प्राचीन कालमें पुण्यसलिला नर्मदाके पावन तटपर नर्मपुर नामक एक अति रमणीय छोटा-सा गाँव था। उसमें विश्वानर नामक एक पुण्यात्मा ब्रह्मचारी रहते थे। उनके मुखपर ब्रह्मतेज था, इन्द्रियाँ वशमें थीं, हृदय पवित्र था और वे प्रायः स्वाध्यायमें लगे रहते थे। वे भगवान् शङ्करके अनन्य भक्त थे।
जब उन्होंने ब्रह्मचर्याश्रममें वेद-वेदाङ्गोंका अध्ययन पूरा कर लिया, तब उनकी व्यवहारक्षेत्रमें उतरनेकी इच्छा हुई। विश्वानरते मनमें विचार किया कि 'गृहस्थाश्रम ही अन्य तीन आश्रमोंका आधार है। देवता, पितर, मनुष्य और पशु-पक्षी भी गृहस्थोंका ही आश्रय लेते हैं। स्नान, हवन और दान गृहस्थके लिये आवश्यक धर्म हैं। इस आश्रममें जपके लिये भी कोई बाधा नहीं है। चित्त स्वभावसे ही चञ्चल है। गृहस्थका चित्त एक स्त्रीमें बँधा रहता है। चरित्रकी रक्षाके लिये धर्मपत्नी उसका कवच है। यदि मैं विवाह नहीं करूँ, हठसे, लोकलाजसे अथवास्वार्थवश ब्रह्मचारीके ही वेशमें रहूँ और मेरे मनमें बुरी वासनाएँ आयें- आती रहें तो मेरा वह ब्रह्मचर्य किस कामका? यदि गृहस्थ परस्त्रीपर कुदृष्टि न डाले, अपनी स्त्रीसे ही सन्तुष्ट रहे और ऋतुकालमें सहवास करे तो वह गृहस्थ होनेपर भी ब्रह्मचारी ही है। जो राग-द्वेषसे रहित होकर सदाचारपूर्वक गृहस्थजीवन व्यतीत करता है, वह वानप्रस्थसे भी श्रेष्ठ है। क्षणिक वैराग्यके आवेशमें आकर कोई घर छोड़ दे और घरकी बातोंका ही चिन्तन करता रहे तो उसे त्यागका कोई फल नहीं मिलता। जो गृहस्थ किसीसे किसी वस्तुकी याचना नहीं करता, भगवान् जिस परिस्थितिमें रखें, उसीमें प्रसन्न रहता है, वह उन संन्यासियोंसे बहुत ही उत्तम है, जो भोजनके अतिरिक्त किसी भी वस्तुकी भिक्षा माँगते हैं। अतएव मुझे गृहस्थाश्रमको ही स्वीकार करना चाहिये।'
तदनन्तर शुभ मुहूर्तमें उन्होंने अपने अनुरूप कुलीन कन्यासे विवाह किया और गृहस्थधर्मके अनुसार सदाचारकापालन एवं भगवान्का स्मरण-चिन्तन करते हुए अपना जीवन व्यतीत करने लगे। उनकी पत्नीका नाम शुचिष्मती था। वे अपने पतिको हो भगवान्का स्वरूप मानकर उनकी सेवा करती थीं। पञ्च-महायज्ञ-देवता, पितर और अतिथियोंकी पूजा सेवा प्रतिदिन होती विश्वानरके 1 पूजा-पाठ एवं अर्थोपार्जनका समय निश्चित था। उनका प्रत्येक काम धर्मकी प्रेरणासे युक्त ही होता था। उनकी 'धर्मपत्नी उनके प्रत्येक कार्यमें निःसङ्कोच सहायता करती थीं। वे दो शरीर, एक प्राण थे। उनका जीवन सुखमय था। भगवान्का प्रेम दोनोंके हृदयसे छलकता रहता था। इस प्रकार बहुत दिन बीत गये।
सन्तान न होनेसे शुचिष्मतीका मन दुःखी रहता था। उसने एक दिन पतिसे कहा। उनके मनमें आयी, इसके लिये भगवान् शङ्करको आराधना करनी चाहिये और इसके बाद अपनी पत्नीको आश्वासन देकर उन्होंने इस कार्यके लिये काशीकी यात्रा की।
काशी भगवान् शङ्करका नित्य निवासस्थान है। काशीमें पहुँचते ही विश्वानरके त्रिविध ताप शान्त हो गये, सैकड़ों जन्मोंके संस्कार धुल गये। उन्होंने गङ्गाखान करके भगवान् शङ्करकी विविध लिङ्ग मूर्तियोंका दर्शन - और पूजन किया। यज्ञ करके सहस्र सहस्र ब्राह्मण संन्यासियोंको भोजन कराया। अन्तमें उन्होंने यह निश्चय किया कि भगवान् वीरेश्वरकी आराधना करनी चाहिये। 'अबतक बहुत से स्त्री-पुरुषोंने वीरेश्वरकी आराधना करके अपनी-अपनी अभिलाषा पूर्ण की है में इन्हों आराधना करूँगा, इन्होंकी सेवा-अर्चासे इन्हें पुत्ररूपमें प्राप्त करूँगा।' ऐसा दृढ़ निश्चय करके विश्वानर भगवान्की उपासनामें लग गये।
उन्होंने तेरह महीनेतक भगवान्को पूजा को कभी एक समय खा लेते; कभी बिना माँगे जो कुछ मिल जाता, वही खाकर रह जाते; कभी दूध पी लेते; कभी फल खा लेते; कभी कुछ नहीं खाते एक महीनेतक एक मुट्ठी तिल प्रतिदिन खाकर रह गये। किसी महीने में पानी ही पीकर रह गये तो किसी महीनेमें वह भी नहीं। इस प्रकार घोर तपस्या करते हुए उन्होंने बारह महीने व्यतीत किये। तेरहवें महीने एक दिन प्रातःकाल हीगङ्गास्थान करके भगवान्की पूजा करनेके लिये आये। उन्होंने जब मूर्तिकी ओर देखा, तब बीचो-बीच लिङ्गमें एक बालक दिखायी पड़ा। आठ वर्षकी अवस्था मालूम पड़ती थी। सब अङ्गोंमें भस्म लगा हुआ था। बड़ी-बड़ी आँखें थीं, लाल-लाल अधर थे, सिरपर पीली जटा और मुखपर हँसी थी। बालकोचित वेश था, शरीरपर वस्त्र नहीं था। लीलापूर्ण हँसीसे चित्तको मोह रहा था। यह बालक बालक नहीं, साक्षात् भगवान् शङ्कर थे। विश्वानर अपने इष्टदेवको पहचानकर उनके चरणोंपर गिर पड़े और आँखोंके जलसे उनका अभिषेक किया। रोमाञ्चित शरीर एवं गढ़द कण्ठसे अञ्जलि बाँधकर उन्होंने स्तुति को और उनके चरणोंपर गिर पड़े। भगवान् शङ्करने कहा- 'तुम्हारी जो इच्छा हो, माँग लो।' विश्वानरने कहा- 'प्रभो! आप सर्वज्ञ हैं; आपके लिये अज्ञात क्या है? एक तो मैंने इच्छा करके ही अपराध किया; दूसरे, अब आप याचना करनेको कह रहे हैं! याचना तो दीनताकी मूर्ति है। आप जान-बूझकर मुझे इसके लिये क्यों प्रेरित कर रहे हैं?' भगवान् शङ्करने कहा- 'तुम्हारी अभिलाषा पूर्ण होगी। शुचिष्मतीकी इच्छा पूर्ण करनेके | लिये तुमने जो तपस्या की है, वह सर्वथा उचित है। मैं एक रूपसे तुम्हारा पुत्र बनूँगा। मेरा नाम गृहपति, अग्नि अथवा वैश्वानर होगा।' इतना कहकर भगवान् अन्तर्धान हो गये और विश्वानर बड़े आनन्दके साथ भगवान्का स्मरण करते हुए अपने घर लौट आये।
समयपर शुचिष्मती गर्भवती हुई। विश्वानरने शास्त्रके अनुसार सभी संस्कार किये। जिस दिन पुत्रजन्म हुआ, उस दिन सब दिशाएँ आनन्दसे परिपूर्ण हो गयीं। नवजात शिशुका जातकर्म संस्कार और श्रुतिके अनुसार नामकरण किया गया। शिशुका नाम गृहपति रखा गया। पाँचवें वर्ष यज्ञोपवीत संस्कारके साथ ही कुमारका वेदाध्ययन प्रारम्भ हुआ। कुल तीन वर्षके समय में समस्त शास्त्रोंका साङ्गोपाङ्ग अध्ययन करके जब कि दूसरोंके लिये इतने अल्पकालमें उनका परायण भी असम्भव है-वैश्वानर अपने पिताके पास लौट आये और उन्होंने अपने विनय, सेवा, सहिष्णुता आदिसे न केवल अपने माता-पिताको, बल्कि सभी लोगोंको चकित कर दिया। बालकोंकाएकमात्र कर्तव्य है माता-पिताको सेवा, उनकी आज्ञाका पालन और सबके साथ विनयका व्यवहार वैश्वानर इसके आचार्य थे, आदर्श थे। विद्याके साथ विनय भी चाहिये, यही मणिकाञ्चनसंयोग है।
एक दिन घूमते-घामते देवर्षि नारद नर्मपुरमें विश्वानरके घर आये। शुचिष्मती और विश्वानरने प्रेम और आनन्दसे भरकर उनका आतिथ्य सत्कार किया। वैश्वानर गृहपतिने आकर उनके चरणोंमें प्रणाम किया। देवर्षि नारदने आशीर्वाद देकर विश्वानरसे बालककी प्रशंसा करते हुए कहा- 'तुम्हारा दाम्पत्य-जीवन धन्य है। यह तुम्हारा बड़ा सौभाग्य है कि तुम्हें ऐसा आज्ञाकारी पुत्र प्राप्त हुआ है। पुत्रके लिये तो इससे बढ़कर और कोई कर्तव्य ही नहीं है। उसके लिये माता-पिता ही गुरु और देवता हैं, उनकी सेवा ही सदाचार है। उनके चरणोंका जल ही तीर्थ है। पुत्रके लिये संसारमें पिता ही परमात्मा है, पितासे भी बढ़कर माता है; क्योंकि दस महीनेतक पेटमें रखना और बचपनमें पालन-पोषण करना माताका ही काम है। गङ्गा पवित्र जलसे अभिषेक करनेपर भी वैसी पवित्रता नहीं प्राप्त होती, जैसी माताके चरणामृतके स्पर्शसे प्राप्त होती है। संन्यास लेनेपर पुत्र पिताके लिये वन्दनीय हो जाता है, परंतु माता संन्यासी पुत्रके लिये भी वन्दनीया ही रहती है। तुम दोनों धन्य हो, क्योंकि तुम्हें ऐसा पुत्ररत्न प्राप्त हुआ है।' देवर्षि नारद जब यह कह रहे थे, माता-पिताके हृदयमें कितना हर्ष हुआ होगा—इसका अनुमान कौन कर सकता है।
देवर्षि नारदने वैश्वानरको अपने पास बुलाते हुए कहा- 'बेटा! आओ, मेरी गोदमें बैठ जाओ, मैं तनिक तुम्हारे शरीर के लक्षणोंको तो देखें। माता-पिताकी आज्ञासे वैश्वानर देवर्षि नारदको प्रणाम करके बड़ी नम्रतासे उनकी गोदमें बैठ गये। देवर्षि नारदने शरीरका एक-एक लक्षण देखा; तालू, जीभ और दाँत भी देखे। इसके पश्चात् गौरीशङ्कर और गणेशको नमस्कार करके कुङ्कुमसे रंगे हुए सूतसे उत्तर मुँह खड़े हुए बालकको पैरसे लेकर सिरतक नाप लिया। उसके बाद कहा- 'हे विश्वानर ! एक सौ आठ अङ्गुल जिसके शरीरका परिमाण होता है, वह लोकपाल होता है। तुम्हारा बालकवैसा ही है। इसके शरीरमें उत्तम पुरुषके बत्तीसों लक्षण मिलते हैं। इसके पाँच अङ्ग दीर्घ हैं- दोनों नेत्र, ठोड़ी, जानु और नासिका । पाँच अङ्ग सूक्ष्म है-त्वचा, केश, दाँत, उँगलियाँ और उँगलियोंकी गाँठें। इसके तीन अङ्ग हस्व है-ग्रीवा, जङ्घा और मूत्रेन्द्रिय स्वर, अन्तःकरण और नाभि- ये तीन गम्भीर हैं। इसके छः स्थान ऊँचे हैं- वक्ष:स्थल, उदर, मुख, ललाट, कंधे और हाथ। इसके सात स्थान लाल हैं-दोनों हाथ, दोनों आँखोंक कोने, तालु, जिह्वा, ओष्ठ, अधर और नख तीन स्थान विस्तीर्ण हैं- ललाट, कटि और वक्षःस्थल। इन लक्षणोंसे यह सिद्ध होता है कि यह बालक महापुरुष है।' देवर्षि नारदने इनके अतिरिक्त माता-पिताको और बहुत-से लक्षण दिखाये, जिनसे इस बालककी असाधारणता सिद्ध होती थी। माता-पिता सुनते-सुनते अघाते न थे। वे चाहते थे देवर्षि और कुछ कहें। देवर्षिने भी अपनी ओरसे कोई बात उठा न रखी।
देवर्षिने अन्तमें कहा—'इस बालकमें सब गुण हैं, सब लक्षण हैं; यह निष्कलङ्क चन्द्रमा है; फिर भी ब्रह्मा इसे छोड़ेंगे नहीं विधाता के विपरीत होनेपर सारे गुण दोष बन जाते हैं। अभी इसका नवीं वर्ष चल रहा है, बारहवें वर्ष विद्युत्के द्वारा इसकी मृत्यु हो सकती है।' इतना कहकर देवर्षि नारद आकाशमार्गसे चले गये। माता-पिताके हृदयपर तो मानो अभी वज्रपात हो गया। वैश्वानरने देखा, मेरे मा-बाप बहुत दुःखी हो रहे हैं। उन्होंने मुसकराकर कहा-मा! तुमलोग इतने डर क्यों गये? तुम्हारे चरण कमलोंको धूलि जब मैं अपने सिरपर रखे रहूँगा, तब काल भी मेरा स्पर्श नहीं कर सकता - वज्रमें तो रखा ही क्या है। मेरे अनन्य स्नेही पूजनीयो ! मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि यदि मैं तुम्हारा पुत्र हूँ तो ऐसा काम कर दिखाऊँगा कि वज्र और मृत्यु दोनों मुझसे भयभीत रहेंगे। मैं भगवान् मृत्युञ्जयकी आराधना करूँगा। वे कालके भी काल है, उनकी कृपासे कुछ भी असम्भव नहीं है।' वैश्वानरकी वाणी क्या थी, अमृतकी वर्षा थी। माता-पिताका हृदय शीतल हो गया। उनके सुखकी सीमा न रही। वे बोले-'भगवान् शङ्कर बड़े दयालु हैं। उन्होंने एक नहीं, अनेकोंको रक्षा की है। प्रलयकीती हुई आग वह हलाहल विष - जिसकी ज्वालासे । त्रिलोकी भस्म हो जाती-करुणापरवश होकर भगवान् | शहूर पी गये। उनसे बढ़कर दयालु और कौन हो सकता हैं। जाओ, तुम उन्होंकी शरण में जाओ। उनका आराधन ही जीवनकी पूर्णता है।' वैश्वानरने पिता-माताके चरणों में प्रणाम किया, उन्हें आश्वासन दिया और प्रदक्षिणा करके | काशीकी यात्रा की।
वैधानरका हृदय काशीके दर्शनमात्रसे खिल उठा। मणिकर्णिका घाट पर खान करके विश्वेश्वरका दर्शन किया इतना सुन्दर, इतना मनोहर दर्शन मानो परमानन्द ही उस लिङ्गके रूपमें प्रकट हो गया हो। वैश्वानरने सोचा- 'मैं धन्य है, त्रिलोकीके सारसर्वस्व शङ्करका दर्शन करके मेरा बड़ा सौभाग्य है कि मैं अपने प्रभुके दर्शनसे सनाथ हुआ। देवर्षि नारदने मुझपर बड़ी कृपा की, जिससे जीवनका यह परम लाभ मुझे प्राप्त हुआ। मैं अब कृतकृत्य हूँ।' वैश्वानरके हृदयमें आनन्दमय भावोंकी बाढ़ आ गयी।
भगवान्की भक्तिका रहस्य भगवान् ही जानते हैं। अल्पज्ञ जीव अनन्त प्रेमार्णवके एक सीकरको भी तो कल्पना नहीं कर सकता। इसीसे करुणापरवश भगवान् भक्तके वेशमें आते हैं। भक्त कभी भगवान्से विभक्त नहीं होते। चाहे भगवान् भक्तके हृदयमें प्रकट होकर प्रेमकी लीला करें, चाहे भक्के रूपमें दोनों में एक ही बात है। आज साक्षात् शङ्कर भी जीवोंके कल्याणके लिये भक्तोंका साज सज रहे हैं। यह उनके लिये तो एक लीला है; परंतु जीवोंके लिये भक्ति भावनाका, आराधनाका एक सुन्दर आदर्श है। इस मार्गपर चलकर भला, कौन नहीं अपना कल्याण साधन कर सकता।
वैश्वानरने शुभ मुहूर्तमें शिवलिङ्गको स्थापना की। पूजाके बड़े कठोर नियम स्वीकार किये। प्रतिदिन गङ्गाजीसे एक सौ आठ घड़े जल लाकर चढ़ाना, एक हजार आठ नीले कमलोंकी माला चढ़ाना, छः महीनेतक सप्ताह में एक बार कन्दमूल खाकर रह जाना, छः महीनेतक सूखे पत्ते खाना, छः महोनेतक जल और छ महीनेतक केवल हवाके आधारपर रहना। जप, पूजा, पाठ, निरन्तर भगवान् शङ्करका चिन्तन सरल हृदयभक्ति भावनाओंसे परिपूर्ण कभी भगवान्को कर्पूर धवल, भस्मभूषित, सर्पपरिवेष्टित दिव्यमूर्तिका ध्यान तो कभी करुणापूर्ण हृदयसे गद्गद प्रार्थना। दो वर्ष बीत गये पलक मारते-मारते। सुखके दिन, सौभाग्यके दिन यों ही बीत जाया करते हैं। एक दिन जब वैश्वानरका बारहवाँ वर्ष चल रहा था, मानो नारदकी बात सत्य करनेके लिये हाथमें वज्र लिये हुए इन्द्र आये। उन्होंने कहा- 'वैश्वानर! मैं तुम्हारी नियम-निवासे प्रसन्न हूँ तुम्हारे हृदयमें जो अभिलाषा हो, मुझसे कहो मैं उसे अवश्य पूर्ण करूंगा।' वैश्वानरने बड़े ही कोमल स्वरमें कहा- 'देवेन्द्र । मैं आपको जानता हूँ, आप सब कुछ कर सकते हैं; परंतु मेरे स्वामी तो एकमात्र भगवान् शङ्कर हैं, मैं उनके अतिरिक्त और किसीसे वर नहीं ले सकता।' इन्द्रने कहा- 'बालक! तू मूर्खता क्यों कर रहा है? मुझसे भिन्न | शङ्करका कोई अस्तित्व नहीं है मैं ही देवाधिदेव हूँ। जो तुझे चाहिये, मुझसे माँग ले।' वैश्वानरने कहा- 'इन्द्र ! आपका चरित्र किससे छिपा है। मैं तो शङ्करके अतिरिक्त और किसीसे वर नहीं माँग सकता।' इन्द्रका चेहरा लाल हो गया। उन्होंने अपने हाथमें स्थित भयङ्कर वज्रसे वैश्वानरको डराया। वज्रकी भीषण आकृति देखकर, जिसमेंसे विद्युत्की लपटें निकल रही थीं, वैश्वानर मानो मूर्छित हो गये। ठीक इसी समय भगवान् गौरीशङ्करने प्रकट होकर अपने कर-कमलोंके अमृतमय संस्पर्शसे वैश्वानरको उज्जीवित करते हुए कहा-'पेटा! तुम्हारा कल्याण हो ! उठो, उठो देखो तो सही तुम्हारे सामने कौन खड़ा है। उस सुधा मधुर वाणीको सुनकर वैश्वानरने अपनी आँखें खोलीं और देखा कि कोटि कोटि सूर्यके समान प्रकाशमान भगवान् शङ्कर सामने खड़े हैं। ललाटपर लोचन, कण्ठमें कालिमा, बायीं ओर जगज्जननी पार्वती जटामें स्थित चन्द्रमाको किरणें आनन्दको वर्षा कर रही थीं कर्पूरोम्म्वल शरीरपर गजचर्मका आच्छादन और साँपोंके आभूषण आनन्दके | उद्रेकसे वैश्वानरका गला भर आया, शरीर पुलकायमान हो गया, बोलनेकी इच्छा होनेपर भी जबान बंद हो गयी। वैश्वानर चित्रलिखेकी भाँति स्थिर हो गया। अपने आपको भी भूल गया। न नमस्कार, न स्तोत्र और न तोप्रार्थना। एक ओर गौरीशङ्कर और दूसरी ओर वैश्वानर ! वैश्वानर चकित था, भगवान् शङ्कर मुसकरा रहे थे।
भगवान् शङ्करने मौन भङ्ग किया। वे बोले-'बाल वैश्वानर ! क्या तुम इन्द्रका वज्र देखकर भयभीत हो गये ? डरो मत, मैंने ही इन्द्रका रूप धारण करके तुम्हें परखना चाहा था। जो मेरे प्रेमी भक्त हैं, वे तो मेरे स्वरूप ही हैं; और तुम, तुम तो मेरे स्वरूप हो ही । इन्द्र, वज्र अथवा यमराज मेरे भक्तका बाल भी बाँका नहीं कर सकते। तुम्हारी जो इच्छा हो, वह मैं पूर्ण कर सकता हूँ। तुम्हें मैंने अग्निका पद दिया। तुम समस्त देवताओंके मुख बनोगे। सब देवता तुम्हारे द्वारा ही अपना-अपना भाग ग्रहण कर सकेंगे। समस्त प्राणियोंके शरीरमें तुम्हारानिवास होगा। पूर्व दिशाके अधिपति इन्द्र हैं और दक्षिण दिशाके यमराज। तुम दोनोंके बीचमें दिक्पाल - रूपसे निवास करो। तुम आजसे आग्नेय कोणके अधिपति हुए। अपने पिता, माता और बन्धुजनोंके साथ विमानपर चढ़कर तुम अग्निलोकमें जाओ और अपने पदके अनुसार कार्य करो।' भगवान् शङ्करके इतना कहते ही वैश्वानरके माता-पिता, बन्धु-बान्धव सब वहाँ उपस्थित हो गये। सबके साथ भगवान् शङ्करके चरणोंमें नमस्कार करके वैश्वानर अग्नि अपने लोकको चले गये और भगवान् शङ्कर उसी लिङ्गमें समा गये, जिसकी पूजा वैश्वानर किया करते थे। भगवान् शङ्करने स्वयं उस | लिङ्गकी बड़ी महिमा गायी है।
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samayapar shuchishmatee garbhavatee huee. vishvaanarane shaastrake anusaar sabhee sanskaar kiye. jis din putrajanm hua, us din sab dishaaen aanandase paripoorn ho gayeen. navajaat shishuka jaatakarm sanskaar aur shrutike anusaar naamakaran kiya gayaa. shishuka naam grihapati rakha gayaa. paanchaven varsh yajnopaveet sanskaarake saath hee kumaaraka vedaadhyayan praarambh huaa. kul teen varshake samay men samast shaastronka saangopaang adhyayan karake jab ki doosaronke liye itane alpakaalamen unaka paraayan bhee asambhav hai-vaishvaanar apane pitaake paas laut aaye aur unhonne apane vinay, seva, sahishnuta aadise n keval apane maataa-pitaako, balki sabhee logonko chakit kar diyaa. baalakonkaaekamaatr kartavy hai maataa-pitaako seva, unakee aajnaaka paalan aur sabake saath vinayaka vyavahaar vaishvaanar isake aachaary the, aadarsh the. vidyaake saath vinay bhee chaahiye, yahee manikaanchanasanyog hai.
ek din ghoomate-ghaamate devarshi naarad narmapuramen vishvaanarake ghar aaye. shuchishmatee aur vishvaanarane prem aur aanandase bharakar unaka aatithy satkaar kiyaa. vaishvaanar grihapatine aakar unake charanonmen pranaam kiyaa. devarshi naaradane aasheervaad dekar vishvaanarase baalakakee prashansa karate hue kahaa- 'tumhaara daampatya-jeevan dhany hai. yah tumhaara bada़a saubhaagy hai ki tumhen aisa aajnaakaaree putr praapt hua hai. putrake liye to isase badha़kar aur koee kartavy hee naheen hai. usake liye maataa-pita hee guru aur devata hain, unakee seva hee sadaachaar hai. unake charanonka jal hee teerth hai. putrake liye sansaaramen pita hee paramaatma hai, pitaase bhee badha़kar maata hai; kyonki das maheenetak petamen rakhana aur bachapanamen paalana-poshan karana maataaka hee kaam hai. ganga pavitr jalase abhishek karanepar bhee vaisee pavitrata naheen praapt hotee, jaisee maataake charanaamritake sparshase praapt hotee hai. sannyaas lenepar putr pitaake liye vandaneey ho jaata hai, parantu maata sannyaasee putrake liye bhee vandaneeya hee rahatee hai. tum donon dhany ho, kyonki tumhen aisa putraratn praapt hua hai.' devarshi naarad jab yah kah rahe the, maataa-pitaake hridayamen kitana harsh hua hogaa—isaka anumaan kaun kar sakata hai.
devarshi naaradane vaishvaanarako apane paas bulaate hue kahaa- 'betaa! aao, meree godamen baith jaao, main tanik tumhaare shareer ke lakshanonko to dekhen. maataa-pitaakee aajnaase vaishvaanar devarshi naaradako pranaam karake bada़ee namrataase unakee godamen baith gaye. devarshi naaradane shareeraka eka-ek lakshan dekhaa; taaloo, jeebh aur daant bhee dekhe. isake pashchaat gaureeshankar aur ganeshako namaskaar karake kunkumase range hue sootase uttar munh khada़e hue baalakako pairase lekar siratak naap liyaa. usake baad kahaa- 'he vishvaanar ! ek sau aath angul jisake shareeraka parimaan hota hai, vah lokapaal hota hai. tumhaara baalakavaisa hee hai. isake shareeramen uttam purushake batteeson lakshan milate hain. isake paanch ang deergh hain- donon netr, thoda़ee, jaanu aur naasika . paanch ang sookshm hai-tvacha, kesh, daant, ungaliyaan aur ungaliyonkee gaanthen. isake teen ang hasv hai-greeva, jangha aur mootrendriy svar, antahkaran aur naabhi- ye teen gambheer hain. isake chhah sthaan oonche hain- vaksha:sthal, udar, mukh, lalaat, kandhe aur haatha. isake saat sthaan laal hain-donon haath, donon aankhonk kone, taalu, jihva, oshth, adhar aur nakh teen sthaan visteern hain- lalaat, kati aur vakshahsthala. in lakshanonse yah siddh hota hai ki yah baalak mahaapurush hai.' devarshi naaradane inake atirikt maataa-pitaako aur bahuta-se lakshan dikhaaye, jinase is baalakakee asaadhaaranata siddh hotee thee. maataa-pita sunate-sunate aghaate n the. ve chaahate the devarshi aur kuchh kahen. devarshine bhee apanee orase koee baat utha n rakhee.
devarshine antamen kahaa—'is baalakamen sab gun hain, sab lakshan hain; yah nishkalank chandrama hai; phir bhee brahma ise chhoda़enge naheen vidhaata ke vipareet honepar saare gun dosh ban jaate hain. abhee isaka naveen varsh chal raha hai, baarahaven varsh vidyutke dvaara isakee mrityu ho sakatee hai.' itana kahakar devarshi naarad aakaashamaargase chale gaye. maataa-pitaake hridayapar to maano abhee vajrapaat ho gayaa. vaishvaanarane dekha, mere maa-baap bahut duhkhee ho rahe hain. unhonne musakaraakar kahaa-maa! tumalog itane dar kyon gaye? tumhaare charan kamalonko dhooli jab main apane sirapar rakhe rahoonga, tab kaal bhee mera sparsh naheen kar sakata - vajramen to rakha hee kya hai. mere anany snehee poojaneeyo ! main pratijna karata hoon ki yadi main tumhaara putr hoon to aisa kaam kar dikhaaoonga ki vajr aur mrityu donon mujhase bhayabheet rahenge. main bhagavaan mrityunjayakee aaraadhana karoongaa. ve kaalake bhee kaal hai, unakee kripaase kuchh bhee asambhav naheen hai.' vaishvaanarakee vaanee kya thee, amritakee varsha thee. maataa-pitaaka hriday sheetal ho gayaa. unake sukhakee seema n rahee. ve bole-'bhagavaan shankar bada़e dayaalu hain. unhonne ek naheen, anekonko raksha kee hai. pralayakeetee huee aag vah halaahal vish - jisakee jvaalaase . trilokee bhasm ho jaatee-karunaaparavash hokar bhagavaan | shahoor pee gaye. unase badha़kar dayaalu aur kaun ho sakata hain. jaao, tum unhonkee sharan men jaao. unaka aaraadhan hee jeevanakee poornata hai.' vaishvaanarane pitaa-maataake charanon men pranaam kiya, unhen aashvaasan diya aur pradakshina karake | kaasheekee yaatra kee.
vaidhaanaraka hriday kaasheeke darshanamaatrase khil uthaa. manikarnika ghaat par khaan karake vishveshvaraka darshan kiya itana sundar, itana manohar darshan maano paramaanand hee us lingake roopamen prakat ho gaya ho. vaishvaanarane sochaa- 'main dhany hai, trilokeeke saarasarvasv shankaraka darshan karake mera bada़a saubhaagy hai ki main apane prabhuke darshanase sanaath huaa. devarshi naaradane mujhapar bada़ee kripa kee, jisase jeevanaka yah param laabh mujhe praapt huaa. main ab kritakrity hoon.' vaishvaanarake hridayamen aanandamay bhaavonkee baadha़ a gayee.
bhagavaankee bhaktika rahasy bhagavaan hee jaanate hain. alpajn jeev anant premaarnavake ek seekarako bhee to kalpana naheen kar sakataa. iseese karunaaparavash bhagavaan bhaktake veshamen aate hain. bhakt kabhee bhagavaanse vibhakt naheen hote. chaahe bhagavaan bhaktake hridayamen prakat hokar premakee leela karen, chaahe bhakke roopamen donon men ek hee baat hai. aaj saakshaat shankar bhee jeevonke kalyaanake liye bhaktonka saaj saj rahe hain. yah unake liye to ek leela hai; parantu jeevonke liye bhakti bhaavanaaka, aaraadhanaaka ek sundar aadarsh hai. is maargapar chalakar bhala, kaun naheen apana kalyaan saadhan kar sakataa.
vaishvaanarane shubh muhoortamen shivalingako sthaapana kee. poojaake bada़e kathor niyam sveekaar kiye. pratidin gangaajeese ek sau aath ghada़e jal laakar chadha़aana, ek hajaar aath neele kamalonkee maala chadha़aana, chhah maheenetak saptaah men ek baar kandamool khaakar rah jaana, chhah maheenetak sookhe patte khaana, chhah mahonetak jal aur chh maheenetak keval havaake aadhaarapar rahanaa. jap, pooja, paath, nirantar bhagavaan shankaraka chintan saral hridayabhakti bhaavanaaonse paripoorn kabhee bhagavaanko karpoor dhaval, bhasmabhooshit, sarpapariveshtit divyamoortika dhyaan to kabhee karunaapoorn hridayase gadgad praarthanaa. do varsh beet gaye palak maarate-maarate. sukhake din, saubhaagyake din yon hee beet jaaya karate hain. ek din jab vaishvaanaraka baarahavaan varsh chal raha tha, maano naaradakee baat saty karaneke liye haathamen vajr liye hue indr aaye. unhonne kahaa- 'vaishvaanara! main tumhaaree niyama-nivaase prasann hoon tumhaare hridayamen jo abhilaasha ho, mujhase kaho main use avashy poorn karoongaa.' vaishvaanarane bada़e hee komal svaramen kahaa- 'devendr . main aapako jaanata hoon, aap sab kuchh kar sakate hain; parantu mere svaamee to ekamaatr bhagavaan shankar hain, main unake atirikt aur kiseese var naheen le sakataa.' indrane kahaa- 'baalaka! too moorkhata kyon kar raha hai? mujhase bhinn | shankaraka koee astitv naheen hai main hee devaadhidev hoon. jo tujhe chaahiye, mujhase maang le.' vaishvaanarane kahaa- 'indr ! aapaka charitr kisase chhipa hai. main to shankarake atirikt aur kiseese var naheen maang sakataa.' indraka chehara laal ho gayaa. unhonne apane haathamen sthit bhayankar vajrase vaishvaanarako daraayaa. vajrakee bheeshan aakriti dekhakar, jisamense vidyutkee lapaten nikal rahee theen, vaishvaanar maano moorchhit ho gaye. theek isee samay bhagavaan gaureeshankarane prakat hokar apane kara-kamalonke amritamay sansparshase vaishvaanarako ujjeevit karate hue kahaa-'petaa! tumhaara kalyaan ho ! utho, utho dekho to sahee tumhaare saamane kaun khada़a hai. us sudha madhur vaaneeko sunakar vaishvaanarane apanee aankhen kholeen aur dekha ki koti koti sooryake samaan prakaashamaan bhagavaan shankar saamane khada़e hain. lalaatapar lochan, kanthamen kaalima, baayeen or jagajjananee paarvatee jataamen sthit chandramaako kiranen aanandako varsha kar rahee theen karpoorommval shareerapar gajacharmaka aachchhaadan aur saanponke aabhooshan aanandake | udrekase vaishvaanaraka gala bhar aaya, shareer pulakaayamaan ho gaya, bolanekee ichchha honepar bhee jabaan band ho gayee. vaishvaanar chitralikhekee bhaanti sthir ho gayaa. apane aapako bhee bhool gayaa. n namaskaar, n stotr aur n topraarthanaa. ek or gaureeshankar aur doosaree or vaishvaanar ! vaishvaanar chakit tha, bhagavaan shankar musakara rahe the.
bhagavaan shankarane maun bhang kiyaa. ve bole-'baal vaishvaanar ! kya tum indraka vajr dekhakar bhayabheet ho gaye ? daro mat, mainne hee indraka roop dhaaran karake tumhen parakhana chaaha thaa. jo mere premee bhakt hain, ve to mere svaroop hee hain; aur tum, tum to mere svaroop ho hee . indr, vajr athava yamaraaj mere bhaktaka baal bhee baanka naheen kar sakate. tumhaaree jo ichchha ho, vah main poorn kar sakata hoon. tumhen mainne agnika pad diyaa. tum samast devataaonke mukh banoge. sab devata tumhaare dvaara hee apanaa-apana bhaag grahan kar sakenge. samast praaniyonke shareeramen tumhaaraanivaas hogaa. poorv dishaake adhipati indr hain aur dakshin dishaake yamaraaja. tum dononke beechamen dikpaal - roopase nivaas karo. tum aajase aagney konake adhipati hue. apane pita, maata aur bandhujanonke saath vimaanapar chadha़kar tum agnilokamen jaao aur apane padake anusaar kaary karo.' bhagavaan shankarake itana kahate hee vaishvaanarake maataa-pita, bandhu-baandhav sab vahaan upasthit ho gaye. sabake saath bhagavaan shankarake charanonmen namaskaar karake vaishvaanar agni apane lokako chale gaye aur bhagavaan shankar usee lingamen sama gaye, jisakee pooja vaishvaanar kiya karate the. bhagavaan shankarane svayan us | lingakee bada़ee mahima gaayee hai.