पुरुषोत्तमक्षेत्र - जगदीशपुरीमें राजा प्रतापरुद्रके समयमें गोविन्दपुर ग्राम एक प्रधान तीर्थस्थल था। उसी गोविन्दपुरमें हमारे चरितनायक परम पूज्य भक्त श्रीगङ्गाधरदासजीका निवासस्थान था। उनकी स्त्रीका नाम था श्रियाजी। ये परम सती और साध्वी थीं, स्वामीको बहुत प्रिय थीं; पर इनके कोई सन्तान न थी। ये जातिके बनिये थे। सन्तान न होनेपर भी इनको कोई सोच न था । भक्त गङ्गाधरजी साधारण वाणिज्य-व्यापार करके जीविकानिर्वाह करते हुए श्रियाजी सहित भगवद्धजनमें ही अपना जीवन बिताते रहे। संतसेवा करते हुए बहुत दिन बीत गये, वृद्धावस्था आ गयी।
एक दिनकी बात है कि ग्रामवासियोंके तानोंसे तंग आकर साध्वी स्त्रीने अपने पतिसे कहा-'जहाँ-तहाँ घर-बाहर गाँवकी स्त्रियाँ मुझे ताने मारा करती हैं; पर हमारे भाग्यमें तो संतान है ही नहीं, चाह करनेपर भी कैसे मिल सकती है। हाँ, एक बात सम्भव है-वह यह कि आप किसी एक ब्राह्मणबालकका यज्ञोपवीत करा दीजिये, विवाह कर दीजिये अथवा किसी दरिद्रकुलका कोई लड़का मोल लेकर उसको पुत्र मानकर पालिये, उसीको गोद ले लीजिये।'
पत्नीके वेदनाभरे वचनोंको सुनकर गङ्गाधरजीने उसे ढाढ़स दिया और बोले— 'हम निश्चय ही आज एक लड़का ले आयेंगे, तुम उसे पुत्रवत् पालन करना।' इतना कहकर कुछ रुपये लेकर वे वहाँको चले, जहाँ भगवान्के अर्चाविग्रह बनते थे। कुछ धन देकर वे श्रीकृष्णजीकी सर्वलक्षणसम्पन्न एक प्रतिमा लेकर घर आये और श्रियाजीको वह विग्रह देकर कहा - 'इसकी अच्छी तरह सेवा-शुश्रूषा करती रहो इससे इस लोकमें निर्वाह, लोकापवादसे मुक्ति और परलोकमें भवबन्धनसे मुक्ति मिलेगी। देखो, प्रिये ! इन्हीं श्रीकृष्णमें यशोदामैयाने पुत्रभाव रखकर अपना उद्धार कर लिया था। ब्रह्मादि देवता भी इन्हींका भजन करते हैं, इन प्रभुको छोड़कर जीवका उद्धार करनेवाला दूसरा कोई नहीं है। तुम्हारी समस्त कामनाएँ पूर्ण करनेवाले ये श्रीकृष्ण हैं।'
पतिदेवकी आज्ञा मानकर श्रिया वैसे ही करने लगी। भगवान् श्रीकृष्णके अर्चाविग्रहको मार्जन-स्नान कराके उन्हें ।सिंहासनपर पधराकर उत्तम उत्तम भोग लगाती। मन. ही-मन विचार करके कि 'बहुत दिनोंपर हमें पुत्र मिल है, हमलोग इसे देखकर सुखपूर्वक रहेंगे और शरीर होनेपर इसकी कृपासें हमें मुक्ति भी मिल जायगी-बहुत ही आनन्दित होती। जैसे माताको अपने छोटे बच्चेका | लाड़-प्यार-दुलार अत्यन्त भाता है, वैसे ही इस अव | शिशुके दुलार-प्यार-सेवामें श्रियाका नित्य नया चाव बढ़ता हो जाता था। भक्त गङ्गाधरजीका भी वात्सल्य श्रियाजसे किसी भाँति कम न था। कोई भी ऐसी वस्तु ग्राममें बिकने आती, जो बच्चोंको प्रिय लगती है और जिसको बच्चे मासे हठ करके लिया करते हैं, गङ्गाधर स्वयं लाकर उसे श्रीबालगोपालको भोग लगाते। हाटसे मीठे-मीठे पदार्थ तुरंत पुत्रके पास लाकर निवेदन करते। माता निरन्तर बच्चेको गोदमें रखती, एक क्षण भी अलग करना न चाहती। पुत्रके लिये रसोई बनानेके समय भी उसका चित पुत्रमें ही लगा रहता। क्षण-क्षणपर रसोई छोड़कर पुत्रको देखने चली आती और देखकर सुखी होती। फिर जाती, फिर आती। कभी-कभी आकर गोदमें जोरसे चिपटाकर कहती 'मैं बड़ी अभागिनी हूँ। तुझे अकेला छोड़कर चली जाती हूँ।' यह कहकर माता श्रीकृष्णका मुख चूम लेती, उनका सिर सूँघती। पुत्रस्नेह छोड़कर दम्पतिका सांसारिक पदार्थोंमें भूलकर भी चित्त नहीं जाता था। इस पुत्रपर पिताका भाव मातासे भी अधिक था।
इस तरह वात्सल्यभावमें पगे हुए दम्पतिको बहुत काल बीत गया। एक दिन गङ्गाधरजीने स्त्रीसे कहा-'मैं हाट जाता हूँ, मेरे श्रीकृष्णकी देखभाल करती रहना |इसकी सेवा-सँभाल तेरे जिम्मे है। देख, एक क्षण भी इसे अकेला छोड़कर कहीं जाना नहीं'–यों कहकर उन्होंने पुत्रसे भी किसी प्रकार वात्सल्यभरे स्नेहपगे वचन कहे और उसके चरणोंमें चित्त देकर वाणिज्यके लिये चले गये। परंतु पुत्रवियोगमें उनका चित्त अत्यन्त व्याकुल होने लगा, एक-एक क्षण कल्प-समान बीतने लगा। अतएव कुछ अपूर्व फल, मिष्टान्न, पक्वान्न, जो गोविन्दपुरमें नहीं | मिलते थे, लेकर घर लौट चले। पुत्रदर्शनकी लालसामें वृद्ध | गङ्गाधर सुध-बुध खोये उतावलीमें चले जा रहे थे किग्राममें प्रवेश करते ही एकाएक ठोकर लगनेसे पैर लड़खड़ाया और वे धड़ामसे जमीनपर गिर पड़े तथा उसी क्षण शरीररूपी पिंजरे से उनके प्राणपखेरू उड़ गये। प्राण निकलते समय उनके हृदयमें विरहाग्नि धधक रही थी। अतः सहसा उनके मुखसे निकल पड़ा-'हा बेटा कृष्ण! मैं तुझे देख न पाया। मैं बड़ा ही पापी हूँ।'' कृष्ण-कृष्ण' कहते हुए उनका शरीर छूट गया। ग्रामवासियोंने श्रीश्रियाजीको खबर दी। वह सती उस समय पुत्रके लिये भोजन बना रही थी। पतिका मृत्यु समाचार सुन वह शोकसे आतुर होकर पुत्रके पास पहुँची और पुकारकर कहने लगी- 'अरे मेरे कृष्ण ! ओ मेरे कृष्ण ! तू तो अरक्षितका भाई है, दीनोंका मित्र है, वंशीधर है, जगत्को मोहित करनेवाला है। अरे, तेरा पिता राहमें मर गया, मैं क्या करूँ? रे बेटा! तुझसे पूछती हूँ, तू मुझे बता, मैं क्या करूँ?' भक्तके वशमें रहनेवाले भक्तवत्सल भगवान् माताके वचन सुनकर उनकी भक्तिके वश होकर उनके पुत्रभावको पूर्ण करनेके लिये कहने लगे- 'मैया! तुम निश्चिन्त रहो, चिन्ता मत करो। मेरे पिता मरे नहीं हैं। वे थककर पत्थरपर रास्तेमें सो गये हैं, तुम जाकर उनको उठाओ और कहो कि बच्चेको अकेला छोड़कर यहाँ क्यों पड़े हो? चलो, लल्ला बुला रहा है। '
पुत्रके वचन सुनते ही वह पतिके पास गयी, देखा कि उनके शरीरमें प्राण नहीं हैं। पर क्या करती? कृष्णकी आज्ञा थी, इसलिये उनके मस्तकपर हाथ रखकर कहने लगी - 'प्राणनाथ ! मैं पुत्रको अकेला छोड़कर यहाँ चली आयी, मेरे साथ कोई नहीं है, अब तुरंत चलिये; देखिये, हमलोगोंकी तो पुत्रसेवा ही सर्वस्व है।' यह सुनते ही वे तुरंत इस तरह उठ बैठे, जैसे कोई सोकर उठता हो। उठते ही विकलतासे पूछा, 'बताओ, तुम यहाँ क्यों आयी? अरे ! मेरा लाल कृष्ण कहाँ है, उसे अकेला कहाँ छोड़ आयी?' उसने सब हाल बता दिया। तुरंत ही दम्पति 'कृष्ण-कृष्ण' पुकारते हुए पुत्रके पास आये। गङ्गाधरने सबसे पहले सब फल- मिष्टान्न पुत्रको निवेदन किये पुत्रको देखकर वे आनन्दमें फूले नहीं समाते थे। उस निरतिशयानन्दमें दम्पति देहसुध भूलकर पुत्रको गोदमें ले-लेकर उसका मुख चूमने लगे। भक्त-दम्पति उसे एक-दूसरे से बार-बार गोदमें लेते, हृदयसे लगाते, प्यार करते। अब वे दोनों पुत्रकी पहले से कोटिगुनी अधिक सेवा करने लगे। रात्रिमें जब शयनकासमय आया, वात्सल्य में विहल होकर भक्त गङ्गाधर कहने लगे-'अरे मेरे लाल तेरा वियोग मुझसे सहा नहीं जाता। पेटकी ज्वाला ऐसी प्रबल है कि बिना उसको आहुति दिये काम नहीं चलता, भोजन बिना रहा नहीं जाता और उसके कारण बाजार जाना और व्यापार करना ही पड़ता है!' पिताके वचन सुनकर अन्तर्यामी भगवान् मुसकराकर कहने लगे- 'पिताजी! आप चिन्ता न करें, मुझ- सरीखे पुत्रके रहते आपको किस वस्तुका अभाव है? आपने जो कामना की है, वह पूर्ण होगी। आपका घर धन-धान्यसे पूर्ण हो जायगा, इसमें जरा भी संशय नहीं।'
दिव्य स्वरूपसे साक्षात् प्रकट हो इस प्रकार कहकर फिर भगवान् अन्तर्धान हो गये। घर धन-धान्यसे पूर्ण हो गया, पर भगवान् चले गये, सिंहासन खाली हो गया।
सिंहासन खाली देख दम्पतिके होश उड़ गये पृथ्वीपर गिरकर अपनेको हतभाग्य मानकर करुण क्रन्दन करने लगे। गङ्गाधरने रोकर कहा-'हाय! मेरे लोभके कारण श्रीकृष्णने हमारा त्याग कर दिया! मुझसे भूल हुई, पर प्यारे लाल ! तूने क्यों भूल की? अच्छा गये तो भी हर्ज नहीं; पर हमें क्यों न साथ ले लिया? लाल! तेरे वियोगमें यह पापी प्राण रहकर क्या करेगा" ।' इस तरह करुणापूर्ण विलाप करते हुए और श्रीकृष्ण श्रीकृष्ण कहते हुए गङ्गाधरने शरीर छोड़ दिया। सत्य प्रेमकी जय! भक्त गङ्गाधरकी जय !
पतिके मृत शरीरको गोदमें लेकर श्रिया पुत्रका स्मरण करती हुई सोचने लगी कि 'मैं अब इस क्षणभङ्गुर देहको रखकर क्या करूँगी? सतीधर्मका अनुकरणकर सबेरे ही सती हो जाऊँगी।' सोचमें ही रात बीत गयी, सवेरा हुआ। उधर उसने सारा धन लुटा दिया, घरमें कुछ भी न रखा। फिर चिता बनाकर पतिको गोदमें लेकर कृष्ण-कृष्ण उच्चारण करती हुई वह सती हो गयी। श्रीलक्ष्मीजीसहित श्रीमनारायण भगवान् विमानपर उसी जगह आ पहुँचे, अग्निसे दम्पति दिव्य शरीरसे निकलकर उस विमानपर सवार हो वैकुण्ठको गये। लोगोंको केवल यह दीख पड़ा कि बिजलीका-सा प्रकाश आकाशमें छाया है। कुछ ही क्षणों बाद वह प्रकाश नेत्रोंके सामने गायब हो गया। सब एक स्वरसे 'धन्य धन्य' कहकर पुकार उठे।
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patike mrit shareerako godamen lekar shriya putraka smaran karatee huee sochane lagee ki 'main ab is kshanabhangur dehako rakhakar kya karoongee? sateedharmaka anukaranakar sabere hee satee ho jaaoongee.' sochamen hee raat beet gayee, savera huaa. udhar usane saara dhan luta diya, gharamen kuchh bhee n rakhaa. phir chita banaakar patiko godamen lekar krishna-krishn uchchaaran karatee huee vah satee ho gayee. shreelakshmeejeesahit shreemanaaraayan bhagavaan vimaanapar usee jagah a pahunche, agnise dampati divy shareerase nikalakar us vimaanapar savaar ho vaikunthako gaye. logonko keval yah deekh pada़a ki bijaleekaa-sa prakaash aakaashamen chhaaya hai. kuchh hee kshanon baad vah prakaash netronke saamane gaayab ho gayaa. sab ek svarase 'dhany dhanya' kahakar pukaar uthe.