दक्षिण प्रदेशमें कृष्णवीणा नदीके तटपर एक ग्राममें रामदास नामक भगवद्भक्त ब्राह्मण निवास करते थे। उन्हींके पुत्रका नाम बिल्वमङ्गल था। पिताने यथासाध्य पुत्रको धर्मशास्त्रोंकी शिक्षा दी थी। विल्यमङ्गल पिताकी शिक्षा तथा उनके भक्तिभावके प्रभावसे बाल्यकालमें ही अति शान्त, शिष्ट और श्रद्धावान् हो गया था परंतु दैवयोगसे पिता-माताके देहावसान होनेपर जबसे घरकी सम्पत्तिपर उसका अधिकार हुआ, तभीसे उसके कुसङ्गी मित्र जुटने लगे।
सङ्गदोषसे बिल्वमङ्गलके अन्तःकरणमें अनेक दोषोंने अपना घर कर लिया। एक दिन गाँवमें कहीं चिन्तामणि नामकी वेश्याका नाथ था, शौकीनोंके दल के दल नाचमें जा रहे थे। बिल्वमङ्गल भी अपने मित्रोंके साथ वहाँ जा पहुँचा। वेश्याको देखते ही बिल्वमङ्गलका मन चञ्चल हो उठा, विवेकशून्य बुद्धिने सहारा दिया, बिल्वमङ्गल डूबा और उसने हाड़-मांसभरे चामके कल्पित रूपपर अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया- तन,मन, धन, कुल, मान, मर्यादा और धर्म सबको उत्सर्ग कर दिया ! ब्राह्मणकुमारका पूरा पतन हुआ। सोते जागते, उठते-बैठते और खाते-पीते सब समय बिल्वमङ्गलके चिन्तनकी वस्तु केवल एक 'चिन्ता' ही रह गयी।
बिल्वमङ्गलके पिताका श्राद्ध है, इसलिये आज वह नदीके उस पार चिन्तामणिके घर नहीं जा सकता। श्राद्धकी तैयारी हो रही है। विद्वान् कुलपुरोहित बिल्वमङ्गलसे श्राद्धके मन्त्रोंकी आवृत्ति करवा रहे हैं, परंतु उसका मन 'चिन्तामणि' की चिन्तामें निमग्न है। उसे कुछ भी अच्छा नहीं लगता। किसी प्रकार श्राद्ध समाप्तकर जैसे-तैसे ब्राह्मणोंको झटपट भोजन करवाकर बिल्वमङ्गल चिन्तामणिके घर जानेको तैयार हुआ। सन्ध्या हो चुकी थी, लोगोंने समझाया कि 'भाई! आज तुम्हारे पिताका श्राद्ध है, वेश्याके घर नहीं जाना चाहिये।' परंतु कौन सुनता था। उसका हृदय तो कभीका धर्म-कर्मसे शून्य चुका था। बिल्वमङ्गल दौड़कर नदीके किनारे पहुँचा । भगवान्की माया अपार है, अकस्मात् प्रबल वेगसे तूफान आया औरउसीके साथ मूसलधार वर्षा होने लगी। आकाशमें अन्धकार छा गया, बादलोंकी भयानक गर्जना और बिजलीको कड़कड़ाहटसे जीवमात्र भयभीत हो गये। रात-दिन नदीमें रहनेवाले केवटोंने भी नावोंको किनारे बंधिकर वृक्षोंका आश्रय लिया, परंतु विल्यमङ्गलपर इन सबका कोई असर नहीं पड़ा। उसने केवटोंसे उस पार ले चलनेको कहा, बार-बार विनती की, उतराईका भी गहरा लालच दिया; परंतु मृत्युका सामना करनेको कौन तैयार होता। सबने इन्कार कर दिया। ज्यों-ही-ज्यों विलम्ब होता था, त्यों-ही-त्यों बिल्वमङ्गलकी व्याकुलता बढ़ती जाती थी। अन्तमें वह अधीर हो उठा और कुछ भी 'आगा-पीछा न सोचकर तैरकर पार जानेके लिये सहसा नदीमें कूद पड़ा। भयानक दुःसाहसका कर्म था, परंतु 'कामातुराणां न भयं न लज्जा।' संयोगवश नदीमें एक मुर्दा बहा जा रहा था। बिल्वमङ्गल तो बेहोश था, उसने उसे काठ समझा और उसीके सहारे नदीके उस पार चला गया। उसे कपड़ोंकी सुध नहीं है, बिलकुल दिगम्बर हो गया है, चारों ओर अन्धकार छाया हुआ है, बनैले पशु भयानक शब्द कर रहे हैं, कहीं मनुष्यकी गन्ध भी नहीं आती, परंतु बिल्वमङ्गल उन्मत्तकी भाँति अपनी धुन में चला जा रहा है। कुछ ही दूरपर चिन्तामणिका घर था। श्राद्धके कारण आज बिल्वमङ्गलके आनेकी बात नहीं थी, अतएव चिन्ता घरके सव दरवाजोंको बंद करके निश्चिन्त होकर सो चुकी थी। विल्यमङ्गलने बाहरसे बहुत पुकारा; परंतु तूफान के कारण अंदर कुछ भी नहीं सुनायी पड़ा। बिल्वमङ्गलने इधर-उधर ताकते हुए बिजलीके प्रकाशमें दीवालपर एक रस्सा-सा लटकता देखा, तुरंत उसने उसे पकड़ा और उसीके सहारे दीवाल फाँदकर अंदर चला गया। चिन्ताको जगाया। वह तो इसे देखते ही स्तम्भित-सी रह गयी ! नंगा बदन, सारा शरीर पानीसे भीगा हुआ, भयानक दुर्गन्ध आ रही है। उसने कहा-'तुम इस भयावनी रात में नदी पार करके बंद घरमें कैसे आये?' बिल्वमङ्गलने काठपर चढ़कर नदी पार होने और रस्सेकी सहायतासे दीवालपर चढ़नेको कथा सुनायी वृष्टि थम चुकी थी। चिन्ता दीपक हाथमें लेकर बाहर आयी, देखती है तोदीवालपर भयानक काला नाग लटक रहा है और नदीके तीर सड़ा मुर्दा पड़ा है। बिल्वमङ्गलने भी देखा और देखते ही काँप उठा। चिन्ताने भर्त्सना करके कहा- 'तू ब्राह्मण है? अरे, आज तेरे पिताका श्राद्ध था, परंतु एक हाड़-मांसकी पुतलीपर तू इतना आसक्त हो गया कि अपने सारे धर्म-कर्मको तिलाञ्जलि देकर इस डरावनी रातमें मुर्दे और साँपकी सहायतासे यहाँ दौड़ा आया! तू आज जिसे परम सुन्दर समझकर इस तरह पागल हो रहा है, उसका भी एक दिन तो वही परिणाम होनेवाला है, जो तेरी आँखोंके सामने इस सड़े मुर्देका है धिकार है तेरी इस नीच वृत्तिको! अरे! यदि तू इसी प्रकार उस | मनमोहन श्यामसुन्दरपर आसक्त होता-यदि उससे मिलनेके लिये यों छटपटाकर दौड़ता, तो अबतक उसको पाकर तू अवश्य ही कृतार्थ हो चुका होता!'
वेश्याकी वाणीने बड़ा काम किया! बिल्वमङ्गल चुप होकर सोचने लगा। बाल्यकालकी स्मृति उसके मनमें जाग उठी। पिताजीकी भक्ति और उनकी धर्मप्राणताके दृश्य उसकी आँखोंके सामने मूर्तिमान् होकर नाचने लगे। बिल्वमङ्गलकी हृदयतन्त्री नवीन सुरोंसे बज उठी, विवेककी अग्रिका प्रादुर्भाव हुआ, भगवत्प्रेमका समुद्र उमड़ा और उसकी आँखोंसे अश्रुओंकी अजस्त्र धारा बहने लगी। बिल्वमङ्गलने चिन्तामणिके चरण पकड़ लिये और कहा-'माता! तूने आज मुझको दिव्यदृष्टि | देकर कृतार्थ कर दिया।' मन ही मन चिन्तामणिको गुरु मानकर प्रणाम किया और उसी क्षण जगच्चिन्तामणिकी चारु चिन्तामें निमग्र होकर उन्मत्तकी भाँति चिन्ताके घरसे निकल पड़ा। बिल्वमङ्गलके जीवन-नाटककी यवनिकाका परिवर्तन हो गया।
श्यामसुन्दरकी प्रेममयी मनोहर मूर्तिका दर्शन करनेके | लिये बिल्वमङ्गल पागलकी तरह जगह-जगह भटकने लगा। कई दिनोंके बाद एक दिन अकस्मात् उसे रास्ते में एक परम रूपवती युवती दीख पड़ी, पूर्व संस्कार अभी सर्वथा नहीं मिटे थे। युवतीका सुन्दर रूप देखते ही नेत्र चञ्चल हो उठे और नेत्रोंके साथ ही मन भी खिचा ।
बिल्वमङ्गलको फिर मोह हुआ। भगवान्को भूलकर वह पुनः पतङ्ग बनकर विषयानिकी ओर दौड़ा। बिल्वमङ्गलयुवतीके पीछे-पीछे उसके मकानतक गया। युवती अपने घरके अंदर चली गयी, बिल्वमङ्गल उदास होकर घरके दरवाजेपर बैठ गया। घरके मालिकने बाहर आकर देखा कि एक मलिनमुख अतिथि ब्राह्मण बाहर बैठा है। उसने कारण पूछा। विल्वमङ्गलने कपट छोड़कर सारी घटना सुना दी और कहा कि मैं एक बार फिर उस युवतीको प्राण भरकर देख लेना चाहता हूँ, तुम उसे यहाँ बुलवा दो।' युवती उसी गृहस्थकी धर्मपत्नी थी, गृहस्थने सोचा कि इसमें हानि हो क्या है; यदि उसके देखनेसे ही इसकी तुमि होती हो तो अच्छी बात है अतिधिवत्सल गृहस्थ अपनी पत्नीको बुलाने के लिये अंदर गया। इधर बिल्वमङ्गलके मन-समुद्रमें तरह तरहको तरङ्गका तूफान उठने लगा। जो एक बार अनन्यचित्तसे उन अशरण-शरणकी शरणमें चला जाता है, उसके योगक्षेमका सारा भार वे अपने ऊपर उठा लेते हैं। आज विल्यमङ्गलको सम्हालने की भी चिन्ता उन्हींको पड़ी दीनवत्सल भगवान्ने अज्ञानान्ध बिल्वमङ्गलको दिव्यचक्षु प्रदान किये; उसको अपनी अवस्थाका यथार्थ ज्ञान हुआ, हृदय शोकसे भर गया और न मालूम क्या सोचकर उसने पासके बेलके पेड़से दो काँटे तोड़ लिये। इतनेमें ही गृहस्थकी धर्मपत्नी यहाँ आ पहुँची, बिल्वमलने उसे फिर देखा और मन ही मन अपनेको धिक्कार देकर कहने लगा कि 'अभागी आँखें यदि तुम न होती तो आज मेरा इतना पतन क्यों होता?' इतना कहकर बिल्वमङ्गलने - चाहे यह उसकी कमजोरी हो या और कुछ उस समय उन चञ्चल नेत्रोंको दण्ड देना ही उचित समझा और तत्काल उन दोनों काँटोंको दोनों आँखोंमें भोंक लिया। आँखोंसे रुधिरकी अजल धारा बहने लगी। बिल्वमङ्गल हँसता और नाचता हुआ तुमुल हरिध्वनिसे आकाशको गुँजाने लगा। गृहस्थको और उसकी पत्नीको बड़ा दुःख हुआ, परंतु वे बेचारे निरुपाय थे। बङ्गका बचा खुचा चित्त-मल भी आज सारा नष्ट हो गया और अब तो वह उस अनाथके नाथको अतिशीघ्र पानेके लिये बड़ा ही व्याकुल हो उठा। उसके जीवन-नाटकका यह तीसरापट-परिवर्तन हुआ! परम प्रियतम श्रीकृष्णके वियोगकी दारुण व्यथासे उसकी फूटी आँखोंने चौबीसों घंटे आँसुओंकी झड़ी लगा दी। न भूखका पता है न प्यासका, न सोनेका ज्ञान है और न जगनेका। 'कृष्ण-कृष्ण' की पुकारसे दिशाओंको गुँजाता हुआ बिल्वमङ्गल जंगल-जंगल और गाँव-गाँवमें घूम रहा है। जिस दीनबन्धुके लिये जान-बूझकर आँखें फोड़ीं, जिस प्रियतमको पानेके लिये ऐश-आरामपर लात मारी, वह मिलने में इतना विलम्ब करे - यह भला, किसीसे कैसे सहन हो? पर 'जो सच्चे प्रेमी होते हैं, वे प्रेमास्पदके विरहमें जीवनभर रोया करते हैं, सहस्रों आपत्तियोंको सहन करते हैं, परंतु उसपर दोषारोपण कदापि नहीं करते; उनको अपने प्रेमास्पदमें कभी कोई दोष दीखता ही नहीं!' ऐसे प्रेमीके लिये प्रेमास्पदको भी चैन नहीं पड़ता। उसे दौड़कर आना ही पड़ता है। आज अन्धा बिल्वमङ्गल श्रीकृष्ण प्रेममें मतवाला होकर जहाँ तहाँ भटक रहा है। कहीं गिर पड़ता है, कहीं टकरा जाता है, अन्न-जलका तो कोई ठिकाना ही नहीं। ऐसी दशामें प्रेममय श्रीकृष्ण कैसे निश्चिन्त रह सकते हैं। एक छोटे-से गोप-बालकके वेषमें भगवान् बिल्वमङ्गलके पास आकर अपनी मुनि मनमोहिनी मधुर वाणीसे बोले- 'सूरदासजी! आपको बड़ी भूख लगी होगी, मैं कुछ मिठाई लाया हूँ, जल भी लाया हूँ; आप इसे ग्रहण कीजिये। 'बिल्वमङ्गलके प्राण तो बालकके उस मधुर स्वरसे ही मोहे जा चुके थे, उसके हाथका दुर्लभ प्रसाद पाकर तो उसका हृदय हर्षके हिलोरोंसे उछल उठा! बिल्वमङ्गलने बालकसे पूछा, 'भैया! तुम्हारा घर कहाँ है, तुम्हारा नाम क्या है? तुम क्या किया करते हो?'
बालकने कहा, 'मेरा घर पास ही है, मेरा कोई खास नाम नहीं; जो मुझे जिस नामसे पुकारता है, मैं उसीसे बोलता हूँ, गौएँ चराया करता हूँ। मुझसे जो प्रेम करते हैं, मैं भी उनसे प्रेम करता हूँ।' बिल्वमङ्गल बालककी वीणा विनिन्दित वाणी सुनकर विमुग्ध हो गया! बालक जाते-जाते कह गया कि 'मैं रोज आकर आपको भोजनकरवा जाया करूँगा।' बिल्वमङ्गल ने कहा, 'बड़ी अच्छी बात है; तुम राज आया करो।' बालक चला गया और बिल्वमङ्गलका मन भी साथ लेता गया। 'मनचोर' तो उसका नाम हो ठहरा! अनेक प्रकारकी सामग्रियोंसे भोग लगाकर भी लोग जिनकी कृपाके लिये तरसा करते हूँ, वही कृपासिन्धु रोज विल्वमङ्गलको अपने करकमलोंसे भोजन करवाने आते हैं? धन्य है। भक्तके लिये भगवान् क्या-क्या नहीं करते।
बिल्वमङ्गल अबतक यह तो नहीं समझा कि मैंने जिसके लिये फकीरीका बाना लिया और आँखोंमें कॉटे चुभाये, वह बालक वही है; परंतु उस गोप-बालकने उसके हृदयपर इतना अधिकार अवश्य जमा लिया कि उसको दूसरी बातका सुनना भी असह्य हो उठा। एक दिन बिल्वमङ्गल मन-ही-मन विचार करने लगा कि 'सारी आफतें छोड़कर यहाँतक आया, यहाँ यह नयी आफत आ गयी। स्त्रीके मोहसे छूटा तो इस बालकने मोहमें घेर लिया'। यों सोच ही रहा था कि वह रसिक बालक उसके पास आ बैठा और अपनी दीवाना बना देनेवाली वाणीसे बोला, 'बाबाजी चुपचाप क्या सोचते हो? वृन्दावन चलोगे?' वृन्दावनका नाम सुनते ही बिल्वमङ्गलका हृदय हरा हो गया, परंतु अपनी असमर्थता प्रकट करता हुआ बोला- भैया! मैं अन्धा वृन्दावन कैसे जाऊँ?' बालकने कहा- 'यह लो मेरी लाठी, मैं इसे पकड़े-पकड़े तुम्हारे साथ चलता हूँ।' बिल्वमङ्गलका मुख खिल उठा, लाठी पकड़कर भगवान् भक्तके आगे-आगे चलने लगे। धन्य दयालुता! भक्तकी लाठी पकड़कर मार्ग दिखाते हैं। थोड़ी सी दूर जाकर बालकने कहा, 'लो! वृन्दावन आ गया, अब मैं जाता हूँ।' बिल्वमङ्गलने बालकका हाथ पकड़ लिया, हाथका स्पर्श होते ही सारे शरीरमें बिजली सी दौड़ गयी, सात्विक प्रकाशसे सारे द्वार प्रकाशित हो उठे, बिल्वमङ्गलने दिव्य दृष्टि पायी और उसने देखा कि बालकके रूपमें साक्षात् मेरे श्यामसुन्दर ही हैं। बिल्वमङ्गलका शरीर रोमाञ्चित हो गया, आँखोंसे प्रेमाधुओंकी अनवरत धारा बहने लगी, भगवान्का हाथ उसने और भी जोरसे पकड़ लिया और कहा-'अब पहचान लिया है, बहुतदिनोंके बाद पकड़ सका हूँ। प्रभु अब नहीं छोड़नेका।' भगवान् कहा, "छोड़ते हो कि नहीं?" बिल्वमङ्गलने कहा, 'नहीं, कभी नहीं, त्रिकालमें भी नहीं।'
भगवान्ने जोरसे झटका देकर हाथ छुड़ा लिया। भला, जिनके बलसे बलान्वित होकर मायाने सारे जगत्को पददलित कर रखा है, उसके बलके सामने बेचारा अन्धा क्या कर सकता था परंतु उसने एक ऐसी रज्जुसे उनको बाँध लिया था कि जिससे छूटकर जाना उनके लिये बड़ी टेढ़ी खीर थी। हाथ छुड़ाते ही बिल्वमङ्गलने कहा- जाते हो? पर स्मरण रखो।
हस्तमुत्क्षिप्य यातोऽसि बलात्कृष्ण किमद्भुतम् ।
हृदयाद् यदि निर्यासि पौरुषं गणयामि ते ।।
हाथ छुड़ाये जात हौ, निवल जानि के मोहि हिरदै तें जब जागे, सबल बदगो तोहि ॥
भगवान् नहीं जा सके। जाते भी कैसे प्रतिज्ञा कर चुके हैं
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् ।
(गीता 4। 11)
'जो मुझको जैसे भागते हैं, मैं भी उनको वैसे ही भजता हूँ।'
भगवान् विल्यमङ्गलको आँखोंपर अपना फोमल करकमल फिराया, उसकी आँखें खुल गयीं। नेत्रोंसे प्रत्यक्ष भगवान्को देखकर उनकी भुवनमोहिनी अनूप रूपराशिके दर्शन पाकर बिल्वमङ्गल अपने-आपको सँभाल नहीं सका। वह चरणोंमें गिर पड़ा और प्रेमाओंसे प्रभुके पावन चरणकमलोंको धोने लगा।
भगवान् ने उठाकर उसे अपनी छाती से लगा लिया। भक्त और भगवान्के मधुर मिलनसे समस्त जगत्में मधुरता छा गयी। देवता पुष्पवृष्टि करने लगे। संत-भक्तोंके दल नाचने लगे हरिनामकी पवित्र ध्वनिसे आकाश परिपूर्ण हो गया। भक्त और भगवान् दोनों धन्य हुए। वेश्या चिन्तामणि, गृहस्थ और उनकी पत्नी भी वहाँ आ गयीं, भक्तके प्रभावसे भगवान्ने उन सबको अपना दिव्य दर्शन देकर कृतार्थ किया।
बिल्वमङ्गल जीवनभर भक्तिका प्रचार करके भगवानकी महिमा बढ़ाते रहे और अन्तमें गोलोकधाम पधारे।
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veshyaakee vaaneene bada़a kaam kiyaa! bilvamangal chup hokar sochane lagaa. baalyakaalakee smriti usake manamen jaag uthee. pitaajeekee bhakti aur unakee dharmapraanataake drishy usakee aankhonke saamane moortimaan hokar naachane lage. bilvamangalakee hridayatantree naveen suronse baj uthee, vivekakee agrika praadurbhaav hua, bhagavatpremaka samudr umada़a aur usakee aankhonse ashruonkee ajastr dhaara bahane lagee. bilvamangalane chintaamanike charan pakada़ liye aur kahaa-'maataa! toone aaj mujhako divyadrishti | dekar kritaarth kar diyaa.' man hee man chintaamaniko guru maanakar pranaam kiya aur usee kshan jagachchintaamanikee chaaru chintaamen nimagr hokar unmattakee bhaanti chintaake gharase nikal pada़aa. bilvamangalake jeevana-naatakakee yavanikaaka parivartan ho gayaa.
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bilvamangalako phir moh huaa. bhagavaanko bhoolakar vah punah patang banakar vishayaanikee or dauda़aa. bilvamangalayuvateeke peechhe-peechhe usake makaanatak gayaa. yuvatee apane gharake andar chalee gayee, bilvamangal udaas hokar gharake daravaajepar baith gayaa. gharake maalikane baahar aakar dekha ki ek malinamukh atithi braahman baahar baitha hai. usane kaaran poochhaa. vilvamangalane kapat chhoda़kar saaree ghatana suna dee aur kaha ki main ek baar phir us yuvateeko praan bharakar dekh lena chaahata hoon, tum use yahaan bulava do.' yuvatee usee grihasthakee dharmapatnee thee, grihasthane socha ki isamen haani ho kya hai; yadi usake dekhanese hee isakee tumi hotee ho to achchhee baat hai atidhivatsal grihasth apanee patneeko bulaane ke liye andar gayaa. idhar bilvamangalake mana-samudramen tarah tarahako tarangaka toophaan uthane lagaa. jo ek baar ananyachittase un asharana-sharanakee sharanamen chala jaata hai, usake yogakshemaka saara bhaar ve apane oopar utha lete hain. aaj vilyamangalako samhaalane kee bhee chinta unheenko pada़ee deenavatsal bhagavaanne ajnaanaandh bilvamangalako divyachakshu pradaan kiye; usako apanee avasthaaka yathaarth jnaan hua, hriday shokase bhar gaya aur n maaloom kya sochakar usane paasake belake peda़se do kaante toda़ liye. itanemen hee grihasthakee dharmapatnee yahaan a pahunchee, bilvamalane use phir dekha aur man hee man apaneko dhikkaar dekar kahane laga ki 'abhaagee aankhen yadi tum n hotee to aaj mera itana patan kyon hotaa?' itana kahakar bilvamangalane - chaahe yah usakee kamajoree ho ya aur kuchh us samay un chanchal netronko dand dena hee uchit samajha aur tatkaal un donon kaantonko donon aankhonmen bhonk liyaa. aankhonse rudhirakee ajal dhaara bahane lagee. bilvamangal hansata aur naachata hua tumul haridhvanise aakaashako gunjaane lagaa. grihasthako aur usakee patneeko baड़a duhkh hua, parantu ve bechaare nirupaay the. bangaka bacha khucha chitta-mal bhee aaj saara nasht ho gaya aur ab to vah us anaathake naathako atisheeghr paaneke liye bada़a hee vyaakul ho uthaa. usake jeevana-naatakaka yah teesaraapata-parivartan huaa! param priyatam shreekrishnake viyogakee daarun vyathaase usakee phootee aankhonne chaubeeson ghante aansuonkee jhaड़ee laga dee. n bhookhaka pata hai n pyaasaka, n soneka jnaan hai aur n jaganekaa. 'krishna-krishna' kee pukaarase dishaaonko gunjaata hua bilvamangal jangala-jangal aur gaanva-gaanvamen ghoom raha hai. jis deenabandhuke liye jaana-boojhakar aankhen phoड़een, jis priyatamako paaneke liye aisha-aaraamapar laat maaree, vah milane men itana vilamb kare - yah bhala, kiseese kaise sahan ho? par 'jo sachche premee hote hain, ve premaaspadake virahamen jeevanabhar roya karate hain, sahasron aapattiyonko sahan karate hain, parantu usapar doshaaropan kadaapi naheen karate; unako apane premaaspadamen kabhee koee dosh deekhata hee naheen!' aise premeeke liye premaaspadako bhee chain naheen pada़taa. use dauda़kar aana hee pada़ta hai. aaj andha bilvamangal shreekrishn premamen matavaala hokar jahaan tahaan bhatak raha hai. kaheen gir pada़ta hai, kaheen takara jaata hai, anna-jalaka to koee thikaana hee naheen. aisee dashaamen premamay shreekrishn kaise nishchint rah sakate hain. ek chhote-se gopa-baalakake veshamen bhagavaan bilvamangalake paas aakar apanee muni manamohinee madhur vaaneese bole- 'sooradaasajee! aapako bada़ee bhookh lagee hogee, main kuchh mithaaee laaya hoon, jal bhee laaya hoon; aap ise grahan keejiye. 'bilvamangalake praan to baalakake us madhur svarase hee mohe ja chuke the, usake haathaka durlabh prasaad paakar to usaka hriday harshake hiloronse uchhal uthaa! bilvamangalane baalakase poochha, 'bhaiyaa! tumhaara ghar kahaan hai, tumhaara naam kya hai? tum kya kiya karate ho?'
baalakane kaha, 'mera ghar paas hee hai, mera koee khaas naam naheen; jo mujhe jis naamase pukaarata hai, main useese bolata hoon, gauen charaaya karata hoon. mujhase jo prem karate hain, main bhee unase prem karata hoon.' bilvamangal baalakakee veena vinindit vaanee sunakar vimugdh ho gayaa! baalak jaate-jaate kah gaya ki 'main roj aakar aapako bhojanakarava jaaya karoongaa.' bilvamangal ne kaha, 'bada़ee achchhee baat hai; tum raaj aaya karo.' baalak chala gaya aur bilvamangalaka man bhee saath leta gayaa. 'manachora' to usaka naam ho thaharaa! anek prakaarakee saamagriyonse bhog lagaakar bhee log jinakee kripaake liye tarasa karate hoon, vahee kripaasindhu roj vilvamangalako apane karakamalonse bhojan karavaane aate hain? dhany hai. bhaktake liye bhagavaan kyaa-kya naheen karate.
bilvamangal abatak yah to naheen samajha ki mainne jisake liye phakeereeka baana liya aur aankhonmen kaॉte chubhaaye, vah baalak vahee hai; parantu us gopa-baalakane usake hridayapar itana adhikaar avashy jama liya ki usako doosaree baataka sunana bhee asahy ho uthaa. ek din bilvamangal mana-hee-man vichaar karane laga ki 'saaree aaphaten chhoda़kar yahaantak aaya, yahaan yah nayee aaphat a gayee. streeke mohase chhoota to is baalakane mohamen gher liyaa'. yon soch hee raha tha ki vah rasik baalak usake paas a baitha aur apanee deevaana bana denevaalee vaaneese bola, 'baabaajee chupachaap kya sochate ho? vrindaavan chaloge?' vrindaavanaka naam sunate hee bilvamangalaka hriday hara ho gaya, parantu apanee asamarthata prakat karata hua bolaa- bhaiyaa! main andha vrindaavan kaise jaaoon?' baalakane kahaa- 'yah lo meree laathee, main ise pakada़e-pakada़e tumhaare saath chalata hoon.' bilvamangalaka mukh khil utha, laathee pakada़kar bhagavaan bhaktake aage-aage chalane lage. dhany dayaalutaa! bhaktakee laathee pakada़kar maarg dikhaate hain. thoda़ee see door jaakar baalakane kaha, 'lo! vrindaavan a gaya, ab main jaata hoon.' bilvamangalane baalakaka haath pakada़ liya, haathaka sparsh hote hee saare shareeramen bijalee see dauda़ gayee, saatvik prakaashase saare dvaar prakaashit ho uthe, bilvamangalane divy drishti paayee aur usane dekha ki baalakake roopamen saakshaat mere shyaamasundar hee hain. bilvamangalaka shareer romaanchit ho gaya, aankhonse premaadhuonkee anavarat dhaara bahane lagee, bhagavaanka haath usane aur bhee jorase pakada़ liya aur kahaa-'ab pahachaan liya hai, bahutadinonke baad pakada़ saka hoon. prabhu ab naheen chhoda़nekaa.' bhagavaan kaha, "chhoड़te ho ki naheen?" bilvamangalane kaha, 'naheen, kabhee naheen, trikaalamen bhee naheen.'
bhagavaanne jorase jhataka dekar haath chhuda़a liyaa. bhala, jinake balase balaanvit hokar maayaane saare jagatko padadalit kar rakha hai, usake balake saamane bechaara andha kya kar sakata tha parantu usane ek aisee rajjuse unako baandh liya tha ki jisase chhootakar jaana unake liye bada़ee tedha़ee kheer thee. haath chhuda़aate hee bilvamangalane kahaa- jaate ho? par smaran rakho.
hastamutkshipy yaato'si balaatkrishn kimadbhutam .
hridayaad yadi niryaasi paurushan ganayaami te ..
haath chhuda़aaye jaat hau, nival jaani ke mohi hiradai ten jab jaage, sabal badago tohi ..
bhagavaan naheen ja sake. jaate bhee kaise pratijna kar chuke hain
ye yatha maan prapadyante taanstathaiv bhajaamyaham .
(geeta 4. 11)
'jo mujhako jaise bhaagate hain, main bhee unako vaise hee bhajata hoon.'
bhagavaan vilyamangalako aankhonpar apana phomal karakamal phiraaya, usakee aankhen khul gayeen. netronse pratyaksh bhagavaanko dekhakar unakee bhuvanamohinee anoop rooparaashike darshan paakar bilvamangal apane-aapako sanbhaal naheen sakaa. vah charanonmen gir pada़a aur premaaonse prabhuke paavan charanakamalonko dhone lagaa.
bhagavaan ne uthaakar use apanee chhaatee se laga liyaa. bhakt aur bhagavaanke madhur milanase samast jagatmen madhurata chha gayee. devata pushpavrishti karane lage. santa-bhaktonke dal naachane lage harinaamakee pavitr dhvanise aakaash paripoorn ho gayaa. bhakt aur bhagavaan donon dhany hue. veshya chintaamani, grihasth aur unakee patnee bhee vahaan a gayeen, bhaktake prabhaavase bhagavaanne un sabako apana divy darshan dekar kritaarth kiyaa.
bilvamangal jeevanabhar bhaktika prachaar karake bhagavaanakee mahima badha़aate rahe aur antamen golokadhaam padhaare.