धर्मार्थकाममोक्षाख्यं एकमेवय इच्छेच्छ्रेय आत्मनः । कारणं पादसेवनम् न हरेस्तत्र
(श्रीमद्भा0 4। 8 । 41)
'जो कोई धर्म, अर्थ, काम या मोक्षरूप पुरुषार्थकी इच्छा करता हो, उसके लिये इन सबको देनेवाला इनका एकमात्र कारण श्रीहरिके श्रीचरणोंका सेवन ही है।'
स्वायम्भुव मनुके दो पुत्र हुए- प्रियव्रत एवं उत्तानपाद। महाराज उत्तानपादकी दो रानियाँ थीं सुनीति एवं सुरुचि सुनीतिके पुत्र थे ध्रुव और सुरुचिके उत्तम । राजाको अपनी छोटी रानी सुरुचि अत्यन्त प्रिय थीं। सुनीतिसे महाराज उदासीनप्राय रहते थे। एक दिन महाराज उत्तानपाद सुरुचिके पुत्र उत्तमको गोदमें लेकर उससे स्नेह कर रहे थे, उसी समय वहाँ ध्रुव भी खेलते हुए पहुँचे और पिताकी गोदमें बैठनेकी उत्सुकता प्रकट करने लगे। राजाने उन्हें गोदमें नहीं उठाया तो वे मचलने लगे। वहाँ बैठी हुई छोटी रानीने अपनी सौतके पुत्र ध्रुवको मचलते देख ईर्ष्या और गर्वसे कहा- 'बेटा! तूने मेरे पेटसे तो जन्म लिया नहीं है, फिर महाराजकी गोदमें बैठनेका प्रयत्न क्यों करता है ? तेरी यह इच्छा दुर्लभ वस्तुके लिये है। बच्चा होनेसे ही तू नहीं समझता कि किसी दूसरी स्त्रीका पुत्र राज्यासनपर नहीं बैठ सकता। यदि उत्तमकी भाँति तुझे भी राज्यासन या पिताकी गोदमें बैठना हो तो पहले तपस्या करके भगवान्को प्रसन्न कर और उनकी कृपासे मेरे पेटसे जन्म ले।'
तेजस्वी बालक ध्रुवको विमाताके ये वचन बाण लग गये। उनका मुख क्रोधसे लाल हो गया, श्वास जोर जोरसे चलने लगा। रोते हुए वे वहाँसे अपनी माताके पास चल पड़े। महाराज भी छोटी रानीकी बातें सुनकर प्रसन्न नहीं हुए; किंतु वे कुछ बोल न सके। ध्रुवकी माता सुनीतिने अपने रोते पुत्रको गोदमें उठा लिया। बड़े स्नेहसे पुचकारकर कारण पूछा। सब बातें सुनकर सुनीतिको बड़ी व्यथा हुई। वे भी रोती हुई बोलीं- 'बेटा! सभी लोग अपने ही भाग्यसे सुख या दुःख पाते हैं, अतः दूसरेको अपने अमङ्गलका कारण नहीं मानना चाहिये। तुम्हारी विमाता ठीक ही कहती है कि तुमने दुर्भाग्यके कारण ही मुझ अभागिनीके गर्भसे जन्म लिया। मेराअभाग्य इससे बड़ा और क्या होगा कि मेरे आराध्य महाराज मुझे अपनी भार्याकी भाँति राजसदनमें रखने लज्जित होते हैं; परंतु बेटा तुम्हारी विमाताने जो शिक्षा दी है, वह निर्दोष है। तुम उसीका आचरण करो। यदि तुम्हें उत्तमकी भाँति राज्यासन चाहिये तो कमलनयन अधोक्षज भगवान्के चरण कमलोंको आराधना करो। जिनके पादपद्यको सेवा करके योगियोंके भी वन्दनीय परमेष्ठी पदको ब्रह्माजीने प्राप्त किया तथा तुम्हारे पितामह भगवान् मनुने यज्ञोंके द्वारा जिनका यजन करके दूसरोंके लिये दुष्प्राप्य भूलोक तथा स्वर्गलोकके भोग एवं मोक्ष प्राप्त किया, उन्हीं भक्तवत्सल भगवान्का आश्रय लो। अनन्यभावसे अपने मनको उनमें ही लगाकर उनका भजन करो। उन कमल लोचन भगवान्के अतिरिक्त तुम्हारा दुःख दूर करनेवाला और कोई नहीं है। भगवान् तो समस्त ऐश्वयोंके स्वामी हैं। जिन लक्ष्मीजीका दूसरे सब अन्वेषण करते हैं, वे भी हाथमें कमल लिये उन परम पुरुषके पीछे उनको ही ढूँढ़ती चलती हैं। अतएक तुम उन दयामय नारायणकी ही शरण लो।
माताकी बात सुनकर ध्रुवने अपने चित्तको स्थिर किया और पिताके नगरको छोड़कर वे वनको ओर चल पड़े। जब कोई भगवान्पर विश्वास करके उनकी ओर चल पड़ता है, तब वे दयामय उसको सारी चिन्ता स्वयं करते हैं। आजकल गुरु ढूँढनेका, संत ढूँढनेका प्रयत्न बहुत लोग करते हैं; किंतु जाननेको बात यह है कि ढूँढनेसे संत या गुरु नहीं मिला करते संत तो भगवान्के स्वरूप होते हैं भगवान्को कृपासे सच्चे अधिकारोको ही वे मिलते हैं। उनको पानेका प्रयत्न नहीं करना पड़ता थे स्वयं आते हैं। ध्रुव जब सब कुछ छोड़कर चल पड़े, तब उन्हें मार्गमें नारदजी मिले। देवर्षिने ध्रुवको समझाकर उन्हें लोभ और भय दिखलाकर लौटाना चाहा किंतु उनको दृढ़ निष्ठा और निश्चय देखकर द्वादशाक्षर मन्त्र 'ॐ नमो भगवते वासुदेवाय' की दीक्षा दो और भगवान्को पूजा तथा ध्यान विधि बताकर यमुनातटपर मधुवनमें जानेका आदेश दिया। ध्रुवको भेजकर नारदजो महाराज उत्तानपादके पास आये। राजाने जबसे सुना था कि ध्रुव वनको चले गये, तबसे वे अत्यन्त चिन्तित थे।अपने व्यवहारपर उन्हें बड़ी ग्लानि हो रही थी। देवर्षिने आवासन देकर शान्त किया।
भगवान् हैं, वे दयामय हैं और हमें मिलेंगे-जबतक ऐसी श्रद्धा पक्की न हो, तबतक भजनमें दृढता तथा प्रेम नहीं आता। जो वस्तु मिलनी सम्भव न जान पड़ती हो, उसे पानेके लिये न तो इच्छा होती है और न प्रयत्न जबतक मनमें यह बैठा है कि हमें भगवत्प्राति भला कैसे होगी, तबतक भजनमें मन नहीं लगता। तभीतक हृदयमें अनुराग जाग्रत् नहीं होता। हम चाहे जैसे हों, चाहे जितने पापी और अधम हों; पर भगवान्की कृपा हमारे पाप एवं अपराधोंसे अनन्त महान् है। वे उदारचक्र चूड़ामणि अवश्य अवश्य हमें अपनायेंगे। हम उन्हें पायेंगे, अवश्य पायेंगे, पाकर रहेंगे: क्योंकि वे करुणासागर हमें अपनाये बिना रह नहीं सकते। ऐसा दृढ विश्वास हो जानेपर ही भजन होता है। ध्रुवको तनिक भी सन्देह नहीं था भगवत्प्राप्तिमें से मधुवनमें यमुनातटप्स प श्रीकालिन्दोके पापहारी प्रवाहमें स्नान करके जो कुछ फल-पुष्प मिल जाता, उससे भगवान्को पूजा करते हुए वे नारदजीसे प्राप्त द्वादशाक्षर मन्त्रका अखण्ड जप करने लगे। पहले महीने तीन दिन उपवास करके, चौथे दिन कैच और बेर खा लिया करते थे। दूसरे महीनेमें सप्ताह में एक बार वृक्षसे स्वयं टूटकर गिरे पत्ते या सूखे तृणका भोजन करके ध्रुव भगवान्के ध्यानमें तन्मय रहने लगे। तीसरे महीने नौ दिन बीत जानेपर केवल एक बार वे जल पोते थे। चौथे महीने तो बारह दिनपर एक बार वायु-भोजन करना प्रारम्भ कर दिया उन्होंने और पाँचवें महीनेमें खास लेना भी छोड़ दिया। प्राणको वशमें करके भगवान्का ध्यान करते हुए पाँच वर्षके बालक ध्रुव एक पैरसे निश्चल खड़े रहने लगे।
पाँच वर्षके बालक ध्रुवने समस्त लोकोंके आधार, समस्त तत्त्वोंके अधिष्ठान भगवान्को हृदयमें स्थिररूपसे धारण कर लिया था। वे भगवन्मय हो गये थे। जब वे एक पैर बदलकर दूसरा रखते, तब उनके भारसे पृथ्वी जलमें नौकाकी भाँति डगमगाने लगती थी। उनके वास न लेनेसे तीनों लोकोंके प्राणियोंका श्वास बंद होने लगा। वासरोधसे पीड़ित देवता भगवान्को शरण गये भग देवताओंको आश्वासन दिया- 'बालक ध्रुव सम्पूर्ण रूपसे मुझमें चित्त लगाकर प्राण रोके हुए है, अतः उसकेप्राणायामसे ही आप सबका श्वास रुका है। अब मैं जाकर उसे इस तपसे निवृत्त करूंगा।' भगवान् गरुड़पर बैठकर ध्रुवके पास आये; किंतु ध्रुव इतने तन्मय होकर ध्यान कर रहे थे कि उन्हें कुछ भी पता नहीं लगा। श्रीहरिने अपना स्वरूप ध्रुवके हृदयसे अन्तर्हित कर दिया। हृदयमें भगवान्का दर्शन न पाकर व्याकुल होकर जब ध्रुवने नेत्र खोले तो अनन्त-सौन्दर्य- माधुर्यधाम भगवान्को सामने देखकर उनके आनन्दकी सीमा नहीं रही। हाथ जोड़कर वे भगवान्को स्तुति करनेके लिये उत्सुक हुए; पर क्या स्तुति करें, यह समझ ही न सके। दयामय प्रभुने ध्रुवकी उत्कण्ठा देखी। अपने निखिल श्रुतिरूप शङ्खसे बालकके कपोलको उन्होंने छू दिया। बस, उसी क्षण ध्रुवके हृदयमें तत्त्वज्ञानका प्रकाश हो गया। वे सम्पूर्ण विद्याओंसे सम्पन्न हो गये। बड़े प्रेमसे बड़ी ही भावपूर्ण स्तुति की उन्होंने।
भगवान्ने ध्रुवको वरदान देते हुए कहा-'बेटा ध्रुव ! तुमने माँगा नहीं, किंतु मैं तुम्हारी हार्दिक इच्छाको जानता हूँ। तुम्हें वह पद देता हूँ, जो दूसरोंके लिये। दुष्प्राप्य है। उस पदपर अबतक दूसरा कोई भी पहुँचा नहीं है। सभी ग्रह, नक्षत्र, तारामण्डल उसकी प्रदक्षिणा करते हैं। पिताके वानप्रस्थ लेनेपर तुम पृथ्वीका दीर्घकालतक शासन करोगे और फिर अन्तमें मेरा स्मरण करते हुए उस सर्वश्रेष्ठ, ब्रह्माण्डके केन्द्रभूत धाममें पहुँचोगे, जहाँ जाकर फिर संसारमें लौटना नहीं पड़ता।' इस प्रकार वरदान देकर भगवान् अन्तर्धान हो गये।
भगवान्के सच्चे भक्त अपने स्वामीसे उनके अतिरिक्त और कुछ नहीं माँगते । ध्रुवको भगवान्के अन्तर्धान होनेपर बड़ा खेद हुआ। वे मन-ही-मन कहने लगे-'मेरी बहिर्मुखता कितनी बड़ी है, मैं कितना मन्दभाग्य हूँ कि संसारचक्रको सर्वथा समाप्त कर देनेवाले श्रीनारायणके चरणोंको प्राप्त करके भी मैंने उनसे केवल नश्वर भोग माँगे (कल्पान्तमें अन्ततः वह ब्रह्माण्डकेन्द्र भी नष्ट ही होगा)। अवश्य ही असहिष्णु देवताओंने मेरी बुद्धिमें भ्रम उत्पन्न कर दिया था। देवर्षिने तो मुझसे ठीक ही कहा था। उन्होंने तो मुझे मोक्षके लिये ही भगवान्को प्राप्त करनेका आदेश दिया और ईर्ष्या-द्वेष, मानापमानको तुच्छ मानकर छोड़ देनेकी कहा; पर मैंने उनकी तथ्यपूर्ण वाणीको ग्रहण नहीं किया। मैंने जो श्रेष्ठ पद माँगा, वह तो नश्वर है; व्यर्थ हीमैंने उसकी याचना की। जगदात्मा, परम दुर्लभ, भवभयहारी भगवान्को तपसे प्रसन्न करके भी मैंने संसार-संसारका ही भोग (ध्रुवपद) माँगा। मैं कितना अभागा हूँ।' इस प्रकार अपनेको धिक्कारते हुए वे घरको लौटे।
x जो भगवान् की ओर लग जाता है, उसकी सभी प्रतिकूलताएँ अनुकूलतामें बदल जाती हैं। जिसपर वे निखिलात्मा भगवान् प्रसन्न हो जाते हैं, उसपर सभी प्राणी प्रसन्न हो जाते हैं। सभी उसका आदर करते हैं। शत्रु भी छोड़कर उसके मित्र बन जाते हैं। ध्रुवके वन जाते ही महाराज उत्तानपादके हृदयमें बड़ा भारी परिवर्तन हो गया। वे पुत्रके अनुरागसे व्याकुल हो गये। वे ध्रुवकी माताका बहुत अधिक सम्मान करने लगे। राज्य, भोग तथा सब सुख उन्हें फीके लगने लगे। वे केवल ध्रुवका ही रात-दिन चिन्तन करने लगे। जब उन्हें भुक्के लौटनेका समाचार मिला, तब उनके हर्षका पार न रहा। बड़े उत्साहसे बाजे-गाजेसे हाथियोंको सजाकर रानियों, मन्त्रियों, ब्राह्मणोंके साथ वे पुत्रको आगे लेने गये। नगरसे बाहर जैसे ही बालक ध्रुव आते दीख पड़े, राजा हाथीसे भूमिपर उतर पड़े। उन्होंने भूमिपर लेटकर प्रणाम करते पुत्रको गोद में उठाकर हृदयसे लगा लिया। उनके नेत्रोंसे आँसुओं की धारा चलने लगी। ध्रुवने पिताके पश्चात् विमाता सुरुचिको प्रणाम किया। सुरूचिने भी उन्हें गोदमें ले लिया और वह कण्ठ रुक जानेसे केवल इतना बोल सकी 'बेटा! जीते रहो।' माता सुनीतिको तो अपने प्राणोंके समान पुत्र मिला था। सब लोग सुनीतिके पुण्य-प्रभावकी प्रशंसा कर रहे थे। नगर भलीभाँति सजाया गया था। बड़े सत्कारपूर्वक ध्रुवको महाराज राजभवनमें ले आये।
कुछ दिनोंके पीछे महाराजको वैराग्य हो गया। ध्रुवका उन्होंने राज्याभिषेक कर दिया और स्वयं भगवान्का भजन करने तपोवन चले गये। ध्रुवकी विमाता सुरुचिके पुत्र उदमका विवाह नहीं हुआ था। एक दिन वनमें आखेट करते समय वे कुबेरकी अलकापुरीके पास हिमालयपर पहुँच गये। वहाँ यक्षोंसे विवाद हो गया और यक्षोंने उन्हें मार डाला। भाईकी मृत्यु सुनकर ध्रुवको बड़ा क्षोभ हुआ। उन्होंने यक्षपुरीपर आक्रमण कर दिया। बड़ा ही प्रचण्ड संग्राम हुआ। बहुत से यक्ष मारे गये। अन्तमें ब्रह्मलोकसेआकर भगवान् मनुने ध्रुवको समझाया-'बेटा! ये यक्ष उपदेव हैं। इनके स्वामी कुबेरजी भगवान् शङ्करके सखा हैं। तुम्हें उनका सम्मान करना चाहिये। प्राणी अपने हो कर्मसे जीवन या मृत्यु पाता है। यक्ष तो निरपराध हैं। यदि किसीने अपराध किया भी हो तो एकके अपराधके बदले दूसरे बहुतोंको दण्ड देना उचित नहीं हैं। क्रोध छोड़कर तुम कुबेरजीसे क्षमा माँग लो।' भुवने पितामहकी आज्ञा स्वीकार कर ली। उनके युद्धसे अलग हो जानेपर कुबेरजीने उन्हें दर्शन दिया और वरदान माँगने को कहा। ध्रुवने वरदान माँगा- 'भगवान्के चरणोंमें मेरा अविचल अनुराग हो।' वरदान देकर कुबेरजी अदृश्य हो गये। ध्रुवः अपनी राजधानीको लौट आये।
भोगोंसे विरक्त होकर, चित्तको भगवान्में लगाये हुए दीर्घकालतक भुवने राज्य किया। अन्तमें वे सम्पूर्ण भूमण्डलके अधिपति भोगोंसे विरत होकर बदरिकाश्रम पहुँचे। वहाँ मन्दाकिनीमें स्नान करके वे भगवान्का एकान्त चित्तसे ध्यान करने लगे। उसी समय आकाशसे एक दिव्य विमान आया। विमानके साथ भगवान्के पार्षद भी आये भगवत्पार्श्वदोंको देखकर भगवन्नामका कीर्तन करते हुए ध्रुवने उन्हें साष्टाङ्ग प्रणिपात किया। पार्षदोंने कहा- 'राजन्। हम भगवान् नारायणके पार्षद हैं। आपने भगवान्को अपने तपसे प्रसन्न किया था। अब आप इस विमानपर बैठकर उस दिव्य लोकको चलें, जिसकी सभी ग्रह नक्षत्रादि प्रदक्षिणा करते हैं।'
ध्रुवने स्नान किया। वहाँके ऋषि-मुनियोंको प्रणाम किया। उनका आशीर्वाद लेकर जब वे विमानमें बैठने लगे, तब उनका शरीर दिव्य हो गया। उसी समय वहाँ मृत्युदेवता आये। मृत्युने कहा- 'मेरा स्पर्श किये बिना कोई इस लोकसे न जाए, ऐसी मर्यादा है।' भुवने उन मृत्युदेवके मस्तकपर पैर रखा और विमानपर चढ़ गये। भगवान्के भक्तोंका चरण स्पर्श पाकर मृत्युदेव भी धन्य होते हैं। विमानमें जाते हुए भुवने अपनी माताका स्मरण किया। भगवान्के पार्षदोंने आगे-आगे विमानसे जाती सुनीतिदेवीको दिखाया। ऐसे पुत्रकी जननी धन्य है। भगवद्भक्त अपने पूरे कुलको तार देता है। ध्रुव आज भी अपने अविचल धाममें भगवान्का भजन करते निवास करते हैं। ध्रुवतारा उनका वही ज्योतिर्मय धाम है।
dharmaarthakaamamokshaakhyan ekamevay ichchhechchhrey aatmanah . kaaranan paadasevanam n harestatra
(shreemadbhaa0 4. 8 . 41)
'jo koee dharm, arth, kaam ya moksharoop purushaarthakee ichchha karata ho, usake liye in sabako denevaala inaka ekamaatr kaaran shreeharike shreecharanonka sevan hee hai.'
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bhagavaanke sachche bhakt apane svaameese unake atirikt aur kuchh naheen maangate . dhruvako bhagavaanke antardhaan honepar bada़a khed huaa. ve mana-hee-man kahane lage-'meree bahirmukhata kitanee bada़ee hai, main kitana mandabhaagy hoon ki sansaarachakrako sarvatha samaapt kar denevaale shreenaaraayanake charanonko praapt karake bhee mainne unase keval nashvar bhog maange (kalpaantamen antatah vah brahmaandakendr bhee nasht hee hogaa). avashy hee asahishnu devataaonne meree buddhimen bhram utpann kar diya thaa. devarshine to mujhase theek hee kaha thaa. unhonne to mujhe mokshake liye hee bhagavaanko praapt karaneka aadesh diya aur eershyaa-dvesh, maanaapamaanako tuchchh maanakar chhoda़ denekee kahaa; par mainne unakee tathyapoorn vaaneeko grahan naheen kiyaa. mainne jo shreshth pad maanga, vah to nashvar hai; vyarth heemainne usakee yaachana kee. jagadaatma, param durlabh, bhavabhayahaaree bhagavaanko tapase prasann karake bhee mainne sansaara-sansaaraka hee bhog (dhruvapada) maangaa. main kitana abhaaga hoon.' is prakaar apaneko dhikkaarate hue ve gharako laute.
x jo bhagavaan kee or lag jaata hai, usakee sabhee pratikoolataaen anukoolataamen badal jaatee hain. jisapar ve nikhilaatma bhagavaan prasann ho jaate hain, usapar sabhee praanee prasann ho jaate hain. sabhee usaka aadar karate hain. shatru bhee chhoड़kar usake mitr ban jaate hain. dhruvake van jaate hee mahaaraaj uttaanapaadake hridayamen bada़a bhaaree parivartan ho gayaa. ve putrake anuraagase vyaakul ho gaye. ve dhruvakee maataaka bahut adhik sammaan karane lage. raajy, bhog tatha sab sukh unhen pheeke lagane lage. ve keval dhruvaka hee raata-din chintan karane lage. jab unhen bhukke lautaneka samaachaar mila, tab unake harshaka paar n rahaa. baड़e utsaahase baaje-gaajese haathiyonko sajaakar raaniyon, mantriyon, braahmanonke saath ve putrako aage lene gaye. nagarase baahar jaise hee baalak dhruv aate deekh pada़e, raaja haatheese bhoomipar utar pada़e. unhonne bhoomipar letakar pranaam karate putrako god men uthaakar hridayase laga liyaa. unake netronse aansuon kee dhaara chalane lagee. dhruvane pitaake pashchaat vimaata suruchiko pranaam kiyaa. suroochine bhee unhen godamen le liya aur vah kanth ruk jaanese keval itana bol sakee 'betaa! jeete raho.' maata suneetiko to apane praanonke samaan putr mila thaa. sab log suneetike punya-prabhaavakee prashansa kar rahe the. nagar bhaleebhaanti sajaaya gaya thaa. bada़e satkaarapoorvak dhruvako mahaaraaj raajabhavanamen le aaye.
kuchh dinonke peechhe mahaaraajako vairaagy ho gayaa. dhruvaka unhonne raajyaabhishek kar diya aur svayan bhagavaanka bhajan karane tapovan chale gaye. dhruvakee vimaata suruchike putr udamaka vivaah naheen hua thaa. ek din vanamen aakhet karate samay ve kuberakee alakaapureeke paas himaalayapar pahunch gaye. vahaan yakshonse vivaad ho gaya aur yakshonne unhen maar daalaa. bhaaeekee mrityu sunakar dhruvako bada़a kshobh huaa. unhonne yakshapureepar aakraman kar diyaa. bada़a hee prachand sangraam huaa. bahut se yaksh maare gaye. antamen brahmalokaseaakar bhagavaan manune dhruvako samajhaayaa-'betaa! ye yaksh upadev hain. inake svaamee kuberajee bhagavaan shankarake sakha hain. tumhen unaka sammaan karana chaahiye. praanee apane ho karmase jeevan ya mrityu paata hai. yaksh to niraparaadh hain. yadi kiseene aparaadh kiya bhee ho to ekake aparaadhake badale doosare bahutonko dand dena uchit naheen hain. krodh chhoda़kar tum kuberajeese kshama maang lo.' bhuvane pitaamahakee aajna sveekaar kar lee. unake yuddhase alag ho jaanepar kuberajeene unhen darshan diya aur varadaan maangane ko kahaa. dhruvane varadaan maangaa- 'bhagavaanke charanonmen mera avichal anuraag ho.' varadaan dekar kuberajee adrishy ho gaye. dhruvah apanee raajadhaaneeko laut aaye.
bhogonse virakt hokar, chittako bhagavaanmen lagaaye hue deerghakaalatak bhuvane raajy kiyaa. antamen ve sampoorn bhoomandalake adhipati bhogonse virat hokar badarikaashram pahunche. vahaan mandaakineemen snaan karake ve bhagavaanka ekaant chittase dhyaan karane lage. usee samay aakaashase ek divy vimaan aayaa. vimaanake saath bhagavaanke paarshad bhee aaye bhagavatpaarshvadonko dekhakar bhagavannaamaka keertan karate hue dhruvane unhen saashtaang pranipaat kiyaa. paarshadonne kahaa- 'raajan. ham bhagavaan naaraayanake paarshad hain. aapane bhagavaanko apane tapase prasann kiya thaa. ab aap is vimaanapar baithakar us divy lokako chalen, jisakee sabhee grah nakshatraadi pradakshina karate hain.'
dhruvane snaan kiyaa. vahaanke rishi-muniyonko pranaam kiyaa. unaka aasheervaad lekar jab ve vimaanamen baithane lage, tab unaka shareer divy ho gayaa. usee samay vahaan mrityudevata aaye. mrityune kahaa- 'mera sparsh kiye bina koee is lokase n jaae, aisee maryaada hai.' bhuvane un mrityudevake mastakapar pair rakha aur vimaanapar chadha़ gaye. bhagavaanke bhaktonka charan sparsh paakar mrityudev bhee dhany hote hain. vimaanamen jaate hue bhuvane apanee maataaka smaran kiyaa. bhagavaanke paarshadonne aage-aage vimaanase jaatee suneetideveeko dikhaayaa. aise putrakee jananee dhany hai. bhagavadbhakt apane poore kulako taar deta hai. dhruv aaj bhee apane avichal dhaamamen bhagavaanka bhajan karate nivaas karate hain. dhruvataara unaka vahee jyotirmay dhaam hai.