें ठहर गये। इनके वृद्ध दादा-दादी वर्षोंसे इनकी खोज कर रहे थे और उन्होंने श्रीगुरु जनार्दनस्वामीसे यह आज्ञापत्र ले लिया था कि 'एकनाथ! अब तुम विवाह करके गृहस्थाश्रममें रहो।' अतः जब इनके वृद्ध दादा-दादी इनसे मिलने जा रहे थे, तब रास्तेमें ही इनसे भेंट हो गयी। उन्होंने इन्हें छातीसे लिपटाकर श्रीगुरुका वह आज्ञापत्र दिखलाया। इसपर एकनाथजीने वहीं अपनी तीर्थयात्रा समाप्त कर दी। गुरुदेवके आज्ञानुसार इनका विवाह हुआ। इनकी धर्मपत्नी गिरिजाबाई बड़ी पतिपरायणा, परम सती और आदर्श गृहिणी थीं और इस कारण इनका सारा प्रपञ्च भी परमार्थपरायण ही हुआ। इनके गार्हस्थ्य जीवनकी दिनचर्या इस प्रकार थी l
ब्राह्ममुहूर्त में उठकर पहले प्रातः स्मरण और तत्पश्चात् गुरु-चिन्तन करना। शौचादि एवं गोदावरी स्नानसे निवृत्त हो, सूर्योदयसे पूर्व सन्ध्या-वन्दन करना। सूर्योदयके बाद घर लौटकर देवपूजन, ध्यान-धारणा आदि करके गीता भागवतादि ग्रन्थोंका पाठ अथवा श्रवण करना। मध्याह्नमें पुनः गोदावरी-घाटपर जाकर सन्ध्या-तर्पण, ब्रह्मयज्ञ करना और तदनन्तर घर लौटकर बलिवैश्वदेव तथा अतिथि-अभ्यागतोंके पूर्ण सत्कारके बाद स्वयं भोजन करना। तत्पश्चात् विद्वानों और भक्तोंके साथ बैठकर आत्मचर्चा करना। तीसरे पहर श्री भानुदासद्वारा स्थापित श्रीविट्ठलमूर्तिके सामने भागवत, रामायण अथवा ज्ञानेश्वरी ग्रन्थका प्रवचन करना। सायंकाल फिर गोदावरीतटपर जाकर सन्ध्या-वन्दन करना और वहाँसे लौटकर धूप दीपके साथ भगवान्की आरती और स्तोत्रपाठ करना । इसके अनन्तर कुछ हलका सा आहार करके मध्यरात्रितक भगवत्कीर्तन करना अथवा वेदोपनिषद्-पुराणादिका अध्ययन करना। मध्यरात्रिसे लेकर चार घंटेतक शयन करना।एकनाथजी ब्राह्मणोंका बड़ा आदर करते थे। इनके यहाँ सदावर्त चलता रहता था। सबको अन्न बाँटा जाता था। रातको जब ये कीर्तन करने लगते थे, उस समय दूर-दूरके लोग इनके यहाँ आते थे, जिनमें अधिकांश ऐसे ही श्रोता होते थे, जो इन्हींके यहाँ भोजन पाते थे। नित्य नये अतिथि आया ही करते थे। इस प्रकार यद्यपि एकनाथजीके यहाँ बड़ी भीड़-भाड़ रहती थी, फिर भी इनका सारा काम मजेमें चलता था। इन्हें कभी कोई चिन्ता नहीं करनी पड़ती थी। अन्न-दान और ज्ञान दानका प्रवाह इनके यहाँ निरन्तर बहा ही करता था। क्षमा, शान्ति, समता, भूतदया, निरहङ्कारता, निस्सङ्गता, भक्तिपरायणता आदि समस्त दैवी सम्पत्तियोंके निधान श्रीएकनाथ महाराजके दर्शनमात्र असंख्य स्त्री-पुरुषोंके पाप-ताप-संताप नित्य निवारित होते थे। इनका जीवन बद्धोंको मुमुक्षु बनाने, मुमुक्षुओंको मुक्त करने और मुक्तोंको पराभक्तिका परमानन्द दिलानेके लिये ही था। इनके परोपकारमय निःस्पृह साधुजीवनकी अनेकों ऐसी पटनाएँ हैं, जिनसे इनके विविध देवीगुण प्रकट होते हैं। इनके जीवनकी कुछ विशेष घटनाओंका उल्लेख यहाँ किया जाता है-
(1) एकनाथ महाराज नित्य गोदावरीस्नानके लिये। जाया करते थे। रास्तेमें एक सराय थी, वहाँ एक मुसलमान रहा करता था। यह उस रास्तेसे आने जानेवाले हिंदुओंको बहुत तंग किया करता था। एकनाथ महाराजको भी इसने बहुत तंग किया। एकनाथ महाराज जब स्नान करके लौटते, तब यह उनपर कुल्ला कर देता। एकनाथ महाराज नदीको लौटकर स्नान कर आते। यह फिर उनपर कुल्ला करता। इस तरह दिनमें पाँच-पाँच बार इन्हें स्नान करना पड़ता। एक दिन तो इस अत्याचारकी सीमा हो गयी। एक सौ आठ बार उस यवनने इनपर पानीसे कुल्ला किया और एक सौ आठ बार ये स्नान कर आये। पर महाराजकी शान्ति और प्रसन्नता ज्यों-की-त्यों बनी रही। यह देखकर वह यवन अपने कियेपर बड़ा लकित हुआ और महाराजके चरणोंमें आ गिरा। तबसे उसका जीवन ही बदल गया।
(2) एकनाथ महाराजके पिताका श्राद्ध था। रसोई| तैयार हुई, आमन्त्रित ब्राह्मणोंकी प्रतीक्षामें आप द्वारपर खड़े थे। उधरसे चार-पाँच महार निकले। मिठाईको सुन्दर गन्ध पाकर वे आपसमें कहने लगे- 'कैसी बढ़िया सुगन्ध आ रही है! भूख न हो तो भूख लग जाय। पर ऐसा भोजन हमलोगोंके भाग्यमें कहाँ।' एकनाथ महाराजने यह बात सुन ली और तुरंत उन महारोंको बुलाकर उन्हें उस रसोईसे अच्छी तरह भोजन करा दिया और जो कुछ बचा, वह भी गिरिजाबाईने इन महारों के घरवालोंको बुलाकर खिला दिया। फिर स्थानको भलीभाँति धोलीपकर ब्राह्मणोंके लिये दूसरी रसोई बनायी गयी। पर निमन्त्रित ब्राह्मणोंको जब यह बात मालूम हुई, तब उनके क्रोधका पार नहीं रहा। उन्होंने एकनाथजीको धर्मभ्रष्ट समझकर बहुत अंट-संट सुनाया और फटकारकर कहा- 'तुम्हारे जैसे पतितके यहाँ हमलोग भोजन नहीं करेंगे।' एकनाथजीने विनयपूर्वक समझाया कि आपलोग भोजन कीजिये, सब शुद्धि करके नयी रसोई बनी है' पर ब्राह्मण नहीं माने। तब हारकर यथाविधि श्राद्धका सङ्कल्प करके एकनाथ महाराजने पितरोंका ध्यान और आवाहन किया। स्वयं पितर मूर्तिमान् होकर प्रकट हो गये। उन्होंने स्वयं श्राद्धान्न ग्रहण किया और परितृप्त होकर आशीर्वाद देकर अन्तर्धान हो गये। ब्राह्मणोंको जब इस बातका पता लगा, तब वे बहुत लज्जित हुए।
(3) एक बार आधी रातके समय चार प्रवासी ब्राह्मण पैठणमें आये और आश्र एकनाथजीके घर पहुँचे। एकनाथजीने उनका स्वागत किया। मालूम हुआ कि प्रवासी ब्राह्मण भूखे हैं। उनके लिये रसोई बनानेको गिरिजाबाई तैयार हुईं, पर इधर कुछ दिनोंसे लगातार मूसलाधार वृष्टि होनेसे घरमें सूखा ईंधन नाममात्रको भी नहीं रह गया था। इतनी रातमें अब लकड़ी कहाँसे आये? एकनाथजीने अपने पलंगको निवार खोल दी और पावा-पाटी तोड़कर लकड़ी तैयार कर दी। पैर धोनेके लिये ब्राह्मणोंको गरम पानी दिया गया, तापनेके लिये अँगीठियाँ दी गयीं और यथेष्ट भोजन कराया गया। ब्राह्मण तृप्त हुए और एकनाथजीको धन्य धन्य कहने लगे।(4) काशीकी यात्रा करके एकनाथ महाराज जब
प्रयागका गङ्गाजल कॉवरमें लिये रामेश्वर जा रहे थे, तब रास्ते में एक रेतीला मैदान आया। वहाँ एक गधा मारे प्यासके छटपटा रहा था। एकनाथजीने तुरंत अपनी काँवरसे पानी लेकर उसके मुँह में डाला। गधा चंगा होकर वहाँसे चल दिया। नाथजीके सङ्गी और आश्रित उद्धवादि लोग प्रयागके गङ्गाजलका ऐसा उपयोग होते देख बहुत दुःखी हुए। एकनाथजीने उन्हें समझाया कि 'भलेमानसो! बार-बार सुनते हो कि भगवान् घट घटवासी हैं और फिर भी ऐसे बावले बनते हो? समयपर जो काम न दे, ऐसा ज्ञान किस कामका? काँवरका जल जी गधेने पिया, वह सीधे श्रीरामेश्वरजीपर चढ़ गया।' महाकवि मोरोपंत एकनाथ महाराजके इस कृत्यको 'लक्षविप्रभोजन' के समान पुण्यप्रद कहते हैं।
(5) पैठणमें एक वेश्या थी—बड़ो चतुर, सुन्दर और नृत्य गायनादिमें कुशल एकनाथ महाराजका कीर्तन सुनने कभी-कभी वह भी जाया करती थी। एक दिन महाराजने भागवतका पिङ्गलाख्यान कहा उसे सुनकर उस वेश्याको वैराग्य हो गया। उसे अपने शरीरसे घृणा हो गयी। अपने शरीरके नवीं द्वारोंसे रात-दिन मैला ही निकलता हुआ प्रतीत हुआ। वह पश्चात्ताप करने लगी कि 'मैं भी कैसी अभागिन हूँ, जो चमड़ेसे घिरे हुए इस विष्ठा मूत्रके पिण्डको आलिङ्गन करनेमें अपना जीवन बिता रही थी। हृदयमें स्थित अक्षय आनन्दस्वरूप श्रीहरिका कभी मुझे स्वप्रमें भी ध्यान नहीं हुआ!' इसी प्रकार अनुताप करती हुई वह वेश्या अपने घरका द्वार बंद किये घरमें अकेली ही पड़ी रही। बार-बार एकनाथ महाराजका स्मरण करती, यह भी सोचती कि मुझ जैसी पापिनको भला, ऐसे महापुरुषके चरणोंका स्पर्श कभी क्यों मिलने लगा। एक दिन इसी प्रकार वह सोच रही थी कि एकनाथ महाराज गोदावरी स्नान करके उसी रास्तेसे लौट रहे थे। झरोखेमेंसे उसने महाराजको देखा और दौड़ी हुई दरवाजेपर आयी, बड़ी अधीरतासे द्वार खोलकर गदद कण्ठसे बोली-'महाराज! क्या इस पापिनके घरको आपके चरण पवित्र करनेकी कृपा कर सकते हैं?" एकनाथ महाराजने कहा-' इसमें कौन-सीदुर्लभ बात है?' यह कहकर एकनाथजीने घरमें प्रवेश किया। सूर्यके प्रकाशसे जैसे अन्धकार नष्ट हो जाता है, वैसे ही एकनाथ महाराजके पदार्पणसे वह पापसदन भगवन्नाम निकेतन हो गया। वेश्या अब वेश्या न रहो, अनुतापसे उसके सारे पाप धुल गये। एकनाथ महाराजके अनुग्रहसे उसके चित्तपर भगवन्नामकी मुहर लग गयी। एकनाथ महाराजने उसे 'राम, कृष्ण, हरि' मन्त्र दिया और सत्कर्मका क्रम बताया। दस वर्ष बाद जब इस अनुगृहीताका देहावसान हुआ, तब वह श्रीकृष्णस्वरूपके ध्यान में निमन थी।
(6) एक रात श्रीएकनाथजीका कीर्तन सुननेवालोंकी भीड़में चार चोर घुस बैठे इस नीयतसे कि कीर्तन समाप्त होनेपर जब सब लोग अपने-अपने घर चले | जायेंगे और यहाँ भी सब लोग सो जायेंगे, तब रातके सन्नाटे में अपना काम बना लेंगे। रातके दो बजेके लगभग चोरोंकी यह मौका मिला। कुछ कपड़े और बर्तन इन्होंने हथियाये तथा और भी हाथ साफ करनेकी घातमें इधर उधर ढूँढ़ने लगे। ढूँढ़ते-ढूंढ़ते देवगृहके समीप पहुँचे, भीतर एक दीपक टिमटिमा रहा था और एकनाथ महाराज समाधिस्थ थे। यह उन चोरोंने देखा और देखते हो उनकी दृष्टि अन्धी हो गयी। अब वे निकल भागना हो चाहते थे, पर हथियाये हुए बर्तनोंसे टकराकर नीचे गिरे। देवगृहसे एकनाथ महाराज बाहर निकले। पूछा, 'कौन हैं?' चोर रोने और गिड़गिड़ाने लगे- 'महाराज ! हमलोग बड़े पापी हैं, क्षमा कीजिये।' महाराजने उनके नेत्रोंपर हाथ फेरा, उन चोरोंको पूर्ववत् दृष्टि प्राप्त हुई. साथ ही उनकी बुद्धि भी पलट गयी। एकनाथ महाराजने उनसे कहा कि 'ये कपड़े और बर्तन तो तुमलोग ले हो जाओ और भी जो कुछ इच्छा हो, ले सकते हो।' यह कहकर उन्होंने अपनी अँगुलीमें पहनी हुई अंगूठी भी उनके सामने रख दी। चोर बड़े लज्जित हुए, बार-बार महाराजके चरणोंमें गिरे और तबसे उन्होंने चोरी करना ही छोड़ दिया।
इस प्रकार परोपकारमय निःस्पृह साधुजीवनसे, उपदेशसे, दानसे सबका उपकार करते हुए गृहस्थाश्रमका दिव्य आदर्श सबके सामने रखकर अन्तमें संवत् 1656 वि0की चैत्रकृष्णा षष्ठीको एकनाथ महाराजने गोदावरी तीरपर अपना शरीर छोड़ा। उस समय ये पूर्ण स्वस्थ थे। इन्होंने अपने प्रयाणका दिन पहले ही बतला दिया था। अतः उसके कई दिन पहलेसे ही पैठणमें सर्वत्र भगवत्संकीर्तन हो रहा था। हरिकथाओंकी धूम थी। दूर-दूरसे आये हुए दर्शनार्थियोंकी भीड़ जमा हो गयी थी। आकाश भगवन्नामसे गूँज रहा था। जब उस षष्ठी तिथिका प्रातः काल सामने आ गया, तब श्रीएकनाथ महाराजने गोदावरीमें स्नान किया और बाहर निकलकरसदाके लिये समाधिस्थ हो गये।
श्रीएकनाथ महाराजके ग्रन्थोंमें सबसे लोकप्रिय और प्रसिद्ध ग्रन्थ भागवत - एकादश स्कन्ध, रुक्मिणीस्वयंवर और भावार्थरामायण हैं। कहते हैं कि भगवान् श्रीरामचन्द्रजीने स्वयं ही एकनाथजी महाराजसे भावार्थरामायण लिखवाया था। इन ग्रन्थोंके अतिरिक्त चिरंजीवपद, स्वात्मबोध, आनन्दलहरी आदि अन्य कई छोटे-मोटे ग्रन्थ भी श्रीएकनाथ महाराजके बनाये हुए हैं। आपके सभी ग्रन्थ मराठी भाषामें हैं।
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(1) ekanaath mahaaraaj nity godaavareesnaanake liye. jaaya karate the. raastemen ek saraay thee, vahaan ek musalamaan raha karata thaa. yah us raastese aane jaanevaale hinduonko bahut tang kiya karata thaa. ekanaath mahaaraajako bhee isane bahut tang kiyaa. ekanaath mahaaraaj jab snaan karake lautate, tab yah unapar kulla kar detaa. ekanaath mahaaraaj nadeeko lautakar snaan kar aate. yah phir unapar kulla karataa. is tarah dinamen paancha-paanch baar inhen snaan karana pada़taa. ek din to is atyaachaarakee seema ho gayee. ek sau aath baar us yavanane inapar paaneese kulla kiya aur ek sau aath baar ye snaan kar aaye. par mahaaraajakee shaanti aur prasannata jyon-kee-tyon banee rahee. yah dekhakar vah yavan apane kiyepar bada़a lakit hua aur mahaaraajake charanonmen a giraa. tabase usaka jeevan hee badal gayaa.
(2) ekanaath mahaaraajake pitaaka shraaddh thaa. rasoee| taiyaar huee, aamantrit braahmanonkee prateekshaamen aap dvaarapar khada़e the. udharase chaara-paanch mahaar nikale. mithaaeeko sundar gandh paakar ve aapasamen kahane lage- 'kaisee badha़iya sugandh a rahee hai! bhookh n ho to bhookh lag jaaya. par aisa bhojan hamalogonke bhaagyamen kahaan.' ekanaath mahaaraajane yah baat sun lee aur turant un mahaaronko bulaakar unhen us rasoeese achchhee tarah bhojan kara diya aur jo kuchh bacha, vah bhee girijaabaaeene in mahaaron ke gharavaalonko bulaakar khila diyaa. phir sthaanako bhaleebhaanti dholeepakar braahmanonke liye doosaree rasoee banaayee gayee. par nimantrit braahmanonko jab yah baat maaloom huee, tab unake krodhaka paar naheen rahaa. unhonne ekanaathajeeko dharmabhrasht samajhakar bahut anta-sant sunaaya aur phatakaarakar kahaa- 'tumhaare jaise patitake yahaan hamalog bhojan naheen karenge.' ekanaathajeene vinayapoorvak samajhaaya ki aapalog bhojan keejiye, sab shuddhi karake nayee rasoee banee hai' par braahman naheen maane. tab haarakar yathaavidhi shraaddhaka sankalp karake ekanaath mahaaraajane pitaronka dhyaan aur aavaahan kiyaa. svayan pitar moortimaan hokar prakat ho gaye. unhonne svayan shraaddhaann grahan kiya aur paritript hokar aasheervaad dekar antardhaan ho gaye. braahmanonko jab is baataka pata laga, tab ve bahut lajjit hue.
(3) ek baar aadhee raatake samay chaar pravaasee braahman paithanamen aaye aur aashr ekanaathajeeke ghar pahunche. ekanaathajeene unaka svaagat kiyaa. maaloom hua ki pravaasee braahman bhookhe hain. unake liye rasoee banaaneko girijaabaaee taiyaar hueen, par idhar kuchh dinonse lagaataar moosalaadhaar vrishti honese gharamen sookha eendhan naamamaatrako bhee naheen rah gaya thaa. itanee raatamen ab lakada़ee kahaanse aaye? ekanaathajeene apane palangako nivaar khol dee aur paavaa-paatee toda़kar lakada़ee taiyaar kar dee. pair dhoneke liye braahmanonko garam paanee diya gaya, taapaneke liye angeethiyaan dee gayeen aur yathesht bhojan karaaya gayaa. braahman tript hue aur ekanaathajeeko dhany dhany kahane lage.(4) kaasheekee yaatra karake ekanaath mahaaraaj jaba
prayaagaka gangaajal kaॉvaramen liye raameshvar ja rahe the, tab raaste men ek reteela maidaan aayaa. vahaan ek gadha maare pyaasake chhatapata raha thaa. ekanaathajeene turant apanee kaanvarase paanee lekar usake munh men daalaa. gadha changa hokar vahaanse chal diyaa. naathajeeke sangee aur aashrit uddhavaadi log prayaagake gangaajalaka aisa upayog hote dekh bahut duhkhee hue. ekanaathajeene unhen samajhaaya ki 'bhalemaanaso! baara-baar sunate ho ki bhagavaan ghat ghatavaasee hain aur phir bhee aise baavale banate ho? samayapar jo kaam n de, aisa jnaan kis kaamakaa? kaanvaraka jal jee gadhene piya, vah seedhe shreeraameshvarajeepar chadha़ gayaa.' mahaakavi moropant ekanaath mahaaraajake is krityako 'lakshaviprabhojana' ke samaan punyaprad kahate hain.
(5) paithanamen ek veshya thee—bada़o chatur, sundar aur nrity gaayanaadimen kushal ekanaath mahaaraajaka keertan sunane kabhee-kabhee vah bhee jaaya karatee thee. ek din mahaaraajane bhaagavataka pingalaakhyaan kaha use sunakar us veshyaako vairaagy ho gayaa. use apane shareerase ghrina ho gayee. apane shareerake naveen dvaaronse raata-din maila hee nikalata hua prateet huaa. vah pashchaattaap karane lagee ki 'main bhee kaisee abhaagin hoon, jo chamada़ese ghire hue is vishtha mootrake pindako aalingan karanemen apana jeevan bita rahee thee. hridayamen sthit akshay aanandasvaroop shreeharika kabhee mujhe svapramen bhee dhyaan naheen huaa!' isee prakaar anutaap karatee huee vah veshya apane gharaka dvaar band kiye gharamen akelee hee pada़ee rahee. baara-baar ekanaath mahaaraajaka smaran karatee, yah bhee sochatee ki mujh jaisee paapinako bhala, aise mahaapurushake charanonka sparsh kabhee kyon milane lagaa. ek din isee prakaar vah soch rahee thee ki ekanaath mahaaraaj godaavaree snaan karake usee raastese laut rahe the. jharokhemense usane mahaaraajako dekha aur dauda़ee huee daravaajepar aayee, bada़ee adheerataase dvaar kholakar gadad kanthase bolee-'mahaaraaja! kya is paapinake gharako aapake charan pavitr karanekee kripa kar sakate hain?" ekanaath mahaaraajane kahaa-' isamen kauna-seedurlabh baat hai?' yah kahakar ekanaathajeene gharamen pravesh kiyaa. sooryake prakaashase jaise andhakaar nasht ho jaata hai, vaise hee ekanaath mahaaraajake padaarpanase vah paapasadan bhagavannaam niketan ho gayaa. veshya ab veshya n raho, anutaapase usake saare paap dhul gaye. ekanaath mahaaraajake anugrahase usake chittapar bhagavannaamakee muhar lag gayee. ekanaath mahaaraajane use 'raam, krishn, hari' mantr diya aur satkarmaka kram bataayaa. das varsh baad jab is anugriheetaaka dehaavasaan hua, tab vah shreekrishnasvaroopake dhyaan men niman thee.
(6) ek raat shreeekanaathajeeka keertan sunanevaalonkee bheeda़men chaar chor ghus baithe is neeyatase ki keertan samaapt honepar jab sab log apane-apane ghar chale | jaayenge aur yahaan bhee sab log so jaayenge, tab raatake sannaate men apana kaam bana lenge. raatake do bajeke lagabhag choronkee yah mauka milaa. kuchh kapada़e aur bartan inhonne hathiyaaye tatha aur bhee haath saaph karanekee ghaatamen idhar udhar dhoondha़ne lage. dhoonढ़te-dhoonढ़te devagrihake sameep pahunche, bheetar ek deepak timatima raha tha aur ekanaath mahaaraaj samaadhisth the. yah un choronne dekha aur dekhate ho unakee drishti andhee ho gayee. ab ve nikal bhaagana ho chaahate the, par hathiyaaye hue bartanonse takaraakar neeche gire. devagrihase ekanaath mahaaraaj baahar nikale. poochha, 'kaun hain?' chor rone aur gida़gida़aane lage- 'mahaaraaj ! hamalog bada़e paapee hain, kshama keejiye.' mahaaraajane unake netronpar haath phera, un choronko poorvavat drishti praapt huee. saath hee unakee buddhi bhee palat gayee. ekanaath mahaaraajane unase kaha ki 'ye kapada़e aur bartan to tumalog le ho jaao aur bhee jo kuchh ichchha ho, le sakate ho.' yah kahakar unhonne apanee anguleemen pahanee huee angoothee bhee unake saamane rakh dee. chor bada़e lajjit hue, baara-baar mahaaraajake charanonmen gire aur tabase unhonne choree karana hee chhoda़ diyaa.
is prakaar paropakaaramay nihsprih saadhujeevanase, upadeshase, daanase sabaka upakaar karate hue grihasthaashramaka divy aadarsh sabake saamane rakhakar antamen sanvat 1656 vi0kee chaitrakrishna shashtheeko ekanaath mahaaraajane godaavaree teerapar apana shareer chhoda़aa. us samay ye poorn svasth the. inhonne apane prayaanaka din pahale hee batala diya thaa. atah usake kaee din pahalese hee paithanamen sarvatr bhagavatsankeertan ho raha thaa. harikathaaonkee dhoom thee. doora-doorase aaye hue darshanaarthiyonkee bheeda़ jama ho gayee thee. aakaash bhagavannaamase goonj raha thaa. jab us shashthee tithika praatah kaal saamane a gaya, tab shreeekanaath mahaaraajane godaavareemen snaan kiya aur baahar nikalakarasadaake liye samaadhisth ho gaye.
shreeekanaath mahaaraajake granthonmen sabase lokapriy aur prasiddh granth bhaagavat - ekaadash skandh, rukmineesvayanvar aur bhaavaartharaamaayan hain. kahate hain ki bhagavaan shreeraamachandrajeene svayan hee ekanaathajee mahaaraajase bhaavaartharaamaayan likhavaaya thaa. in granthonke atirikt chiranjeevapad, svaatmabodh, aanandalaharee aadi any kaee chhote-mote granth bhee shreeekanaath mahaaraajake banaaye hue hain. aapake sabhee granth maraathee bhaashaamen hain.