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कृपा के सागर हैं भगवान्

भगवान्की महिमा वेद, पुराण, इतिहास इत्यादि सभीमें वर्णित है। भगवान् सच्चिदानन्द- नित्य-शुद्ध मुक्तस्वरूप सर्वव्यापी और सर्वान्तर्यामी हैं। न उनकी कोई कामना है, न कोई कर्तव्य है। दुनियामें हर एक व्यक्ति अप्राप्त वस्तुको प्राप्त करनेके लिये काम करता है। भगवान्‌को अप्राप्त कुछ भी नहीं है, अतः उनको कुछ भी कर्तव्य नहीं है, इसे भगवान्ने ही कहा कि 'न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किंचन । नानवाप्तमवाप्तव्यं'। ऐसे होनेपर भी वे हर एक युगमें अवतरित होकर धर्मका उद्धार और अधर्मका नाश एवं सज्जनोंकी रक्षा और दुष्टसंहार करते हैं । यह भी भगवान्ने ही कहा है कि 'परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्। धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे।' इसका एकमात्र कारण भक्तोंपर भगवान्की असीम कृपा है। उनकी कृपासे असम्भव भी सम्भव हो सकता है।

विश्वका आधार है धर्म 'धर्मो विश्वस्य जगतः प्रतिष्ठा' ऐसा श्रुति कहती है। इस धर्मको ही पुण्य, सत्कर्म इत्यादि शब्दोंसे कहते हैं। यह धर्म श्रुति, स्मृति, पुराण- इतिहास इत्यादिमें विस्तृत रूपसे प्रतिपादित है। धर्मके आचरणसे ही सब लोग इस लोक और परलोकमें श्रेय प्राप्त कर सकते हैं। धर्माचरणके लिये उसकी जानकारी बहुत आवश्यक है। उसके बिना धर्माचरण नहीं हो सकता है। वह जानकारी हमें वेदादि ग्रन्थोंके अध्ययनसे ही प्राप्त होती है। परंतु अतिविस्तृत उन ग्रन्थोंका अध्ययन साधारण मनुष्योंके लिये सम्भव नहीं है। इसलिये धर्म और अधर्मके स्वरूपका हमारे पूर्वजोंने एक ही वाक्यमें संक्षेप रूपसे उपदेश किया था कि

'परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम् । एतद्विद्यात् समासेन लक्षणं पुण्यपापयोः ॥'

इसका तात्पर्य यह है कि दूसरोंकाउपकार करना ही धर्म है, तकलीफ देना ही अधर्म है। एक भूखे आदमीको खिलाना, गरीबको धन आदि देना, विद्यार्थियोंको विद्या और संस्कार देना, दुष्टोंसे भयभीत होकर अपनी शरणमें आनेवालोंको आश्रय देना, भगवान्की पूजा करके सभी लोगोंके श्रेयकी प्रार्थना करना इत्यादि परोपकार कहे जाते हैं।

दुनियामें हर एक काम करनेसे पहले उसका ज्ञान, उसे करनेकी इच्छा, उसके लिये प्रयत्न-इन तीनोंकी आवश्यकता है। पश्चात् ही वह काम किया जाता है। दूसरोंके दुःखको मिटानेके लिये पहले मिटानेकी इच्छा चाहिये। वह इच्छा ही कृपा कही जाती है। इसीलिये शास्त्रोंमें कृपा शब्दका अर्थ 'परदुःखप्रहाणेच्छा' कहा गया है। यह कृपा दया, करुणा, अनुकम्पा इत्यादि शब्दोंसे भी कही जाती है। जिसके मनमें यह दया है, उसीको दयालु, कृपालु आदि शब्दोंसे कहते हैं। जिसके मनमें कृपा नहीं है, वह मनुष्य कहलानेके योग्य ही नहीं है। बृहदारण्यकोपनिषद् ब्रह्माजीने देवताओंको इन्द्रियनिग्रह, मनुष्योंको दान, राक्षसोंको दयाका उपदेश दिया था । यहाँ 'देवता' शब्दसे इन्द्रियनिग्रहहीन मनुष्य तथा 'राक्षस' शब्दसे दूसरोंको तकलीफ देनेवाला क्रूरस्वभाव मनुष्य ही विवक्षित है। इसीलिये यह उपदेश मनुष्योंके लिये ही है।

इस प्रकार कृपाकी आवश्यकता 'तदेतत्त्रयं शिक्षेद्दमं दानं दयामिति' (५। २ । ३) इत्यादि ग्रन्थसे कही गयी है। उसके भाष्यमें श्रीशंकराचार्यजी 'दमं दानं दयामिति शिक्षेत्, उपादद्यात् प्रजापतेरनुशासनमस्माभिः कर्तव्य मित्येवं मतिं कुर्यात्' यों लिखे हैं। तथा गीतामें 'अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च' (१२।१३), 'दया भूतेष्वलोलुप्त्वं ' (१६ । २) इत्यादिमें; गौतमधर्मसूत्रों में 'अथाष्टावात्मगुणाः', सर्वभूतेषु ' (१ । ९ । २३ । २४ ) इत्यादि सूत्रमें उसकी हरदत्तकृत मिताक्षरावृत्तिमें 'आत्मवत्सर्वभूतेषु यद्धिताय शिवाय च । वर्तते सततं हृष्टः कृत्स्ना होषा दया स्मृता ॥' इत्यादि ग्रन्थमें; कामन्दक नीतिशास्त्रमें 'आविष्ट इव दुःखेन तद्गतेन गरीयसा। समन्वितः करुणया परया दीनमुद्धरेत्॥' 'न तेभ्योऽभ्यधिकाः सन्ति सन्तः सत्पुरुषव्रताः । दुःखपङ्कार्णवे मग्नं दीनमभ्युद्ध रन्ति ये ।' (३।३-४) इत्यादि ग्रन्थमें कृपाकी आवश्यकता विशेषरूपसे कही गयी है।

यह कृपा सहेतुक और निर्हेतुक-दो प्रकारको होती है। जो लोग किसी लाभके लिये दूसरोंका उपकार करते हैं, उनकी कृपा सहेतुक कहलाती है। जो लोग बिना किसी फलेच्छासे अपना कर्तव्य मानकर दूसरोंका उपकार करते हैं, उनकी कृपा निर्हेतुक है। यही सर्वश्रेष्ठ है। यह निर्हेतुक कृपा केवल भगवान् और गुरुमें ही रहती है। उनकी निर्हेतुक कृपाके अनेक दृष्टान्त पुराण और इतिहास में मिलते हैं जैसे श्रीमद्रामायणमें भगवान् श्रीरामचन्द्रजीने वनवासके समय सभी ऋषियोंको अभय देकर राक्षसोंका दमन किया था तथा अपने दुश्मनके भाई विभीषणको भी शरण दी थी।

महाभारतमें जब दुर्योधन आदि दुष्टोंने देवी द्रौपदीका चीर हरण करनेका दुस्साहस किया, तब भगवान् श्रीकृष्णपरमात्माने चीरोंकी परम्परा सृजकर उसका मानरक्षण किया। पाण्डवोंके वनवासके समय चावलके एक दानेसे दुर्वासा महर्षिके शापसे पाण्डवोंको बचाया था। कुरुक्षेत्रयुद्धमें अर्जुनके रसको धरतीमें धँसाकर कर्णके नागास्त्रसे उसको बचाया था, जो काम इस दुनियामें किसीसे सम्भव नहीं है। जब धृतराष्ट्रने अपने पुत्रोंकी मौतका बदला लेनेहेतु कपटसे भीमको अपनी बाँहोंसे मसलकर मारनेके लिये उसको बाहरसे प्यार दिखाते हुए अपने समीप बुलाया था, तब भगवान्ने भीमकी लोहमयी मूर्तिको भीमकी जगह धृतराष्ट्रके सामने रखवाकर भीमको बचाया था। इस दुनियाके हर मनुष्यके लिये बहुत ही उपकारक सारी उपनिषदोंका सारभूत भगवद्गीताका उपदेश दिया था।


भगवान्ने प्रह्लाद, ध्रुव, गजेन्द्र, सुदामा इत्यादियोंको कई तरीकोंसे अनुगृहीत किया था यह भागवतपुराणमेंसुस्पष्ट है। ये सब भगवान्को निर्हेतुक कृपार्क उदाहरण हैं। सनातनधर्मके उद्धारक जगदगुरु श्री आदिशंकराचार्य शिष्योंके साथ शृंगेरी आये थे। वहाँ शिष्योंको हर दिन भाष्य पढ़ाते थे। उनके शिष्यों में गिरि नामक एक शिष्य था। वह मन्दबुद्धि था, लेकिन उसकी गुरुभक्ति अपरम्पार थी। एक दिन भाष्यपाठके लिये सभी शिष्य उपस्थित हुए थे, परंतु गिरि वहाँ नहीं था। वह गुरुजीके वस्त्रक्षालनहेतु तुंगानदीके किनारे गया था। गिरिको प्रतीक्षा करते हुए श्रीशंकराचार्यजी जब भाष्यपाठकी शुरुआत नहीं किये थे, तब वहाँ उपस्थित शिष्यल 'मन्दबुद्धि गिरिको प्रतीक्षा करनेकी आवश्यकता नहीं 'है', यों गुरुजीसे विनती करने लगे। तब निर्हेतुककृपासागर श्रीशंकराचार्यजीने गिरिको अनुगृहीत करनेके लिये अपने अमोध संकल्पसे उसे सारी विधाएँ प्रदान कर दीं।


उसके प्रभाव से गिरि तुरंत महापण्डित बनकर तोटक वृत श्रीशंकराचार्यजीकी स्तुतिरूप आठ अद्भुत श्लोकोंको रचकर नदीतरसे उनके पास आकर उनके चरणों में गिर पड़ा। यह देखकर सभी शिष्य लोग चकित हो गये और उन सबने अपना अहंकार छोड़ दिया। यह स्तुति ही तोटकाष्टक नामसे प्रसिद्ध हुई है। वह गिरि ही श्रीशंकराचार्यजीके चार प्रधान शिष्योंमेंसे तोटकाचार्य नामसे प्रसिद्ध हुए थे। इस प्रकार भगवान् और गुरुकी कृपा निर्हेतुक और असीम है। वह हमारे अनुभव से ही जानी जाती है। भगवान्की कृपा पानेके लिये हर एक व्यक्ति योग्य ही है जैसे मट्टे (दही)में सदा मक्खन है, फिर भी उसे पानेके लिये मधानीसे उसे मचना चाहिये, वैसे ही भक्तोंको अनुगृहीत करनेके लिये भगवान् सदैव संसिद्ध हैं, तथापि उन्हें पानेके लिये श्रद्धाभक्तिपूर्वक उपासना आवश्यक है जो भक्त शुद्ध मनसे श्रद्धाभक्तिपूर्वक भगवान्‌की उपासना करता है, वह अवश्य ही भगवान‌को कृपासे सभी संकटोंसे मुक्त होकर श्रेय प्राप्त करता है। इसलिये सभी लोग श्रद्धाभक्तिसे भगवान्की उपासना करके उनकी असीम कृपाके पात्र बनें।



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kripa ke saagar hain bhagavaan

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तेरे बगैर सांवरिया जिया नही जाये
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कौन मिटाए उसे जिसको राखे पिया
मैं तो तुम संग होरी खेलूंगी, मैं तो तुम
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होरी का तोहे बड़ा चाव...
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मेरा मन ही ना लागे तुम्हारे बिना
किसी को भांग का नशा है मुझे तेरा नशा है,
भोले ओ शंकर भोले मनवा कभी न डोले,
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मने कारो कारो जमुनाजी रो पानी लागे
जय राधे राधे, राधे राधे
जय राधे राधे, राधे राधे
दिल की हर धड़कन से तेरा नाम निकलता है
तेरे दर्शन को मोहन तेरा दास तरसता है
जगत में किसने सुख पाया
जो आया सो पछताया, जगत में किसने सुख
शिव कैलाशों के वासी, धौलीधारों के राजा
शंकर संकट हारना, शंकर संकट हारना
तू राधे राधे गा ,
तोहे मिल जाएं सांवरियामिल जाएं
हम हाथ उठाकर कह देंगे हम हो गये राधा
राधा राधा राधा राधा
लाली की सुनके मैं आयी
कीरत मैया दे दे बधाई
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यूँ बीत जाये जीवन मेरा
सांवरिया है सेठ ,मेरी राधा जी सेठानी
यह तो सारी दुनिया जाने है
राधे तेरे चरणों की अगर धूल जो मिल जाए
सच कहता हू मेरी तकदीर बदल जाए
वृन्दावन के बांके बिहारी,
हमसे पर्दा करो ना मुरारी ।
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बालम बोलो कब आओगे॥
तेरे दर की भीख से है,
मेरा आज तक गुज़ारा
कोई कहे गोविंदा कोई गोपाला,
मैं तो कहूँ सांवरिया बांसुरी वाला ।
कोई कहे गोविंदा, कोई गोपाला।
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