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वरदायी रहा सप्तशती पाठ

इस धर्मप्राण देशके समस्त आस्तिक परिवारोंमें प्रतिदिन किसी-न-किसी प्रकारके 'जप' और 'पाठ'की परम्परा सदियोंसे चली आ रही है। हमारा परिवार दक्षिण भारतके संस्कृत विद्वानोंका वह परिवार था, जो सदियों पूर्व दक्षिण भारत (तैलंग देश)-से उत्तर भारतमें आ बसा था। महाप्रभु वल्लभाचार्यके वर्गका यह परिवार मूलतः वैष्णव परिवार है, किंतु प्राचीन परम्परानुसार इसकी कुलदेवी द्वितीय महाविद्या (तारा) हैं और इस तथ्यको सदियोंसे गोपनीय रखा जाता रहा है। यही कारण है कि हमारे परिवारमें जप और पाठकी वैष्णव और तान्त्रिक दोनों परम्पराएँ सदासे चलती रही हैं। मेरे पिताजी भट्ट श्रीमथुरानाथ शास्त्री सुप्रसिद्ध संस्कृत विद्वान् थे। वे प्रतिदिन विभिन्न मन्त्रोंका जप और धर्मग्रन्थोंका नियमित पाठ करते थे। मैं भी यज्ञोपवीतके बादसे मन्त्रजप और कवचादि पाठ नियमित करता रहा हूँ।

आजसे लगभग छः दशक पूर्वकी एक घटना है। उस समय एक मूर्धन्य तपस्वीने दुर्गासप्तशतीके नियमित पाठकी मुझे प्रेरणा दी थी, जो कि आज भी मेरी दैनिक प्रक्रिया बनी हुई है, जिसकी कृपा अनेक सत्-परिणाम दे चुकी है। मैं जयपुरमें उच्चपदपर कार्यरत था, परिवार प्रतिष्ठित था, किंतु सन्ततिके साथ यह समस्या थी कि सन्तान होते ही मृत्युमुखमें चली जाती थी। इसके अनेक दृष्ट और अदृष्ट उपाय किये जा रहे थे। इसी बीच एक बार मेरी भेंट पूज्य सन्त श्रीहरिहरानन्दनाथसे हुई, उन्हें जब मैंने अपने यहाँ चल रही कुलदेवी महाविद्याकी परम्पराके बारेमें बताया तो उन्होंने मुझे एक नियमित पाठकी प्रेरणा दी और कहा कि दिनमें कैसा भी नित्यकर्म करो, करते रहो; पर उसके साथ दुर्गासप्तशतीके एक नियमित साप्ताहिक पाठका व्रत भी ले लो, जो सब तरहकी कामनाओंकी पूर्ति करने वाला है।

एक सप्ताह में पूर्ण होनेवाले इस पाठका नाम उन्होंने बताया, 'पाठोऽयं वरकारः' (यह पाठ वरदायी है!) और इसकी अवधि एक सप्ताहकी बतायी, जो मंगलवारको प्रारम्भ होगी, सोमवारको पूरी होगी। दुर्गासप्तशतीके तेरह अध्याय सात दिनमें पूरे होंगे, जिनका क्रम प, ठ, य, व, र, क, र इन अक्षरोंके अनुरूप होगा। यही 'पाठोयं वरकारः' बनेगा। 'प' अपने वर्गका पहला अक्षर है, अतः पहले दिन पहला अध्याय होगा। 'ठ' अपने वर्गका दूसरा अक्षर है, अतः दूसरे दिन अगले दो अध्याय होंगे। 'य' पहला अक्षर है ( य र ल व) अतः तीसरे दिन एक अध्याय (चौथा) होगा। 'व' चौथा अक्षर है, अतः चौथे दिन चार अध्याय होंगे। 'र' दूसरा अक्षर हैं, अतः पाँचवें दिन दो अध्याय होंगे। 'क' पहला अक्षर है, अतः छठे दिन एक अध्याय होगा। अन्तिम अक्षर 'र' दूसरा है, अतः अन्तिम सातवें दिन अन्तिम दो अध्याय होंगे। इस प्रकार साप्ताहिक पाठ पूरा होगा। प्रतिदिन अधिक समय नहीं देना होगा। पाँच-दस मिनटका यह वरदायी पाठ क्या फल देता है, यह तुम स्वयं अनुभव कर लोगे, ऐसा उन सन्तने कहा।

अगले मंगलवारसे मैंने यह नियमित पाठ प्रारम्भ किया, जो आजतक चल रहा है। इसे आजतक गोपनीय ही रखा है, किंतु अब आयु पूरी होने जा रही है, अतः 'कल्याण' को इस रहस्यको सूचित करनेकी मनमें प्रेरणा हुई है। इस वरदायी पाठसे मुझे निरन्तर सत्परिणाम प्राप्त होते रहे। एक-से-एक उच्चपद प्राप्त हुए तथा इसके बाद हुई सन्तान जीवित रही, स्वस्थ रही। सचमुच वरदायी सिद्ध हुआ है 'पाठोयं वरकार'।

इस प्रकारके नियमित पाठके क्रम आध्यात्मिक और मानसिक शक्ति भी देते हैं, इष्टदेवका वरदान भी इनके माध्यमसे मिलता है, अतः समस्त भारतमें ऐसे नियमित पाठोंकी परम्पराएँ सदियोंसे चली आ रही हैं। ये इस धर्मप्राण देशकी विशिष्ट आत्मबल देनेवाली परम्पराएँ हैं।

[ महामहोपाध्याय देवर्षि श्रीकलानाथजी शास्त्री ]



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varadaayee raha saptashatee paatha

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is prakaarake niyamit paathake kram aadhyaatmik aur maanasik shakti bhee dete hain, ishtadevaka varadaan bhee inake maadhyamase milata hai, atah samast bhaaratamen aise niyamit paathonkee paramparaaen sadiyonse chalee a rahee hain. ye is dharmapraan deshakee vishisht aatmabal denevaalee paramparaaen hain.

[ mahaamahopaadhyaay devarshi shreekalaanaathajee shaastree ]

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