आँबेरके प्रसिद्ध महाराजा मानसिंहजीके छोटे भाईका नाम राजा माधोसिंह था। इनकी पत्नीका नाम था रत्नावती रत्नावतीका वदन जैसा सुन्दर था, वैसा ही उनका मन भी सद्गुण और सद्विचारोंसे सुसज्जित था । पति-चरणोंमें उनका बड़ा प्रेम था। स्वभाव इतना मधुर और पवित्र था कि जो कोई उनसे बात करता, वही उनके प्रति श्रद्धा करने लगता। महलकी दासियाँ तो उनके सद्व्यवहारसे मुग्ध होकर उन्हें साक्षात् जननी समझतीं। रत्नावतीजीके महलमें एक दासी बड़ी ही भक्तिमती थी। भगवान् अपने प्रेमियोंके सामने लीला प्रकाश करनेमें सङ्कोच नहीं करते। वह भाग्यवती पुण्यशीला दासी भी ऐसी ही एक पवित्र प्रेमिका थी। अखिलरसामृतसिन्धु भगवान् उसके सामने भाँति-भाँति की लीला करके उसे आनन्द समुद्र में डुबाये रखते थे रानीका हृदय उसकी ओर खिंचा। वे बार-बार उसकी इस लोकोत्तर अवस्थाको देखनेकी पेश करतों देखते देखते रानीके मनमें भी प्रेम उत्पन्न होने लगा। हमारे शरीरके अंदर हृदयमें जिस प्रकारके विचारों के परमाणु भरे रहते हैं, उसी प्रकारके परमाणु स्वाभाविक ही हमारे रोम-रोमसे सदा बाहर निकलते रहते हैं। पापी विचारवाले मनुष्योंके शरीरसे पापके परमाणु, पुण्यात्माके शरीरसे पुण्यके, ज्ञानियोंके शरीरसे ज्ञानके और प्रेमी भक्तोंके शरीरसे प्रेमके ये परमाणु अपनी शक्तिके तारतम्यके अनुसार अनुकूल अथवा प्रतिकूल वायुमण्डलके अनुरूप बाहर फैलते हैं और उस वातावरणमें जो कुछ भी होता है, सबपर अपना असर डालते हैं। यह नियमकी बातहै। और जिनके अंदर जो भाव-परमाणु अधिक मात्रा में और अधिक घने होते हैं, उनके अंदरसे वे अधिक निकलते हैं और अधिक प्रभावशाली होते हैं। उस प्रेममयी दासीका हृदय पवित्र प्रेमसे भरा था। भरा ही | नहीं था, उसमें प्रेमकी बाढ़ आ गयी थी प्रेम उस समाता नहीं था। बरबस बाहर निकला जाता था। उस प्रेमने रानीपर अपना प्रभाव जमाया। एक दिन दासीके मुँहसे बड़ी ही व्याकुलतासे भरी हे नवलकिशोर है नन्दनन्दन! हे व्रजचन्द्र !' की पुकार सुनकर रानी भी व्याकुल हो गयीं। उन्हें इस दुर्लभ दशाको पाकर बड़ा ही आनन्द मिला।
अब तो रानी उस दासौके पीछे पड़ गयीं और उससे बार-बार पूछने लगीं कि "बता, तुझे यह प्रेम कैसे प्राप्त हुआ? भगवान् के नाममें इतना माधुर्य तूने कैसे भर दिया? अहा, कितना जादू है उन नामोंमें! मैं तेरे मुँह से जब 'हा नन्दनन्दन!' 'हा व्रजचन्द्र!' सुनती हूँ, तब देहकी सुधि भूल जाती हूँ, मेरा हृदय बरबस उन मधुर नामोंकी और खिंच जाता है और आँखों आँसू निकल पड़ते हैं। बता, बता, मुझको यह माधुरी निरन्तर कैसे मिलेगी, मैं कैसे उनकी मोहिनी मूर्ति देख सकूँगी। जिनके नामोंमें इतना आकर्षण है, इतना माधुर्य है और इतना रस भरा हुआ है-बता, मैं उन्हें कैसे देख पाऊँगी? और कैसे उनकी मधुर मुरली सुन सकूँगी? मुझे भगवान्के प्रेमका वह रहस्य बतला, जिसमें तू निरन्तर डूबी रहती है और जिसके एक कणका दूरसे दर्शन करके ही मेरी ऐसी दशा हो चली है।"दासीने पहले-पहले तो टालनेको कोशिश की; परंतु जब रानी बहुत पीछे पड़ीं, तब एक दिन उसने कहा, 'महारानीजी! आप यह बात मुझसे न पूछिये आप राजमहलके सुखोंको भोगिये। क्यों व्यर्थ इस मार्गमें आकर दुःखोंको निमन्त्रण देकर बुलाती हैं? यह रास्ता काँटोंसे भरा है। इसमें कहीं सुखका नामोनिशान नहीं है। पद-पदपर लहूलुहान होना पड़ता है, तब कहीं इसके समीप पहुँचा जा सकता है। पहुँचनेपर तो अलौकिक आनन्द मिलता है; परंतु मार्गकी कठिनाइयाँ इतनी भयानक हैं कि उनको सुनकर ही दिल दहल जाता है। रात-दिन हृदयमें भट्ठो जली रहती है, आँसुओंकी धारा बहती है; परंतु वह इस आगको बुझाती नहीं, घी बनकर इसे और भी उभाड़ती है। सिसकना और सिर पीटना तो नित्यका काम होता है। आप राजरानी हैं, भोग-सुखोंमें पत्नी-पोसी हैं, यह पंथ तो विषयविरागियोंका है— जो संसारके सारे भोग सुखोंसे नाता तोड़ चुके हैं या तोड़ने को तैयार हैं। और कहाँ यदि मोहनकी तनिक सी माधुरी देखनेको मिल गयी, फिर तो सर्वस्व हो हाथसे चला जायगा। इसलिये न तो यह सब पूछिये और न उस ओर ताकिये ही।'
यह सब सुनकर रानी रत्नावतीको उत्कण्ठा और भी बढ़ गयी। वे बड़े आग्रहसे श्रीकृष्णप्रेमका रहस्य पूछने लगीं। आखिर उनके मनमें भोग-वैराग्य देखकर तथा उन्हें अधिकारी जानकर श्रीकृष्णप्रेममें डूबी हुई दासीने उन्हें श्रीकृष्ण प्रेमका दुर्लभ उपदेश किया।
अब तो दासी रानीकी गुरु हो गयी, रानी गुरुबुद्धिसे उसका आदर-सत्कार करने लगीं। विलासभवन भगवान्का लीलाभवन बन गया। दिन-रात हरिचर्चा और उनकी अनूप रूपमाधुरीका बखान होने लगा। सत्सङ्गका प्रभाव होता ही है, फिर सच्चे भगवत्प्रेमियोंके सङ्गका तो कहना ही क्या। रानीका मन-मधुकर श्यामसुन्दर व्रजनन्दनके मुखकमलके मकरन्दका पान करनेके लिये छटपटा उठा। वे रोकर दासीसे कहने लगी-
'कछुक उपाय कीजै, मोहन दिखाय दीजै,
तब ही तो जीजै, वे तो आनि डर अरे हैं।'
'कुछ उपाय करो, मुझे मोहनके दर्शन कराओ; तभीयह जीवन रहेगा। अहा थे मेरे हृदयमें आकर अड़ गये हैं।'
दासीने कहा-'महारानी दर्शन सहज नहीं है, जो लोग राज छोड़कर धूलमें लुट पड़ते हैं तथा अनेकों उपाय करते हैं, वे भी उस रूपमाधुरीके दर्शन नहीं पाते। हाँ, उन्हें वशमें करनेका एक उपाय है-वह है प्रेम । आप चाहें तो प्रेमसे उन्हें अपने वश कर सकती हैं।'
रानीके मनमें जँच गया था कि भगवान्से बढ़कर मूल्यवान् वस्तु और कुछ भी नहीं है। इस लोक और परलोकका सब कुछ देनेपर भी यदि भगवान् मिल जायें तो बहुत सस्ते ही मिलते हैं। जिसके मनमें यह निश्चय हो जाता है कि श्रीहरि अमूल्य निधि हैं और वे ही मेरे परम प्रियतम हैं, वह उनके लिये कौन से त्यागको बड़ी बात समझता है वह तन-मन, भोग-मोक्ष सब कुछ समर्पण करके भी यही समझता है कि मेरे पास देने को है ही क्या और वास्तवमें बात भी ऐसी ही है। भगवान् तन-मन, साधन प्रयत्न या भोग मोक्षके बदले में थोड़े ही मिल सकते हैं। वे तो कृपा करके ही अपने दर्शन देते हैं और कृपाका अनुभव उन्हींको होता है, जो संसारके भोगोंको तुच्छ समझकर केवल उन्हींसे प्रेम करना चाहते हैं। रानी रत्नावतीके मनमें यह प्रेमका भाव कुछ-कुछ जाग उठा। उन्होंने दासी गुरुकी अनुमतिके अनुसार नीलमका एक सुन्दर विग्रह बनाकर तन-मन धनसे उसकी सेवा आरम्भ की। वे अब जाग्रत, स्वप्न दोनों ही स्थितियोंमें भगवत्प्रेमका अपूर्व आनन्द लूटने लगीं। राजरानी भोगसे मुँह मोड़कर भगवत्प्रेमके पावन पथपर चल पड़ीं। एकके साथ दूसरों सजातीय वस्तु आप ही आती है। भजनके साथ-साथ संत समागम भी होने लगा। सहज कृपालु महात्मालोग भी कभी-कभी दर्शन देने लगे।
एक बार एक पहुँचे हुए प्रेमी महात्मा पधारे। वे वैराग्यकी मूर्ति थे और भगवत्प्रेममें झूम रहे थे। रानीके मनमें आया, मेरा रानीपन सत्सङ्गमें बड़ा बाधक हो रहा है परंतु यह रानीपन है तो आरोपित ही न? यह मेरा स्वरूप तो है ही नहीं, फिर इसे मैं पकड़े रहे और अपने मार्गमें एक बड़ी बाधा रहने दूं? उन्होंने दासी- गुरुसे पूछा- 'भला, बताओ तो मेरे इन अङ्गोंमें कौन-सा अङ्ग रानी है, जिसके कारण मुझे सत्सङ्गके महान् सुखसे विमुख रहना पड़ता है?' दासीने मुसकरा दिया। रानीने आज पद-मर्यादाका बाँध तोड़ दिया। दासीने रोका - परंतु वह नहीं मानी। जाकर महात्माके दर्शन किये और सत्सङ्गसे लाभ उठाया।
राज परिवारमें चर्चा होने लगी। रत्नावतीजीके स्वामी राजा माधोसिंह दिल्ली थे। मन्त्रियोंने उन्हें पत्र लिखा कि 'रानी कुलकी लज्जा मर्यादा छोड़कर मोडोंकी भीड़में जा बैठी है।' पत्र माधोसिंहके पास पहुँचा। पढ़ते ही उनके तन तनमें आग सी लग गयी। आँखें लाल हो गयीं। शरीर क्रोधसे काँपने लगा। दैवयोगसे रत्नावतीजीके गर्भसे उत्पन्न राजा माधोसिंहका पुत्र कुँवर प्रेमसिंह वहाँ आ पहुँचा और उसने पिताके चरणोंमें सिर टेककर प्रणाम किया। प्रेमसिंहपर भी माताका कुछ असर था। उसके ललाटपर तिलक और गलेमें तुलसोकी माला शोभा पा रही थी। एक तो राजाको क्रोध हो हो रहा था, फिर पुत्रको इस प्रकारके वैशमें देखकर तो उनको बहुत हो क्षोभ हुआ। राजाने अवज्ञाभरे शब्दोंमें तिरस्कार करते हुए कहा, 'आमोडीका 'साधुनीके लड़के, आ पिताकी भाव-भंगी देखकर और उनकी तिरस्कारयुक्त वाणी सुनकर राजकुमार बहुत ही दुःखी हुआ और चुपचाप वहाँसे चला गया।
लोगों से पूछनेपर पिताकी नाराजीका प्रेमसिंहको पता लगा। प्रेमसिंह संस्कारी बालक था। उसके हृदयमें पूर्वजन्मको भक्तिके भाव थे और थी माताकी शिक्षा । उसने विचारा- 'पिताजीने बहुत उत्तम आशीर्वाद दिया, जो मुझे 'मोडीका लड़का कहा अब तो मैं सचमुच मोडीका लड़का मोडा (साधु) ही बनूँगा।' यह सोचकर वह माताको भक्तिपूर्ण भावनापर बड़ा ही प्रसन्न हुआ और उसी क्षण उसने माताको पत्र लिखा-
'माताजी! तुम धन्य हो, जो तुम्हारे हृदयमें भगवान्की भक्ति जाग्रत हुई है और तुम्हारा मन भगवान्की औरलगा है। भगवान्की बड़ी कृपासे ही ऐसा होता है। अब तो इस भक्तिको सर्वथा सच्ची भक्ति बनाकर ही छोड़ो। प्राण चले जायें, पर टेक न जाय। पिताजीने आज मुझे 'मोडीका लड़का' कहा है। अतएव अब मैं सचमुच मोडीका ही पुत्र बनना और रहना चाहता हूँ देखो, मेरी यह प्रार्थना व्यर्थ न जाय।'
पत्र पढ़ते ही रानीको प्रेमावेश हो गया। अहा! सच्चा पुत्र तो वही है जो अपनी माताको श्रीभगवान्की और जानेके लिये प्रेरणा करता है और उसमें उत्साह भरता है! वे प्रेमके पथपर तो चढ़ हो चुकी थीं। आजसे राजवेश छोड़ दिया, राजसी गहने-कपड़े उतार दिये, इत्र- फुलेलका त्याग कर दिया और सादी पोशाक रहकर भजन-कीर्तन करने लगीं। पुत्रको लिख दिया- 'भई मोडी आज, तुम हित करि जाँचियो।' 'मैं आज सचमुच मोदी हो गयी है, प्रेमसे आकर जाँच लो।'
कुँअर प्रेमसिंहको पत्र मिलते ही यह आनन्दसे नाच उठा बात राजा माधोसिंहतक पहुंची, उन्हें बड़ा भ हुआ और वे पुत्रको मारनेके लिये तैयार हो गये। मन्त्रियोंने माधोसिंहको बहुत समझाया, परंतु वह नहीं माना। इधर प्रेमसिंहको भी क्षोभ हो गया। आखिर लोगोंने दोनों को समझा-बुझाकर शान्त किया; परन्तु राजा माधोसिंहके मनमें रानीके प्रति जो क्रोध था, वह शन्त नहीं हुआ। वे रानीको मार डालनेके विचारसे रातको ही दिल्लीसे चल दिये। वे आँबेर पहुँचे और लोगों से मिले। लोगोंने रानीकी बातें सुनायीं। रानीके विरोधियोंने कुछ बढ़ाकर कहा, जिससे माधोसिंहका क्षोभ और भी बढ़ गया।
कई कुचक्रियों से मिलकर माधोसिंह रानीको मारने की तरकीब सोचने लगे। आखिर षड्यन्त्रकारियोंने यह निश्चय किया कि पिंजरेमें जो सिंह है, उसे ले जाकर रानीके महलमें छोड़ दिया जाय। सिंह रानीको भार डालेगा, तब सिंहको पकड़कर यह बात फैला दी जायगी कि सिंह पिंजरे छूट गया था, इससे यह दुर्घटना होगयी। निश्चयके अनुसार ही काम किया गया, महलमें सिंह छोड़ दिया गया। रानी उस समय पूजा कर रही थीं; दासीने सिंहको देखते ही पुकारकर कहा-'देखिये, सिंह आया।'
रानीकी स्थिति बड़ी विचित्र थी, हृदय आनन्दसे भरा था, नेत्रों में अनुरागके आँसू थे, इन्द्रियाँ तमाम सेवामें लगी थीं। उन्होंने सुना ही नहीं। इतनेमें सिंह कुछ समीप आ गया, दासीने फिर पुकारकर कहा-'रानीजी सिंह आ गया।' रानीने बड़ी शान्तिसे कहा, 'बड़े ही आनन्दकी बात है, आज मेरे बड़े भाग्यसे मेरे प्रह्लादके स्वामी श्रीनृसिंहजी पधारे हैं, आइये, इनकी पूजा करें।' इतना कहकर रानी पूजाकी सामग्री लेकर बड़े ही सम्मानके साथ पूजा करने दौड़ीं। सिंह समीप आ ही गया था; परंतु अब वह सिंह नहीं था रत्नावतीजीके सामने तो साक्षात् श्रीनृसिंहजी उपस्थित थे। रानीने बड़े ही सुन्दर, मनोहर और आकर्षक रूपमें परम शोभासम्पन्न भगवान् नृसिंहदेवके दर्शन किये। उन्होंने प्रणाम करके पाद्य-अर्घ्य दिया, माला पहिनायी, तिलक दिया, धूप दीप किया, भोग लगाया और प्रणाम आरती करके वे उनकी स्तुति करने लगीं।
कुछ ही क्षणों बाद सिंहरूप प्रभु महलसे निकले और जो लोग पिंजरा लेकर रत्नावतीजीको सिंहसे मरवाने आये थे, सिंहरूप प्रभुने बात की बातमें उनको परलोक पहुँचा दिया और स्वयं मामूली सिंह बनकर पिंजरे में प्रवेश कर गये।
लोगोंने दौड़कर राजा माधोसिंहको सूचना दी कि 'रानीने श्रीनृसिंह भगवान् मानकर सिंहकी पूजा की, सिंहने उनकी पूजा स्वीकार कर ली और बाहर आकर आदमियोंको मार डाला; रानी अब आनन्दसे बैठी भजन कर रही हैं।
अब तो माधोसिंहकी आँखें खुलीं। भक्तका गौरव उनके ध्यानमें आया। सारी दुर्भावना क्षणभरमै नष्ट हो गयी। राजा दौड़कर महलमें आये और प्रणाम करनेलगे। रानी भगवत्सेवामै तल्लीन थीं। दासीने कहा- 'महाराज प्रणाम कर रहे हैं।' तब रानीने इधर ध्यान दिया और वे बोली कि 'महाराज श्रीनन्दलालजीको प्रणाम कर है' रानीकी दृष्टि भगवान गड़ी हुई थी। राजाने नम्रतासे कहा-'एक बार मेरी और तो देखो।' रानी बोलीं- 'महाराज क्या करूँ, ये आँखें इधर हटती ही नहीं मैं बेबस हूँ।' राजा बोले- 'सारा राज और धन तुम्हारा है, तुम जैसे चाहो, इसे काम लाओ।" रानीने कहा-'स्वामिन् । मेरा तो एकमात्र धन ये मेरे श्यामसुन्दर हैं, मुझे इनके साथ बड़ा ही आनन्द मिलता है। आप मुझको इन्हींमें लगी रहने दीजिये।'
राजा प्रेम और आनन्दमें गदद हो गये और रानीकी भक्ति के प्रभावसे उनका चित भी भगवान्की और खिंचने लगा। जिनकी ऐसी भक्त पत्नी हो, उनपर भगवान् की कृपा क्यों न हो। घरमें एक भी भक्त होता है तो वह कुलको तार देता है।
एक समय महाराजा मानसिंह अपने छोटे भाई माधोसिंहके साथ किसी बड़ी भारी नदीको नावसे पार कर रहे थे। तूफान आ गया, नाव डूबने लगी। मानसिंहजीने घबराकर कहा-'भाई। अब तो बचनेका कोई उपाय नहीं है।' माधोसिंह बोले-'आपकी अनुजवधू अर्थात् मेरी पत्नी बड़ी भक्ता है, उसकी कृपासे हमलोग पार हो जायेंगे।' दोनोंने रानी रत्नावतीका ध्यान किया। जादूकी तरह नाव किनारे लग गयी। दोनों भाई नया जन्म पाकर आनन्दमग्न हो गये। यह तो मामूली नाव थी और नदी भी मामूली ही थी। भगवान्के सच्चे भक्तका आश्रय करके तो बड़े से बड़ा पापी मनुष्य बात की बात में दुस्तर भवसागर से तर जा सकता है। विश्वास होना चाहिये।
अब तो मानसिंहजीके मनमें रानीके दर्शनकी लालसा जाग उठी, आकर उन्होंने दर्शन किया। रानीका जीवन प्रेममय हो गया। वह अपने प्रियतम श्यामसुन्दरके साथ घुल मिल गयीं।
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'kuchh upaay karo, mujhe mohanake darshan karaao; tabheeyah jeevan rahegaa. aha the mere hridayamen aakar ada़ gaye hain.'
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'maataajee! tum dhany ho, jo tumhaare hridayamen bhagavaankee bhakti jaagrat huee hai aur tumhaara man bhagavaankee auralaga hai. bhagavaankee bada़ee kripaase hee aisa hota hai. ab to is bhaktiko sarvatha sachchee bhakti banaakar hee chhoda़o. praan chale jaayen, par tek n jaaya. pitaajeene aaj mujhe 'modeeka lada़kaa' kaha hai. ataev ab main sachamuch modeeka hee putr banana aur rahana chaahata hoon dekho, meree yah praarthana vyarth n jaaya.'
patr padha़te hee raaneeko premaavesh ho gayaa. ahaa! sachcha putr to vahee hai jo apanee maataako shreebhagavaankee aur jaaneke liye prerana karata hai aur usamen utsaah bharata hai! ve premake pathapar to chadha़ ho chukee theen. aajase raajavesh chhoda़ diya, raajasee gahane-kapada़e utaar diye, itra- phulelaka tyaag kar diya aur saadee poshaak rahakar bhajana-keertan karane lageen. putrako likh diyaa- 'bhaee modee aaj, tum hit kari jaanchiyo.' 'main aaj sachamuch modee ho gayee hai, premase aakar jaanch lo.'
kunar premasinhako patr milate hee yah aanandase naach utha baat raaja maadhosinhatak pahunchee, unhen bada़a bh hua aur ve putrako maaraneke liye taiyaar ho gaye. mantriyonne maadhosinhako bahut samajhaaya, parantu vah naheen maanaa. idhar premasinhako bhee kshobh ho gayaa. aakhir logonne donon ko samajhaa-bujhaakar shaant kiyaa; parantu raaja maadhosinhake manamen raaneeke prati jo krodh tha, vah shant naheen huaa. ve raaneeko maar daalaneke vichaarase raatako hee dilleese chal diye. ve aanber pahunche aur logon se mile. logonne raaneekee baaten sunaayeen. raaneeke virodhiyonne kuchh badha़aakar kaha, jisase maadhosinhaka kshobh aur bhee badha़ gayaa.
kaee kuchakriyon se milakar maadhosinh raaneeko maarane kee tarakeeb sochane lage. aakhir shadyantrakaariyonne yah nishchay kiya ki pinjaremen jo sinh hai, use le jaakar raaneeke mahalamen chhoda़ diya jaaya. sinh raaneeko bhaar daalega, tab sinhako pakada़kar yah baat phaila dee jaayagee ki sinh pinjare chhoot gaya tha, isase yah durghatana hogayee. nishchayake anusaar hee kaam kiya gaya, mahalamen sinh chhoda़ diya gayaa. raanee us samay pooja kar rahee theen; daaseene sinhako dekhate hee pukaarakar kahaa-'dekhiye, sinh aayaa.'
raaneekee sthiti bada़ee vichitr thee, hriday aanandase bhara tha, netron men anuraagake aansoo the, indriyaan tamaam sevaamen lagee theen. unhonne suna hee naheen. itanemen sinh kuchh sameep a gaya, daaseene phir pukaarakar kahaa-'raaneejee sinh a gayaa.' raaneene bada़ee shaantise kaha, 'bada़e hee aanandakee baat hai, aaj mere bada़e bhaagyase mere prahlaadake svaamee shreenrisinhajee padhaare hain, aaiye, inakee pooja karen.' itana kahakar raanee poojaakee saamagree lekar bada़e hee sammaanake saath pooja karane dauda़een. sinh sameep a hee gaya thaa; parantu ab vah sinh naheen tha ratnaavateejeeke saamane to saakshaat shreenrisinhajee upasthit the. raaneene bada़e hee sundar, manohar aur aakarshak roopamen param shobhaasampann bhagavaan nrisinhadevake darshan kiye. unhonne pranaam karake paadya-arghy diya, maala pahinaayee, tilak diya, dhoop deep kiya, bhog lagaaya aur pranaam aaratee karake ve unakee stuti karane lageen.
kuchh hee kshanon baad sinharoop prabhu mahalase nikale aur jo log pinjara lekar ratnaavateejeeko sinhase maravaane aaye the, sinharoop prabhune baat kee baatamen unako paralok pahuncha diya aur svayan maamoolee sinh banakar pinjare men pravesh kar gaye.
logonne dauda़kar raaja maadhosinhako soochana dee ki 'raaneene shreenrisinh bhagavaan maanakar sinhakee pooja kee, sinhane unakee pooja sveekaar kar lee aur baahar aakar aadamiyonko maar daalaa; raanee ab aanandase baithee bhajan kar rahee hain.
ab to maadhosinhakee aankhen khuleen. bhaktaka gaurav unake dhyaanamen aayaa. saaree durbhaavana kshanabharamai nasht ho gayee. raaja dauda़kar mahalamen aaye aur pranaam karanelage. raanee bhagavatsevaamai talleen theen. daaseene kahaa- 'mahaaraaj pranaam kar rahe hain.' tab raaneene idhar dhyaan diya aur ve bolee ki 'mahaaraaj shreenandalaalajeeko pranaam kar hai' raaneekee drishti bhagavaan gada़ee huee thee. raajaane namrataase kahaa-'ek baar meree aur to dekho.' raanee boleen- 'mahaaraaj kya karoon, ye aankhen idhar hatatee hee naheen main bebas hoon.' raaja bole- 'saara raaj aur dhan tumhaara hai, tum jaise chaaho, ise kaam laao." raaneene kahaa-'svaamin . mera to ekamaatr dhan ye mere shyaamasundar hain, mujhe inake saath bada़a hee aanand milata hai. aap mujhako inheenmen lagee rahane deejiye.'
raaja prem aur aanandamen gadad ho gaye aur raaneekee bhakti ke prabhaavase unaka chit bhee bhagavaankee aur khinchane lagaa. jinakee aisee bhakt patnee ho, unapar bhagavaan kee kripa kyon n ho. gharamen ek bhee bhakt hota hai to vah kulako taar deta hai.
ek samay mahaaraaja maanasinh apane chhote bhaaee maadhosinhake saath kisee bada़ee bhaaree nadeeko naavase paar kar rahe the. toophaan a gaya, naav doobane lagee. maanasinhajeene ghabaraakar kahaa-'bhaaee. ab to bachaneka koee upaay naheen hai.' maadhosinh bole-'aapakee anujavadhoo arthaat meree patnee bada़ee bhakta hai, usakee kripaase hamalog paar ho jaayenge.' dononne raanee ratnaavateeka dhyaan kiyaa. jaadookee tarah naav kinaare lag gayee. donon bhaaee naya janm paakar aanandamagn ho gaye. yah to maamoolee naav thee aur nadee bhee maamoolee hee thee. bhagavaanke sachche bhaktaka aashray karake to bada़e se bada़a paapee manushy baat kee baat men dustar bhavasaagar se tar ja sakata hai. vishvaas hona chaahiye.
ab to maanasinhajeeke manamen raaneeke darshanakee laalasa jaag uthee, aakar unhonne darshan kiyaa. raaneeka jeevan premamay ho gayaa. vah apane priyatam shyaamasundarake saath ghul mil gayeen.