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शिवभक्त महाकाल की मार्मिक कथा
शिवभक्त महाकाल की अधबुत कहानी - Full Story of शिवभक्त महाकाल (हिन्दी)

[भक्त चरित्र -भक्त कथा/कहानी - Full Story] [शिवभक्त महाकाल]- भक्तमाल


प्राचीनकालमें वाराणसी नगरीमें माण्टि नामके एक महायशस्वी ब्राह्मण रहते थे। वे शिवजीके बड़े भक्त थे और सदा शिवमन्त्रका जप किया करते थे। प्रारब्धवश उनके कोई सन्तान नहीं थी। इसलिये उन्होंने पुत्रकी कामनासे दीर्घकालतक शिवमन्त्र जपका अनुष्ठान किया। एक दिन भगवान् शङ्कर उनकी तपश्चर्यासे प्रसन्न हो उनके सामने प्रकट हुए और बोले-'वत्स माण्टि! मैं तुम्हारी आराधनासे प्रसन्न हूँ। तुम्हारा मनोरथ शीघ्र ही पूर्ण होगा और तुम्हें मेरे ही समान प्रभावशाली एवं शक्तिसम्पन्न मेधावी पुत्ररत्न प्राप्त होगा, जो तुम्हारे समग्र वंशका उद्धार करेगा।' यों कहकर शिवजी अन्तर्धान हो गये और माण्टि भगवान् शङ्करके योगिदुर्लभ, नयनाभिराम रूपका दर्शन करके और उनसे मनचाहा वरदान पाकर अत्यन्त हर्षित हुए।

माण्टिकी पत्नीका नाम चटिका था। वह महान् पतिव्रता एवं तपस्याकी मानो मूर्ति ही थी। समय पाकर तपोमूर्ति ब्राह्मणपत्नी गर्भवती हुई। क्रमशः गर्भ बढ़ने लगा और उसके साथ-साथ उस सतीका तेज और भी विकसित हो उठा; किंतु पूरे चार वर्ष व्यतीत हो गये, सन्तान गर्भसे बाहर नहीं आयी। इस घटनाको देखकर सभी आश्चर्यचकित हो गये। माण्टिने सोचा कि अवश्य ही यह कोई अलौकिक बालक है, जो गर्भसे बाहर नहींआना चाहता। अतः वे अपनी पत्नीके पास जाकर गर्भस्थ शिशुको सम्बोधन करके कहने लगे-'वत्स ! सामान्य पुत्र भी अपने माता-पिताके आनन्दको बढ़ानेवाले होते हैं; फिर तुम तो अत्यन्त पवित्र चरित्रवाली माताके उदरमें आये हो और भगवान् शङ्करके अनुग्रहसे हमारी दीर्घकालकी तपस्याके फलरूपमें प्राप्त हुए हो। ऐसी दशामें क्या तुम्हारे लिये यह उचित है कि तुम माताको इस प्रकार कष्ट दे रहे हो और हमारी भी चिन्ताके कारण बन रहे हो? हे पुत्र ! यह मनुष्यजन्म ही धर्म, अर्थ, काम और मोक्षका साधक है। शास्त्रोंमें इसे देवताओंके लिये भी दुर्लभ बताया गया है। फिर क्यों नहीं तुम शीघ्र ही बाहर आकर हम सब लोगोंको आनन्दित करते?'

गर्भ बोला- ' हे तात! जो कुछ आपने कहा, वह सब मुझे ज्ञात है। मैं यह भी जानता हूँ कि इस भूमण्डलमें मनुष्यजन्म अत्यन्त दुर्लभ है; परंतु मैं कालमार्गसे अत्यन्त भयभीत हूँ। वेदोंमें काल और अर्चि नामके दो मार्गोंका वर्णन आता है। कालमार्गसे जीव कर्मोंके चक्करमें पड़ जाता है और अर्चिमार्गसे मोक्षकी प्राप्ति होती है। कालमार्गसे चलनेवाले जीव चाहे पुण्यके प्रभावसे स्वर्गमें ही क्यों न चले जायँ, वहाँ भी उन्हें सुखकी प्राप्ति नहीं होती। इसलिये बुद्धिमान् पुरुषनिरन्तर इस चेष्टामें लगे रहते हैं कि जिससे उन्हें इस घोररूप गम्भीर कालमार्गमें न भटकना पड़े। अतः यदि आप कोई ऐसा उपाय कर सकें, जिससे मेरा मन नाना प्रकारके सांसारिक दोषोंसे लिप्त न हो, तो मैं इस मनुष्यलोकमें जन्म ले सकता हूँ।'

गर्भस्थ शिशुकी इस शर्तको सुनकर माण्टि और भी भयभीत हो गये। उन्होंने सोचा कि भगवान् शङ्करको छोड़कर कौन इस शर्तको पूरा कर सकता है। जिन्होंने कृपा करके मेरे मनोरथको पूर्ण किया है, वे ही इस शर्तको भी पूरा करेंगे। यों सोचकर वे मन-ही-मन भगवान् शङ्करकी शरण में गये और उनसे प्रार्थना की। माण्टिकी प्रार्थना भगवान् आशुतोषने सुन लो उन्होंने अपने धर्म, ज्ञान, वैराग्य, ऐश्वर्यादिको मूर्तरूपमें बुलाकर कहा कि 'देखो, माण्टिपुत्रको विपरीत ज्ञान हो गया है, अतः तुमलोग जाकर उसे समझाओ और ठीक रास्तेपर लाओ।" भगवान् महेश्वरकी आज्ञा पा, वे विभूतियाँ साकार विग्रह धारणकर गर्भस्थ शिशुके निकट गयीं और उसे सम्बोधित कर कहने लगी- 'महामति माण्टिपुत्र तुम किसी प्रकारका भय न करो। भगवान् शङ्करकी कृपासे हम धर्म, ज्ञान, वैराग्य और ऐश्वर्य कभी तुम्हारे मनका परित्याग नहीं करेंगे। अतः तुम निर्भय होकर गर्भसे बाहर निकल आओ।' यों कहकर ये चारों दिव्य मूर्तियाँ चुप हो गयीं। उनके चुप हो जानेपर अधर्म, अज्ञान, अवैराग्य और अनैश्वर्य भी विकराल मूर्तियाँ धारणकर भगवान् शङ्करकी आज्ञासे वहाँ उपस्थित हुए तथा माण्टिपुत्रसे कहने लगे कि 'तुम यदि हमारे भयसे बाहर न आते होओ, तो इस भयका त्याग कर दो। भगवान् शङ्करकी आज्ञासे हम तुम्हारे भीतर कदापि प्रवेश नहीं कर सकेंगे।'

इस प्रकार धर्म, ज्ञान, वैराग्य और ऐश्वर्य तथा उनके विरोधी अधर्म, अज्ञान, अवैराग्य और अनैश्वर्यकी आश्वासनवाणीको सुनते ही बालक माष्टिपुत्र अविलम्ब गर्भसे बाहर निकल आया और काँपते काँपते रुदन करने लगा। उस समय भगवान् शङ्करकी विभूतियोंने माण्टिसे कहा-'देखो, माण्टि! तुम्हारा पुत्र अब भी कालमार्गके भय से काँप और रो रहा है। अत: तुम्हारा यह पुत्र कालभीति नामसे विख्यात होगा।' यो कहकरविभूतिगण अपने स्वामी शङ्करजीके पास चले गये। बालक कालभीति शुक्लपक्षके चन्द्रमाकी भाँति क्रमशः

बढ़ने लगा। पिताने क्रमशः उसके उपनयनादि संस्कार किये और उसे पाशुपतव्रतमें परिनिष्ठितकर शिवपञ्चाक्षर मन्त्र ( नमः शिवाय) की दीक्षा दी। कालभीति अपने पिताके समान ही पञ्चाक्षरमन्त्रके परायण हो गये। उन्होंने तीर्थयात्राके प्रसङ्गसे विविध रुद्रक्षेत्रोंमें भ्रमण किया और घूमते-घूमते स्तम्भतीर्थ नामक क्षेत्रमें पहुँचे, जहाँका प्रभाव उन्होंने लोगों से पहले ही सुन रखा था। वहाँ वे घोर तपस्या करते हुए एकाग्र मनसे रुद्रमन्त्रका जप करने लगे। उन्होंने यह नियम ले लिया कि 'सौ वर्षतक भोजनकी तो कौन कहे, जलकी एक बूँद भी ग्रहण नहीं करूँगा।' ज्यों ही सौ वर्ष समाप्त होनेको आये कि एक अज्ञात पुरुष जलसे भरा हुआ एक घड़ा लेकर कालभीतिके पास आया और प्रणाम करके उस तपस्वी ब्राह्मणसे कहने लगा-'हे महामति कालभीति! आज तुम्हारा अनुष्ठान भगवान् शङ्करकी कृपासे पूर्ण हो गया है। तुम्हें भूख-प्यास सहते पूरे सौ वर्ष हो गये हैं। मैं बड़े प्रेमसे अत्यन्त पवित्र होकर यह जल तुम्हारे लिये ले आया हूँ। तुम कृपा करके इसे स्वीकार करो और मेरे श्रमको सफल करो।'

कालभीतिको वास्तवमें प्यास बहुत सता रही थीं। अञ्जलिभर पानीके लिये उनके प्राण छटपटा रहे थे। परंतु सहसा एक अपरिचित व्यक्तिके द्वारा लाया हुआ जल ग्रहण करना उन्होंने उचित नहीं समझा। वे शङ्कापूर्ण | नेत्रोंसे उस आगन्तुक पुरुषकी ओर देखते हुए बोले- आप कौन हैं? आपकी जाति क्या है और आपका आचार कैसा है, कृपाकर बताइये। आपकी जाति और आचारको जान लेनेके बाद ही मैं आपके लाये हुए जलको ग्रहण कर सकता हूँ।' इसपर वह अपरिचित व्यक्ति बोला- 'तपोधन! मेरे माता-पिता इस लोकमें हैं या नहीं, इसका भी मुझे पता नहीं है। उनके विषयमें मैं कुछ भी नहीं जानता। मैं सदा इसी ढंगसे रहता हूँ। आचार अथवा धर्मसे, मेरा कोई प्रयोजन नहीं है। अतः आचारकी बात मैं क्या कह सकता हूँ? सच पूछिये तो मैं किसी आचार विचारका पालन भी नहीं करता।' कालभीति बोले- 'यदि ऐसी बात है, तब तो मैंआपसे क्षमा चाहता हूँ। मैं आपके दिये हुए जलको ग्रहण नहीं कर सकता। इस सम्बन्ध मेरे गुरुदेव तिसम्म उपदेश मुझे दिया है, उसे मैं आपको सुनाता हूँ। जिसके कुलका हाल अथवा रक्तशुद्धिका पता न हो, साधु व्यक्ति उसके दिये हुए अन-जलको ग्रहण नहीं करते। इसी प्रकार जो व्यक्ति भगवानके सम्बन्धमें कुछ श्री ज्ञान नहीं रखता और न उनकी भक्ति करता है, उसके हाथका अन-जल भी ग्रहण करने योग्य नहीं होता। भगवानको अर्पण किये बिना जो व्यक्ति भोजन करता है, उसे बड़ा पाप लगता है। गङ्गाजल भरे हुए घड़े में एक बूँद मंदिराके मिल जानेसे जैसे यह अपवित्र हो जाता है, उसी प्रकार भगवान्को भक्ति न करनेवालेका अन्न चाहे कितनी ही पवित्रता बनाया गया हो, अपवित्र ही होता है। परंतु यदि कोई मनुष्य शिवभक्त भी हो, परंतु उसकी जाति और आचार भ्रष्ट हो तो उसका अन भी नहीं खाया जाता। अन-जलके सम्बन्धमें शास्त्राम दोनों बातोंका विचार रखा गया है। अन या जल-जो कुछ भी ग्रहण किया जाय, वह भगवान्को अर्पित हो और जिसके द्वारा यह अन अथवा जल लाया गया है, वह जाति तथा आचारकी दृष्टिसे पवित्र हो।"

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कालभीतिके इन वचनोंको सुनकर वह मनुष्य हँसने लगा और बोला-'अरे तपस्वी तुम तप एवं विद्यासे सम्पन्न होनेपर भी मुझे नितान्त मूर्ख प्रतीत होते हो। तुम्हारी इस बातको सुनकर मुझे हंसी आती है। अरे नादान क्या तुम नहीं जानते कि भगवान् शिव सभी भूतोंके अंदर समानरूपसे निवास करते हैं? ऐसी दशा में किसीको पवित्र और किसीको अपवित्र कहना कदापि उचित नहीं है। अपवित्र कहकर किसीकी निन्दा करना प्रकारान्तरसे उसके अंदर रहनेवाले भगवान् शङ्करकी ही निन्दा करना है। जो मनुष्य अपने अथवा दूसरेके अंदर भगवानकी सत्ता सम्बन्धमें सन्देह करता है, मृत्यु उस भेदज्ञानी मनुष्यके लिये विशेष रूपसे भयदायक होती। है। फिर जरा विचारी तो सही कि जलमें अपवित्रता आ ही कैसे सकती है। जिस पात्रमें इसे मैं ले आया हूँ, यह मिट्टीका बना हुआ है-मिट्टी भी ऐसी-वैसी नहीं, किंतु अवेंकी आगमें भलीभाँति तपायी हुई और फिर वह जलकेद्वारा शुद्ध हो चुकी है। मृत्तिका, जल और अग्नि-इनमेंसे कौन-सी वस्तु अपवित्र है? यदि कहो कि हमारे संसर्ग यह जल अपवित्र हो गया है, तो यह कहना भी ठीक नहीं। क्योंकि तुम और हम दोनों ही इस मिट्टीसे ही तो बने हैं और मिट्टीपर ही सदा रहते हैं मेरे संसर्ग यदि जल अशुचि हो सकता है तो जिस जमीनपर मैं खड़ा हूँ, वह जमीन भी मेरे संसर्गसे अपवित्र हो जानी चाहिये। तब तो तुम्हें भूमिको छोड़कर आकाशमें विचरण करना होगा। इन सब बातोंपर विचार करनेसे तुम्हारी उक्ति मुझे नितान्त मूर्खतापूर्ण प्रतीत होती है।'

कालभीतिने कहा- 'अवश्य ही भगवान् शङ्करका सभी भूतोंमें निवास है। परंतु इस बातको लेकर जो सब भूतोंकी व्यवहारमें समानता करता है, वह अनादिका परित्याग करके मृत्तिका अथवा भस्मसे उदरपूर्ति क्यों नहीं करता? क्योंकि उसके मतानुसार अनमें जो भगवान् हैं, वे ही तो मृत्तिका और भस्ममें भी हैं। परंतु उसकी यह मान्यता ठीक नहीं। परमार्थ दृष्टिसे सब कुछ शिवरूप होनेपर भी व्यवहारमें भेद आवश्यक है। इसीलिये शास्वमें नाना प्रकारकी शुद्धिके विधान पाये जाते हैं और उनके फल भी अलग-अलग निर्दिष्ट हुए हैं। शास्त्रकी आज्ञाके विरुद्ध आचरण करना कदापि उचित नहीं है। जो शास्त्र भगवान् शिवकी सत्ता सर्वत्र बतलाते हैं, वे ही व्यवहारमें भेदका भी विधान करते हैं। शास्त्रकी एक यात तो मानी जाय और दूसरी न मानी जाय, यह कहाँतक उचित है। दोनों ही बातें अपनी-अपनी दृष्टिसे ठीक हैं और दोनोंकी परस्पर सङ्गति भी है।'

'श्रुति कहती है कि बाहर-भीतरकी पवित्रता रखो। इसी बातको इतिहास पुराण इन शब्दोंमें कहते हैं- यदि परलोकमें सुखी रहना चाहते हो और कोंसे बचना चाहते हो, तो शौचाचारका पालन करो। पृथ्वीपर रहनेवाले व्यक्तियोंके लिये शौचाचारका पालन अवश्यकर्तव्य है। ऐसी दशामें यदि आप श्रुतियोंकी अवहेलना करके 'सब कुछ शिवमय है' यह कहकर व्यवहारके भेदको मिटाना चाहते हैं तो फिर बताइये, क्या श्रुति-पुराणादि शास्त्र व्यर्थ नहीं हो जायेंगे? आप जो यह कहते हैं कि भगवान् शिव सभी भूतोंमें स्थित हैं, यह ठीक है। भगवान् शिव सर्वत्रहैं, यह बात अक्षरशः सत्य है। फिर भी व्यक्तिभेदसे उनकी सत्तामें भी भेद कहा जा सकता है। इसके लिये मैं आपको एक दृष्टान्त देता हूँ। यद्यपि सभी सोनेके गहने सुवर्ण नामकी एक ही धातुसे बने हुए होते हैं, तब भी सबका सोना एक ही दामका अथवा एक ही रंगका नहीं होता। उनमेंसे एकका सोना एकदम शुद्ध-टकसाली होता है. दूसरेका उसकी अपेक्षा कुछ नीचे दर्जेका होता है और तीसरेका और भी निकृष्ट होता है। परंतु यह तो मानना ही पड़ेगा कि सभी सुवर्णके गहनोंमें सोना मौजूद है। साथ ही यह भी स्वीकार करना होगा कि सभी गहनोंका सोना एक सा नहीं है। इसी प्रकार भगवान् शिव भी सब भूतोंमें हैं अवश्य; परंतु एकके अंदर उनका प्रकाश अत्यन्त शुद्ध है, दूसरेके अंदर वह उतना शुद्ध नहीं है और तोसरेके अंदर वह और भी मलिन है। इस प्रकार समस्त पदार्थों में व्यवहारकी दृष्टिसे समता नहीं की जा सकती। जिस प्रकार निकृष्ट श्रेणीका सोना दाहादिके द्वारा शोधित होकर क्रमश: उत्कर्षको प्राप्त होता है, उसी प्रकार मलिन अन्तःकरण तथा मलिन देहवाले जीव शौचादिके द्वारा शुद्ध होकर ही शुद्ध शिवत्वके अधिकारी होते हैं। सामान्य शौचादिके द्वारा सहसा शुद्ध शिवत्वका लाभ सम्भव नहीं है, इसीलिये शास्त्रों में देह-शोधनकी आवश्यकता बतायी गयी है। देह शोधित होनेपर ही देही स्वर्गादि उच्च लोकोंको प्राप्त हो सकता है। इस प्रकार जो बुद्धिमान् पुरुष देहशोधनकी इच्छा रखते हैं, वे चाहे जिस व्यक्तिसे अन्न-जल नहीं ग्रहण करते। इसके विपरीत जो लोग शौचाचारका विचार न करके चाहे जिसका अन्न-जल ग्रहण कर लेते हैं, वे पवित्र आचरणवाले होनेपर भी कुछ ही समयमें तमोगुणसे आच्छन्न होकर जडीभूत हो जाते हैं। इसलिये मैं आपका यह जल ग्रहण नहीं कर सकता। इसके लिये आप मुझे क्षमा करें।'

तपस्वीके इस शास्त्रानुमोदित एवं युक्तियुक्त भाषणको सुनकर वह अज्ञात मनुष्य चुप हो गया। उसने पैरके अँगूठेसे बात की बातमें एक बड़ा-सा गड्ढा खोद डाला और उसमें उस मटकेके जलको उँडेल दिया। वह बड़ा गड्ढा उस थोड़ेसे जलसे लबालब भर गया, फिर भी थोड़ा जल उस मटके में बच रहा। उस बचे हुए जलसे उसने निकटवर्ती एक सरोवरको भर दिया। इस अद्भुत व्यापारको देखकरकालभीति तनिक भी विस्मित नहीं हुए। उन्होंने सोचा, भूतादिकी उपासना करनेवाले बहुधा इस प्रकारको आश्चर्यजनक घटनाएँ कर दिखाया करते हैं; परंतु इस प्रकारके आक्षयोंसे श्रुतिमार्गमें कोई विरोध नहीं आ सकता।

भक्त कालभीतिके दृढ़ निश्चयको देखकर वह अपरिचित व्यक्ति सहसा जोरसे हँसता हुआ अन्तर्धान हो गया। कालभीति भी यह देखकर आश्चर्यमें डूब गये और उस व्यक्तिके सम्बन्धमें नाना प्रकारके ऊहापोह करने लगे। इस प्रकार जब वे विचारमें डूबे हुए थे कि उनकी दृष्टि सहसा उस बिल्ववृक्षके मूलकी ओर गयी। वहाँ उन्होंने देखा कि एक विशाल शिवलिङ्ग अकस्मात् प्रादुर्भूत हो गया है। उसके तेजसे दसों दिशाएँ उद्भासित हो उठी हैं। आकाशमें गन्धर्वगण सुमधुर गान कर रहे हैं और अप्सराएँ नृत्य कर रही हैं। देवराज इन्द्र उसके ऊपर पारिजातके पुष्पोंकी वर्षा कर रहे हैं तथा अन्यान्य देवता एवं मुनिगण भी जय जयकार करते हुए नाना प्रकारसे भगवान् शङ्करकी स्तुति कर रहे हैं। इस प्रकार वहाँ बड़ा भारी उत्सव होने लगा। कालभीतिने भी अत्यन्त आनन्दित होकर उस स्वयम्भू लिङ्गको प्रणाम किया और स्तुति करते हुए कहा-

'जो पापराशिके काल हैं, संसाररूपी कर्दमके काल हैं, तथा कालके भी काल हैं, उन कलाधर, कालकण्ठ महाकालकी में शरण आया हूँ। आपको मैं बार-बार नमस्कार करता हूँ । है शिव! आपसे ही यह संसार उत्पन्न हुआ है और आप स्वयं अनादि हैं। जहाँ-जहाँ जिस-जिस योनिमें मैं जन्म लेता हूँ, वहाँ-वहाँ आप मेरे ऊपर करुणाकी निरन्तर वर्षा करते हैं। हे ईश्वर ! जो संसारसे विरक्त होकर आपके षडक्षर मन्त्रका जप करते हैं, आप उन समस्त मुनिगणोंपर बहुत जल्दी प्रसन्न हो जाते हैं। हे प्रभो! मैं उसी 'ॐ नमः शिवाय' इस षडक्षर मन्त्रका निरन्तर जप करता हूँ।'

भक्तश्रेष्ठ कालभीतिकी स्तुतिको सुनकर भगवान् शङ्कर अत्यन्त प्रसन्न हुए वे उसी लिङ्गमेंसे अपने स्वरूपमें प्रकट हो गये और दिव्य प्रकाशसे त्रिलोकीको प्रकाशित करते हुए उस ब्राह्मणसे बोले- 'द्विजश्रेष्ठ ! तुमने इस महीतीर्थमें कठोर तपस्याके द्वारा जो मेरी आराधना की है, इससे मैं तुमपर बहुत प्रसन्न हूँ। अबमेरी कृपासे काल भी तुम्हारे ऊपर कोई प्रभाव नहीं डाल सकेगा। मैंने ही मनुष्य शरीर धारण करके तुम्हारे विश्वासको परीक्षा ली थी और मुझे हर्ष है कि उस परीक्षा तुम पूर्णतया सफल हुए। तुम्हारे जैसे दृढविश्वासी पुरुष जिस धर्मका आचरण करते हैं, यही धर्म वास्तवमें श्रेष्ठ है। मैं तुम्हारे लिये जो जल ले आया था, वह समस्त तीथोंका जल है और अत्यन्त पवित्र है। मैंने उसके द्वारा ही उस गड्ढे एवं सरोवरको भरा है। अब तुम मुझसे अपना अभिलषित वर माँगो तुम्हारी आराधनासे मैं इतना अधिक प्रसन्न हुआ हूँ कि तुम्हारे लिये मुझे कुछ भी अदेय न होगा।'

कालभीतिने कहा- 'प्रभो! आपने मेरे प्रति जो प्रसन्नता प्रकट की है, उससे मैं वास्तवमें धन्य हो गया हूँ। वास्तवमें धर्म वही है, जिससे भगवान्‌को प्रसन्नता सम्पादित होती है। जिस धर्मसे आप भगवान्‌की सन्तुष्टि नहीं होती, वह धर्म धर्म ही नहीं है। अब आप यदि मुझपर प्रसन्न हुए हैं, तो मेरी आपके चरणोंमें यही प्रार्थना है कि आप अवसे सदा इस लिङ्गमें विराजमान रहें, जिससे कि इस लिङ्गके प्रति जो कुछ भी पूजा अर्चा की जाय, वह अक्षय फल देनेवाली हो जाय।'

भगवान् शङ्करने कालभीतिकी इस निष्काम प्रार्थनाको स्वीकार करते हुए कहा- 'वत्स! तुमने मेरी आराधनाके द्वारा कालमार्गपर विजय प्राप्त की है, इसलिये तुम भी महाकाल नामसे विख्यात होकर नंदीको भाँति मेरे अनुचररूपमें चिरकालतक मेरे लोकमें सुखपूर्वक निवास करोगे। कुछ ही दिनों बाद इस स्थानपर करन्धम नामके राजर्षि तुमसे मिलने आयेंगे, उन्हें धर्मका उपदेश देकर तुम मेरे लोकमें चले आना। भगवान् शिव यह कहकर उस लिङ्गके अंदर लोन हो गये। इसके बाद महाकाल भी आनन्दपूर्वक उस स्थानमें रहकर तपस्या करने लगे।

कुछ दिनों बाद राजा करन्धम महाकालतीर्थका माहात्म्य और महाकालके चरित्रको कथा सुनकर धर्मके सम्बन्धमें विशेष तत्त्व जानने की इच्छासे वहाँ आये। महाकाल लिङ्गका दर्शन करके करन्धम राजाके आनन्दकी सीमा न रही। उन्होंने उस समय अपने जीवनको सफल समझा। इसके बाद महामहोपचारसे उन्होंने महाकाललिङ्गकी पूजा की और फिर भक्तवर महाकालके पास पहुँचकर प्रणाम किया। राजाको आते देखकर महाकालको भगवान् शङ्करका वचन स्मरण हो आया और उन्होंने हास्ययुक्त वदनसे राजाके सामने आकर उनका स्वागत किया और अर्घ्य पाद्यादि उपचारोंके द्वारा उनका सत्कार किया। राजा करन्धमने शान्तमूर्ति भक्तवर महाकाल से कुशल प्रश्नके अनन्तर अनेकों धर्मविषयक प्रश्न किये और महाकालने उन सबका शास्त्रानुमोदित उत्तर देकर | राजाका समाधान किया। उनके उपदेशका सार यही था। कि घरमें ही रहकर इस लोकमें धर्म, अर्थ, काम तथा मृत्युके बाद मोक्ष प्राप्त करनेका एकमात्र उपाय माहेश्वर धर्मका पालन अर्थात् सब प्रकारसे भगवान् शङ्करके शरण होकर उनकी भक्ति करते हुए उन्हींको प्रीति के लिये वर्णाश्रमोचित कर्तव्यका पालन करना है।

इस प्रकार महाकाल विविध धर्मोका उपदेश कर ही रहे थे कि सहसा आकाशमें बड़ा भारी शब्द होने लगा। महाकालने उस ओर ताका तो वे क्या देखते हैं कि ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, उनके अनुचर तथा भगवती सहित स्वयं भगवान् शङ्कर आ रहे हैं। उनके साथ इन्द्रादि देवता, वसिष्ठादि मुनीश्वर तथा तुम्बुरु प्रभूति गन्धर्व हैं। महामति महाकालने भक्तिनिर्भर चित्तसे उठकर सबकी अभ्यर्थना की और अनेक प्रकारसे पूजा की ब्रह्मादि देवताओंने महाकालको उत्तम रत्नसिंहासनपर बिठाकर उस महीसागर सङ्गम क्षेत्रमें उनका अभिषेक किया। देवी भगवतीने महाकालको वात्सल्य भावसे आलिङ्गनकर गोदमें बिठाया और पुत्रवत् प्यार करती हुई बोलीं- 'शिवव्रतपरायण वत्स यह ब्रह्माण्ड जबतक रहेगा, तबतक तुम शिवभक्तिके प्रभावसे शिवलोकमें निवास करोगे।'

उस समय ब्रह्मा, विष्णु प्रभृति देवगण साधु-साधु कहकर महाकालकी प्रशंसा और स्तुति करने लगे, चारणलोग उनका गुणगान करने लगे और गन्धर्वगण मनोहर गानके द्वारा उन्हें प्रसन्न करने लगे। करोड़ों शिवजीके गण उनकी स्तुति करते हुए उन्हें घेरकर चारों ओर खड़े हो गये। इस प्रकार अपूर्व समारोहके साथ भक्तश्रेष्ठ महाकाल अपने आराध्यदेवके साथ सशरीर शिवलोकको चले गये।



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garbh bolaa- ' he taata! jo kuchh aapane kaha, vah sab mujhe jnaat hai. main yah bhee jaanata hoon ki is bhoomandalamen manushyajanm atyant durlabh hai; parantu main kaalamaargase atyant bhayabheet hoon. vedonmen kaal aur archi naamake do maargonka varnan aata hai. kaalamaargase jeev karmonke chakkaramen pada़ jaata hai aur archimaargase mokshakee praapti hotee hai. kaalamaargase chalanevaale jeev chaahe punyake prabhaavase svargamen hee kyon n chale jaayan, vahaan bhee unhen sukhakee praapti naheen hotee. isaliye buddhimaan purushanirantar is cheshtaamen lage rahate hain ki jisase unhen is ghoraroop gambheer kaalamaargamen n bhatakana pada़e. atah yadi aap koee aisa upaay kar saken, jisase mera man naana prakaarake saansaarik doshonse lipt n ho, to main is manushyalokamen janm le sakata hoon.'

garbhasth shishukee is shartako sunakar maanti aur bhee bhayabheet ho gaye. unhonne socha ki bhagavaan shankarako chhoda़kar kaun is shartako poora kar sakata hai. jinhonne kripa karake mere manorathako poorn kiya hai, ve hee is shartako bhee poora karenge. yon sochakar ve mana-hee-man bhagavaan shankarakee sharan men gaye aur unase praarthana kee. maantikee praarthana bhagavaan aashutoshane sun lo unhonne apane dharm, jnaan, vairaagy, aishvaryaadiko moortaroopamen bulaakar kaha ki 'dekho, maantiputrako vipareet jnaan ho gaya hai, atah tumalog jaakar use samajhaao aur theek raastepar laao." bhagavaan maheshvarakee aajna pa, ve vibhootiyaan saakaar vigrah dhaaranakar garbhasth shishuke nikat gayeen aur use sambodhit kar kahane lagee- 'mahaamati maantiputr tum kisee prakaaraka bhay n karo. bhagavaan shankarakee kripaase ham dharm, jnaan, vairaagy aur aishvary kabhee tumhaare manaka parityaag naheen karenge. atah tum nirbhay hokar garbhase baahar nikal aao.' yon kahakar ye chaaron divy moortiyaan chup ho gayeen. unake chup ho jaanepar adharm, ajnaan, avairaagy aur anaishvary bhee vikaraal moortiyaan dhaaranakar bhagavaan shankarakee aajnaase vahaan upasthit hue tatha maantiputrase kahane lage ki 'tum yadi hamaare bhayase baahar n aate hoo, to is bhayaka tyaag kar do. bhagavaan shankarakee aajnaase ham tumhaare bheetar kadaapi pravesh naheen kar sakenge.'

is prakaar dharm, jnaan, vairaagy aur aishvary tatha unake virodhee adharm, ajnaan, avairaagy aur anaishvaryakee aashvaasanavaaneeko sunate hee baalak maashtiputr avilamb garbhase baahar nikal aaya aur kaanpate kaanpate rudan karane lagaa. us samay bhagavaan shankarakee vibhootiyonne maantise kahaa-'dekho, maanti! tumhaara putr ab bhee kaalamaargake bhay se kaanp aur ro raha hai. ata: tumhaara yah putr kaalabheeti naamase vikhyaat hogaa.' yo kahakaravibhootigan apane svaamee shankarajeeke paas chale gaye. baalak kaalabheeti shuklapakshake chandramaakee bhaanti kramashah

badha़ne lagaa. pitaane kramashah usake upanayanaadi sanskaar kiye aur use paashupatavratamen parinishthitakar shivapanchaakshar mantr ( namah shivaaya) kee deeksha dee. kaalabheeti apane pitaake samaan hee panchaaksharamantrake paraayan ho gaye. unhonne teerthayaatraake prasangase vividh rudrakshetronmen bhraman kiya aur ghoomate-ghoomate stambhateerth naamak kshetramen pahunche, jahaanka prabhaav unhonne logon se pahale hee sun rakha thaa. vahaan ve ghor tapasya karate hue ekaagr manase rudramantraka jap karane lage. unhonne yah niyam le liya ki 'sau varshatak bhojanakee to kaun kahe, jalakee ek boond bhee grahan naheen karoongaa.' jyon hee sau varsh samaapt honeko aaye ki ek ajnaat purush jalase bhara hua ek ghada़a lekar kaalabheetike paas aaya aur pranaam karake us tapasvee braahmanase kahane lagaa-'he mahaamati kaalabheeti! aaj tumhaara anushthaan bhagavaan shankarakee kripaase poorn ho gaya hai. tumhen bhookha-pyaas sahate poore sau varsh ho gaye hain. main bada़e premase atyant pavitr hokar yah jal tumhaare liye le aaya hoon. tum kripa karake ise sveekaar karo aur mere shramako saphal karo.'

kaalabheetiko vaastavamen pyaas bahut sata rahee theen. anjalibhar paaneeke liye unake praan chhatapata rahe the. parantu sahasa ek aparichit vyaktike dvaara laaya hua jal grahan karana unhonne uchit naheen samajhaa. ve shankaapoorn | netronse us aagantuk purushakee or dekhate hue bole- aap kaun hain? aapakee jaati kya hai aur aapaka aachaar kaisa hai, kripaakar bataaiye. aapakee jaati aur aachaarako jaan leneke baad hee main aapake laaye hue jalako grahan kar sakata hoon.' isapar vah aparichit vyakti bolaa- 'tapodhana! mere maataa-pita is lokamen hain ya naheen, isaka bhee mujhe pata naheen hai. unake vishayamen main kuchh bhee naheen jaanataa. main sada isee dhangase rahata hoon. aachaar athava dharmase, mera koee prayojan naheen hai. atah aachaarakee baat main kya kah sakata hoon? sach poochhiye to main kisee aachaar vichaaraka paalan bhee naheen karataa.' kaalabheeti bole- 'yadi aisee baat hai, tab to mainaapase kshama chaahata hoon. main aapake diye hue jalako grahan naheen kar sakataa. is sambandh mere gurudev tisamm upadesh mujhe diya hai, use main aapako sunaata hoon. jisake kulaka haal athava raktashuddhika pata n ho, saadhu vyakti usake diye hue ana-jalako grahan naheen karate. isee prakaar jo vyakti bhagavaanake sambandhamen kuchh shree jnaan naheen rakhata aur n unakee bhakti karata hai, usake haathaka ana-jal bhee grahan karane yogy naheen hotaa. bhagavaanako arpan kiye bina jo vyakti bhojan karata hai, use bada़a paap lagata hai. gangaajal bhare hue ghada़e men ek boond mandiraake mil jaanese jaise yah apavitr ho jaata hai, usee prakaar bhagavaanko bhakti n karanevaaleka ann chaahe kitanee hee pavitrata banaaya gaya ho, apavitr hee hota hai. parantu yadi koee manushy shivabhakt bhee ho, parantu usakee jaati aur aachaar bhrasht ho to usaka an bhee naheen khaaya jaataa. ana-jalake sambandhamen shaastraam donon baatonka vichaar rakha gaya hai. an ya jala-jo kuchh bhee grahan kiya jaay, vah bhagavaanko arpit ho aur jisake dvaara yah an athava jal laaya gaya hai, vah jaati tatha aachaarakee drishtise pavitr ho."

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kaalabheetike in vachanonko sunakar vah manushy hansane laga aur bolaa-'are tapasvee tum tap evan vidyaase sampann honepar bhee mujhe nitaant moorkh prateet hote ho. tumhaaree is baatako sunakar mujhe hansee aatee hai. are naadaan kya tum naheen jaanate ki bhagavaan shiv sabhee bhootonke andar samaanaroopase nivaas karate hain? aisee dasha men kiseeko pavitr aur kiseeko apavitr kahana kadaapi uchit naheen hai. apavitr kahakar kiseekee ninda karana prakaaraantarase usake andar rahanevaale bhagavaan shankarakee hee ninda karana hai. jo manushy apane athava doosareke andar bhagavaanakee satta sambandhamen sandeh karata hai, mrityu us bhedajnaanee manushyake liye vishesh roopase bhayadaayak hotee. hai. phir jara vichaaree to sahee ki jalamen apavitrata a hee kaise sakatee hai. jis paatramen ise main le aaya hoon, yah mitteeka bana hua hai-mittee bhee aisee-vaisee naheen, kintu avenkee aagamen bhaleebhaanti tapaayee huee aur phir vah jalakedvaara shuddh ho chukee hai. mrittika, jal aur agni-inamense kauna-see vastu apavitr hai? yadi kaho ki hamaare sansarg yah jal apavitr ho gaya hai, to yah kahana bhee theek naheen. kyonki tum aur ham donon hee is mitteese hee to bane hain aur mitteepar hee sada rahate hain mere sansarg yadi jal ashuchi ho sakata hai to jis jameenapar main khada़a hoon, vah jameen bhee mere sansargase apavitr ho jaanee chaahiye. tab to tumhen bhoomiko chhoda़kar aakaashamen vicharan karana hogaa. in sab baatonpar vichaar karanese tumhaaree ukti mujhe nitaant moorkhataapoorn prateet hotee hai.'

kaalabheetine kahaa- 'avashy hee bhagavaan shankaraka sabhee bhootonmen nivaas hai. parantu is baatako lekar jo sab bhootonkee vyavahaaramen samaanata karata hai, vah anaadika parityaag karake mrittika athava bhasmase udarapoorti kyon naheen karataa? kyonki usake mataanusaar anamen jo bhagavaan hain, ve hee to mrittika aur bhasmamen bhee hain. parantu usakee yah maanyata theek naheen. paramaarth drishtise sab kuchh shivaroop honepar bhee vyavahaaramen bhed aavashyak hai. iseeliye shaasvamen naana prakaarakee shuddhike vidhaan paaye jaate hain aur unake phal bhee alaga-alag nirdisht hue hain. shaastrakee aajnaake viruddh aacharan karana kadaapi uchit naheen hai. jo shaastr bhagavaan shivakee satta sarvatr batalaate hain, ve hee vyavahaaramen bhedaka bhee vidhaan karate hain. shaastrakee ek yaat to maanee jaay aur doosaree n maanee jaay, yah kahaantak uchit hai. donon hee baaten apanee-apanee drishtise theek hain aur dononkee paraspar sangati bhee hai.'

'shruti kahatee hai ki baahara-bheetarakee pavitrata rakho. isee baatako itihaas puraan in shabdonmen kahate hain- yadi paralokamen sukhee rahana chaahate ho aur konse bachana chaahate ho, to shauchaachaaraka paalan karo. prithveepar rahanevaale vyaktiyonke liye shauchaachaaraka paalan avashyakartavy hai. aisee dashaamen yadi aap shrutiyonkee avahelana karake 'sab kuchh shivamay hai' yah kahakar vyavahaarake bhedako mitaana chaahate hain to phir bataaiye, kya shruti-puraanaadi shaastr vyarth naheen ho jaayenge? aap jo yah kahate hain ki bhagavaan shiv sabhee bhootonmen sthit hain, yah theek hai. bhagavaan shiv sarvatrahain, yah baat aksharashah saty hai. phir bhee vyaktibhedase unakee sattaamen bhee bhed kaha ja sakata hai. isake liye main aapako ek drishtaant deta hoon. yadyapi sabhee soneke gahane suvarn naamakee ek hee dhaatuse bane hue hote hain, tab bhee sabaka sona ek hee daamaka athava ek hee rangaka naheen hotaa. unamense ekaka sona ekadam shuddha-takasaalee hota hai. doosareka usakee apeksha kuchh neeche darjeka hota hai aur teesareka aur bhee nikrisht hota hai. parantu yah to maanana hee pada़ega ki sabhee suvarnake gahanonmen sona maujood hai. saath hee yah bhee sveekaar karana hoga ki sabhee gahanonka sona ek sa naheen hai. isee prakaar bhagavaan shiv bhee sab bhootonmen hain avashya; parantu ekake andar unaka prakaash atyant shuddh hai, doosareke andar vah utana shuddh naheen hai aur tosareke andar vah aur bhee malin hai. is prakaar samast padaarthon men vyavahaarakee drishtise samata naheen kee ja sakatee. jis prakaar nikrisht shreneeka sona daahaadike dvaara shodhit hokar kramasha: utkarshako praapt hota hai, usee prakaar malin antahkaran tatha malin dehavaale jeev shauchaadike dvaara shuddh hokar hee shuddh shivatvake adhikaaree hote hain. saamaany shauchaadike dvaara sahasa shuddh shivatvaka laabh sambhav naheen hai, iseeliye shaastron men deha-shodhanakee aavashyakata bataayee gayee hai. deh shodhit honepar hee dehee svargaadi uchch lokonko praapt ho sakata hai. is prakaar jo buddhimaan purush dehashodhanakee ichchha rakhate hain, ve chaahe jis vyaktise anna-jal naheen grahan karate. isake vipareet jo log shauchaachaaraka vichaar n karake chaahe jisaka anna-jal grahan kar lete hain, ve pavitr aacharanavaale honepar bhee kuchh hee samayamen tamogunase aachchhann hokar jadeebhoot ho jaate hain. isaliye main aapaka yah jal grahan naheen kar sakataa. isake liye aap mujhe kshama karen.'

tapasveeke is shaastraanumodit evan yuktiyukt bhaashanako sunakar vah ajnaat manushy chup ho gayaa. usane pairake angoothese baat kee baatamen ek bada़aa-sa gaddha khod daala aur usamen us matakeke jalako undel diyaa. vah bada़a gaddha us thoda़ese jalase labaalab bhar gaya, phir bhee thoda़a jal us matake men bach rahaa. us bache hue jalase usane nikatavartee ek sarovarako bhar diyaa. is adbhut vyaapaarako dekhakarakaalabheeti tanik bhee vismit naheen hue. unhonne socha, bhootaadikee upaasana karanevaale bahudha is prakaarako aashcharyajanak ghatanaaen kar dikhaaya karate hain; parantu is prakaarake aakshayonse shrutimaargamen koee virodh naheen a sakataa.

bhakt kaalabheetike dridha़ nishchayako dekhakar vah aparichit vyakti sahasa jorase hansata hua antardhaan ho gayaa. kaalabheeti bhee yah dekhakar aashcharyamen doob gaye aur us vyaktike sambandhamen naana prakaarake oohaapoh karane lage. is prakaar jab ve vichaaramen doobe hue the ki unakee drishti sahasa us bilvavrikshake moolakee or gayee. vahaan unhonne dekha ki ek vishaal shivaling akasmaat praadurbhoot ho gaya hai. usake tejase dason dishaaen udbhaasit ho uthee hain. aakaashamen gandharvagan sumadhur gaan kar rahe hain aur apsaraaen nrity kar rahee hain. devaraaj indr usake oopar paarijaatake pushponkee varsha kar rahe hain tatha anyaany devata evan munigan bhee jay jayakaar karate hue naana prakaarase bhagavaan shankarakee stuti kar rahe hain. is prakaar vahaan bada़a bhaaree utsav hone lagaa. kaalabheetine bhee atyant aanandit hokar us svayambhoo lingako pranaam kiya aur stuti karate hue kahaa-

'jo paaparaashike kaal hain, sansaararoopee kardamake kaal hain, tatha kaalake bhee kaal hain, un kalaadhar, kaalakanth mahaakaalakee men sharan aaya hoon. aapako main baara-baar namaskaar karata hoon . hai shiva! aapase hee yah sansaar utpann hua hai aur aap svayan anaadi hain. jahaan-jahaan jisa-jis yonimen main janm leta hoon, vahaan-vahaan aap mere oopar karunaakee nirantar varsha karate hain. he eeshvar ! jo sansaarase virakt hokar aapake shadakshar mantraka jap karate hain, aap un samast muniganonpar bahut jaldee prasann ho jaate hain. he prabho! main usee 'oM namah shivaaya' is shadakshar mantraka nirantar jap karata hoon.'

bhaktashreshth kaalabheetikee stutiko sunakar bhagavaan shankar atyant prasann hue ve usee lingamense apane svaroopamen prakat ho gaye aur divy prakaashase trilokeeko prakaashit karate hue us braahmanase bole- 'dvijashreshth ! tumane is maheeteerthamen kathor tapasyaake dvaara jo meree aaraadhana kee hai, isase main tumapar bahut prasann hoon. abameree kripaase kaal bhee tumhaare oopar koee prabhaav naheen daal sakegaa. mainne hee manushy shareer dhaaran karake tumhaare vishvaasako pareeksha lee thee aur mujhe harsh hai ki us pareeksha tum poornataya saphal hue. tumhaare jaise dridhavishvaasee purush jis dharmaka aacharan karate hain, yahee dharm vaastavamen shreshth hai. main tumhaare liye jo jal le aaya tha, vah samast teethonka jal hai aur atyant pavitr hai. mainne usake dvaara hee us gaddhe evan sarovarako bhara hai. ab tum mujhase apana abhilashit var maango tumhaaree aaraadhanaase main itana adhik prasann hua hoon ki tumhaare liye mujhe kuchh bhee adey n hogaa.'

kaalabheetine kahaa- 'prabho! aapane mere prati jo prasannata prakat kee hai, usase main vaastavamen dhany ho gaya hoon. vaastavamen dharm vahee hai, jisase bhagavaan‌ko prasannata sampaadit hotee hai. jis dharmase aap bhagavaan‌kee santushti naheen hotee, vah dharm dharm hee naheen hai. ab aap yadi mujhapar prasann hue hain, to meree aapake charanonmen yahee praarthana hai ki aap avase sada is lingamen viraajamaan rahen, jisase ki is lingake prati jo kuchh bhee pooja archa kee jaay, vah akshay phal denevaalee ho jaaya.'

bhagavaan shankarane kaalabheetikee is nishkaam praarthanaako sveekaar karate hue kahaa- 'vatsa! tumane meree aaraadhanaake dvaara kaalamaargapar vijay praapt kee hai, isaliye tum bhee mahaakaal naamase vikhyaat hokar nandeeko bhaanti mere anuchararoopamen chirakaalatak mere lokamen sukhapoorvak nivaas karoge. kuchh hee dinon baad is sthaanapar karandham naamake raajarshi tumase milane aayenge, unhen dharmaka upadesh dekar tum mere lokamen chale aanaa. bhagavaan shiv yah kahakar us lingake andar lon ho gaye. isake baad mahaakaal bhee aanandapoorvak us sthaanamen rahakar tapasya karane lage.

kuchh dinon baad raaja karandham mahaakaalateerthaka maahaatmy aur mahaakaalake charitrako katha sunakar dharmake sambandhamen vishesh tattv jaanane kee ichchhaase vahaan aaye. mahaakaal lingaka darshan karake karandham raajaake aanandakee seema n rahee. unhonne us samay apane jeevanako saphal samajhaa. isake baad mahaamahopachaarase unhonne mahaakaalalingakee pooja kee aur phir bhaktavar mahaakaalake paas pahunchakar pranaam kiyaa. raajaako aate dekhakar mahaakaalako bhagavaan shankaraka vachan smaran ho aaya aur unhonne haasyayukt vadanase raajaake saamane aakar unaka svaagat kiya aur arghy paadyaadi upachaaronke dvaara unaka satkaar kiyaa. raaja karandhamane shaantamoorti bhaktavar mahaakaal se kushal prashnake anantar anekon dharmavishayak prashn kiye aur mahaakaalane un sabaka shaastraanumodit uttar dekar | raajaaka samaadhaan kiyaa. unake upadeshaka saar yahee thaa. ki gharamen hee rahakar is lokamen dharm, arth, kaam tatha mrityuke baad moksh praapt karaneka ekamaatr upaay maaheshvar dharmaka paalan arthaat sab prakaarase bhagavaan shankarake sharan hokar unakee bhakti karate hue unheenko preeti ke liye varnaashramochit kartavyaka paalan karana hai.

is prakaar mahaakaal vividh dharmoka upadesh kar hee rahe the ki sahasa aakaashamen bada़a bhaaree shabd hone lagaa. mahaakaalane us or taaka to ve kya dekhate hain ki brahma, vishnu, rudr, unake anuchar tatha bhagavatee sahit svayan bhagavaan shankar a rahe hain. unake saath indraadi devata, vasishthaadi muneeshvar tatha tumburu prabhooti gandharv hain. mahaamati mahaakaalane bhaktinirbhar chittase uthakar sabakee abhyarthana kee aur anek prakaarase pooja kee brahmaadi devataaonne mahaakaalako uttam ratnasinhaasanapar bithaakar us maheesaagar sangam kshetramen unaka abhishek kiyaa. devee bhagavateene mahaakaalako vaatsaly bhaavase aalinganakar godamen bithaaya aur putravat pyaar karatee huee boleen- 'shivavrataparaayan vats yah brahmaand jabatak rahega, tabatak tum shivabhaktike prabhaavase shivalokamen nivaas karoge.'

us samay brahma, vishnu prabhriti devagan saadhu-saadhu kahakar mahaakaalakee prashansa aur stuti karane lage, chaaranalog unaka gunagaan karane lage aur gandharvagan manohar gaanake dvaara unhen prasann karane lage. karoड़on shivajeeke gan unakee stuti karate hue unhen gherakar chaaron or khada़e ho gaye. is prakaar apoorv samaarohake saath bhaktashreshth mahaakaal apane aaraadhyadevake saath sashareer shivalokako chale gaye.

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श्यामा प्यारी मेरे साथ हैं,
फिर डरने की क्या बात है
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दासी की झोली भर दो लाडली श्री राधे॥
अपने दिल का दरवाजा हम खोल के सोते है
सपने में आ जाना मईया,ये बोल के सोते है
कान्हा की दीवानी बन जाउंगी,
दीवानी बन जाउंगी मस्तानी बन जाउंगी,
वृदावन जाने को जी चाहता है,
राधे राधे गाने को जी चाहता है,
शिव समा रहे मुझमें
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अपनी वाणी में अमृत घोल
अपनी वाणी में अमृत घोल
तमन्ना यही है के उड के बरसाने आयुं मैं
आके बरसाने में तेरे दिल की हसरतो को
दुनिया का बन कर देख लिया, श्यामा का बन
राधा नाम में कितनी शक्ति है, इस राह पर
राधे राधे बोल, राधे राधे बोल,
बरसाने मे दोल, के मुख से राधे राधे बोल,
हरी नाम नहीं तो जीना क्या
अमृत है हरी नाम जगत में,
बृज के नन्द लाला राधा के सांवरिया
सभी दुख: दूर हुए जब तेरा नाम लिया
रंगीलो राधावल्लभ लाल, जै जै जै श्री
विहरत संग लाडली बाल, जै जै जै श्री
मन चल वृंदावन धाम, रटेंगे राधे राधे
मिलेंगे कुंज बिहारी, ओढ़ के कांबल काली
यशोमती मैया से बोले नंदलाला,
राधा क्यूँ गोरी, मैं क्यूँ काला
हम राम जी के, राम जी हमारे हैं
वो तो दशरथ राज दुलारे हैं
सांवरिया है सेठ ,मेरी राधा जी सेठानी
यह तो सारी दुनिया जाने है
ऐसी होली तोहे खिलाऊँ
दूध छटी को याद दिलाऊँ
यह मेरी अर्जी है,
मैं वैसी बन जाऊं जो तेरी मर्ज़ी है
कोई पकड़ के मेरा हाथ रे,
मोहे वृन्दावन पहुंच देओ ।
कारे से लाल बनाए गयी रे,
गोरी बरसाने वारी
प्रभु मेरे अवगुण चित ना धरो
समदर्शी प्रभु नाम तिहारो, चाहो तो पार
मेरे बांके बिहारी बड़े प्यारे लगते
कही नज़र न लगे इनको हमारी
दाता एक राम, भिखारी सारी दुनिया ।
राम एक देवता, पुजारी सारी दुनिया ॥
फूलों में सज रहे हैं, श्री वृन्दावन
और संग में सज रही है वृषभानु की
तू कितनी अच्ची है, तू कितनी भोली है,
ओ माँ, ओ माँ, ओ माँ, ओ माँ ।
मुँह फेर जिधर देखु मुझे तू ही नज़र आये
हम छोड़के दर तेरा अब और किधर जाये
मीठे रस से भरी रे, राधा रानी लागे,
मने कारो कारो जमुनाजी रो पानी लागे
श्याम तेरी बंसी पुकारे राधा नाम
लोग करें मीरा को यूँ ही बदनाम
कैसे जीऊं मैं राधा रानी तेरे बिना
मेरा मन ही न लगे श्यामा तेरे बिना

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