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भक्त नागरीदासजी और उनका परिवार की मार्मिक कथा
भक्त नागरीदासजी और उनका परिवार की अधबुत कहानी - Full Story of भक्त नागरीदासजी और उनका परिवार (हिन्दी)

[भक्त चरित्र -भक्त कथा/कहानी - Full Story] [भक्त नागरीदासजी और उनका परिवार]- भक्तमाल


विक्रमको 15वीं शताब्दीमें भारतके पुनीत पुण्यस्थल श्रीपुष्करारण्यपर भी दुर्दान्त यवनोंका आक्रमण होने लगा था। इस अरण्यके उत्तरीय भागमें एक सलीमसाह चिस्ती ( यवन फकीर ) यहाँके यात्री और निवासियोंको भाँति भाँति से धर्मपरिवर्तनार्थ दुःख देने लगा था।

आतं हिंदूजनताकी प्रार्थनापर द्रवित होकर मथुराके श्रीनारदटीलेपर तपक्ष पूर्ण करके ओपरशुरामदेवजीका वि0 सं0 1515 में यहाँ पदार्पण हुआ। आपके आते ही यवनोंका वह आतङ्क अस्त हो गया। आपने एक केन्द्र श्री पुष्करके दक्षिण तटपर बनाया जो आज श्रीपरशुरामघाट परशुरामद्वाराके नामसे ख्यात है; दूसरा केन्द्र पुष्करसे तीन योजन दूर उत्तरी भागमें स्थापित किया, जहाँपर प्राचीन जामदग्न्य श्रीपरशुरामको तपस्थली थी। वही स्थल आज श्रीपरशुरामपुरी एवं श्रीनिम्बार्काचार्यपीठके नामसे व्यवहृत हो रहा है। वातावरण शान्त होते ही जनताका आवागमन शान्तिपूर्वक होने लगा। सन्निकटवर्ती भाटी और राठौड़ नरेश भी पीठकी उन्नतिके प्रयत्न करने लगे। इस प्रकार लगभग सवा सौ वर्ष व्यतीत हो गये। आचार्य श्रीकी उस समय 140 वर्षकी आयु हो चुकी थी। आप प्रतिदिन पुष्कर जाते-आते थे। उस समय इस अरण्य और आचार्यपीठकी सुरक्षाके लिये वहाँ एक धार्मिक राज्यको स्थापना करना आवश्यक था। अतः आपके संकल्प एवं आदेशानुसार जोधपुरके बड़े राजा श्री उदयसिंहजीके द्वितीय राजकुमार श्रीकृष्णसिंहजी सेवामें उपस्थित हुए और आचार्यश्रीका शुभ आशीर्वाद प्राप्तकर विक्रम सं0 1664 में उन्होंने कृष्णगढ़ राज्यकी स्थापना की। श्रीनिम्बार्काचार्यपीठसे डेढ़ योजन दूर पूर्व-दक्षिणकोणमें राजधानीकी नींव लग गयी। आचार्यपीठसे ले जाकर भगवान् श्रीनृत्यगोपालकी प्रतिमा किलेमें पधरायी गयी।भगवान्की वही प्रतिमा इस राज्य के अधीश्वर पदपर है और नरेन्द्र प्रधान मन्त्रीके रूपसे नीतिपूर्वक प्रजाकी रक्षा करते हैं।

राज्य संस्थापक महाराजा श्रीकृष्णसिंहजी के सम राजस्थापनाके पाँच वर्ष पश्चात्में ही उनके संरक्षक गुरु श्रीपरशुरामदेवजी महाराज जीवित समाधि लेकर अन्तर्हित हो गये। इश्वर कृष्णसिंहजीको भी परमधाम प्राप्त हो गया। उनके 100 वर्ष पश्चात् इसी राजकुलमें आदर्श भक्त राजकुमार साँवन्तसिंहजीका जन्म हुआ, जो आगे चलकर नागरीदासजीके नामसे प्रख्यात हुए। इनका जन्म वि0 सं0 1756 पौष कृ0 13 को रूपनगरमें हुआ था। उस समय श्रीवृन्दावनदेवाचार्यजी महाराज पीठासीन थे। होनहार राजकुमार साँवन्तसिंहजीके आचार्यपीठमें होनेवाले सभी संस्कार मर्यादापूर्वक कराये गये। पाँच वर्षकी आयु होते ही आपको वैष्णवी दीक्षा भी प्राप्त करवा दी गयी थी क्योंकि यह भी इस राजकुलका परम्परागत नियम था बाल्य, पौगण्ड, किशोर अवस्थामें किये हुए आपके अनेकों वीरतापूर्ण चरित्र मिलते हैं पर स्थानाभावसे उनका यहाँ उल्लेख नहीं हो सकता। आपने गुरुदेवकी आज्ञासे आचार्यपीठके सन्निकट आये हुए एक बर्बर सिंहसे मल्लयुद्धकर उसका शिकार किया और गुरुभक्तिका सुन्दर आदर्श प्रकट किया। उस समय लिया हुआ आपका चित्र कृष्णगढ़ के राजमहल और यहाँ आचार्यपीठमें विद्यमान है एवं 'सिंहकी शिकार' नामक एक कविताबड पुस्तक भी है, जो मुद्रित भी हो चुकी थी।

फिर वि0 सं0 1777 में भानगढ़-नरेन्द्रकी राजकुमारीके साथ आपका विवाह हुआ। पिताके आज्ञानुसार आप राज-काज भी करते थे, परंतु वह केवल इसी हेतुसे कि पिताजीको राजकी देखभालका कष्ट न हो। वास्तवमें इनका चित्त सांसारिक प्रपोंसे हटा हुआ था। इसी समय श्रीगुरुदेवने भगवान्‌के गुणानुवादोंपर कविता रचना करने की आज्ञा दी। गुरुकी आज्ञा शिरोधार्यकर सर्वप्रथम वि0 सं0 1780 में आपने एक 45 छन्दोंकी'मनोरथ-मञ्जरी' नामक पुस्तक लिखी। इसके अनुशीलनसे आपके मनोभावोंका स्पष्ट पता लग जाता है।

कब वृंदावन धरनि में, चरन परंगे जाय ।

लोटि धूरि धरि सीस पर, कछु मुखहू मैं खाय ॥

जमुना तट निसि चाँदनी, सुभग पुलिन मैं जाय ।

कब एकाकी होय हाँ, मौन बदन उर चाय ॥

कैसी उत्कट लालसा है! यह मनोरथ मञ्जरी ही आगे चलकर अनेकों ग्रन्थोंके रूपमें परिणत हुई, जिनका कालानुसार रचनाक्रम इस प्रकार है- मनोरथमञ्जरी (1780), रसिकरत्नावली (1782), विहारचन्द्रिका (1788), निकुञ्जविलास, व्रजयात्रा, भक्तिसार (1794), पारायणविधिप्रकाश, कलिवैराग्यवल्लरी (1799), गोपीप्रेमप्रकाश (वि0 सं0 1800), व्रजवैकुण्ठतुला (1801), भक्तिमगदीपिका (1802), फागविहार, युगलभक्तिविनोद (1808), बालविनोदन, वनविनोद (1809), सुजनानन्द, तीर्थानन्द (1810) और वनजनप्रशंसा (1819)। इन अठारह ग्रन्थोंमें रचनाकालका निर्देश मिलता है। कुछ लेखकोंने श्रीनागरीदासजीके इन अठारह ग्रन्थोंमें ही दूसरे दूसरे 55 ग्रन्थोंका भी समावेश कर दिया है और 'बैन-बिलास' एवं 'गुमरसप्रकाश' इन दो पुस्तकोंको अप्राप्य लिखकर 75 की संख्या पूर्ण की है। परंतु ऐसा माना जाता है कि इन नागरीदासजी से पूर्व भी तीन नागरीदास नामके कवि और हो चुके हैं। इन सबकी रचनाओंमें कौन रचना कौन से नागरीदासजीकी है इसका निर्णय करना बहुत कठिन है परंतु इनके समयके मिलनेवाले उपर्युक्त अठारह ग्रन्थ निश्चित रूपसे इन्हीं नागरीदासजीके हैं। वि0 सं0 1805 में आपके पिता श्रीराजसिंहजीका स्वर्गवास हुआ। अतः बाध्य होकर आपको राज्यासन ग्रहण करना पड़ा। फिर वि0 सं0 1808 में आपने लम्बी तीर्थयात्रा करनेको प्रस्थान किया। छोटे बड़े रम्य तीर्थोंकी यात्रा करते हुए श्रीवृन्दावन मथुराकी यात्रा करके आपने श्रीगोवर्द्धन-राधाकुण्ड में स्नान किया और वहाँपर अपने परमाचार्य श्री श्रीनिवासाचार्यजीकी बैठकके दर्शनकर रात्रिको वहीं निवास किया। उस समय वंशीदासजी वहाँके पुजारी थे, जो श्रीरूपरसिकजीके पदोंका सुन्दर कीर्तन किया करते थे। श्रीनागरीदासजीको उनके पद बड़े अच्छे लगते थे-आनन्दाहादमें समयकाभान नहीं रहता था बितई निसा, बंसीदास निकेत चार जाम

रूपरसिक रस कीरतन भयो प्रेम को खेत ॥

ये रूपरसिकजी 35वें श्रीनिम्बार्काचार्य श्रीहरि |

व्यासदेवाचार्यजीके शिष्य थे श्रीनागरीदासजीकी कवितायें इन्हीं दोनों महानुभावोंकी सरणि मिलती है।

यद्यपि तीर्थयात्रा आप राजधानीमें लौटे, तथापि यहाँ आते ही आपके चितमें वैराग्यने तीव्रता धारण कर ली आपकी उस समय 54 वर्षकी आयु हो चुकी थी। वानप्रस्थाश्रमके भी चार वर्ष बीत चुके थे । यद्यपि राजगद्दीपर बैठे केवल पाँच ही वर्ष हुए थे, फिर भी जिसका चित्त भगवान् व्रजेन्द्रनन्दनकी रूपमाधुरीमें लग गया, वह फिर इधर कैसे लग सकता था। आपकी वृन्दावनवासकी उत्कट लालसा दिन-रात बढ़ने लगी। उसकी शीघ्र पूर्ति न होनेसे इनके मनमें कैसे-कैसे भाव आते थे-सो देखिये-

अज मैं है है कढ़त दिन, किते दिये ले खोय ।

अबकै अबकै कहत ही, वह अबकै कब होय ॥

राज बड बड़ देत हरि, दिन में लाख करोर।

पर काहू को नाहिं वे खंचत अपनी ओर ॥

जहाँ कलह, तहाँ सुख नहीं, कलह सुखन को सूल ।

सभी कलह इक राज में, राज कलह को मूल ॥

मेरे या मन मूढ तैं डरत रहत हाँ हाय ।

वृंदावन की ओर तैं मति कबहूँ फिरि जाय ॥

लेत न सुख हरि भक्ति को, सकल सुखन को सार ।

कहा भयो नृपह भयो, ढोवत जग बेगार ॥

इस विकलताका एक मुख्य कारण था कि इस समय तो चाहे किसी भी कारणसे हो, मेरा मन श्रीधाममें लग रहा है। पर मन बड़ा चञ्चल है; ऐसा न हो कि कहीं यह दूसरी ओर लग जाय अतः ये चाहते थे कि जितनी शीघ्रतासे हो सके, अब श्रीधामको चल देना चाहिये-

और भौन देखूं न अब देखौं बृन्दा भौन।

हरि से सुधरी चाहिये, सबही बिगर क्यों न ॥

इस विकलतामें ही तीन-चार वर्ष व्यतीत हो गये। आपने विरक्तवेष लेनेका निश्चय कर लिया। अब यह विचार उत्पन्न हुआ कि विरक्तवेष किससे लें क्योंकि उस समय आपके दीक्षागुरु श्रीवृन्दावनदेवजी तो धराधामपरथे नहीं। ये वि0 1800 में ही परमधामवासी हो गये थे, उनकी गद्दीपर श्रीगोविन्ददेवजी थे वे उस समय तीर्थाटनमें पधारे हुए थे। उन आचार्यश्रीके अधिकारी श्रीमोहनदेवजी बड़े उच्चकोटिके संत थे, वे उस समय
व्रजधाम में रहते थे इनको यह चिन्ता लगी हुई थी कि मानुष सिर रिन जनम्यो तब को, देव पितर ऋषि भूतन सबको।

हरि को अनन्य सरन जब होय, छूटै रिन संदेह न कोय ॥

(वै0 सार) कब भगवान् श्रीमुकुन्दके अनन्यशरण होकर मैं समस्त ऋणोंसे मुक्त होऊँ? ये सब कुछ छोड़कर केवल प्रेमभक्तिके भिखारी थे।

केक करें बिष्णु सेव, केऊ पूजें देवी देव,

केक चाहँ मुक्ति, केऊ उदर निवासनां l

आठौं सिद्धि नवों निद्धि चाहत अनंत जन,

केऊ चाहँ पुत्र, केऊ निरघट नासनां ॥

मेरे वेई देव संत उज्ज्वल तिलक कीन्हें,

भीने रस उज्ज्वल औ जुगल उपासनां ।

नागर निहोरि करि जोरि माँगी तिन पै तैं l

औ देहु प्रेमभक्ति छुड़ाय विष वासनां ॥

अतः आपने तुलसी- गोपीचन्दनधारी प्रसिद्ध सनक सम्प्रदायान्तवंती युगलमूर्ति श्रीराधाकृष्णोपासक एवं श्रीमुकुन्द तथा गोपाल- अष्टादशाक्षर मन्त्रके उपदेष्टा श्रीमोहनदेवजीसे विरक्तवेष लेनेका निश्चय करके, वि0 सं0 1814 आश्विन शु0 10 को अपने राजकुमार श्रीसरदारसिंहजीको राजगद्दीपर बैठाकर शुभ एकादशीके दिन वृन्दावनको प्रस्थान कर दिया। वह उनका आदर्श प्रस्थान था। वृन्दावन पहुँचकर उन्हीं श्रीमोहनदेवजी से यमुनातटपर आपने विरक्तवेष लिया। उस समयका चित्र कृष्णगढ़के खजानेमें तथा आचार्यपीठपर भी विद्यमान है। पहलेके पदोंमें आपने धाम और गुरुदेवकी एक श्रीवृन्दावनं' नामसे वन्दना की है, किन्तु विरक्तवेष लेनेके पश्चात् 'श्रीमोहन गुरु बन्दी' इस प्रकारसे की हुई वन्दनाके आपके पद उपलब्ध होते हैं। ये पहले वृन्दावन जाते, तब इन्हें बड़े नरेश मानकर कई संत इनसे मिलनेमें संकोच करते थे; किन्तु अब तो 'नागरिदास' का नाम

सुनते ही संतोंके झुंड के झुंड आने लगे -

सुनि व्यौहारिक नाम कौं ठाढ़े दूर उदास ।
देखि मिले भरि नैन सुनि नाम नागरीदास ॥

श्रीवृन्दावनमें समागत संतोंके सम्मानार्थ आपने एक आश्रम और एक क्षेत्र स्थापित किया, जो आजकल नागरीदासजीका घेरा और नागरीदासजीके क्षेत्रके नामसे विख्यात है। यह क्षेत्र उनके परमधामवास होनेके पश्चात् भी 175 वर्षोंतक चलता रहा। आपने जो उपासनागृह बनाकर उसमें श्रीनागरिविहारी ठाकुरकी प्रतिष्ठा करवायी थी, वह मन्दिर वृन्दावनमें श्रीनागरिदासजीकी कुञ्जके नामसे प्रसिद्ध है। सेवाकुञ्ज दानगलीके छोरपर ही है। उसकी सेवा-पूजादिकी व्यवस्था आचार्यपीठकी ओरसे चलती है। वि0 सं0 1821 में वृन्दावनमें ही आपने व्रजरज (मुक्ति) प्राप्त की।

श्रीनागरीदासजीका परिवार

पिता- आपके पिता श्रीराजसिंहजी भी परम भगवद्भक्त
थे, उनकी भावनाएँ उनके रचे हुए 'बाहुविलास', 'रुक्मिणीचरित्र' आदि ग्रन्थों और राजकी तवारीखोंसे ज्ञात होती हैं। माता – जन्मदात्री माताके शान्त होनेपर इनके पिता श्रीराजसिंहजीने दूसरा विवाह लवाणि (जयपुर) नरेशआनन्दरामजीकी राजकुमारी श्रीब्रजकुमरीजीसे किया। यह विवाहसम्बन्ध वि0 सं0 1776 के आस-पासमें हुआ था। श्रीनागरीदासजीकी इन विमाता श्रीव्रजकुमरीजीको आचार्यश्री से मन्त्रोपदेश प्राप्त हुआ था। इस बातका वे स्वयं अपने रचे हुए ग्रन्थोंमें उल्लेख करती हैं। इन्होंने अट्ठाईस वर्षतक पतिदेवकी सेवा की और उनकी आज्ञाके अनुसार शास्त्रावलोकनके साथ-साथ भगवदुपासना की। आपको एक कुमार और एक सुता—ये दो रत्न प्राप्त हुए। वह सुता सुन्दरकुमरीके नामसे आदर्श भगवद्भक्ता हुई। श्रीव्रजकुमरीने 1805 से भगवद्गुणानुवादरूप काव्यरचना आरम्भ की। इनके द्वारा रचित काव्योंमें पहला श्रीमद्भागवतका पद्यानुबन्ध है, जो 25000 दोहोंमें पूर्ण हुआ है। दूसरा काव्य श्रीमद्भगवद्गीताका पद्यानुवाद है, यह भी लगभग 1 सहस्र दोहा- छन्दोंमें पूर्ण हुआ है। राजमहिलाओंमें यह सुकार्य सबसे प्रथम ही मानना चाहिये।

श्रीव्रजदासीका यह भागवतका पद्यानुवाद ग्रन्थ वि0 सं0 1812 में पूर्ण हुआ। इनके सेव्य ठाकुर श्रीनिम्बार्काचार्यपीठमें ही विराजमान कर दिये गये थे।उनका नाम 'बाँकेजी' है।

बहिन - श्रीनागरीदासजीकी बहिन श्रीसुन्दरकुमरी भी उसी भाँति आदर्श हरिभक्त हुई। इन्होंने भी उपासना रहस्यके बारह ग्रन्थ रचे हैं। उनके अतिरिक्त एक 'मित्रशिक्षा' नामक 2750 दोहोंका ग्रन्थ बनाया। यह इनकी अन्तिम रचना वि0 सं0 1862 में पूर्ण हुई थी। इस ग्रन्थ में श्रीहंसभगवान्से आरम्भकर तत्कालीन श्रीसर्वेश्वरशरणदेवाचार्यजीतक होनेवाले आचार्योंका इतिवृत्त है । 91 वर्षतक निरन्तर प्रभु-आराधना करके श्रीवृन्दावनमें ही इन्होंने शरीर छोड़ा। केशीघाटपर इनका बनाया हुआ मन्दिर आजकल खींचीवाली कुञ्जके नामसे खंडहर - रूपमें विद्यमान आचार्यपीठके ही अधीन है। इनका विवाह राघोगढ़के खींची-नरेन्द्र श्रीबलभद्रसिंहजीसे हुआ था। इनकी एक रचना देखिये-

चेटक लाय सुभाय कियो निज चेरो यह मन मेरो अमानी।

ऐसी करी पुनि कैसी धरी चित, होन चली अब जान अजानी ॥

आन विधान तैं आन परी मोहि है गति रावरे हाथ बिकानी ।

देखियो लाल निबाह सलाह सो है न किस उपहास कहानी ॥

पुत्री - श्रीनागरीदासजीकी चौथी सन्तति बाई श्रीगोपालकुमरी हुई। इन्होंने भौतिक देहधारी पतिको अङ्गीकार न करके दिव्य विग्रह भगवान्‌को ही अपना पतिदेव माना और आमरण नैष्ठिक व्रत रखकर भगवान्की आराधना की। धन्य है इस भक्त परिवारको !

पौत्री- श्रीनागरीदासजीकी पौत्री बाई छत्रकुमरी हुई ।

इन्होंने "प्रेम-विनोद" नामक एक सुन्दर भाषापद्योंका ग्रन्थ निर्माण किया। इनकी भक्ति भावना और गुरुदेव तथा समय आदिका परिचय इस ग्रन्थके अवलोकनसे ही हो सकता है। रचनाकाल वि0 सं0 1845 है ।

दासी - श्रीनागरीदासजीकी 'बनीठनी' आदि नामोंवाली दासी भी अनन्य भगवद्भक्ता थी। उसने अपनी कवितामें 'रसिकविहारी' की छाप लगायी है। श्रीनागरीदासजीके विरक्त होनेपर यह भी विरक्त वेष धारणकर श्रीवृन्दावनमें निवास करने लगी। वहीं भगवान्की आराधनामें तल्लीन रहा करती थी। श्रीनागरीदासजीके शरीर छोड़नेसे कुछ कालके पश्चात् ही इसने अपना भौतिक शरीर छोड़ परमधामकी प्राप्ति की। श्रीनागरीदासजीकी समाधि (स्मारक चिह्न) के निकट ही इसका स्मृतिचिह्न है। उसमें इसका निधनकाल वि0 सं0 1822 लिखा हुआ है।

सन्निकटवर्ती- श्रीनागरीदासजीके जितने भी सन्निकटवर्ती थे- प्रायः सभी भक्त और कवि थे। आनन्दघन आपके घनिष्ठों में थे, जो एक महाकवि भक्त हो गये हैं। इस भक्त परिकरके इतिवृत्त-सम्बन्धी विषयोंपर यहाँ स्थानाभावसे अत्यन्त ही सूक्ष्म प्रकाश डालकर इतना ही कह देना पर्याप्त समझते हैं कि जैसे एक चन्दनका वृक्ष समस्त वनस्थ तरुवरोंको सौरभित कर देता है, वैसे ही इस भक्त परिकरने इस प्रान्तके प्रत्येक परिवारको भक्ति-रसका आस्वादन कराकर सबके मानस-मन्दिरोंमें प्रकाशका विस्तार कर दिया था।



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phir vi0 san0 1777 men bhaanagadha़-narendrakee raajakumaareeke saath aapaka vivaah huaa. pitaake aajnaanusaar aap raaja-kaaj bhee karate the, parantu vah keval isee hetuse ki pitaajeeko raajakee dekhabhaalaka kasht n ho. vaastavamen inaka chitt saansaarik praponse hata hua thaa. isee samay shreegurudevane bhagavaan‌ke gunaanuvaadonpar kavita rachana karane kee aajna dee. gurukee aajna shirodhaaryakar sarvapratham vi0 san0 1780 men aapane ek 45 chhandonkee'manoratha-manjaree' naamak pustak likhee. isake anusheelanase aapake manobhaavonka spasht pata lag jaata hai.

kab vrindaavan dharani men, charan parange jaay .

loti dhoori dhari sees par, kachhu mukhahoo main khaay ..

jamuna tat nisi chaandanee, subhag pulin main jaay .

kab ekaakee hoy haan, maun badan ur chaay ..

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rooparasik ras keeratan bhayo prem ko khet ..

ye rooparasikajee 35ven shreenimbaarkaachaary shreehari |

vyaasadevaachaaryajeeke shishy the shreenaagareedaasajeekee kavitaayen inheen donon mahaanubhaavonkee sarani milatee hai.

yadyapi teerthayaatra aap raajadhaaneemen laute, tathaapi yahaan aate hee aapake chitamen vairaagyane teevrata dhaaran kar lee aapakee us samay 54 varshakee aayu ho chukee thee. vaanaprasthaashramake bhee chaar varsh beet chuke the . yadyapi raajagaddeepar baithe keval paanch hee varsh hue the, phir bhee jisaka chitt bhagavaan vrajendranandanakee roopamaadhureemen lag gaya, vah phir idhar kaise lag sakata thaa. aapakee vrindaavanavaasakee utkat laalasa dina-raat badha़ne lagee. usakee sheeghr poorti n honese inake manamen kaise-kaise bhaav aate the-so dekhiye-

aj main hai hai kadha़t din, kite diye le khoy .

abakai abakai kahat hee, vah abakai kab hoy ..

raaj bad bada़ det hari, din men laakh karora.

par kaahoo ko naahin ve khanchat apanee or ..

jahaan kalah, tahaan sukh naheen, kalah sukhan ko sool .

sabhee kalah ik raaj men, raaj kalah ko mool ..

mere ya man moodh tain darat rahat haan haay .

vrindaavan kee or tain mati kabahoon phiri jaay ..

let n sukh hari bhakti ko, sakal sukhan ko saar .

kaha bhayo nripah bhayo, dhovat jag begaar ..

is vikalataaka ek mukhy kaaran tha ki is samay to chaahe kisee bhee kaaranase ho, mera man shreedhaamamen lag raha hai. par man bada़a chanchal hai; aisa n ho ki kaheen yah doosaree or lag jaay atah ye chaahate the ki jitanee sheeghrataase ho sake, ab shreedhaamako chal dena chaahiye-

aur bhaun dekhoon n ab dekhaun brinda bhauna.

hari se sudharee chaahiye, sabahee bigar kyon n ..

is vikalataamen hee teena-chaar varsh vyateet ho gaye. aapane viraktavesh leneka nishchay kar liyaa. ab yah vichaar utpann hua ki viraktavesh kisase len kyonki us samay aapake deekshaaguru shreevrindaavanadevajee to dharaadhaamaparathe naheen. ye vi0 1800 men hee paramadhaamavaasee ho gaye the, unakee gaddeepar shreegovindadevajee the ve us samay teerthaatanamen padhaare hue the. un aachaaryashreeke adhikaaree shreemohanadevajee bada़e uchchakotike sant the, ve us samaya
vrajadhaam men rahate the inako yah chinta lagee huee thee ki maanush sir rin janamyo tab ko, dev pitar rishi bhootan sabako.

hari ko anany saran jab hoy, chhootai rin sandeh n koy ..

(vai0 saara) kab bhagavaan shreemukundake ananyasharan hokar main samast rinonse mukt hooon? ye sab kuchh chhoda़kar keval premabhaktike bhikhaaree the.

kek karen bishnu sev, keoo poojen devee dev,

kek chaahan mukti, keoo udar nivaasanaan l

aathaun siddhi navon niddhi chaahat anant jan,

keoo chaahan putr, keoo niraghat naasanaan ..

mere veee dev sant ujjval tilak keenhen,

bheene ras ujjval au jugal upaasanaan .

naagar nihori kari jori maangee tin pai tain l

au dehu premabhakti chhuda़aay vish vaasanaan ..

atah aapane tulasee- gopeechandanadhaaree prasiddh sanak sampradaayaantavantee yugalamoorti shreeraadhaakrishnopaasak evan shreemukund tatha gopaala- ashtaadashaakshar mantrake upadeshta shreemohanadevajeese viraktavesh leneka nishchay karake, vi0 san0 1814 aashvin shu0 10 ko apane raajakumaar shreesaradaarasinhajeeko raajagaddeepar baithaakar shubh ekaadasheeke din vrindaavanako prasthaan kar diyaa. vah unaka aadarsh prasthaan thaa. vrindaavan pahunchakar unheen shreemohanadevajee se yamunaatatapar aapane viraktavesh liyaa. us samayaka chitr krishnagaढ़ke khajaanemen tatha aachaaryapeethapar bhee vidyamaan hai. pahaleke padonmen aapane dhaam aur gurudevakee ek shreevrindaavanan' naamase vandana kee hai, kintu viraktavesh leneke pashchaat 'shreemohan guru bandee' is prakaarase kee huee vandanaake aapake pad upalabdh hote hain. ye pahale vrindaavan jaate, tab inhen bada़e naresh maanakar kaee sant inase milanemen sankoch karate the; kintu ab to 'naagaridaasa' ka naama

sunate hee santonke jhund ke jhund aane lage -

suni vyauhaarik naam kaun thaadha़e door udaas .
dekhi mile bhari nain suni naam naagareedaas ..

shreevrindaavanamen samaagat santonke sammaanaarth aapane ek aashram aur ek kshetr sthaapit kiya, jo aajakal naagareedaasajeeka ghera aur naagareedaasajeeke kshetrake naamase vikhyaat hai. yah kshetr unake paramadhaamavaas honeke pashchaat bhee 175 varshontak chalata rahaa. aapane jo upaasanaagrih banaakar usamen shreenaagarivihaaree thaakurakee pratishtha karavaayee thee, vah mandir vrindaavanamen shreenaagaridaasajeekee kunjake naamase prasiddh hai. sevaakunj daanagaleeke chhorapar hee hai. usakee sevaa-poojaadikee vyavastha aachaaryapeethakee orase chalatee hai. vi0 san0 1821 men vrindaavanamen hee aapane vrajaraj (mukti) praapt kee.

shreenaagareedaasajeeka parivaara

pitaa- aapake pita shreeraajasinhajee bhee param bhagavadbhakta
the, unakee bhaavanaaen unake rache hue 'baahuvilaasa', 'rukmineecharitra' aadi granthon aur raajakee tavaareekhonse jnaat hotee hain. maata – janmadaatree maataake shaant honepar inake pita shreeraajasinhajeene doosara vivaah lavaani (jayapura) nareshaaanandaraamajeekee raajakumaaree shreebrajakumareejeese kiyaa. yah vivaahasambandh vi0 san0 1776 ke aasa-paasamen hua thaa. shreenaagareedaasajeekee in vimaata shreevrajakumareejeeko aachaaryashree se mantropadesh praapt hua thaa. is baataka ve svayan apane rache hue granthonmen ullekh karatee hain. inhonne atthaaees varshatak patidevakee seva kee aur unakee aajnaake anusaar shaastraavalokanake saatha-saath bhagavadupaasana kee. aapako ek kumaar aur ek sutaa—ye do ratn praapt hue. vah suta sundarakumareeke naamase aadarsh bhagavadbhakta huee. shreevrajakumareene 1805 se bhagavadgunaanuvaadaroop kaavyarachana aarambh kee. inake dvaara rachit kaavyonmen pahala shreemadbhaagavataka padyaanubandh hai, jo 25000 dohonmen poorn hua hai. doosara kaavy shreemadbhagavadgeetaaka padyaanuvaad hai, yah bhee lagabhag 1 sahasr dohaa- chhandonmen poorn hua hai. raajamahilaaonmen yah sukaary sabase pratham hee maanana chaahiye.

shreevrajadaaseeka yah bhaagavataka padyaanuvaad granth vi0 san0 1812 men poorn huaa. inake sevy thaakur shreenimbaarkaachaaryapeethamen hee viraajamaan kar diye gaye the.unaka naam 'baankejee' hai.

bahin - shreenaagareedaasajeekee bahin shreesundarakumaree bhee usee bhaanti aadarsh haribhakt huee. inhonne bhee upaasana rahasyake baarah granth rache hain. unake atirikt ek 'mitrashikshaa' naamak 2750 dohonka granth banaayaa. yah inakee antim rachana vi0 san0 1862 men poorn huee thee. is granth men shreehansabhagavaanse aarambhakar tatkaaleen shreesarveshvarasharanadevaachaaryajeetak honevaale aachaaryonka itivritt hai . 91 varshatak nirantar prabhu-aaraadhana karake shreevrindaavanamen hee inhonne shareer chhoda़aa. kesheeghaatapar inaka banaaya hua mandir aajakal kheencheevaalee kunjake naamase khandahar - roopamen vidyamaan aachaaryapeethake hee adheen hai. inaka vivaah raaghogadha़ke kheenchee-narendr shreebalabhadrasinhajeese hua thaa. inakee ek rachana dekhiye-

chetak laay subhaay kiyo nij chero yah man mero amaanee.

aisee karee puni kaisee dharee chit, hon chalee ab jaan ajaanee ..

aan vidhaan tain aan paree mohi hai gati raavare haath bikaanee .

dekhiyo laal nibaah salaah so hai n kis upahaas kahaanee ..

putree - shreenaagareedaasajeekee chauthee santati baaee shreegopaalakumaree huee. inhonne bhautik dehadhaaree patiko angeekaar n karake divy vigrah bhagavaan‌ko hee apana patidev maana aur aamaran naishthik vrat rakhakar bhagavaankee aaraadhana kee. dhany hai is bhakt parivaarako !

pautree- shreenaagareedaasajeekee pautree baaee chhatrakumaree huee .

inhonne "prema-vinoda" naamak ek sundar bhaashaapadyonka granth nirmaan kiyaa. inakee bhakti bhaavana aur gurudev tatha samay aadika parichay is granthake avalokanase hee ho sakata hai. rachanaakaal vi0 san0 1845 hai .

daasee - shreenaagareedaasajeekee 'baneethanee' aadi naamonvaalee daasee bhee anany bhagavadbhakta thee. usane apanee kavitaamen 'rasikavihaaree' kee chhaap lagaayee hai. shreenaagareedaasajeeke virakt honepar yah bhee virakt vesh dhaaranakar shreevrindaavanamen nivaas karane lagee. vaheen bhagavaankee aaraadhanaamen talleen raha karatee thee. shreenaagareedaasajeeke shareer chhoda़nese kuchh kaalake pashchaat hee isane apana bhautik shareer chhoda़ paramadhaamakee praapti kee. shreenaagareedaasajeekee samaadhi (smaarak chihna) ke nikat hee isaka smritichihn hai. usamen isaka nidhanakaal vi0 san0 1822 likha hua hai.

sannikatavartee- shreenaagareedaasajeeke jitane bhee sannikatavartee the- praayah sabhee bhakt aur kavi the. aanandaghan aapake ghanishthon men the, jo ek mahaakavi bhakt ho gaye hain. is bhakt parikarake itivritta-sambandhee vishayonpar yahaan sthaanaabhaavase atyant hee sookshm prakaash daalakar itana hee kah dena paryaapt samajhate hain ki jaise ek chandanaka vriksh samast vanasth taruvaronko saurabhit kar deta hai, vaise hee is bhakt parikarane is praantake pratyek parivaarako bhakti-rasaka aasvaadan karaakar sabake maanasa-mandironmen prakaashaka vistaar kar diya thaa.

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बृज के नंदलाला राधा के सांवरिया,
सभी दुःख दूर हुए, जब तेरा नाम लिया।
मीठे रस से भरी रे, राधा रानी लागे,
मने कारो कारो जमुनाजी रो पानी लागे
मोहे आन मिलो श्याम, बहुत दिन बीत गए।
बहुत दिन बीत गए, बहुत युग बीत गए ॥
हम प्रेम दीवानी हैं, वो प्रेम दीवाना।
ऐ उधो हमे ज्ञान की पोथी ना सुनाना॥
मुझे चाहिए बस सहारा तुम्हारा,
के नैनों में गोविन्द नज़ारा तुम्हार
सब हो गए भव से पार, लेकर नाम तेरा
नाम तेरा हरि नाम तेरा, नाम तेरा हरि नाम
किशोरी कुछ ऐसा इंतजाम हो जाए।
जुबा पे राधा राधा राधा नाम हो जाए॥
हरी नाम नहीं तो जीना क्या
अमृत है हरी नाम जगत में,
सांवरियो है सेठ, म्हारी राधा जी सेठानी
यह तो जाने दुनिया सारी है
कारे से लाल बनाए गयी रे,
गोरी बरसाने वारी
ज़रा छलके ज़रा छलके वृदावन देखो
ज़रा हटके ज़रा हटके ज़माने से देखो
अपने दिल का दरवाजा हम खोल के सोते है
सपने में आ जाना मईया,ये बोल के सोते है
ना मैं मीरा ना मैं राधा,
फिर भी श्याम को पाना है ।
एक दिन वो भोले भंडारी बन कर के ब्रिज की
पारवती भी मना कर ना माने त्रिपुरारी,
रंगीलो राधावल्लभ लाल, जै जै जै श्री
विहरत संग लाडली बाल, जै जै जै श्री
नटवर नागर नंदा, भजो रे मन गोविंदा
शयाम सुंदर मुख चंदा, भजो रे मन गोविंदा
मुँह फेर जिधर देखु मुझे तू ही नज़र आये
हम छोड़के दर तेरा अब और किधर जाये
श्यामा प्यारी मेरे साथ हैं,
फिर डरने की क्या बात है
तेरा पल पल बिता जाए रे
मुख से जप ले नमः शवाए
अरे बदलो ले लूँगी दारी के,
होरी का तोहे बड़ा चाव...
एक कोर कृपा की करदो स्वामिनी श्री
दासी की झोली भर दो लाडली श्री राधे॥
यह मेरी अर्जी है,
मैं वैसी बन जाऊं जो तेरी मर्ज़ी है
मेरा आपकी कृपा से,
सब काम हो रहा है
ज़री की पगड़ी बाँधे, सुंदर आँखों वाला,
कितना सुंदर लागे बिहारी कितना लागे
हो मेरी लाडो का नाम श्री राधा
श्री राधा श्री राधा, श्री राधा श्री
तीनो लोकन से न्यारी राधा रानी हमारी।
राधा रानी हमारी, राधा रानी हमारी॥
तमन्ना यही है के उड के बरसाने आयुं मैं
आके बरसाने में तेरे दिल की हसरतो को
वृन्दावन के बांके बिहारी,
हमसे पर्दा करो ना मुरारी ।
करदो करदो बेडा पार, राधे अलबेली सरकार।
राधे अलबेली सरकार, राधे अलबेली सरकार॥
गोवर्धन वासी सांवरे, गोवर्धन वासी
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अम्बे माँ झूले भवन में अम्बे माँ झूले
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: घिस घिस चंदन लेप लगाऊं